Saturday 26 December 2015

रजस्वला स्त्री और ‘अपवित्रता’ का पुंसवादी प्रपंच– सारदा बैनर्जी


केरल के ब्रह्मचारी देवता ‘अय्यप्पा’ के सबरीमाला मंदिर में दस से लेकर पचास तक की उम्र की लड़कियों-स्त्रियों का प्रवेश निषेध है कारण यह स्त्रियों के रजस्राव होने की उम्र होती है। हाजी अली दरगाह के गर्भगृह में पंद्रहवीं शताब्दी से स्त्रियों के प्रवेश पर बैन लगा हुआ है कारण मान्यता है कि रजस्राव होने के कारण स्त्रियां अपवित्र होती हैं, इसलिए उनका प्रवेश निषिद्ध है। यही नियम कई गिरजाघरों में भी स्त्रियों पर लागू हैं। प्राचीन धर्मशास्त्रों में इस बात का उल्लेख हुआ है कि रजस्राव के दौरान स्त्रियां अपवित्र हो जाया करती हैं इसलिए किसी भी तरह के धार्मिक क्रियाकर्म(पुण्यकर्म) में वे शुमार नहीं हो सकतीं, किसी भी ईश्वरीय मूर्ति को वे रजस्वला के दौरान छू नहीं सकतीं और किसी भी धार्मिक संस्थान(मंदिर, मस्जिद, गिरजा) में कदम नहीं रख सकतीं। ‘मनुस्मृति’ के पांचवे अध्याय में इस बात का उल्लेख है कि रजस्राव के तीसरे दिन तक स्त्रियां अशुद्ध रहती हैं, चौथे दिन सिर धोकर नहाने के पश्चात वह पुनःपवित्रावस्था या शुद्धावस्था में लौट आती है। रजस्वला अवस्था में घर के सामान को स्पर्श कर लिए जाने के कारण होने वाले पाप के निवारण के लिए कई तरह के व्रत भी प्रचलित हैं जिनमें एक है ‘ऋषिपंचमी व्रत’ जो भाद्रपद शुक्लपक्ष की पंचमी को किया जाता है। ऋषिपंचमी की कथा में कथालेखकों ने श्रीकृष्ण द्वारा यह उपदेश भी दिलाया है कि यदि रजस्वला स्त्री गृहकार्य को स्पर्श करती है तो पापकर्म के कारण उसे नर्क में स्थान मिलता है। इसलिए चारों वर्णों की स्त्रियों को रजस्राव के दौरान गृहकार्य से दूर रहना चाहिए। लेकिन यह केवल उपदेश तक ही सीमित नहीं था अपितु समाज के मन में रजस्वला स्त्री के प्रति भय पैदा करने के लिए और स्त्रियों को अपवित्र करार देने के लिए एक काल्पनिक कहानी भी रची गई। कहानी यह कि सतयुग में सुमित्र नाम के खेती करने वाले ब्राह्मण को उसकी सती-साध्वी पत्नी जयश्री ने रजस्वला अवस्था में स्पर्श कर दिया तथा घर के सारे काम भी किए। अगले जन्म में जयश्री ने कुतिया की और सुमित्र ने बैल की योनी प्राप्त की।

