Monday 11 March 2013

‘वैवाहिक बलात्कार’ आपराधिक कानून के तहत ‘इंडियन पेनल कोड’ में शामिल हो -- सारदा बनर्जी


           

दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की वारदात के परिणामस्वरुप आपराधिक कानून में संशोधन के लिए गठित की गई न्यायाधीश जे. एस. वर्मा कमिटी ने सिफारिश की थी कि वैवाहिक बलात्कार को इंडियन पेनल कोड(आइ.पी.सी.) के तहत स्त्रियों के खिलाफ़ यौन-अपराध की सूची में शामिल किया जाए और अपराधी की कड़ी सज़ा हो। लेकिन भारत सरकार ने प्रस्तावित अध्यादेश के तहत इस सिफ़ारिश को नामंज़ूर कर दिया और कहा कि इस कानून के लागू होने पर भारत में परंपरागत पारिवारिक मूल्यों को क्षति पहुँच सकती है। सरकार के इस फैसले का 1 मार्च को एक संसदीय समिति ने भी समर्थन दिया था। इस समिति के सिफारिश को न्यायसंगत ठहराते हुए गृह-मंत्रालय के स्थायी समिति के अध्यक्ष एम. वेंकइया नायडू ने कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक कानून के तहत लागू करने पर वैवाहिक संस्थान नष्ट होगा और साथ ही व्यावहारिक समस्याएं आएंगी।

विचारणीय है कि बलात्कार अपराध है, वह किसी संपर्क की मांग नहीं करता। बलात्कारी चाहे पीड़िता का एकदम अपरिचित हो, चाहे सतही तौर पर परिचित, चाहे दोस्त हो, चाहे प्रेमी हो या चाहे ‘पति’ हो; वह गुनहगार है, वह अपराधी है क्योंकि उसने स्त्री की मर्ज़ी और इच्छा के खिलाफ़ स्त्री-शरीर पर चोट किया है, उस पर हमला किया है। बलात्कार एक संगीन जुर्म है, पीड़िता के लिए वह शारीरिक और आंतरिक सदमा है। सोचने वाली बात है कि जब एक बार किया गया बलात्कार, पीड़िता को भयानक मानसिक और शारीरिक कष्ट और यंत्रणा का शिकार बनाती है, उसे अवसाद का शिकार बना सकती है तो उस औरत का क्या जो हर दिन अपने पति के द्वारा निपीड़ित होती है, उसके अत्याचार और दुराचार का लगातार शिकार होती रहती है। विवाह विश्वास और अनुराग का एक बंधन है। जिस स्त्री ने अपनी ज़िदगी, तन और मन भरोसे के साथ अपने पति को सौंपा जब वही पति उसके साथ हैवानियत पर उतर आए तो उस स्त्री को कितनी यंत्रणा झेलनी पड़ती होगी यह सहज ही अनुमेय है। यह स्त्री को अपमानित और असम्मान करना है, उसे मातहत बनाना है, उसके विश्वास पर आघात करना है और पति का अपनी मर्यादा का उल्लंघन करना है। क्या इस पर विचार करने के बाद भी वैवाहिक बलात्कार का आपराधिक कानून की कोटि से बाहर रहना हमारे दिमाग में सवालिया निशान नहीं लगाता?

'द यू.एन. पॉप्यूलेशन फंड' की शोध के मुताबिक भारत में दो-तिहाई से भी ज़्यादा वैवाहिक स्त्रियां जिनकी उम्र 15 से लेकर 49 के बीच है, पति द्वारा यौन-उत्पीड़न को लगातार झेलती हैं। इस उत्पीड़न में पीटना, बलात्कार, जबरन सेक्स आदि शामिल है। हालांकि कई ऐसे देश हैं जहां वैवाहिक बलात्कार अवैध है। इनमें 18 अमेरिकी राज्य, 3 ऑस्ट्रेलियन राज्य, न्यू ज़ीलैंड, कैनैडा, ईसराइल, फ्रांस, स्वीडेन, डेनमार्क, नॉरवे, सोवियत यूनियन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया शामिल है।

