Sunday 18 August 2013

कबीर-तुलसी के काव्यों में स्त्री-विरोध – सारदा बैनर्जी

                    




























भक्तिकालीन साहित्य में पाखंड-विरोध के समानांतर स्त्री-विरोध का स्वर भी स्पष्टतः मुखर हुआ है। खासकर कबीर जैसे प्रगतिशील और भक्त कवि ने अपने दोहों में स्त्री को दो रुपों में विभाजित कर उसका चरित्रांकन किया है। ये दो रुप हैं, ‘पातिव्रत्य’ रुप और ‘कामिनी’ रुप। कबीर ने नारी के कामिनी रुप की भरसक निंदा की है और पातिव्रत्य की उँचे कंठ से भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऐसी स्त्रियाँ जो अपने पति के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखती हैं और पति की सेवा को ही परम धर्म के रुप में स्वीकार करती हैं, पति को हर एक विपत्ति से मुक्त कराके स्वयं उन विपत्तियों को गले लगाती हैं, उन्हें ही कबीर एवं तुलसीदास जैसे भक्त कवियों ने नारी का दर्जा दिया है। ये पतिव्रता नारियां भले ही कुरुपा हों, काली हों लेकिन ये उन कामिनियों की तुलना में भली हैं और इन पर कोटि सुंदरियों को न्योछावर किया जा सकता है। कबीर कहते हैं, “पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप/ पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।” इसी तरह तुलसी भी लिखते हैं, “बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई।” यानी जो स्त्री बिना छल-कपट के पातिव्रत्य में मन-प्राण समर्पित करती है वह परम गति(स्वर्ग) को प्राप्त होती है। लेकिन बाकि सब स्त्रियां जो पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं या अपनी इच्छा के अनुरुप ज़िंदगी जीती है, पति के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुष को आकर्षित कर सकती हैं, उनके प्रति प्रेमासक्त हैं, वें सभी स्त्रियां कामिनियां हैं यानी माया हैं, मोहिनियां हैं, निंदनीया हैं और त्यागने की योग्या हैं। ये कामिनी स्त्रियां डेंजरस हैं, केवल पुरुषों को भटकाने का काम करती हैं और इनकी संगति से पुरुष किसी भी क्षण अंधे हो सकते हैं यानी मार्ग से भटक सकते हैं। कबीर कहते हैं, “नारी की झांई परत अन्धा होत भुजंग/ कबिरा तिनकी कौन गति नित नारी को संग।”

सुंदरकांड में तुलसीदास लिखते हैं, “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी/ सकल ताड़ना के अधिकारी।”  वहीं तुलसी में विरोधाभास की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है जब वे लिखते हैं, “केहि विधि नारी रचि जग मांहि, पराधीन सपनेहु सुख नाहि।” ऐसा नहीं है कि तुलसी स्त्रियों की समस्याओं एवं उनके जीवन की प्रतिकूलताओं से अनभिज्ञ थे लेकिन कहीं न कहीं पुंसवादी मानसिकता से वे मुक्त नहीं हो पाए जिसका प्रमाण उपरोक्त पंक्तियां है।

विचारणीय ये है कि स्त्री पर ‘अच्छी’ और ‘बुरी’ का स्टैंप लगाने और भली-बुरी स्त्री का निर्णय लेने में सदा से पुरुष ही क्यों बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं? ‘कामिनी’, ‘मायावी’, ‘विश्वमोहिनी’, ‘छलिया’ आदि विशेषणों से स्त्रियों को कलंकित और अपमानित करने का काम भी सदा से पुरुष अपनी ज़िम्मेदारी क्यों मानते रहे हैं? अपना मूल्यवान समय स्त्रियों को अपमानित करने में क्यों खर्च करते रहे हैं ये पुरुष? ये पुंसवादी समाज के पुरुष क्यों समझ नहीं पाते कि स्त्रियों ने अपने ऊपर सर्टीफ़िकेट देने की कोई महान ज़िम्मेदारी पुरुषों को नहीं सौंपी। लेकिन देखिए पुरुषों ने तो स्त्रियों पर अपनी राय देने को ही अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है।

भक्त (पुरुष) कवियों की मानें तो ये कामिनीयाँ यानी स्त्रियां जो कामिनी गुण-संपन्न हैं, वस्तुतः चरित्रहीना हैं। जायज़ है इन्हें स्वर्ग में तो कभी स्थान नहीं मिल सकता क्योंकि स्वर्ग में पुरुषों का अबाध प्रवेश पहले से निर्धारित है चाहे वे हज़ार बुरा कर्म करें, उनके(पुरुषों के) पश्चात स्वर्ग में पतिव्रता स्त्रियां जाती हैं, सो ये जो कामिनियां हैं ये मृत्यु के उपरांत नरक की गामिनी ही बनती हैं। तुलसीदास लिखते हैं, “वृद्ध रोग सब जड़ धन हीना/ अंध बधिर क्रोधी अति दीना/ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना/ नारि पाव जमपुर दुखनाना।”  अर्थात वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी एवं अति-दीन पति का अपमान करने पर स्त्री अपने लिए नर्क का मार्ग प्रशस्त करती है जहां उसे अगणित दुख झेलने पड़ सकते हैं। वैसे सचमुच मृत्यु के उपरांत कामिनी स्त्रियां कहां जाती हैं ये किसी को नहीं पता लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि स्त्रियों के मन में नर्क का दहशत फैलाने और स्त्रियों को पति सेवा में रत कराने के लिए अनादि काल से बड़े एवं सम्मानीय कवियों द्वारा साहित्य और जीवन में पातिव्रत्य का पाठ ज़रुर पढ़ाया और सिखाया जाता रहा है। लेकिन जनाब लंपट, दुश्चरित्र और चरित्रहीन पुरुषों की क्या गति होगी, उन्हें नरक में स्थान मिलेगा या स्वर्ग में, इसका ज़िक्र तो आपने नहीं किया, बल्कि इसका ज़िक्र पूरे के पूरे भक्ति-साहित्य से नदारद है। क्या बात है ! पुरुषों के मामले में कनसेशन है क्या? या भूल गए कि जिन दोषों का आपने स्त्रियों के मामले में ज़िक्र किया है वो पुरुषों के मामले में भी फ़िट हो सकता है।

कबीर की मानें तो ये जो कामिनी स्त्रियां हैं, ये भुवनमोहिनियां हैं, मीठी वाणी बोलने वाली होती हैं, माया-मोह के जाल में पुरुषों को फट फंसा लेने वाली होती हैं। कबीर ने माया का जो रुप वर्णित किया है और उसकी स्त्री से जिस तरह तुलना की है, उससे तो यही स्पष्ट होता है, “माया महाठगिनी हम जानी/ निरगुन फांस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।” इसलिए भक्तिकाल के कवियों ने इन कामिनियों से दूर रहने का मूल्यवान उपदेश पुरुषों को बारंबार दिया है। अब पुरुष इनके उपदेशों को मानते हैं या नहीं ये दिगर बात है। लेकिन हे पुरुष ! ये तो ज़्यादती है ना, आकर्षित आप हों और दोष मढ़ा जाए स्त्रियों के सिर? मोह-माया के बंधनों से आप निकल न पाएं, बार-बार मनमोहिनी ‘कामिनियों’ के जाल में फंसते चले जाएं और ‘मोहिनी’ टैग स्त्रियां को ढोना पड़े? पत्नी से मन भर जाए और दूसरी स्त्रियों की ओर आप आकृष्ट हो जाएं और फंसाने वाली वही स्त्रियां कहलाए? नरक का द्वार भी सदा स्त्रियों के लिए आप खोल रखें। अरे आप तो ईश्वर की उपासना करने वाले उत्तम कोटि के भक्त हैं, तो आप ये स्वर्ग-नर्क वाला फैसला भी ईश्वर पर ही क्यों नहीं छोड़ दिए? प्लीज़, अब स्त्रियों की इच्छा से होने दीजिए फैसले।

आप लोगों ने बहुत चरित्र-चित्रण किए, फैसले दिए, कामिनियां निर्मित किए। अब नहीं, कतई नहीं। हम भुवन-मोहिनियां, कामिनियां स्वयं डिसाइड करेंगी कि हम क्या हैं? और डिसीशन ये है कि हम स्त्रियां हैं। केवल स्त्रियां, जो कामिनी-धामिनी टाइप अपशब्दों से मुक्ति की आकांक्षी हैं। जिन्हें पुरुषों के फैसले स्वीकार नहीं हैं। वे अपनी अस्मिता स्वयं निर्मित कर रही हैं, आप पुरुष चिंतित न हो, स्त्रियों को डिफ़ाइन करने के लिए शब्द ढ़ूढ़ने की निरर्थक कोशिश न करें। आपके लिखे विशेषणों को अब स्त्रियां नहीं मानतीं।

दूसरी बात, स्त्रियां (चाहे वह भक्त कवियों के शब्दों में कामिनी हो चाहे पतिव्रता) पुरुषों को फंसाने के लिए जन्म नहीं लेती, ज़िदंगी जीने के लिए लेती हैं। ध्यान देने वाली बात है कि ‘कामिनी’ शब्द के पीछे स्त्री-शरीर का संकेत है। कामिनी से दूर रहने का अर्थ स्त्री-शरीर से परहेज़ करना है। दिलचस्प बात ये है कि स्त्री की अस्मिता स्त्री के शरीर से ही निर्मित होती है। स्त्री का मुख, वक्ष-स्थल, हाथ, पैर इत्यादि शरीर का हिस्सा है, सम्मिलित रुप में ये स्त्री है। यही स्त्री-अस्तित्व का निर्माण करती है।