इन नियमों का अनुसरण करते हुए पुंसवादी ताकतों ने शताब्दियों से घर-घर में स्त्रियों को रजस्राव के दौरान पूजा तथा शुद्धिमूलक कार्यों से वंचित रखा। पुंसवादी नियमों के गिरफ़्त में धीरे-धीरे स्त्रियां भी आने लगी तथा उन नियमों के प्रति उन्होंने अपनी गहरी मानसिक प्रतिबद्धता भी दिखाई। पुंसवादी आचार-संहिता ने नियमावली के प्रतिपालन की पूरी जिम्मेवारी अभी पुराणपंथी स्त्रियों के हाथ में स्थानांतरित कर दी है और घर-घर में अपवित्रता की पवित्र शिक्षा मां या दूसरी बुज़ुर्ग स्त्रियों द्वारा नव-रजस्वला लड़कियों को दी जाती है। कुछ घरों में रजस्वला अवस्था के समय की अपवित्रता इतना गंभीर अपराध है कि केवल वह पूजागृह या धार्मिक कर्मकांड तक ही स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध नहीं रहता अपितु रजस्वला अवस्था में स्त्री रसोईघर में भी प्रवेश करने का अधिकार खो बैठती है, अपने माता-पिता को छूने के अधिकार से वंचित हो जाती है।
हाल में सबरीमाला मंदिर के अध्यक्ष गोपालकृष्णन ने यह इच्छा जाहिर की है कि मंदिर के द्वार पर ‘मेनस्ट्रूएशन स्कैनर’ लगाया जाएगा जिससे यह पता चल पाए कि स्त्री रजस्वला की अवस्था से गुज़र रही है या नहीं। इस स्कैनिंग के पश्चात स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिया जाएगा। ताज्जुब की बात है कि जो बालब्रह्मचारी या ईश्वर परमपवित्र, पतितपावन, मोक्षदाता, विघ्नहर्ता, पापनिवारक, सर्वशक्तिमान के तौर में पितृसत्ताक समाज में पूजित और प्रतिष्ठित हैं वे अतिसामान्य, बलहीन, निकृष्ट, बुद्धिहीन कही जाने वाली स्त्रियों के स्पर्शमात्र से अपवित्र हो जाएंगे!! आश्चर्य यह भी है कि परमअपवित्रों(स्त्रियों) व महापतितों(स्त्रियों) को भी पवित्र कर देने की क्षमता रखने वाले मनुवादियों के ईश्वर इतने शक्तिहीन और सामर्थ्यहीन हैं कि स्त्री के दर्शनमात्र से उनका व्रतभंग हो जाता है!! यह तो बालब्रह्मचारी भगवान अय्यप्पा के संयम, तपोबल, योगशक्ति और रिपुदमन के सामर्थ्य पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाता है! साथ ही भगवान अय्यप्पा के परमपवित्र उच्चकोटि के भक्तों के अवैज्ञानिक सोच और पुराणपंथी मानसिकता के हकीकत को भी बेनकाब करता है।
चलिए मान लेते हैं मनुवादियों की। लेकिन धर्मशास्त्र के मतों के अनुसार ईश्वर का अवस्थान तो हर एक पदार्थ में होता है। इस युक्ति के फलस्वरूप क्या हम यह न मान लें कि ‘रज’ में भी ईश्वर का वास होता है! तो क्या रज को पवित्र न माना जाए और रजस्वला स्त्री को भी पवित्र न माना जाए? स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को हीन करार देने के उद्देश्य से ही युक्तिहीन व अवैज्ञानिक धार्मिक प्रपंचों का आदिकाल से निर्माण किया गया है और उन्हें कठोर संहिताओं में आबद्ध करके जनमानस के हृदय में बद्धमूल किया गया। सवाल यह है कि स्त्री-शरीर की प्राकृतिक क्रियाओं को मनचाहे ढंग से नियमबद्ध करने का अधिकार पुरुषों को दिया किसने? क्या किसी पुरुष को किसी स्त्री ने शारीरिक नियमों के आधार पर कभी अपवित्र घोषित किया? मंदिर और मस्ज़िद की आंतरिक पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के नाम पर स्त्रियों की स्वतंत्रता पर हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार पुरुषों को नहीं है।