यह देखा गया है कि वैवाहिक बलात्कार का नतीजा किसी अपरिचित द्वारा हुए बलात्कार की तुलना में कई ज़्यादा खतरनाक होता है। पत्नी कई गंभीर शारीरिक यातनाएं झेलती हैं जैसे हड्डी का टूटना, नींद न आना, आंखों का काला होना, मसेल पेन, शरीर पर घाव की मौजूदगी, नाक में खून का जमना, यौनांगों पर ज़ख्म, यौन-रोग आदि। इन शारीरिक यंत्रणाओं के अतिरिक्त कभी-कभी पीड़िता के दिमाग पर इन सबका इतना बुरा असर पड़ता है कि वह अवसाद में चली जाती है और इन सबसे निजात पाने के लिए आत्महत्या की कोशिश भी करती है। कभी-कभार बच्चों के सामने इस तरह के हादसे होने पर बच्चों के दिमाग पर इसका बुरा असर पड़ता है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत यह अध्यादेश है कि यदि पति 12 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार करता है तो वह अपराध की कोटि में है और उसे अधिकतम दो साल की सज़ा हो सकती है। लेकिन अगर 12 से 16 साल की उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार होता है तो वह गंभीर अपराध नहीं है, इस मामले में बलात्कारी को कम सज़ा मिल सकती है। लेकिन यदि पीड़िता 16 साल के ऊपर की है तब कानून की नज़र में वह अपराध नहीं है। इस नियम के फलस्वरुप जब 16 साल के ऊपर की स्त्रियों पर पति द्वारा यौन-हिंसा होती है तो वे कानून की मदद नहीं ले पातीं। जायज़ है पत्नी चुपचाप यौन-हिंसा को सहन कर लेती हैं। अधिकतर स्त्रियों को अपने संपर्क के टूटने और समाज में अपनी और अपने परिवार की प्रतिष्ठा की भी चिंता होती है, बच्चों की चिंता होती है जिसकी वजह से वे अपने मन की बातें खुलकर किसी से कह नहीं पातीं। धीरे-धीरे वे अवसाद की शिकार होती हैं। पति के प्रति नफ़रत की भावना से भर जाती है लेकिन पति को इस नफ़रत से कोई लेना-देना नहीं। अंत में तंग होकर कई महिलाएं घरेलू हिंसा का मुकदमा दायर करती हैं और न्याय के लिए कचहरी का सालों साल चक्कर लगाती हैं।

ऐसे भी मामले हैं जहां पत्नी ने पति के खिलाफ़ बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया हो लेकिन अदालत ने इसे यह कहकर खारिज कर दिया कि वैवाहिक बलात्कार की धारणा भारत में अस्तित्व नहीं रखता।
यदि संविधान ने स्त्री को समान हक दिया है तो इसलिए कि नागरिक होने के नाते वह पुरुष के समान हक पाने की योग्या है। लेकिन यदि उस पर अत्याचार हो रहा है, उसके अस्तित्व पर हमला हो रहा है, उसकी इच्छा के खिलाफ यौन-संपर्क किया जा रहा है तो ऐसे कृत्य भी कानून की नज़र में गुनाह होने की मांग करती है। यह जानने और समझने की बात है कि स्त्री का शरीर केवल मात्र स्त्री का है, उसकी हकदार भी स्त्री खुद है, कोई और नहीं। वह किस के साथ शारीरिक संपर्क करेगी यह उसका व्यक्तिगत मामला है। वह अपने पति के साथ शारीरिक संपर्क बनाना चाहती है या नहीं, कब चाहती है कब नहीं वो खुद निर्णय लेगी, यह उसका अधिकार-क्षेत्र है। अगर स्त्री की इच्छा और अनुमति के बगैर उसके साथ हिंसा हो रही है तो वह हर हाल में अपराध है। ये कैसे संभव है कि घरेलू हिंसा के लिए तो पति को दंड देने का प्रावधान है लेकिन बलात्कार के लिए नहीं? इसलिए स्त्री अधिकार के लिए यह मांग है कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक कानून के तहत इंडियन पेनल कोड में शामिल किया जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कार के जो दंड सुनिश्चित है, वह वैवाहिक बलात्कार के मामले में भी सख्ती से लागू हो।

