Tuesday 23 May 2023

पुस्तक और अवसरवाद

 


मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से पुस्तकों को हाथ में लेकर पढ़ने तथा मनन करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। वे केवल इतना जानते हैं कि पुस्तक पढ़ने वालों को लोग सराहते हैं तो अगर मैं पुस्तकों को सजाकर रखूं तो लोग मेरी बड़ी तारीफ़ करेंगे। नामचीन लेखकों द्वारा लिखित जनप्रिय पुस्तकों को ऐसे लोग कांच के उस पार सजाकर रखते हैं।

इसी तरह कुछ लोग केवल पुस्तकों का नाम याद कर लेते हैं और सामने वाले को परेशान करने के लिए सद्य प्रकाशित विभिन्न पुस्तकों का धड़ल्ले से नाम बताते रहते हैं। यह अन्य के सामने स्वयं को अपडेटेड दिखाने का तरीका है। साथ ही पुस्तकों की सूचना के ज़रिए स्वयं को ज्ञानवान दिखाने का काल्पनिक छद्म भी है। किताब की अन्तर्वस्तु से इस तरह के लोगों का कोई संबंध नहीं। वे ना पढ़ते हैं, ना ही पढ़ाते हैं।

एक अन्य वर्ग है जो इंटरनेट से ज्ञान प्राप्त करके कुछ पुस्तकों का नाम जान लेते हैं, नेट पर उपलब्ध कुछ अंश पढ़ लेते हैं और फिर पढ़ने वालों के समक्ष यह भ्रम पैदा करते हैं कि उन्होंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है। 

एक और वर्ग है जिसके सामने आप किसी भी पुस्तक का नाम लेते जाइए, वे तुरंत कहते जाएंगे कि उन्होंने वे सारी पुस्तकें पढ़ ली है। अगर आप इन सारी पुस्तकों के भीतर से कोई आलोचनात्मक सवाल उठाएंगे तो वे बड़े नज़ाकत से कहेंगे कि बहुत गंभीर विषय है, इस पर कभी विस्तार से चर्चा करने की जरूरत है। लेकिन वह 'कभी', कभी भी नहीं आता। इसे पलायनवाद कहते हैं जो वास्तव में अविद्या की उपज है। 

प्रदर्शन को जीवन की पूंजी मानना पुस्तक के साथ साथ स्वयं का भी अनादर है। जीवन का मूल धन तो पुस्तकों के भीतर प्रवेश करके ही प्राप्त होता है। ज्ञान से बढ़कर कोई पूंजी नहीं। ज्ञान से बढ़कर कोई मित्र नहीं। ज्ञान से बढ़कर कोई शक्ति नहीं।

Friday 7 April 2023

वेदिक विलेज का सत्य

 


उत्तर-सत्य युग में हम छद्म में जीने के अभ्यस्त हो रहे हैं। छद्म सौन्दर्य, छद्म आनंद, छद्म फोटो-सुख, छद्म गांव-भ्रमण और छद्म अनुभूति। शहरी जीवन की यांत्रिकता एवं उबाऊपन से निकलने के लिए सुख का जो आभासीकरण हुआ है, उसने व्यवसायीकरण के नए मानक को जन्म दिया है।


पिछले कई दशकों से गांव लगातार उजाड़े जा रहे हैं और गांवों का लगातार शहरीकरण हो रहा है।  लाल मिट्टी की पगडंडियाँ लगातार काले कांक्रीट की चौड़ाइयों में बदल रही है। हरियाली को जड़ से उखाड़कर नई-नई अट्टालिकाएं, फैक्ट्रियाँ लाई जा रही हैं। नदियाँ मुसलसल दूषण से प्रभावित होकर अपना नीलापन और पारदर्शिता खो रही हैं। नदियों के किनारे कारखाने और नदियों के ऊपर लगातार बन रहे बाँधों के सिलसिलों ने नदियों के अस्तित्व को चुनौतीपूर्ण बना रखा है। लेकिन इन सबके मध्य एक मजेदार तथ्य यह भी है कि शहरों में नए कृत्रिम गांव बसाए जा रहे हैं, उनका सौंदर्यीकरण हो रहा है और उन्हें 'विलेज-रिसॉर्ट' या ‘वेदिक विलेज’ के चमकदार नाम से पुकारा जा रहा है। यानि वेद कालीन गाँव! यह सामयिक या क्षणिक गाँव-भ्रमण है। वास्तव में यह बाज़ारवाद का नया खेल है और हम शहरी जनमानस फ़िलवक्त इस खेल का ज़रूरी अंग बन रहे हैं।