तीसरी बात, पातिव्रत्य पर ज़ोर देना एक खास किस्म के अर्थ को सामने लाता है। पातिव्रत्य में संलग्न होना यानी स्त्रियों को घर में ही कैद करके रखने की प्रवृत्ति। घर ही स्वर्ग हो, पति देवता और पति-सेवा मूल कर्म एवं धर्म। बाकि बाहरी काम घूंघट डालकर। यह मूलतः स्त्रियों को घरबंद करने की मानसिकता को ऊजागर करता है। उस दौरान सार्वजनिक स्थल में स्त्रियों की आवाजाही को रोकने के लिए पातिव्रत्य का पाठ एक कारगर हथियार रहा। ध्यान देने की बात है कि स्त्री जब सार्वजनिक क्षेत्र में पदार्पण करती है तो पितृसत्ताक पुंसवादी मानसिकता को चुनौती देती है। वह केवल घर से ही नहीं सामंती समाज की बेड़ियों से मुक्त होती है। समाज के सामने अपना अस्तित्व दर्ज करती है। अपनी अस्मिता का निर्माण करती है।

गौरतलब है कि जिस भोगवादी दृष्टिकोण से तुलसीदास और कबीर ने स्त्रियों को समझा है, वह स्त्री के मूल्यांकन का सही दृष्टिकोण नहीं है। स्त्री की बुद्धि, उसका विवेक, उसकी अस्मिता को ताक पर रखकर केवल भोगवादी दृष्टिकोण का सहारा लेकर स्त्रियों का मूल्यांकन हुआ है जो गलत है। जहां कामिनी रुप भोगवादी दृष्टिकोण का परिचायक है वहां पतिव्रता रुप शोषिता का जिसका प्रमुख कर्म एवं धर्म पति की नित्यसेवा है। विचारणीय है कि किसी भी पद या दोहे में स्त्री की स्वायत्त इच्छा की बात नहीं कही गई। कहीं भी स्त्री के स्वायत्त निर्णय को प्रधानता नहीं दिया गया। स्त्री की इच्छाएं-आकांक्षाएं पुरुषों के ईर्द-गिर्द घूमती रही है। स्त्री-इच्छा को प्रमुखता न देने के कारण ही पति से ही प्रेम करना स्त्री का मूलभूत कर्तव्य माना गया, उसे निश्चित कर दिया गया। पति के अतिरिक्त किसी और से प्रेम या संपर्क करने वाली स्त्रियों को चरित्रहीन की संज्ञा दी गई और इस तरह की मनोदशा समाज में आज भी बरकरार है।

यह स्त्रियों के लिए अत्यंत दुख की बात है कि कबीर जैसे सांप्रदायिकता-विरोधी, पाखंड-विरोधी एवं प्रगतिशील चेतना-संपन्न कवि ने भी नारी का मूल्यांकन पूर्णतः पुंसवादी दृष्टिकोण से किया। स्त्री-समस्याओं से परिचित एवं संवेदनशील कवि तुलसीदास ने भी स्त्री को स्वर्ग-नर्क की सीमाओं में आबद्ध कर दिया। स्त्री को इन बेड़ियों से मुक्त कराने की कोशिश नहीं की, एक स्वतंत्र फैसले लेने वाली स्त्री का रुप सामने नहीं रख पाए। 


Thursday 9 May 2013

देश और दुनिया की तमाम खबरों से आख़िर स्त्रियां इतनी अनजान क्यों है? – सारदा बनर्जी


                      

स्त्रियों की एक भयानक नकारात्मकता ये है कि वे देश और दुनिया की तमाम खबरों से एकदम अनजान रहती हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घट रही विभिन्न घटनाओं से वे बिल्कुल बेखबर हैं। उन्हें इन सबसे कोई लेना-देना नहीं। वैसे इस अज्ञता की वजह से उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता। वे अपनी तरह मस्त रहा करती हैं। जब टी.वी. चैनलों में रुचि लेने लगती हैं तो फिल्मी गाने सुनती हैं, फ़िल्म देखती हैं, कोई सीरियल, कोई प्रोग्राम देख हंस-हंसकर लोट-पोट होती हैं, दुखी भी होती हैं। और भी कई प्रतिक्रियाएं करती हैं। लेकिन खबरों में स्त्रियों की दिलचस्पी एकदम शून्य के बराबर है। यह बहुत कम देखा गया है कि स्त्रियां न्यूज़ में रुचि ले रही हैं, उसे नियमित रुप से सुन रही हैं, विभिन्न सोश्यल साइट्स पर इन खबरों को लेकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही हैं। यही वो जगह है जहां पुरुष स्त्रियों को मात दे जाते हैं।

देखा गया है कि पुरुष तुलनात्मक तौर पर खबरों में खास दिलचस्पी लेते हैं। इसे जीवन का ज़रुरी हिस्सा मानकर चलते हैं और देश-विदेश की खबरों के संबंध में अपनी राय भी रखते हैं, उसे इज़हार भी करते हैं। जब दोस्तों के साथ बैठे होते हैं तो उद्देश्यहीन वार्तालाप के साथ-साथ इन मामलों में भी रुचि लेते हैं। आलोचना-प्रत्यालोचना का एक ज़बरदस्त माहौल बनता है। लेकिन स्त्रियों के वार्तालाप के विषय घर से ही शुरु होकर घर पर ही खत्म हो जाता है। यही है चिंता की बात। स्त्रियों की बातचीत का विषय बहुत सीमित होता है। इसकी वजह है कि स्त्रियां अपने आप को घर की चारदीवारी में कैद करके रखती है। ये सोचने वाली बात है कि स्त्रियां आज बाहर निकल रही हैं, लिख-पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं, घर की ज़िम्मेदारियां भी बखूबी संभाल रही हैं फिर क्यों वे देश-विदेश की हकीकतों से अनजान बनी रहती हैं? क्यों उनकी मानसिकता घर के बाहर नहीं निकलता? ऐसा भी नहीं है कि घर में उन्हें समाचार देखने से रोका जाता है या पुरुष सदस्य द्वारा किसी समाचार चैनल को घूमाकर दूसरे चैनल में देने को कहा जाता है चूंकि पुरुष खुद समाचार में रुचि रखते हैं। अपितु ये देखा गया है कि स्त्रियां खुद समाचार से भाग रही हैं। जैसे ही घर के पुरुष सदस्यों का समाचार सुनना बंद होता है स्त्रियां तुरंत अपना प्रिय सीरियल लगा लेती हैं। आख़िर स्त्रियों का समाचार सुनने से भागने वाला रवैया क्यों है?  

नौकरी करने वाली स्त्रियां मजबूर होकर दुनिया का हाल-ओ-हकीकत जान तो लेती हैं लेकिन जब बात छेड़ी जाती है तो वे किसी विषय पर परिचर्चा या विचार-विमर्श करना पसंद नहीं करतीं। राजनीति पर बात होगी तो रवैया यही कि ‘ये सब तो फालतू चीज़ें हैं, नेता खराब है, राजनीति ही खराब है, दुनिया खराब है’ लेकिन इससे आगे क्या? देखा गया है कि अधिकतर स्त्रियां राजनीतिक पेंचिदगियों में रुचि नहीं लेतीं, राजनीति पर बात होती है तो पसंद नहीं करती, तुरंत विषय बदलने के लिए कहती हैं। अगर समाचार बलात्कार पर है तो पुरुष समुदाय को दस गाली देने के बाद फिर अपने पुराने पुंसवादी रवैये में आ जाती हैं। ‘क्यों रात को निकली थी, छोटे कपड़े पहनेगी तो तेरे साथ होगा या मेरे साथ’ या कहेंगी ‘आजकल लड़कियां भी कम नहीं, छोटे कपड़े पहनकर पुरुषों को आकर्षित करती हैं अपनी तरफ़, फिर रेप-रेप करती हैं।’ इस तरह की टिप्पणी कर ये स्त्रियां अपनी संकीर्ण मनोदशा का परिचय दे देती हैं। अगर समाचार किसानों, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों की बदहाली पर है तो प्रतिक्रिया दकियानूसी बातों द्वारा होती है, ‘देखो समाज में क्या क्या हो रहा है...अब ये ज़्यादा दिन नहीं चलेगा...पृथ्वी का ध्वंस करीब है।’

स्त्रियों का समाचारों से पलायन करने की इस मानसिकता के लिए ज़िम्मेदार वस्तुतः स्त्रियां खुद हैं। उन्हें अपने विज़न को बढ़ाना होगा, बड़े फ़लक पर जीवन को देखना होगा। समाचार को जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मानना होगा अन्यथा इसमें रुचि नहीं बढ़ेगी और जब रुचि नहीं होगी तो जायज़ है समाचार सुना-समझा नहीं जाएगा। समाचार के प्रति उदासीन भाव बरकरार रहेगा। स्पष्ट होता है कि स्त्रियां सामाजिक माहौल से अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रही हैं। वे भले ही बाहर निकले, स्वच्छंद जीवन जिएं पर कहीं न कहीं मानसिक तौर पर समाज, देश और दुनिया की तमाम वास्तविकताओं से कटी हुई रहती हैं और घर की गुलाम मानसिकता से छुटकारा नहीं पाती। ये ज़रुर है कि अल्पसंख्यक स्त्रियां न्यूज़ में रुचि लेती भी हैं, वे राजनीतिक कार्यों में शिरकत भी करती हैं लेकिन अधिसंख्यक स्त्रियों नहीं लेतीं।

इसलिए हर एक स्त्री को समाचार में दिलचस्पी पैदा करनी होगी। अपने ज्ञान के संकुचित दायरे को फैलाना होगा। विश्वपटल में घट रही विभिन्न घटनाओं से अवगत होना कोई खराब काम नहीं है, ये स्त्रियों को समझना है। जायज़ है जब ये बात समझ में आएगी तो फिर धीरे-धीरे समाचारों के प्रति अभिरुचि भी बढ़ती जाएगी। 

क्या घर में स्त्रियों के पास अपना एक स्वतंत्र कमरा उपलब्ध है? – सारदा बनर्जी


                   

