Saturday 20 December 2014

बलात्कार के नए औज़ार— सारदा बैनर्जी


सोलह दिसम्बर, 2012 को मेडिकल की छात्रा निर्भया के साथ जिन अमानवीय हरकतों को किया गया उतने ही 'अमानवीय तरीके से बलात्कार करने' की धमकी देते हुए और रॉड जैसे हथियारों को साथ रखकर उसके ज़रिए दहशत पैदा करते हुए अब दूसरी लड़कियों के साथ बलात्कार को अंजाम दिेया जा रहा है। नृशंस बलात्कार की पुरानी घटनाएं अब होने वाले बलात्कार के समय औज़ार के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इसे बलात्कार के नए औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए। हाल में ही दिल्ली में उबेर नामक कंपनी के कैब में एक सत्ताइस साल की युवती के साथ कैब के ड्राइवर ने इसी युक्ति का सहारा लेते हुए बलात्कार किया। हरियाणा के हिसार ज़िले में बी.ए. के फार्म के लिए फॉटो खिंचवाने स्टुडियो पहुंची एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसका वीडियो बनाया गया और फिर वीडियो के ज़रिए लगातार तीन साल तक पीड़िता को ब्लैकमेल किया गया। पीड़िता ने साहस करके हाल में घटना का खुलासा किया है।
निर्भया बलात्कार कांड के अपराधियों को सज़ा दी गई। लेकिन इसके बाद भी देखा जा रहा है कि लगातार बलात्कार के वारदात होते रहे हैं। इन सारी घटनाओं ने पुराने सवालों को दोबारा उठाने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर स्त्रियां देश में कितनी सुरक्षित हैं? क्या स्त्रियों के पक्ष में दो-तीन कानून बना देने भर से ही स्त्रियां सुरक्षित हो जाएंगी? क्या समाज के गली-चौराहे कभी स्त्रियों के अनुकूल नहीं होंगे? निश्चिंत होकर कब स्त्रियां अपने घर पहुंचेगी? कब मर्द अपनी घिनौनी विचारधारा से मुक्त होगा?
निर्भया कांड ने पशुवत आचरण और हृदय रखने वालों को कितना संवेदनशील और मानवीय बनाया और बलात्कार जैसे अपराध के प्रति उन्हें कितना सचेत और सजग किया ये अब संशय के घेरे में है। शायद आए दिन आने वाली बलात्कारों की खबरें इन विकृत मानसिकता रखने वालों के लिए ईंधन का काम कर रहे हों ये भी संभव है कि जिन बर्बर बलात्कार की घटनाओं को अखबारों में पढ़कर हम सचेत और संवेदनशील नागरिक शर्मसार होते हों, वही खबरें इन पाशविक वृत्ति संपन्न इंसानों को नई ऊर्जा देती हो, नए औज़ार से लैस होकर ये बस बलात्कार करने का मौका तलाशते हों। यही वजह है कि किसी स्त्री को देखते ही सारी सभ्यताओं को तिलांजली देकर ये पुरुष अपने आदिम बर्बर रूप में आ जाते हैं जहां से स्त्री इन्हें केवलमात्र भोग्या के रूप में दिखाई देती है। सोचनेवाली बात है कि स्त्री-अनुभूति, स्त्री-संवेदना को दरकिनार कर स्त्री को केवलमात्र भोगवादी दृष्टि से देखने की यह आदिम प्रवृत्ति आई कहां से? क्या इसके लिए हम अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराए? लेकिन बलात्कार जैसे अपराध तो एक बड़े शिक्षित समूह द्वारा भी निष्पन्न किए जा रहे हैं। फिर क्या हमारी शिक्षा-व्यवस्था में समस्या है? लेकिन ये समस्या आई कहां से? इसके कारण की पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि इसके लिए सदियों से चली आ रही पितृसत्ताक विचारप्रणाली और पुसंवादी विचारबोध जिम्मेदार है जिसने समाज में उपभोग के अलावा किसी और रुप में स्त्री को देखने-समझने का मौका नहीं दिया। स्त्रियों के भोगवादी रूप को लगातार सामने रखा लेकिन एक इंसान के रूप में स्त्री की उपस्थिति को कभी दर्ज नहीं क्या गया, यही कारण है कि स्त्री-अस्मिता का विकास नहीं हो पाया। स्त्री-वजूद को सख्त बेड़ियों में बांधकर उसके स्त्री-अस्तित्व के मूल्य को बेहद संकुचित कर दिया गया।
ये हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि टेलीविज़न पर बलात्कार जैसी घटनाओं की अहर्निश निंदा हो रही है, बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को केंद्र में रखकर विभिन्न बुद्धिजीवियों के बीच सवांद आयोजित किए जा रहे हैं, सोश्यल साइट्स में बलात्कार के खिलाफ़ खूब लेख लिखे जा रहे हैं, बलात्कार-पीड़िता के प्रति संवेदनावाक्य प्रकट हो रहा है, बलात्कार के अपराधी पर तीखे शब्दबाण बरसाए जा रहे हैं लेकिन बलात्कार है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा। रुकना तो दूर की बात, बलात्कार नए-नए रूपों में, नए-नए तरीकों में, नए-नए औज़ारों के साथ, नित्यनूतन परिवेश में हर दिन दाखिल हो रहा है और हमारे देश की समाज-व्यवस्था की अक्षमता और असुरक्षा को जाहिरजहान कर रहा है। स्त्रियों के सामने नई-नई चुनौतियां उछाल रहा है और स्त्री-सुरक्षा को कठघरे में खड़ा कर रहा है।
हाल की परिस्थितियां यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि हमारे देश की सरकारें(केंद्र और राज्य) बलात्कार को रोकने में नाकाम हैं। बलात्कारियों को तुरंत सज़ा देने में भी असमर्थ हैं। निर्भया कांड को हुए दो साल पूरा हुआ लेकिन आज भी बलात्कार की घटनाएं नहीं थम रही। देश में स्त्रियां आज भी सुरक्षित नहीं है, सम्मान की नजर से नहीं देखी जा रहीं। ऐसी अवस्था में प्रशासन या सरकार से किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखना बेमानी है। अभी ज़्यादा ज़रूरी है कि स्त्रियां मानसिक रूप से मज़बूत हों। राह चलते समय स्त्रियों को अपनी बुद्धि-विवेक का भरपूर प्रयोग करना होगा जिससे आने वाले खतरों को भांपकर उसी अनुसार कदम उठाया जा सके। अगर जरूरत पड़े तो कानून की हर तरह से मदद ली जाए। स्त्रियों को अपने दिल-ओ-दिमाग़ में यह साफ़ रखना है कि उन्हें अपना रास्ता खुद निकालना है, कोई और नहीं है जो उनकी मदद करे। इस दैनंदिन संघर्ष को जीवन का अंग मानकर, जीवन जीने का तरीका मानते हुए स्त्रियों तो आगे कदम बढ़ाना है।


पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...