इन नियमों का अनुसरण करते हुए पुंसवादी ताकतों ने शताब्दियों से घर-घर में स्त्रियों को रजस्राव के दौरान पूजा तथा शुद्धिमूलक कार्यों से वंचित रखा। पुंसवादी नियमों के गिरफ़्त में धीरे-धीरे स्त्रियां भी आने लगी तथा उन नियमों के प्रति उन्होंने अपनी गहरी मानसिक प्रतिबद्धता भी दिखाई। पुंसवादी आचार-संहिता ने नियमावली के प्रतिपालन की पूरी जिम्मेवारी अभी पुराणपंथी स्त्रियों के हाथ में स्थानांतरित कर दी है और घर-घर में अपवित्रता की पवित्र शिक्षा मां या दूसरी बुज़ुर्ग स्त्रियों द्वारा नव-रजस्वला लड़कियों को दी जाती है। कुछ घरों में रजस्वला अवस्था के समय की अपवित्रता इतना गंभीर अपराध है कि केवल वह पूजागृह या धार्मिक कर्मकांड तक ही स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध नहीं रहता अपितु रजस्वला अवस्था में स्त्री रसोईघर में भी प्रवेश करने का अधिकार खो बैठती है, अपने माता-पिता को छूने के अधिकार से वंचित हो जाती है।
हाल में सबरीमाला मंदिर के अध्यक्ष गोपालकृष्णन ने यह इच्छा जाहिर की है कि मंदिर के द्वार पर ‘मेनस्ट्रूएशन स्कैनर’ लगाया जाएगा जिससे यह पता चल पाए कि स्त्री रजस्वला की अवस्था से गुज़र रही है या नहीं। इस स्कैनिंग के पश्चात स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिया जाएगा। ताज्जुब की बात है कि जो बालब्रह्मचारी या ईश्वर परमपवित्र, पतितपावन, मोक्षदाता, विघ्नहर्ता, पापनिवारक, सर्वशक्तिमान के तौर में पितृसत्ताक समाज में पूजित और प्रतिष्ठित हैं वे अतिसामान्य, बलहीन, निकृष्ट, बुद्धिहीन कही जाने वाली स्त्रियों के स्पर्शमात्र से अपवित्र हो जाएंगे!! आश्चर्य यह भी है कि परमअपवित्रों(स्त्रियों) व महापतितों(स्त्रियों) को भी पवित्र कर देने की क्षमता रखने वाले मनुवादियों के ईश्वर इतने शक्तिहीन और सामर्थ्यहीन हैं कि स्त्री के दर्शनमात्र से उनका व्रतभंग हो जाता है!! यह तो बालब्रह्मचारी भगवान अय्यप्पा के संयम, तपोबल, योगशक्ति और रिपुदमन के सामर्थ्य पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाता है! साथ ही भगवान अय्यप्पा के परमपवित्र उच्चकोटि के भक्तों के अवैज्ञानिक सोच और पुराणपंथी मानसिकता के हकीकत को भी बेनकाब करता है।
चलिए मान लेते हैं मनुवादियों की। लेकिन धर्मशास्त्र के मतों के अनुसार ईश्वर का अवस्थान तो हर एक पदार्थ में होता है। इस युक्ति के फलस्वरूप क्या हम यह न मान लें कि ‘रज’ में भी ईश्वर का वास होता है! तो क्या रज को पवित्र न माना जाए और रजस्वला स्त्री को भी पवित्र न माना जाए? स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को हीन करार देने के उद्देश्य से ही युक्तिहीन व अवैज्ञानिक धार्मिक प्रपंचों का आदिकाल से निर्माण किया गया है और उन्हें कठोर संहिताओं में आबद्ध करके जनमानस के हृदय में बद्धमूल किया गया। सवाल यह है कि स्त्री-शरीर की प्राकृतिक क्रियाओं को मनचाहे ढंग से नियमबद्ध करने का अधिकार पुरुषों को दिया किसने? क्या किसी पुरुष को किसी स्त्री ने शारीरिक नियमों के आधार पर कभी अपवित्र घोषित किया? मंदिर और मस्ज़िद की आंतरिक पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के नाम पर स्त्रियों की स्वतंत्रता पर हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार पुरुषों को नहीं है।
रजस्राव एक प्राकृतिक व स्वाभाविक पद्धति है। दस से पंद्रह साल की आयु की लड़की का अंडाशय हर महीने एक विकसित अण्डा उत्पन्न करना शुरू कर देता है। वह अण्डा अण्डवाहिका नली के द्वारा नीचे जाता है जो कि अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है, उसका स्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके। यदि उस अण्डे का पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है। इसी स्राव को ‘रजस्राव’ कहते हैं। जिस रज के बहाव के कारण स्त्रियों को अपवित्र करार दिया जाता है उसी रज से इंसान(स्त्री-पुरुष) के शरीर का निर्माण होता है। रजस्वला हुए बिना एक स्त्री मां नहीं बन सकती। जो यह कहते हैं कि रजस्वला के दौरान दूषित रक्त बाहर निकलता है वे प्राकृतिक नियम की सर्वथा गलत व्याख्या करते हैं। रजस्राव का शारीरिक अशुद्धता से कोई संबंध नहीं है। वरन रज का न बहना ही स्त्री के अस्वस्थ होने का लक्षण है। अचंभे की बात है कि स्त्री के मातृत्व को तो समाज सम्मान व पवित्रता की नज़र से देखता है लेकिन माता बनने की प्रक्रिया को अपवित्र माना जाता है!