स्त्री-विमर्श पर बात करते समय सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या स्त्री मुक्त है या नहीं है? ये मुक्ति वैचारिक और कायिक दोनों स्तरों पर होना चाहिए। ये मुक्ति व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी। निजी भी है और सार्वजनिक भी। स्त्री-मुक्ति के लिए ज़रुरी सवाल ये है कि स्त्री के पास अपना स्वतंत्र स्पेस है कि नहीं? स्वतंत्र स्पेस से मतलब है कि क्या घर में स्त्री के पास अपना एक अलग कमरा उपलब्ध है जहां वो अपनी पढ़ाई कर सके, अपने विचारों को सही दिशा दे सके, अपनी प्रतिभा को सर्जनात्मक रुप दे सके और सबसे बढ़कर अपने आप को वक्त दे सके। भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए सबसे ज़रुरी शर्त है कि स्त्रियों के लिए घर में एक अलग कमरा हो जैसा कि आम तौर पर पुरुषों को उपलब्ध होता आया है। ‘अ रुम ऑफ वनस् ओन’ में वर्जीनिया वुल्फ़ लिखती हैं कि कल्पना पर लिखने के लिए स्त्री के पास अपने कमरे और पैसे का होना ज़रुरी शर्त है। स्त्री का अपना कमरा हो जो केवल उसी का हो, उसमें स्त्री का अपना पुस्तकालय हो और साथ ही वे सारी चीज़े प्राप्त हो जिससे उसे लगाव है। इससे विचारों को समृद्ध होने में मदद मिलती है दूसरी ओर कल्पना को भी फैलने का मौका मिलता है।

स्त्री का स्वतंत्र स्पेस जहां अपने कमरे के भीतर हो, वहीं वह स्पेस कमरे के बाहर भी होनी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि जब कोई बहस या तर्क-वितर्क घर में छिड़ जाता है तो ज़्यादातर मामलों में उसमें पुरुष शामिल होते हैं। गरमागरम बहस होने लगती है, घर की स्त्रियां चुपचाप टुकुर-टुकुर पुरुषों का मुंह निहारती हैं। समझने की कोशिश करती है कि क्या कहा जाए और बाद में स्त्रियां शिरकत करने की भी अथाह कोशिश करती हैं। अपने लिए स्पेस ढूंढ़ने की कोशिश करती है। अगर एक-आध स्त्री उस बहस में शामिल होने की कोशिश करती है तो जैसा कि अधिकतर घरों में होता है कि उसे चुप करा दिया जाता है। स्त्रियों को ये एहसास दिलाया जाता है ये बहस बुद्धिजीवियों के लिए है, बेवकूफ़ों के लिए नहीं। और बुद्धि तो केवल जन्मजात रुप से पुरुषों को ही प्राप्त हुआ करता है। सो स्त्रियां चुप हो जाए, अपना काम करें(रसोई संभाले) वजह ये कि उसके द्वारा कहा गया पॉएंट किसी काम का नहीं है। अगर पुरुष किसी पुरानी पुंसवादी घिसी-पिटी थ्योरी पर भी बहस कर रहे हों तो स्त्रियों का फ़र्ज़ है कि वे उनकी हिमायत करें। यही आदर्श स्त्री-लक्षण है। लेकिन अगर वह स्त्री उसे काटने की कोशिश करती है तो पुरुष कई बार अपनी आवाज़ को ऊंची करके बोलने लगते हैं ताकि स्त्रियां खुद-व-खुद ‘शट अप’ हो जाएं। जायज़ है ज़्यादातर मामलों में घर की स्त्रियां चुप्पी साध लेती हैं। और अगर कोई स्त्री चुप नहीं होती या अपने मुद्दों पर अड़ी रहती है तो वह स्त्री आवारा, बदचलन, ज़िद्दी, अकड़ू, अहंकारी, शैतान, घमंडी, असभ्य जैसे कई कई सुंदर उपाधियों से अलंकृत होती है। 

सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर क्यों? क्यों स्त्रियां अपनी बात को कमतर या कम वज़न संपन्न बात समझकर चुप्पी साध लें? क्यों उसे बहस करने के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित होना पड़े और वह भी उसके अपनों से जो स्त्री को रसोई संभालने वाली तो मान सकते हैं लेकिन नागरिक नहीं? आखिर कब स्त्रियों को नागरिक मानकर उनकी बातों को मूल्य दिया जाएगा और उनकी अवहेलना नहीं होगी?

यही वह जगह है जिसे स्त्रियों को अपने लिए बनाना है। यानि अपना स्थान बनाना है। सोचने का, बोलने का, शिरकत का, पढ़ने का, हंसने का, रोने का, अपनी निजता का, अपनी मुक्ति का स्पेस बनाना है। स्त्रियों के लिए बेहद ज़रुरी है कि वे अपनी अभिरुचियों को समझे और जाने। जब तक वे खुलकर अपने आप को समय नहीं देगी, जब तक उन्हें घर के छोटे-छोटे कामों से फुरसत नहीं मिलेगी तब तक वे नहीं समझ सकतीं कि उनकी रुचि किन विषयों में है। जब स्त्री फ्री होगी तब वह निर्धारित कर पाएगी कि वह क्या चाहती है, कौन सी ज़िंदगी चाहती है, ज़िदगी में क्या-क्या चाहती है और क्या नहीं चाहती।



ज़ायज़ है जब स्त्री सिर्फ़ खाना नहीं पकाएगी, जब स्त्री सिर्फ़ बच्चे 
नहीं जनेगी तब वह अन्य सर्जनात्मक कार्यों के प्रति भी रुचि रखेगी। देश और दुनिया की तमाम हकीकतों पर नज़र रखेगी, उससे परिचित होगी और खुद को कामयाबी के मकाम पर भी देखना चाहेगी। ये होगा स्त्री-मुक्ति का पहला आयाम। दूसरा आयाम तब तय होगा जब स्त्री कामयाबी हासिल कर लेगी। युग-युग से स्त्री की ‘घरबंदी’ इमेज को तोड़ने में सक्षम होगी। जब स्त्री घर से बाहर निकलेगी, अपने वैचारिक रुढ़ियों से मुक्त होगी तभी अपने इच्छित कार्यों में सफलता हासिल कर पाएगी।

Saturday 6 April 2013

आख़िर पुरुषों को विचारसंपन्न स्त्री क्यों अच्छी नहीं लगती?


                   

क्या वजह है कि पुरुषों को विचारसंपन्न स्त्री अच्छी नहीं लगती? ऐसी स्त्री जिसके पास अपना नज़रिया हो, चीज़ों को परखने की वैज्ञानिक दृष्टि हो, वो लोगों को अपील नहीं करती। असल में विचारवती स्त्रियों से लोग कोसों दूर भागते हैं। स्त्री वही अच्छी है जो कमनीय हो, कोमलांगी हो, मधुरभाषिणी हो, मंदगामिनी हो और सब समय 'जी हां', जी हां' करें और ‘सब ठीक’,सब ठीक’ वाला एटीट्यूड हो। यानि कि पुरुष की हां में हां मिलाए। और अगर पुंसवादी मानसिकता को समझने में असमर्थ स्त्री हो तब तो क्या कहना! वही आदर्श स्त्री है, अच्छी स्त्री है। यानि आज्ञाकारी। यदि कोई स्त्री विचारवान बात कहती है तो उस बात को काटने की असंख्य कोशिशें पुरुष समुदाय करते रहते हैं या किस तरह से उसकी बात को कमतर घोषित किया जाए ये भी कोशिश करते हैं। चलिए पुरुष समुदाय! यह मान ही लिया कि स्त्रियों की बुद्धि और विचारशीलता से आपको ज़बरदस्त नफ़रत है। तो आप इसका उपचार कीजिए, नफ़रत पर मरहम लगाइए क्योंकि विचारशील स्त्रियां रुकने वाली नहीं है। वे अपने विचार लगातार समाज को देती जाएंगी, स्त्री-विचार का प्रसार करती जाएंगी।

दूसरी एक प्रवृत्ति यह भी है कि एक खास आलोचक वर्ग है पुरुषों का जिन्हें स्त्रियों के टोटल एपीयरेंस से ही परेशानी होती है। इनकी माने तो स्त्री स्वभावतः मूर्ख है। अगर स्त्री ना बोले तो ज़रुर बेवकूफ होगी, अगर बोले तो एकदम भयावह है। हौले हौले बात करे तो झेलने में परेशानी, तेज़ गति से बात करे तो ‘गज़ब लड़की है, कैसे बात करती है? कोई मैनर नहीं जानती’ जैसी टिप्पणी सुनने मे आती है। हाय रे स्त्री, तेरा तो दुनिया में जन्म लेना मुसीबत है। तेरे हर एक कदम पर परेशानी, तकलीफ़, बदनामी और पता नहीं क्या क्याइन पुरुषों से यह सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर स्त्री कैसे बात करे ? क्या करे?  आप स्त्री को किस रुप में देखना व सुनना चाहते हैं? आप चाहते क्या हैं? लेकिन मूल बात ये है कि पुरुषों के चाहने के अनुसार ही स्त्रियां क्यों बर्ताव करें, क्यों बातें करें ? स्त्रियों को जैसे मन होगा वैसे बात करेंगी, आप पुरुषों को पसंद हो तो हो वरना ‘गो टू हेल’। क्या आप पुरुषों के मामले में स्त्रियां कभी दखलंदाज़ी करती हैं ? नहीं करती। तो आप क्यों स्त्रियों पर छड़ी घुमाना चाहते हैं? नो...नो अब नहीं चलेगा ये सब शाषण-वाषण। सुन लीजिए पुरुष और जान भी लीजिए, अब स्त्रियां अपनी मर्ज़ी की मालकिन हैं, वे जो चाहेंगी वही करेंगी, वही कहेंगी, आपकी इच्छा ठेंगे पर।