स्त्री चेतन मन में होनी चाहिए, अवचेतन में नहीं - सारदा बनर्जी


                          

आम तौर पर देखा गया है कि हिन्दी साहित्य में पुरुष कवियों के हमेशा अवचेतन में स्त्री आई है। स्त्री को लेकर कुंठित भाव व्यक्त होता आया है। स्त्री कवियों के चेतन भावबोध का हिस्सा न होकर अवचेतन में घर किए रहती है जो स्त्री के प्रति संकुचित और स्त्री को देखने का एक तरह से कुंठित रवैया है। स्त्री को देखने के इस गलत नज़रिए की वजह से स्त्री के प्रति दया का भाव बार-बार हिन्दी साहित्य में व्यक्त हुआ है। वह हमेशा लज्जालु, दबी-ढकी, रोने वाली, बिलखने वाली, असीम दुख-दर्द हृदय में छुपाने वाली असहाय और अबला स्त्री के रुप में चित्रित हुई है। छायावादी कविता में वह करुणा और संवेदना की साकार मूर्ति के रुप में स्थान पाई है। ‘अबला नारी’, ‘दीन-हीन स्त्री’ जैसी उपमाओं से सुसज्जित हुई है। रीतिकाल में केवल प्रेम करने वाली अनेकानेक कलासंपन्न पुरुषाश्रित स्त्री के स्वरुप को तवज्जो दिया गया। फलतः स्त्री के प्रति उपेक्षिता का भाव बार-बार सामने आया है। ये स्त्री को देखने का सामंती नज़रिया है। इस संदर्भ में रघुवीर सहाय ने सटीक टिप्पणी की है, ‘कुल मिलाकर नया और पुराना हिंदी साहित्य स्त्री को लेकर जो कुछ देता है वह सतह पर घिनौना, सतह के नीचे पुरुष-समर्थक और उससे भी गहरे कहीं मनुष्य-विरोधी है।

लोकतंत्र के आने के बाद हर एक चीज़ को पुनर्परिभाषित करना बेहद ज़रुरी होता है। हमें स्त्री को देखने के इस परंपरागत इमेज और सामंती नज़रिए से बाहर आकर लोकतांत्रिक हकों के लैस स्वच्छंद स्त्री की इमेज डेवलप करनी चाहिए। लोकतंत्र के आने के बाद नर-नारी समता का अधिकार बना। यह स्त्री के पक्ष में बना संवैधानिक अधिकार था। यह ज़रुरी था कि अब स्त्री ‘आंसू बहाने वाली असहाय औरत’ के इमेज से बाहर निकले और ‘स्त्री-अस्मिता वाली स्त्री’ के रुप में साहित्य में दाखिल हो। इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल और रघुवीर सहाय की कविताओं में स्त्री के प्रति चेतन भाव है। स्त्री उनके अवचेतन में शिरकत नहीं करती बल्कि स्त्री चेतन मन का हिस्सा बनकर उनकी कविताओं में रुपायित हुई है। ये दोनों कवि विशुद्ध मार्क्सीय दृष्टिकोण से स्त्री को देखते हैं। जब ये स्त्री पर लिखते हैं तो स्त्री के प्रति दया भाव नहीं प्रगतिशील भावबोध और समतावादी दृष्टिकोण का असर साफ़ झलकता है। केदारनाथ अग्रवाल ने तो स्त्रियों पर अनेक कविताओं की रचना की है जो बिलकुल अकुंठित भाव से लिखी गई है, ‘न कुछ, तुम एक चित्र हो/ रंगों से उभर आए अंगों का/ जवान/ जादुई/ जागता/ मन पर मेरे अंकित/ मेरे जीवन की परिक्रमा का/ अशांत/ अतृप्त/ अनिवार्य/ रंगीन विद्रोह।’
स्त्री-जीवन पर रघुवीर सहाय की एक मौजूं कविता है, ‘पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सबमें लगा पलीता/ किसी मूर्ख की हो परिणीता/ निज घरबार बसाइए/ होंय कँटीली/ आंखें गीली/ लकड़ी सीली, तबियत ढीली/ घर की सबसे बड़ी पतीली/ भर कर भात पसाइए।’ स्त्रियों की ज़िदगी किस कदर घर-संसार की चक्की में पिसकर तबाह हो जाती है और जीवन के अंतिम छोर तक स्त्री अपनी अस्मिता को रसोईघर तक सीमित किए रहती है,उससे आगे नहीं बढ़ पाती, ये कविता इसका ताज़ा नमूना है।