आश्चर्य है कि रजस्वला स्त्री को रजस्राव के दौरान किन-किन तरह की समस्याएं होती हैं इस पर पुंसवादी पुरुष कभी बात करना पसंद नहीं करते; ना ही इसकी उन्होंने कभी पड़ताल ही की। लेकिन पुरुष-वर्चस्व को प्रतिष्ठित करने के लिए वे रजस्वला स्त्री पर अर्थहीन मानसिक नियम ज़रूर तय कर दिए। आज लोकतंत्र को लागू हुए पैंसठ वर्ष हो गए लेकिन हम लोकतांत्रिक मानसिकता और लोकतांत्रिक नजरिये को विकसित नहीं कर पाए। लोकतंत्र के अस्तित्व में आने से पहले स्त्री के अधिकारों को लेकर कभी गहराई से विचार-विमर्श नहीं हुआ। पुरुषों द्वारा बनाए गए नियम ही स्त्रियों के नियम मान लिए गए। पुरुषों द्वारा तय किए गए नियम स्त्रियों के लिए निश्चित मान लिए गए। लेकिन लोकतंत्र के आने के बाद स्त्री के नागरिक अधिकार पर पहली बार बहस हुआ और यह लोकतांत्रिक बोध पैदा हुआ कि स्त्री के पास मानवाधिकार और नागरिक अधिकार मौजूद हैं। देश में लोकतंत्र तभी विकसित होगा जब हम लोकतांत्रिक ढंग से सोचेंगे और कार्य करेंगे। नागरिक अधिकारों पर हमला करके कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। गिरजा, मंदिर या मस्जिद में प्रवेश करने का हक स्त्रियों को भी उतना ही है जितना कि पुरुषों को। मंदिर, मस्जिद और गिरजा संस्थान के तौर पर देश की संपत्ति है ना कि पुरोहितों, मौलवियों और पादरियों की। फलतः नियम लागू करके स्त्रियों का धार्मिक संस्थानों में प्रवेश रोकना अलोकतांत्रिक क्रिया है, असंवैधानिक हरकत है।
आज तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि हम अत्याधुनिक मशीनों का प्रयोग करने के लिए कृतसंकल्प हैं। मंदिर का पुरोहित वर्ग भी रजस्वला स्त्री की पहचान करने के लिए स्कैनर लगाने की इच्छा जाहिर कर रहा है लेकिन अत्याधुनिक तकनीकों के प्रयोग के साथ-साथ पुरुषों को अपनी चिराचरित मानसिकता में भी बदलाव करना होगा। यह ध्यान रखना होगा कि केवल तकनीक के ज़रिए हम आधुनिक नहीं बन सकते और आधुनिक तकनीकों का सामंती सोच के विस्तार के लिए इस्तेमाल करना भी गलत है। आधुनिक बनने के लिए लोकतांत्रिक नज़रिया व वैज्ञानिक सोच ज़रूरी है।
लोकतंत्र स्त्री-मुक्ति का मार्ग है। हमें बाह्य लोकतंत्र के साथ-साथ आंतरिक लोकतंत्र भी स्थापित करने की ओर आगे बढ़ना चाहिए। पुराने विचारों की स्त्रियां रजस्राव को गुप्त चीज़ कहकर युवा लड़कियों को रजस्राव होने की बात को पुरुषों से छुपाने की सलाह देती रहती हैं। इस मनोदशा से मुक्त होना ज़रूरी है और यह भी ज़रूरी है कि हम खुलकर रजस्राव और रजस्वला स्त्री की समस्याओं पर बातें करें, उसकी तकलीफ़ों को समझें। पर्दा करने पर समस्याओं का समाधान नहीं होता वरन् इससे समस्या बलवती होती है। लोकतंत्र में हर चीज़ पारदर्शी होती है। पर्दा लोकतंत्र का अंत है। आंतरिक लोकतंत्र के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि हर चीज़ पर बहस हो। आज सामंतकालीन भक्तों और पुंसवादी शास्त्रज्ञों से ‘रजस्राव’ और ‘रजस्वला स्त्री’ की मुक्ति बेहद ज़रूरी बन पड़ा है।