दिलचस्प है कि स्त्रियां आजकल पितृसत्ताक समाज और उनके पदवियों की मार भी मज़े में झेल रही हैं। आज इक्कसवीं सदी में भी अधिकतर स्त्रियां पति के बगैर अपनी स्वायत्त अस्मिता की बात कल्पनी भी नहीं कर पा रहीं। जहां देखो स्त्रियां फ़ैशन की तरह अपने नाम के पीछे दो दो पदवियों(एक पिता की पदवी, दूसरे शादी के बाद परंपरा से मिली पति की पदवी) को जोड़कर अपनी अस्मिता बना रही हैं। इस प्रकार इनका नाम एक लंबा-चौड़ा शक्ल ग्रहण कर रहा है। वजह ये है कि अधिकतर स्त्रियां आज पढ़ी-लिखी होती हैं। वे अपनी पैतृक पदवी के साथ जीती हैं, पढ़ती हैं, जायज़ है उस पदवी को अचानक शादी के बाद छोड़ देना उन्हें नहीं सुहाता या कह लें उस पदवी से भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है। तो दूसरी ओर स्त्रियां रिवाज़ के अनुसार पति की अस्मिता को ग्रहण करने की पुरानी मानसिकता को भी पूरी तरह त्याग नहीं पा रहीं। जायज़ है दो दो पदवी साथ लो। अगर दोनों पदवियां लम्बी हैं तो नाम तो लंबा होगा ही। अब कल्पना की जा सकती है कि नाम अपनी दो बड़ी पदवियों समेत कितना भाराक्रांत-सा लगता होगा। काश कोई इन स्त्रियों को समझाए कि पति की पदवी स्त्री-अस्मिता तो बिल्कुल नहीं दे सकती। हां, पति की पदवी में प्रभुत्व का भाव तो ज़रुर है यानि ये पदवी स्त्रियों में मातहती का भाव ज़रुर पैदा कर सकती है। पुरुष शादी के तुरंत बाद ही अपनी पदवी का वज़न पत्नी को थमा देते हैं, फिर अपना दायित्व भी, अपने परिवार का भी। जायज़ है स्त्री में पुरुष के अधीन होने वाली मानसिकता हावी होने लगती है। अब स्त्री तुम झेलो। पदवी झेलो, रसोई झेलो, बच्चे झेलो, पति झेलो, पति का गुस्सा झेलो, पति का परिवार झेलो और परिवार के सारे दोष भी झेलो। झेलते जाओ जब तक कि देह से प्राण न निकल जाए।


स्त्रियों के लिए बेहद ज़रुरी शर्त है विचार। जिस स्त्री के पास विचार नहीं है, वह अस्मिता-बोध शून्य स्त्री है, वह न अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी से वाकिफ़ है न अपने संवैधानिक अधिकारों से। उसे न पुरुष-समाज के दमनात्मक रवैये का ज्ञान है न अपने फैसलों के प्रति जागरुकता। इसलिए स्त्रियां ज़रा सुनिए और समझिए कि अगर आपके पास विचार नहीं है तो विचार जागृत करें। अपने दिलोदिमाग में विचार को पैदा करें, उसे पकाएं और उस का संप्रेषण करें। पुरुष कहां आगमन करेंगे आपके विचारों को। अपनी लड़ाई खुद लड़िए। विचारों को स्वागत कीजिए।




Thursday 4 April 2013

मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम शर्मिला चानू और उसका संघर्ष


         

स्त्रियों को जब किसी महत्वपूर्ण उपाधि से नवाज़ा जाता है तो उसके पीछे एक ज़बरदस्त संघर्ष का किस्सा छुपा रहता है, उसके बलिदान की एक लंबी स्टोरी होती है। पुरुषों की तरह आसानी से कोई भी टैग उसके नाम से नहीं जुड़ जाता। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका इरोम शर्मिला के ज़ज्बे को देखते हुए उन्हें लोगों ने ‘आयरन लेडी’ या ‘लौह-महिला’ के नाम से मशहूर कर दिया। वजह यह है कि इरोम शर्मिला चानू पिछले 12 साल से मणिपुर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर ऐक्ट,1958 (ए.एफ.एस.पी.ए.) यानि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की मांग कर रही है। इस एक्ट के तहत मणिपुर में तैनात सैन्य बलों को यह अधिकार प्राप्त है कि उपद्रव के अंदेशे पर वे किसी को भी जान से मार दें और इसके लिए किसी अदालत में उन्हें सफाई भी नहीं देनी पड़ती है। साथ ही सेना को बिना वॉरंट के गिरफ़्तारी और तलाशी की छूट भी है। 
इसी कानून को हटाने की मांग पर इरोम सन् 2000 से लगातार अब तक भूख हड़ताल पर है, उसने पिछले 12 साल से अन्न का एक दाना भी नहीं लिया है। दरअसल 1 नवंबर को इरोम एक शांति रैली के लिए बस स्टैंड पर खड़ी थी कि अचानक दस लोगों को सैन्य बलों ने भूनकर मार डाला। इस घटना का इरोम पर बहुत गहरा असर पड़ा। 29 वर्षीया इरोम चानू ने 2 नवंबर को ही आमरण अनशन शुरु कर दिया हालांकि 6 नवंबर को उन्हें 309 के तहत ‘आत्महत्या करने के प्रयास’ के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया गया। 20 नवंबर से उन्हें जबरन नाक में पाइप डालकर तरल पदार्थ दिया गया था। उसके बाद से इरोम को लगातार पकड़ा और रिहा किया जाता रहा है क्योंकि 309 धारा के तहत यह नियम है कि पुलिस किसी को भी एक साल से ज़्यादा जेल में कैद नहीं रख सकती। इसलिए साल के पूरे होने से पहले ही दो-तीन दिन के लिए उन्हें छोड़ दिया जाता है और फिर पकड़ लिया जाता है। पुलिस हर 14 दिन में हिरासत को बढ़ाने के लिए उन्हें अदालत ले जाती है। तब से अब तक इरोम का यह जीवन इसी तरह संघर्षपूर्ण बना हुआ है।
इस असाधारण मनोबल की वजह से इरोम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए हैं। साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों और नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार महाश्वेता देवी ने केरल के लेखकों के एक संगठन की ओर से जब शर्मिला की ओर से आए उनके भाई इरोम सिंघजीत को अवॉर्ड दिया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे वापस कर दिया। अवॉर्ड के तहत एक स्मृति चिह्न् और 50,000  रुपए का चेक दिया गया था। सिंघजीत ने कहा कि जब शर्मिला की जीत होगी तो वे खुद ही अवॉर्ड स्वीकार कर लेंगी।
प्रमुख सवाल ये है कि इरोम के पहले और बाद में भी कई बार देश में कई लोगों ने अनशन किए हैं और उनकी मांगे भी सरकार ने मान ली है या तो कोई उपाय ज़रुर हुआ है। तो क्या कारण है कि इरोम की मांगे मानी नहीं जा रही? वह पिछले 12 सालों से अनशन पर है लेकिन मीडिया में उसे लेकर कोई हलचल नहीं है, कोई समाचार नहीं है? उसे क्यों सीरियसली नहीं लिया गया? क्या इसका कारण इरोम का स्त्री होना है ? या यह कि इरोम के पास कोई सशक्त शख्सियतें नहीं है? या कि इरोम जिस मणिपुर राज्य के लिए मांग कर रही है वह मुख्यधारा से एक अलग राज्य माना जाता है। इसलिए मणिपुर राज्य के लिए किया गया मांग सरकार के लिए उतना महत्व नहीं रखता जितना दूसरे मुख्य राज्यों का।
यह सही है कि इस एक्ट के बिना कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की हालत बहुत गंभीर भी हो सकती है। लेकिन इरोम मणिपुर में हो रहे उत्पीड़नों के प्रतिवादस्वरुप जो मांग कर रही हैं वह जायज़ मांग है और वह भी अहिंसक तरीके से किया जा रहा है। यदि सरकार के लिए उसकी मांगों को पूरी तरह से मानना संभव नहीं था तो यह भी ज़रुरी था कि कोई न कोई उपाय किया जाता जिससे वहां बस रहीं जनता सुरक्षित रह सके। उन पर बेवजह ज़ुल्म न हो। ये कैसे संभव है कि बिना गुनाह के सिर्फ़ अनशन करने की वजह से किसी स्त्री को सालों-साल जेल में रहना पड़े? एक नागरिक होने की हैसियत से इरोम को अधिकार है कि वह अपने राज्य की सुरक्षा की गारंटी सरकार से मांगे। इसलिए यह बेहद ज़रुरी है कि इरोम को सम्मान देते हुए, उसके जज़्बे को सलाम करते हुए सरकार द्वारा उसकी मांगों को गंभीरता से लिया जाए। मणिपुर राज्य की असुरक्षा पर विचार किया जाए और वहां आम जनता की सुरक्षा के लिए सरकार ठोस कदम उठाएं।

आख़िर ये स्त्री-उत्पीड़न कब बंद होगा ? - सारदा बनर्जी


                        