                     

प्रेम इन कवियों के लिए 'अनटचेबल' नहीं है। ये कवि कुंठारहित भाव से प्रेम को संप्रेषित करते हैं। स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंधों को लेकर इन्होंने अनेक खूबसूरत कविताओं को अंजाम दिया है। दोनों ने ही मुक्त भाव से अपनी पत्नी पर कई सारी कविताओं की रचना की है। ध्यानतलब है कि अक्सर कवि प्रेमिकाओं को लेकर तो सुंदर प्रेम कविताओं की सृष्टि कर लेते हैं लेकिन अपनी पत्नी पर कविता लिखने में हिचकते हैं या कहें इनमें पत्नी को छुपाकर रखने की टेंडेंसी होती है। इसकी वजह से पत्नी कविता में बहुत कम उभरकार आ पाती है या व्यक्तिगत प्रेम-प्रसंगों पर कम लिखा जाता रहा है। फलतः उन्मुक्त दाम्पत्य प्रेम का चित्रण कविताओं में बिल्कुल गायब हो जाता है। उल्लेखनीय है कि रघुवीर सहाय और केदारनाथ अग्रवाल ने कविताओं के ज़रिए नए सिरे से अपनी पत्नी को एक्सप्लोर किया है। ये पत्नी पर कविता लिखते हैं, मन की फिलींग्स को निर्बंध तरीके से प्रस्फूटित करते हैं। स्त्री को पुनर्परिभाषित करते हैं। केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-संग्रह ‘जमुन जल तुम’ तो पत्नी को संबोधित एक अकुंठित और आवरणहीन प्रेम-कविताओं का संकलन है।




स्वच्छंद प्रेज़ेंस के साथ जब आधुनिक स्त्री साहित्य में दाखिल  होती है तो स्त्री का सामंती इमेज गायब होता है और वो नए फॉर्म और नए अंदाज़ में प्रवेश करती है। फलतः स्त्री के बारे में सारे पुराने मिथ टूटने लगते हैं। अब स्त्री रोने और पुरुषाश्रित होने के अलावा अपने फैसले लेने वाली स्वायत्त स्त्री का इमेज धारण करती है। अब साहित्य में स्त्री-जीवन का लक्ष्य कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, मंदगामिनी नायिका बनकर पुरुषों को आकर्षित करना नहीं रह जाता बल्कि अपनी स्वतंत्र अस्मिता को दर्ज करना बनता है। फलतः साहित्य का चरित्र बदलता है। स्त्री फैंटेसी में न रहकर अब अपनी वास्तविक हालातों के साथ साहित्य में रिफ़्लेक्टेड होती है। वह गम में दुखी, आनंद के समय खुश दिखाई देती है। स्त्री-अस्मिता के लिए उसकी छटपटाहट अब साफ़-साफ़ सुनाई देती है। वह कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, आत्मकथाओं में अपने जीवन के साथ, सांसारिक अनुभवों के साथ दाखिल होती है।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...