महंगे शहरों में या इनके आसपास इस तरह के रिसॉर्ट बनाए जा रहे हैं और इनके अलग-अलग नामकरण हो रहे हैं। वहां मिट्टी के कच्चे घर जैसे नकली व आकर्षक घर बनाए जा रहे हैं। पुआल के छत बनाकर घरों के बाहर हाथ-पंखे, लालटेन, कुर्सी आदि से सजाकर घरों को ग्रामीण प्रतिरूप दिया जा रहा है। कुआं आदि बनाकर कृत्रिम जलाशयों के आसपास कुछ पेड़-पौधे लगाए जाते हैं, जलाशयों में कुछ रंगीन मछलियां डाल दी जाती हैं, कुछ राजहँस, कुछ कछुए इत्यादि भी छोड़ दिए जाते हैं। एकदम गाँव और समुद्र की मिलीजुली अनुभूति! बाँस के बने मेज़-कुर्सी, बिस्तर भी सजाकर रखे होते हैं और इस पूरे कुटीर का नाम ‘बैम्बू-कॉटेज’ रखा जाता है। पूरा परिवेश कृत्रिम हरियाली से ऐसे सजाया जाता है जैसे शहर की समग्र हरियाली टुकड़ा भर उसी रिसॉर्ट में व्याप्त हो। वहीं शहरी जनमानस का अत्याधुनिक तकनीकों से लैस स्वीमिंग पुल भी वहाँ बड़े नखरे के साथ पंख फैलाये है। साथ ही चीड़ियाघर की अनुभूति के लिए कुछ निरीह जीव जैसे बिल्ली, खरगोश, कुछ पंछी आदि भी रखे जाते हैं। यहाँ मनुष्य के समवेत-भोजन के लिए भी रसोइघर आदि की व्यवस्था होती है। यानि कुछ शहर कुछ-कुछ गांव-सा, थोड़ा समुद्र-सा!

 

गांव जैसी छद्म अनुभूति लाने के लिए लोग हजारों रूपए खर्च करके इन रिसार्ट्स की बुकिंग कर रहे हैं। अपने परिवार के साथ पिकनिक या भ्रमण पर जाते हैं, फोटो खींच कर लाते हैं और गांव वाली अनुभूति जनमाध्यमों पर साझा करते हैं। एक का नकली गाँव-सुख देखकर दूसरा उस छद्म सुख को पाने के लिए उन्मादित-लालायित हो उठता है। फिर वह भी इसी छद्म सुख का हिस्सा बन जाता है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर गांव इतना मनमोहक और आकर्षक था तो फिर हमने गांव क्यों उजाड़े?  गांव की प्राकृतिक सुंदरता को तबाह करके हम शहर में कृत्रिम ग्रामीण परिवेश निर्मित करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या हमें गाँव की अनुभूति अच्छी लगती है; लेकिन गाँव का धूल पसंद नहीं! गाँव की सुंदरता अच्छी लगती है; लेकिन बिजली, पानी, कीचड़ की अनेकानेक समस्याएं पसंद नहीं! गाँव की मिट्टी का चूल्हा तथा माटी के बर्तन देखने में अच्छे लगते हैं; लेकिन चूल्हे पर व मिट्टी के बर्तनों में पकाना नहीं! विलुप्त गाँव के चिह्न मन लुभाते हैं; लकिन उन विलुप्त चीज़ों का व्यवहार आकर्षित नहीं करता! गाँव की अनुभूति अच्छी लगती है; लेकिन गाँव नहीं! क्या हमें बीस प्रतिशत गाँव पसंद है और अस्सी प्रतिशत नहीं! असल में हमें छद्म पसंद है। केवल गांव का ही शहरीकरण हुआ है ऐसा नहीं है; हमारी अनुभूतियों का भी हुआ है। केवल कृत्रिम गांव ही बनाए गए हैं ऐसा नहीं है; हमारी अनुभूतियाँ भी कृत्रिम होती गई हैं। बनावटी आनंद, बनावटी उन्माद, बनावटी खुशफ़हमी!


मनुष्य होने के लिए इससे ज्यादा नकलीपन और क्या हो सकता है कि गाँव न हो लेकिन गाँव जैसा ‘कुछ’ हो। इसे आभासी दुनिया कहते हैं। यह सुख नहीं सुख जैसा है, अनुभूति नहीं अनुभूति जैसी है, असली नहीं असली जैसा ह। कुछ होना होना-सा लेकिन वास्तव में निःसार! असल में यह छद्मीकरण है और हम इसके अभ्यस्त हो रहे हैं।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...