                     क्या महज महिला दिवस को सेलिब्रेट करके, सलामी ठोककर या नमन करके या उस दिन स्त्री-सम्मान और स्त्री-महिमा की असंख्य बातें करके स्त्रियों का कोई भला हो सकता है? क्या यह ज़रुरी नहीं कि एक दिन नहीं हर दिन स्त्रियों का हो यानि स्त्रियों के पक्ष में हो, स्त्री की समानता के पक्ष में खड़ा हो। स्त्रियों का भला तो तब हो जब हर घर में स्त्री का सही सम्मान(देवी की आड़ में नहीं) हो, उस पर शारीरिक या मानसिक
 यातना न हो। स्त्री मुक्त हो, उसके पास अपनी अस्मिता हो, उसके पास अपने फैसले हो। स्त्री के हकों को लेकर तो आए दिन मीडिया के विभिन्न माध्यमों में तमाम तरह के बहस हो रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों से लेकर आम जनता तक स्त्रियों के प्रति होते हिंसाचार से तंग है और वे निरंतर इसका विरोध कर रहे हैं। इसका ताज़ा नमूना है दिल्ली में दामिनी गैंगरेप पीड़िता के लिए हज़ारों की तादाद में जनता का एकजूट होना। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इन विरोधों का समाज पर कोई असर हो रहा है? क्या स्त्रियों के साथ होते हिंसाचार में कोई कमी नज़र आ रही है? क्या हमारे घरों में स्त्रियों के साथ बदसलूकी की घटनाएं कम हुई है? इसका जबाव है नहीं, नहीं, नहीं।
आँकड़े बताते हैं कि स्त्रियां अभी तक सुरक्षित नहीं है। कहीं पति ने पत्नी पर तेजाब फेंका, कहीं बलात्कार किया, कहीं पत्नी पर शक करके उसे उत्पीड़ित किया, कहीं दूध पीती बच्ची के साथ बलात्कार हुआ, कहीं भाई ने बहन का रेप किया, कहीं राह चलती लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटना हुई आदि आदि। लेकिन ये किस्से तो घर के बाहर की हैं, घर के अंदर हो रहे उत्पीड़न का हिसाब हमारे पास नहीं होता लेकिन यह सच है कि स्त्रियां हर दिन घरेलू-हिंसा से मुखातिब होती हैं। इससे साबित होता है कि स्त्री-समानता का संवैधानिक अधिकार महज सिंद्धांत बन कर रह गया है वह व्यवहार में तब्दील नहीं हुआ है। साथ ही स्त्री के पक्ष में हो रहे तमाम विरोधों, प्रदर्शनों, जुलूसों का कोई मूल्य नहीं है, सारे के सारे निराधार विरोध प्रमाणित हो रहे हैं क्योंकि अभी भी स्त्रियां पितृसत्ताक समाज के पुंसवादी उत्पीड़न से मुक्त नहीं हो पाई हैं। स्त्रियां आज भी पीड़िता हैं ना कि मुक्ता।
ऐसी ही एक पीड़िता है ‘सोनी सोरी’ जो आदिवासी होने की दर्दनाक सज़ा भुगत रही है। सोनी सोरी एक ऐसी स्त्री है जो आदिवासी पत्रकार, कार्यकर्ता, शिक्षिका होने के साथ-साथ तीन बच्चों की मां भी है। वह एक ऐसी साहसी महिला है जो छत्तीसगढ़ सरकार और खनन कंपनियों के खिलाफ़ बोलने का साहस जुटाई है और इसकी वजह से वह आज तक जेल में है। उसने आदिवासी समुदाय और उनकी परंपरागत ज़मीन पर खनन कंपनियों के कब्ज़े का प्रतिवाद करके अपनी लोकतांत्रिक अधिकार का ही प्रयोग किया लेकिन उसे छत्तीसगढ़ सरकार ने 4 अक्टूबर, 2011 में माओवादी होने के संदेह पर गिरफ़्तार किया हालांकि उसका गुनाह अब तक साबित नहीं हो पाया है। जेल में उसके हौसले को पस्त करने के लिए पुलिस द्वारा उस पर तमाम तरह के शारीरिक, मानसिक और यौन-उत्पीड़न की जी-तोड़ कोशिश हुई है जो एन.आर.एस. मेडिकल कॉलेज, कोलकाता में मेडिकल टेस्ट के दौरान प्रमाणित हो चुका है। अपने साथ हुए इस भयानक उत्पीड़न का ज़िक्र करते हुए सोनी ने 27 जुलाई,2012 सुप्रीम कोर्ट को एक चिट्ठी लिखा और अपने मानवाधिकार के सवाल को उठाया। उसने कोर्ट से आवेदन किया कि उसे दांतेवाड़ा जेल से स्थानांतरित किया जाए। 8 जनवरी,2013 को सुप्रीम कोर्ट ने सोरी को दांतेवाड़ा जेल से जगदलपुर जेल में शिफ़्ट कराने का आदेश दिया।
वस्तुतः सोरी के साथ जिस तरह का ज़ुल्म जेल में हुआ मसलन् उसे नंगा करके उसके शारीरिक अंगों को छूना, पैर में बिजली के झटके देना, उसके यैनांगों में पत्थर घुसाना आदि मानवता को बेहद शर्मसार करने वाली घटनाएं हैं। अगर वह दोषी है या उसका माओवादियों से कोई संपर्क है तो उसे सज़ा देने का प्रावधान संविधान में मौजूद है, उसे बेशक सज़ा मिले लेकिन उसके गुनाह का बिना प्रमाणित हुए उसे जिस तरह की सज़ा दी गई वह किसी भी अपराध के लिए किसी भी देश के संविधान की दंड संहिता में नहीं मिलेगा। उसने चिट्ठी में जिन उत्पीड़नों का ज़िक्र किया है वह अलोकतांत्रिक है, असंवैधानिक है, मानवाधिकार के खिलाफ़ है। इसलिए ज़रुरी है कि सरकार और अदालत संज्ञान ले कि कौन-कौन उसके गुनहगार हैं, उस पर किस-किस तरह के ज़ुल्म हुए हैं और उन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दें।
स्पष्ट है कि स्त्रियां देश में आज भी सुरक्षित नहीं है, चाहे वह घर में हो, चाहे बाहर या चाहे जेल में हो। उसके अस्तित्व को शरीर के बाहर निकलकर नहीं देखा जाता, स्त्री का अर्थ केवल भोग्या बनकर रह गया है। लोकतंत्र के आने के बाद अहम शर्त यह थी कि स्त्री-पुरुष में एक लोकतांत्रिक संपर्क विकसित हो। स्त्रियों के साथ पुरुषों का लोकतांत्रिक व्यवहार हो चाहे घर हो या बाहर लेकिन ऐसा नहीं हुआ। स्त्री वजूद के मूल्य को नकारा गया और उसे दूसरे दर्जे में रखा गया। वह हाशिए पर रही, उसके फैसले हाशिए पर रहे, उसका अस्तित्व हाशिए पर रहा। यही कारण है कि स्त्रियों पर ज़ुल्म बरकरार रहा, वह पीड़िता ही बनी रही और वह आज तक बनी हुई है। अभी भी वह शोषिता है।  

Monday 11 March 2013

‘वैवाहिक बलात्कार’ आपराधिक कानून के तहत ‘इंडियन पेनल कोड’ में शामिल हो -- सारदा बनर्जी


           

दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की वारदात के परिणामस्वरुप आपराधिक कानून में संशोधन के लिए गठित की गई न्यायाधीश जे. एस. वर्मा कमिटी ने सिफारिश की थी कि वैवाहिक बलात्कार को इंडियन पेनल कोड(आइ.पी.सी.) के तहत स्त्रियों के खिलाफ़ यौन-अपराध की सूची में शामिल किया जाए और अपराधी की कड़ी सज़ा हो। लेकिन भारत सरकार ने प्रस्तावित अध्यादेश के तहत इस सिफ़ारिश को नामंज़ूर कर दिया और कहा कि इस कानून के लागू होने पर भारत में परंपरागत पारिवारिक मूल्यों को क्षति पहुँच सकती है। सरकार के इस फैसले का 1 मार्च को एक संसदीय समिति ने भी समर्थन दिया था। इस समिति के सिफारिश को न्यायसंगत ठहराते हुए गृह-मंत्रालय के स्थायी समिति के अध्यक्ष एम. वेंकइया नायडू ने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक कानून के तहत लागू करने पर वैवाहिक संस्थान नष्ट होगा और साथ ही व्यावहारिक समस्याएं आएंगी।

विचारणीय है कि बलात्कार अपराध है, वह किसी संपर्क की मांग नहीं करता। बलात्कारी चाहे पीड़िता का एकदम अपरिचित हो, चाहे सतही तौर पर परिचित, चाहे दोस्त हो, चाहे प्रेमी हो या चाहे ‘पति’ हो; वह गुनहगार है, वह अपराधी है क्योंकि उसने स्त्री की मर्ज़ी और इच्छा के खिलाफ़ स्त्री-शरीर पर चोट किया है, उस पर हमला किया है। बलात्कार एक संगीन जुर्म है, पीड़िता के लिए वह शारीरिक और आंतरिक सदमा है। सोचने वाली बात है कि जब एक बार किया गया बलात्कार, पीड़िता को भयानक मानसिक और शारीरिक कष्ट और यंत्रणा का शिकार बनाती है, उसे अवसाद का शिकार बना सकती है तो उस औरत का क्या जो हर दिन अपने पति के द्वारा निपीड़ित होती है, उसके अत्याचार और दुराचार का लगातार शिकार होती रहती है। विवाह विश्वास और अनुराग का एक बंधन है। जिस स्त्री ने अपनी ज़िदगी, तन और मन भरोसे के साथ अपने पति को सौंपा जब वही पति उसके साथ हैवानियत पर उतर आए तो उस स्त्री को कितनी यंत्रणा झेलनी पड़ती होगी यह सहज ही अनुमेय है। यह स्त्री को अपमानित और असम्मान करना है, उसे मातहत बनाना है, उसके विश्वास पर आघात करना है और पति का अपनी मर्यादा का उल्लंघन करना है। क्या इस पर विचार करने के बाद भी वैवाहिक बलात्कार का आपराधिक कानून की कोटि से बाहर रहना हमारे दिमाग में सवालिया निशान नहीं लगाता?

'द यू.एन. पॉप्यूलेशन फंड' की शोध के मुताबिक भारत में दो-तिहाई से भी ज़्यादा वैवाहिक स्त्रियां जिनकी उम्र 15 से लेकर 49 के बीच है, पति द्वारा यौन-उत्पीड़न को लगातार झेलती हैं। इस उत्पीड़न में पीटना, बलात्कार, जबरन सेक्स आदि शामिल है। हालांकि कई ऐसे देश हैं जहां वैवाहिक बलात्कार अवैध है। इनमें 18 अमेरिकी राज्य, 3 ऑस्ट्रेलियन राज्य, न्यू ज़ीलैंड, कैनैडा, ईसराइल, फ्रांस, स्वीडेन, डेनमार्क, नॉरवे, सोवियत यूनियन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया शामिल है।

