स्वच्छंदता एक ऐसी
संपदा है जो स्त्री अस्मिता और स्त्री-आज़ादी के लिए बिना शर्त ज़रुरी है। स्वच्छंदता
का अर्थ चरित्रहीन होना नहीं है, स्वच्छंदता का अर्थ है, अपने तन-मन की मालकिन और
अपनी पहलकदमी की मालकिन। स्वच्छंद स्त्री गैर-ज़िम्मेदार नहीं होती। किसी भी परिवार
में स्त्रियों की उपस्थिति बहुत मूल्यवान होती है। अगर स्त्री स्वच्छंद रुप में
परिवार में अपनेे निर्णय लेती है तब तो कहना ही क्या! कितनी खुश रहती है वह स्त्री जो स्वच्छंद हो और
कितना खुश रहता है वह परिवार जहां स्त्री खुश रहे। इसका आदर्श नमूना है, राहुल
सांकृत्यायान की कृति ‘वोल्गा से गंगा’। ‘वोल्गा से गंगा’ की ‘अमृताश्व’ कहानी इस
संदर्भ में ध्यानतलब है। यह कहानी राहुल जी के अनुसार दो सौ पीढ़ी पहले के एक आर्य
कबीले की है जब पशु-पालन जनता की जीविका का मुख्य साधन था। इस कहानी में ‘सोमा’ का
चरित्र अपने आप में अलग और स्वच्छंद चरित्र है।
कहानीकार की मानें
तो यह एक ऐसा ज़िंदादिल युग था जहां स्त्री ने अपने को पुरुष की जंगम संपत्ति होना
स्वीकार नहीं किया था और इसीलिए स्त्री को अस्थायी प्रेमी बनाने का पूरा अधिकार
था। वजह यही है कि सोमा स्वच्छंदतापूर्वक अपने पति कृच्छास्व के साथ रहते हुए भी अपने
पुराने प्रेमी रुपी अतिथी ऋज्रास्व को खुशीखुशी घर आमंत्रित करती है, उससे वार्तालाप
करती है, पति के समक्ष ऋज्रास्व को सुरा पान व मांस भक्षण कराती है। उस दिन के लिए
ऋज्रास्व के पास बैठकर सोमपूर्ण चषक को पीती और आनंद लेती है। कृच्छास्व भी बहुत
दरियादिली से इस हकीकत को मान लेता है क्योंकि यह उस समय का एक सामान्य आचार था। साथ
ही यह एक स्त्री की व्यक्तिगत इच्छा का मामला भी था। रात में वह ऋज्रास्व के साथ
समूचे गांववालों के सामने नृत्य, गान और सुरापान करती है। स्पष्ट होता है कि उस
समाज में स्त्री-सम्मान का कितना प्राबल्य था।
आज स्त्रियों के साथ सारे अविचार और अनाचार की जड़ है पुंस समाज के सामंतवादी नियम जिसने स्त्रियों को विचारों और शरीर से बंदी बनाया। उसकी स्वाधीनता में हस्तक्षेप किया, उसकी स्वच्छंदता में बाधा डाला और उसे ज़िदगीभर के लिए पुरुष की भोग्या बनाया। स्त्रियों को पुंस समाज के इस बने-बनाए रुढ़िग्रस्त नियम को तोड़कर आगे बढ़ना है और अपनी खोई हुई स्वच्छंदता और आज़ादी को वापस हासिल करना है।
मातृसत्ताक समाज की ‘सोमा’ जितनी स्वच्छंद है अपने निर्णयों में उतनी ही स्वच्छंदता स्त्रियों के जीवन में अपेक्षित है। उपरोक्त कहानी में आगे चलकर एक और सुंदर संपर्क का उद्घाटन होता है। इस संपर्क में दो स्वच्छंद चरित्र है, एक मधुरा और दूसरा अमृताश्व (सोमा का पुत्र)। मधुरा और अमृताश्व का प्रेम आदर्श प्रेम को सामने रखता है जिसमें दोनों ओर से वर्चस्व का कोई भाव नहीं है। इसके अतिरिक्त दोनों का वार्तालाप समाजवादी समाज की भावनाओं को ऊजागर करता है। मसलन् अमृताश्व मधुरा से कहता है, ‘मधुरा! ऐसे भी जनपद हैं, जहां स्त्रियाँ दूसरे की नहीं, अपनी होती हैं।’ इस एक वाक्य में स्त्री का पुरुष की संपत्ति होने का विरोध दर्ज हुआ है। अमृताश्व आगे कहता है, ‘उन्हें कोई लूटता नहीं, उन्हें कोई सदा के लिए अपनी पत्नी नहीं बना पाता। वहाँ स्त्री-पुरुष समान होते हैं।’ यहां स्पष्टत: समाजवादी समाज की आकांँक्षा दिखाई देती है। साथ ही समानता की भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। गौर करने की बात है कि मातृसत्ताक समाज अपने नियमों में कितना उदार था, वहां भले ही स्त्री योद्धा और शिकारी हो, स्वतंत्र हो लेकिन वे पुरुषों पर आधिपत्य कायम कर उनका शोषण नहीं करता था। वहां के नियम समानता के मानदंड पर बने थे।
अमृताश्व द्वारा मधुरा को प्रेम-निवेदन करने का दृश्य भी अमृताश्व की उदार मनोवृत्ति का परिचायक है। उसने मधुरा की इच्छानुसार उससे प्रेम कर साथ रहने का निश्चय किया। मधुरा के शिकार और युद्ध करने पर कोई पाबंदी नहीं लगाया। बाद में अपने शब्दों का पालन भी किया। मधुरा ने कई युद्धों में भाग लिया और रीछ, भेड़िये और बाघ के शिकार किए हालांकि उस समय तक यह कार्य पुरुषों के दायरे में दाखिल हो चुका था।
स्त्री-स्वच्छंदता का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या हो सकता है।
हमारे समाज को यह बात अपने ज़ेहन में बैठानी होगी कि स्त्री
पुरुष की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है। उसके व्यक्तित्व को
स्वाभाविक तौर पर विकसित होने का स्पेस चाहिए। पितृसत्ताक
समाज स्त्रियों को जिस घेराबंदी में शुरु से जकड़ देता है वह रुढिवादी और सामंती मनोदशा का परिचय देता है। राहुल की कहानियां इस संदर्भ में पढ़ने लायक है। यह स्त्रियों के आधुनिक और उदार रुप को सामने लाता है।
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