यह देखा गया है कि वैवाहिक बलात्कार का नतीजा किसी अपरिचित द्वारा हुए बलात्कार की तुलना में कई ज़्यादा खतरनाक होता है। पत्नी कई गंभीर शारीरिक यातनाएं झेलती हैं जैसे हड्डी का टूटना, नींद न आना, आंखों का काला होना, मसेल पेन, शरीर पर घाव की मौजूदगी, नाक में खून का जमना, यौनांगों पर ज़ख्म, यौन-रोग आदि। इन शारीरिक यंत्रणाओं के अतिरिक्त कभी-कभी पीड़िता के दिमाग पर इन सबका इतना बुरा असर पड़ता है कि वह अवसाद में चली जाती है और इन सबसे निजात पाने के लिए आत्महत्या की कोशिश भी करती है। कभी-कभार बच्चों के सामने इस तरह के हादसे होने पर बच्चों के दिमाग पर इसका बुरा असर पड़ता है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत यह अध्यादेश है कि यदि पति 12 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार करता है तो वह अपराध की कोटि में है और उसे अधिकतम दो साल की सज़ा हो सकती है। लेकिन अगर 12 से 16 साल की उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार होता है तो वह गंभीर अपराध नहीं है, इस मामले में बलात्कारी को कम सज़ा मिल सकती है। लेकिन यदि पीड़िता 16 साल के ऊपर की है तब कानून की नज़र में वह अपराध नहीं है। इस नियम के फलस्वरुप जब 16 साल के ऊपर की स्त्रियों पर पति द्वारा यौन-हिंसा होती है तो वे कानून की मदद नहीं ले पातीं। जायज़ है पत्नी चुपचाप यौन-हिंसा को सहन कर लेती हैं। अधिकतर स्त्रियों को अपने संपर्क के टूटने और समाज में अपनी और अपने परिवार की प्रतिष्ठा की भी चिंता होती है, बच्चों की चिंता होती है जिसकी वजह से वे अपने मन की बातें खुलकर किसी से कह नहीं पातीं। धीरे-धीरे वे अवसाद की शिकार होती हैं। पति के प्रति नफ़रत की भावना से भर जाती है लेकिन पति को इस नफ़रत से कोई लेना-देना नहीं। अंत में तंग होकर कई महिलाएं घरेलू हिंसा का मुकदमा दायर करती हैं और न्याय के लिए कचहरी का सालों साल चक्कर लगाती हैं।

ऐसे भी मामले हैं जहां पत्नी ने पति के खिलाफ़ बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया हो लेकिन अदालत ने इसे यह कहकर खारिज कर दिया कि वैवाहिक बलात्कार की धारणा भारत में अस्तित्व नहीं रखता।
यदि संविधान ने स्त्री को समान हक दिया है तो इसलिए कि नागरिक होने के नाते वह पुरुष के समान हक पाने की योग्या है। लेकिन यदि उस पर अत्याचार हो रहा है, उसके अस्तित्व पर हमला हो रहा है, उसकी इच्छा के खिलाफ यौन-संपर्क किया जा रहा है तो ऐसे कृत्य भी कानून की नज़र में गुनाह होने की मांग करती है। यह जानने और समझने की बात है कि स्त्री का शरीर केवल मात्र स्त्री का है, उसकी हकदार भी स्त्री खुद है, कोई और नहीं। वह किस के साथ शारीरिक संपर्क करेगी यह उसका व्यक्तिगत मामला है। वह अपने पति के साथ शारीरिक संपर्क बनाना चाहती है या नहीं, कब चाहती है कब नहीं वो खुद निर्णय लेगी, यह उसका अधिकार-क्षेत्र है। अगर स्त्री की इच्छा और अनुमति के बगैर उसके साथ हिंसा हो रही है तो वह हर हाल में अपराध है। ये कैसे संभव है कि घरेलू हिंसा के लिए तो पति को दंड देने का प्रावधान है लेकिन बलात्कार के लिए नहीं? इसलिए स्त्री अधिकार के लिए यह मांग है कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक कानून के तहत इंडियन पेनल कोड में शामिल किया जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कार के जो दंड सुनिश्चित है, वह वैवाहिक बलात्कार के मामले में भी सख्ती से लागू हो।

स्त्री चेतन मन में होनी चाहिए, अवचेतन में नहीं - सारदा बनर्जी


                          

आम तौर पर देखा गया है कि हिन्दी साहित्य में पुरुष कवियों के हमेशा अवचेतन में स्त्री आई है। स्त्री को लेकर कुंठित भाव व्यक्त होता आया है। स्त्री कवियों के चेतन भावबोध का हिस्सा न होकर अवचेतन में घर किए रहती है जो स्त्री के प्रति संकुचित और स्त्री को देखने का एक तरह से कुंठित रवैया है। स्त्री को देखने के इस गलत नज़रिए की वजह से स्त्री के प्रति दया का भाव बार-बार हिन्दी साहित्य में व्यक्त हुआ है। वह हमेशा लज्जालु, दबी-ढकी, रोने वाली, बिलखने वाली, असीम दुख-दर्द हृदय में छुपाने वाली असहाय और अबला स्त्री के रुप में चित्रित हुई है। छायावादी कविता में वह करुणा और संवेदना की साकार मूर्ति के रुप में स्थान पाई है। ‘अबला नारी’, ‘दीन-हीन स्त्री’ जैसी उपमाओं से सुसज्जित हुई है। रीतिकाल में केवल प्रेम करने वाली अनेकानेक कलासंपन्न पुरुषाश्रित स्त्री के स्वरुप को तवज्जो दिया गया। फलतः स्त्री के प्रति उपेक्षिता का भाव बार-बार सामने आया है। ये स्त्री को देखने का सामंती नज़रिया है। इस संदर्भ में रघुवीर सहाय ने सटीक टिप्पणी की है, ‘कुल मिलाकर नया और पुराना हिंदी साहित्य स्त्री को लेकर जो कुछ देता है वह सतह पर घिनौना, सतह के नीचे पुरुष-समर्थक और उससे भी गहरे कहीं मनुष्य-विरोधी है।

लोकतंत्र के आने के बाद हर एक चीज़ को पुनर्परिभाषित करना बेहद ज़रुरी होता है। हमें स्त्री को देखने के इस परंपरागत इमेज और सामंती नज़रिए से बाहर आकर लोकतांत्रिक हकों के लैस स्वच्छंद स्त्री की इमेज डेवलप करनी चाहिए। लोकतंत्र के आने के बाद नर-नारी समता का अधिकार बना। यह स्त्री के पक्ष में बना संवैधानिक अधिकार था। यह ज़रुरी था कि अब स्त्री ‘आंसू बहाने वाली असहाय औरत’ के इमेज से बाहर निकले और ‘स्त्री-अस्मिता वाली स्त्री’ के रुप में साहित्य में दाखिल हो। इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल और रघुवीर सहाय की कविताओं में स्त्री के प्रति चेतन भाव है। स्त्री उनके अवचेतन में शिरकत नहीं करती बल्कि स्त्री चेतन मन का हिस्सा बनकर उनकी कविताओं में रुपायित हुई है। ये दोनों कवि विशुद्ध मार्क्सीय दृष्टिकोण से स्त्री को देखते हैं। जब ये स्त्री पर लिखते हैं तो स्त्री के प्रति दया भाव नहीं प्रगतिशील भावबोध और समतावादी दृष्टिकोण का असर साफ़ झलकता है। केदारनाथ अग्रवाल ने तो स्त्रियों पर अनेक कविताओं की रचना की है जो बिलकुल अकुंठित भाव से लिखी गई है, ‘न कुछ, तुम एक चित्र हो/ रंगों से उभर आए अंगों का/ जवान/ जादुई/ जागता/ मन पर मेरे अंकित/ मेरे जीवन की परिक्रमा का/ अशांत/ अतृप्त/ अनिवार्य/ रंगीन विद्रोह।’
स्त्री-जीवन पर रघुवीर सहाय की एक मौजूं कविता है, ‘पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सबमें लगा पलीता/ किसी मूर्ख की हो परिणीता/ निज घरबार बसाइए/ होंय कँटीली/ आंखें गीली/ लकड़ी सीली, तबियत ढीली/ घर की सबसे बड़ी पतीली/ भर कर भात पसाइए।’ स्त्रियों की ज़िदगी किस कदर घर-संसार की चक्की में पिसकर तबाह हो जाती है और जीवन के अंतिम छोर तक स्त्री अपनी अस्मिता को रसोईघर तक सीमित किए रहती है,उससे आगे नहीं बढ़ पाती, ये कविता इसका ताज़ा नमूना है।


                     

प्रेम इन कवियों के लिए 'अनटचेबल' नहीं है। ये कवि कुंठारहित भाव से प्रेम को संप्रेषित करते हैं। स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों को लेकर इन्होंने अनेक खूबसूरत कविताओं को अंजाम दिया है। दोनों ने ही मुक्त भाव से अपनी पत्नी पर कई सारी कविताओं की रचना की है। ध्यानतलब है कि अक्सर कवि प्रेमिकाओं को लेकर तो सुंदर प्रेम कविताओं की सृष्टि कर लेते हैं लेकिन अपनी पत्नी पर कविता लिखने में हिचकते हैं या कहें इनमें पत्नी को छुपाकर रखने की टेंडेंसी होती है। इसकी वजह से पत्नी कविता में बहुत कम उभरकार आ पाती है या व्यक्तिगत प्रेम-प्रसंगों पर कम लिखा जाता रहा है। फलतः उन्मुक्त दाम्पत्य प्रेम का चित्रण कविताओं में बिल्कुल गायब हो जाता है। उल्लेखनीय है कि रघुवीर सहाय और केदारनाथ अग्रवाल ने कविताओं के ज़रिए नए सिरे से अपनी पत्नी को एक्सप्लोर किया है। ये पत्नी पर कविता लिखते हैं, मन की फिलींग्स को निर्बंध तरीके से प्रस्फूटित करते हैं। स्त्री को पुनर्परिभाषित करते हैं। केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-संग्रह ‘जमुन जल तुम’ तो पत्नी को संबोधित एक अकुंठित और आवरणहीन प्रेम-कविताओं का संकलन है।




स्वच्छंद प्रेज़ेंस के साथ जब आधुनिक स्त्री साहित्य में दाखिल  होती है तो स्त्री का सामंती इमेज गायब होता है और वो नए फॉर्म और नए अंदाज़ में प्रवेश करती है। फलतः स्त्री के बारे में सारे पुराने मिथ टूटने लगते हैं। अब स्त्री रोने और पुरुषाश्रित होने के अलावा अपने फैसले लेने वाली स्वायत्त स्त्री का इमेज धारण करती है। अब साहित्य में स्त्री-जीवन का लक्ष्य कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, मंदगामिनी नायिका बनकर पुरुषों को आकर्षित करना नहीं रह जाता बल्कि अपनी स्वतंत्र अस्मिता को दर्ज करना बनता है। फलतः साहित्य का चरित्र बदलता है। स्त्री फैंटेसी में न रहकर अब अपनी वास्तविक हालातों के साथ साहित्य में रिफ़्लेक्टेड होती है। वह गम में दुखी, आनंद के समय खुश दिखाई देती है। स्त्री-अस्मिता के लिए उसकी छटपटाहट अब साफ़-साफ़ सुनाई देती है। वह कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, आत्मकथाओं में अपने जीवन के साथ, सांसारिक अनुभवों के साथ दाखिल होती है।

Saturday 23 February 2013

स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ ‘फ़ास्ट ट्रैक कोर्टस्’ की तेज़ पहलकदमी - सारदा बनर्जी




स्त्रियों के खिलाफ़ यौन-अपराध के मुकदमों को लेकर दिल्ली में छह फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित हुए। 4 जनवरी को छह न्यायिक पदाधिकारियों ने इन अदालतों की ज़िम्मेदारी ली। हालिया शोध के मुताबिक कुल 1031 मुकदमें जो छह ज़िला-अदालतों में लंबित थे, उनमें से 500 मुकदमों को फ़ास्ट ट्रैक अदालत में स्थानांतरण किया गया। इन 500 में 27 मुकदमों का अब तक मिली खबर के मुताबिक निपटारा हो चुका है। 27 मामलों में 12 मामलों के दोषियों को सज़ा सुनाया गया, एक को मौत की सज़ा हुई बाकि 15 मामलों में आरोपी निर्दोष साबित हुए, उन्हें रिहा कर दिया गया। यानी ये फ़स्ट ट्रैक कोर्ट कारगर रुप में काम कर रहे हैं। लेकिन बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के मामलों को लेकर इस तरह के अदालत हर एक राज्य में होना ज़रुरी है जिससे निलंबित पड़े मुकादमों का निपटारा जल्द हो सके। पीड़िता को जल्द न्याय उपलब्ध हो सके। जनवरी में ममता सरकार ने पश्चिम बंगाल में न्याय प्रक्रिया में तेज़ी के लिए 88 फास्ट ट्रैक अदालत बनाने का प्रस्ताव रखा है जो बिना शक एक सराहनीय कदम है। इस तरह के अदालत पश्चिम बंगाल के हर ज़िले में होने चाहिए जिससे कि पीड़ितों को जल्द फैसलें मिले। इसकी कार्यशीलता के लिए ज़रुरी है कि ऐसे प्रस्ताव जल्द पास हो और ऐसे अदालत तुरंत शक्ल में आए।
लेकिन यहां मूल समस्या फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने का नहीं है। कई बार देखा जाता है कि मुकदमें फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में तो सुलझ जाते हैं लेकिन हाइकोर्ट में कई साल तक लंबित पड़े रहते हैं। पीड़ित लोग कोर्ट का चक्कर लगाते लगाते थक जाते हैं, वकीलों की मोटी रकम भरते भरते पैसा बर्बाद होता है लेकिन मुकदमा नहीं निपटता। इसलिए फास्ट ट्रैक कोर्ट सक्रिय हो इसके लिए बेहद ज़रुरी है ज़मीनी स्तर पर सुधार। पुलिस कारगर भूमिका निभाए, अपना काम ठीक से करें, आरोपपत्र पेश करने में देर न करें, उसे वक्त पर दें। पुलिस थाने प्रगतिशील भूमिका अदा करें। साथ ही हर थाने में पुलिस बलों की संख्या बढ़ाई जाए क्योंकि आबादी के लिहाज़ से मौज़ूदा समय में पुलिस बल काफ़ी कम है। व्यवस्था की मज़बूती के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि पुलिस थाने सक्रिय हो। पुलिस को सुविधाएं मुहैया कराई जाए। उनके पास कम्प्यूटर की व्यवस्था उपलब्ध हो। इसके अतिरिक्त स्थानीय गुंडों और बदमाशों की सूची पुलिस के पास हो जिससे काम करते समय अपराधियों को ढूंढ़ने में मदद मिल सके। मूलतः ज़मीनी स्तर पर सुधार के अदालती कामकाज बेहतर ढंग से नहीं चल सकता।
इसके अलावा पश्चिम बंगाल के हर ज़िले में स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ केंद्रीकृत स्त्री-कक्ष या निगरानी-कक्ष बनाया जाए जिससे किसी भी मामले में जल्द कदम उठा सके। कॉलेज और विश्वविद्यालयों में भी स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ ‘वोमेन-सेल’ बनाया जाए, कमिटियां गठित की जाए जिससे स्त्रियों के साथ यदि गलत बर्ताव हो रहा है या छेड़खानी की घटना हो रही है तो उसकी शिकायत तुरंत दर्ज हो सके। यानी कि स्त्रियों के पास सुविधा हो कि वे उचित समय पर गलत कदम को रोक सकें या सटीक फैसले ले पाएं।
दिल्ली में स्त्रियों की सुविधा के लिए सीधे फ़ोन कर शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हुई है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार पीड़िता के साथ हुए नृसंश वारदात के बाद से ये सीधे फ़ोन की सुविधा स्त्रियों को दी गई है। इसके तहत 181 नंबर लगाकर  स्त्रियां अपने साथ होने वाले छेड़छाड़, उत्पीड़न को रोकने के लिए मदद मांग सकती हैं। इस हेल्पलाइन का संबंध दिल्ली में मुख्यमंत्री के कार्यालय से लेकर विभिन्न 185 पुलिस थानों तक किया गया है। कायदे से पश्चिम बंगाल में भी स्त्रियों के लिए इस तरह का कोई वोमेन हेल्पलाइन नंबर उपलब्ध होना चाहिए जिसमें ज़ुल्मी के खिलाफ़ थानों में सीधे त्वरित गति से शिकायत दर्ज हो। इस नंबर का संबंध मुख्यमंत्री के दफ़्तर से लेकर विभिन्न स्थानीय थानों से भी हो। इससे भी ज़रुरी है कि ये नंबर सही रुप में कार्य करे जिससे स्त्रियों को त्वरित सुविधा मिल सके। देखा जाए तो यह सुविधा हर एक राज्य में होना ज़रुरी है। पूरे भारत में राज्य के स्तर पर स्त्रियों के लिए वोमेन हेल्पलाइन नंबर की व्यवस्था स्त्री-सुरक्षा में एक बढ़िया कदम होगा।
फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट अभी तक जहां जहां गठित हुए हैं वहां उसकी संख्या में बढ़ोतरी की जाए और देश के हर राज्य और हर ज़िलें में इसकी अवस्थिति हो। केवल स्त्री संबंधी केसेस ही नहीं ऐसे केसेस जो काफ़ी साल से लंबित पड़ा हुआ है और अग्रिम न्याय की मांग करता है उन्हें भी इन अदालतों में स्थानांतरित किया जाए। न्यायिक स्तर पर स्त्री-सुरक्षा में बढ़ोतरी के लिए ये कुछ खास उपाय करना देश के लिए बेशक ज़रुरी है।

‘ओबोशेषे’ फ़िल्म और स्त्री-अस्मिता


                            
ऐसे किरदार स्त्री-जीवन में खास मायने रखते हैं जो स्त्री की बहुमुखी प्रतिभा को सामने लाए और एक ऐसे व्यक्तित्व से हमें रुबरु कराए जो हम सब स्त्रियों में होना चाहिए या होना संभव है। अदिती राय की बांग्ला फ़िल्म ‘ओबोशेषे’ कई दृष्टियों से एक जानदार फ़िल्म है। इस फ़िल्म में मां-बेटे की केमेस्ट्री को देखा जाए तो यह लाजवाब है। इसमें अत्याधुनिकता और कल्चर का अद्भूत ब्लेंड है। जीवन की आपाधापी है, जीवन से वितराग है। लेकिन इन सबमें गौर करने लायक या हाइलाइटेड किरदार है ‘सुचिस्मिता’ का। इस किरदार का अभिनय रुपा गांगुली करती हैं जिन्होंने इस किरदार के साथ पूर्ण न्याय किया है। तभी यह किरदार इस ऊँचाई को प्राप्त हुआ है। स्त्री-अस्मिता और स्त्री-स्वायत्तता का जबरदस्त परिचय है ये रोल। प्रतिकूलताओं और विपरीत परिस्थितियों के बीच भी स्त्री-आज़ादी कितना प्राथमिक है, इसे जानने के लिए यह फ़िल्म अव्वल है।
आम तौर पर स्त्रियों को एक सुखी जीवन एवं संसार के लिए अनेक कुर्बानियां देनी पड़ती है। अपने अनेक खुशियों का गला घोंटना पड़ता है। लेकिन अपने मूल्यों को जीवन से बिना हटाए, अपने शर्तों पर जीवन को परिचालित करना एक चुनौती है। सुचिस्मिता एक ऐसी चुनौती लेती है हालांकि इस चुनौती के दौरान सुचिस्मिता को अनेक दुख भी झेलना पड़ता है। उसकी ज़िंदगी अकेलेपन के कगार पर आ पहुँचती है। लेकिन फिर भी वह टस से मस नहीं होती। इस अकेलेपन में भी वो अपनी असंख्य प्रतिभाओं को पुनर्जीवित करती हुई जीवन में नित-नूतन रंग घोलती है। जीवन को वैविध्यमय और कलरफूल बनाती है। उसे अपने निर्णयों पर कभी पछतावा नहीं होता। ना उसे ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत है। वह अपने आप से खुश है, ज़िंदगी से मिलने वाले दुखों से नाखुश। अपने आप में यह रोल बेहद आकर्षक और प्रेरणादायक है।

सुचिस्मिता अपने सुंदर और मनमोहक कंठस्वर के साथ रवीन्द्रसंगीत गाती है, वह पेंटिंग में सिद्धहस्त है, दोस्तों के साथ गप्पे हांकते हुए बीयर पीना उसे पसंद है, छोटों के साथ ‘कितकित’ खेलती है, अपनी बेटी समान लड़की ‘मोनि’ (जो कि उसी का दिया हुआ नाम है) के साथ बेझिझक दोस्ती करती है, उससे सुख-दुख बांटती है। दुर्गा-प्रतिमा की कच्ची मूर्ति में अपने हाथों से मिट्टी पोतती है, अपनी सहेली के हाथों की पूरी और खीर(पायेस) खाना बेहद पसंद करती है बावजूद इसके कि किसी विचार में मतांतर की वजह से दोनों में बातचीत बंद है। ये है ओवरऑल सुचि का केरेकटर। बिंदास लेकिन उद्दंड नहीं। मिलनसार लेकिन व्यक्तित्वमयी। बेहद स्वच्छंद। किसी काम से परहेज़ नहीं, हर एक कला में दिलचस्पी, हर एक व्यक्ति से आत्मीयता का संबंध और खूब बुद्धिमती। उसने ज़िंदगी में एक बड़ा फैसला लिया जिसकी वजह से वह अकेली हो गई। फिर भी स्वतंत्र फैसले को ज़िदगी में वो अहमियत देती है, उसे स्वागत करती है और अपने किरदार के द्वारा स्त्री-अस्मिता की प्रतिष्ठा करती है।
सुचिस्मिता का पति विदेश में नौकरी करने के उद्देश्य से देशी नौकरी छोड़कर बाहर जाना चाहता है हालांकि सुचि ऐसा नहीं चाहती। सो वह विरोध करती है लेकिन जब उसका विरोध काम नहीं करता जब वह फैसला लेती है देश में ही रहने का। क्योंकि वह भारत छोड़ना नहीं चाहती। उसका पति उसके बेटे को लेकर विदेश चला जाता है, वहां एक साल बाद दूसरी शादी तक करता है। सुचि सब जानती है फिर भी उसने अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं किया। वह अकेले रही सारी ज़ंदगी, अपनी मृत्यु तक। इस किरदार से सीखने लायक बात यह है कि कैसे अकेलेपन के साथ भी ज़िंदगी हसीन बनाई जा सकती है। निभृत रहते हुए भी ज़िंदगी कितने खूबसूरत लम्हों से भरा जा सकता है। अपनी प्रतिभाओं को कैसे पल्लवित किया जा सकता है। कैसे हकीकत का सामना करते हुए भी उससे असंपृक्त रहा जा सकता है। ये किरदार कहीं न कहीं हर स्त्री के लिए प्रेरणापद है। इस चरित्र से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। खासकर स्त्री-अस्मिता के मुद्दे को इसने जैसे रुपायित किया है वैसा दुर्लभ है।

सुचिस्मिता का बेटा तब देश लौटता है जब वह मर चुकी है। वह अपनी मां को रि-इंवेंट करना चाहता है। वह उन चिट्ठियों के माध्यम से मां को जानने-समझने की अथाह कोशिश करता रहता है जो मां लिखकर छोड़ गई थी। मां से संपर्क रखने वाले हर एक व्यक्ति को खोजकर उससे मिलकर मां की बातें जानना चाहता है। देखा जाए तो मां को खोजने की बेटे की ये छटपटाहट विरल है। मां को जानने के बाद मां के प्रति स्नेह, प्रेम और विश्वास भी दुप्राप्य चीज़ है जो खासकर आजकल की फ़िल्मों में कम दिखता है।
स्त्री-अस्मिता और स्त्री-अस्तित्व को अपने पूरी शारीरिक मौजूदगी के साथ अपने समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के ज़रिए सुचिस्मिता का किरदार प्रस्तुत करता है। यह स्त्री-जीवन को बेहतर और आनंदमय बनाने की तरकीब सिखाता है। इसलिए हम सब स्त्रियों को इस किरदार की सकारात्मकता को अपने जीवन में अनुसरण करना है।  

Tuesday 5 February 2013

धार्मिक पाखंडों और रुढ़ियों पर चोट करती फ़िल्म ‘ओ माइ गॉड’


स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग है जिनका धार्मिक रुढ़ियों और आडम्बरों से बहुत आत्मीयता का संबंध है। खासकर बुज़ुर्ग महिलाओं का विभिन्न तरह के धार्मिक पाखंडों से रागात्मक संबंध आज भी बना हुआ है। इन धार्मिक छल-कपटों में बेइंतिहा भरोसा रखने वाली स्त्रियों को ज़रुर ‘ओ माइ गॉड’ फ़िल्म देखनी चाहिए। ‘ओ माइ गॉड’ विभिन्न किस्म के धार्मिक पाखंडों पर चोट करने वाली एक दिलचस्प फ़िल्म है। ये मठों, गिरजाघरों, मस्जिदों में संतो, गुरुओं, बाबाओं, मैय्याओं, मुल्लाओं, पादरियों द्वारा धर्म के नाम पर किए जाने वाले ठगई और धोखाधड़ी का पर्दाफाश करनी वाली एक बढ़िया फ़िल्म है। बिज़नेस के लिए कहे जाने वाले तरह-तरह के झूठ और तमाम किस्म की फरेबबाज़ियों का खुलासा यह फ़िल्म है। हर एक स्त्री को चाहिए कि वे इस फ़िल्म से रुबरु हो और धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करने वाली इसकी स्पिरिट को पकड़े।

इस फिल्म में एक जगह दिखाया जाता है कि किस तरह मूर्ति बेचने के लिए दुकारदारों के द्वारा मनगढ़ंत मिथ्या का सहारा लिया जा रहा है। गोकुल, मथुरा आदि से प्राप्त मूर्तियां कहकर लोगों को अधिकाधिक दरों में बेचा जा रहा है। यानी एक शब्द में ठगई की जा रही है। इसी तरह धार्मिक प्रवचन सुनाने वाले ढोंगी बाबाओं का धर्म के नाम पर पैसा कमाने और ऐश करने की वास्तविकता को उजागर किया गया है। मज़ेदार है कि धर्म के नाम पर एक बुराई वे सुन नहीं सकते लेकिन धर्म के नाम पर निरीह जनता को ठगते हैं। खुद को ईश्वर का दूत कहकर आम जनता के पैसे लूटने में उन्हें कोई शर्म नहीं। असल में इन धार्मिक ढकोसलों का शिकार खासकर स्त्रियां होती हैं, इसलिए उन्हें यह मूवी ज़रुर देखनी चाहिए और धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे पाखंडों से मुक्त होना चाहिए।

इस फ़िल्म में एक और दिलचस्प बात यह है कि ये मूवी हमें अवतारिज़्म की कपोलकल्पना से मुक्त होकर सोचने पर मजबूर करती है। इन जेनरल अवतार के कंसेप्ट के साथ धोती और लंबे बाल गुँथे हुए हैं। लेकिन इस फ़िल्म में अक्षय कुमार पैंट-शर्ट और छोटे बाल वाले अवतार के रुप में सामने आए हैं। इस माडर्न अवतार का नया ड्रेस और नया लहज़ा है। ये नया अवतार सुदर्शन चक्र की जगह की-रिंग घूमाते हैं। वैसे अपनी प्यारी बांसुरी और मक्खन को छोड़ नहीं पाए हैं। लेकिन देखा जाए तो कृष्ण का ये नया अंदाज़ और नया फ़ॉर्म अपने आप में जुदा है। वैसे ये फ़ॉर्म उन लोगों को अपील नहीं करेगा जो परंपरागत और पुराने फ्रेमवर्क में ही अवतार को कैद कर कृष्ण को बंधे-बंधाए पैटर्न में ही एक्सेप्ट करना चाहते हैं। लेकिन धर्म को रुढ़िमुक्त करने के लिए और प्रकृत धर्म की पहचान के लिए ये नया रुप कारगर हथियार है।

धर्म की गलत और रुढ़ समझ पर यह फ़िल्म करारा व्यंग्य करती है। आज धर्म कुसंस्कार और अंधविश्वास का रुप ले चुका है। वह मुक्तता और उदारता का पर्याय नहीं रह गया है। धर्म हमें मानवीयता की ओर ले जाता है, सहिष्णुता की ओर ले जाता है। मन को लिबरल और उच्च चिंतन संपन्न बनाता है। धर्म हमें सह-बंधुत्व, सह-भातृत्व, धर्म-निरपेक्ष विचारों से लैस करता है। लेकिन धर्म की सही संकल्पना आज गायब हो गई है और सामंती मानसिकता उस पर हावी हो गई है। यह बहुत ज़रुरी है कि धर्म का सही रुप हमारे सामने आए और गलत विचार दूर हों। तमाम तरह की दकियानूसी विचारों से घिरे धर्म को अपनी सही शक्ल लेना होगा।

स्त्रियों में बड़ी मात्रा में धार्मिक रुढ़ियां घर कर गई हैं। कायदे से स्त्रियों को इन पाखंडों से और पाखंडी बाबाओं से निजात पाना होगा। वास्तविक धर्म की पहचान करनी होगी जिससे उनमें वैज्ञानिक सचेतनता डेवलप हों। वे धर्म के मूल कंसेप्ट्स को पकड़ पाएं और अपने जीवन में उसे लागू करें। साथ ही अवतार को पुराने फ्रेमवर्क से निकालकर नए फ़ॉर्म में ग्रहण करना होगा। गीता, कुरान, बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथों के मूल मेसेज को आत्मसात करना होगा। उसे रुढ़ियों में घेरकर उससे लटकने से कोई फ़ायदा नहीं। धार्मिक फंडामेंटालिज़्म केवल सामाजिक विभाजन करता है। इसलिए धर्म और धार्मिकता के भेद को समझना होगा।

‘ओ माइ गॉड’ एक विचारवान और रुढ़िमुक्त फ़िल्म है। आज जब चारों ओर धार्मिक पाखंडों का दुर्धष खेल चल रहा है जब इन पाखंडों का पर्दाफाश कर उनकी धज्जियां उड़ाने वाली एक फ़िल्म का आना सराहनीय कदम है। बेशक सभी स्त्रियों को यह फ़िल्म देखनी चाहिए क्योंकि ये मसला स्त्री-मुक्ति से भी जुड़ा हुआ है। 



पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...