रजस्राव एक प्राकृतिक व स्वाभाविक पद्धति है। दस से पंद्रह साल की आयु की लड़की का अंडाशय हर महीने एक विकसित अण्डा उत्पन्न करना शुरू कर देता है। वह अण्डा अण्डवाहिका नली के द्वारा नीचे जाता है जो कि अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है, उसका स्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके। यदि उस अण्डे का पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है। इसी स्राव को ‘रजस्राव’ कहते हैं। जिस रज के बहाव के कारण स्त्रियों को अपवित्र करार दिया जाता है उसी रज से इंसान(स्त्री-पुरुष) के शरीर का निर्माण होता है। रजस्वला हुए बिना एक स्त्री मां नहीं बन सकती। जो यह कहते हैं कि रजस्वला के दौरान दूषित रक्त बाहर निकलता है वे प्राकृतिक नियम की सर्वथा गलत व्याख्या करते हैं। रजस्राव का शारीरिक अशुद्धता से कोई संबंध नहीं है। वरन रज का न बहना ही स्त्री के अस्वस्थ होने का लक्षण है। अचंभे की बात है कि स्त्री के मातृत्व को तो समाज सम्मान व पवित्रता की नज़र से देखता है लेकिन माता बनने की प्रक्रिया को अपवित्र माना जाता है!

आश्चर्य है कि रजस्वला स्त्री को रजस्राव के दौरान किन-किन तरह की समस्याएं होती हैं इस पर पुंसवादी पुरुष कभी बात करना पसंद नहीं करते; ना ही इसकी उन्होंने कभी पड़ताल ही की। लेकिन पुरुष-वर्चस्व को प्रतिष्ठित करने के लिए वे रजस्वला स्त्री पर अर्थहीन मानसिक नियम ज़रूर तय कर दिए। आज लोकतंत्र को लागू हुए पैंसठ वर्ष हो गए लेकिन हम लोकतांत्रिक मानसिकता और लोकतांत्रिक नजरिये को विकसित नहीं कर पाए। लोकतंत्र के अस्तित्व में आने से पहले स्त्री के अधिकारों को लेकर कभी गहराई से विचार-विमर्श नहीं हुआ। पुरुषों द्वारा बनाए गए नियम ही स्त्रियों के नियम मान लिए गए। पुरुषों द्वारा तय किए गए नियम स्त्रियों के लिए निश्चित मान लिए गए। लेकिन लोकतंत्र के आने के बाद स्त्री के नागरिक अधिकार पर पहली बार बहस हुआ और यह लोकतांत्रिक बोध पैदा हुआ कि स्त्री के पास मानवाधिकार और नागरिक अधिकार मौजूद हैं। देश में लोकतंत्र तभी विकसित होगा जब हम लोकतांत्रिक ढंग से सोचेंगे और कार्य करेंगे। नागरिक अधिकारों पर हमला करके कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। गिरजा, मंदिर या मस्जिद में प्रवेश करने का हक स्त्रियों को भी उतना ही है जितना कि पुरुषों को। मंदिर, मस्जिद और गिरजा संस्थान के तौर पर देश की संपत्ति है ना कि पुरोहितों, मौलवियों और पादरियों की। फलतः नियम लागू करके स्त्रियों का धार्मिक संस्थानों में प्रवेश रोकना अलोकतांत्रिक क्रिया है, असंवैधानिक हरकत है।

आज तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि हम अत्याधुनिक मशीनों का प्रयोग करने के लिए कृतसंकल्प हैं। मंदिर का पुरोहित वर्ग भी रजस्वला स्त्री की पहचान करने के लिए स्कैनर लगाने की इच्छा जाहिर कर रहा है लेकिन अत्याधुनिक तकनीकों के प्रयोग के साथ-साथ पुरुषों को अपनी चिराचरित मानसिकता में भी बदलाव करना होगा। यह ध्यान रखना होगा कि केवल तकनीक के ज़रिए हम आधुनिक नहीं बन सकते और आधुनिक तकनीकों का सामंती सोच के विस्तार के लिए इस्तेमाल करना भी गलत है। आधुनिक बनने के लिए लोकतांत्रिक नज़रिया व वैज्ञानिक सोच ज़रूरी है।

लोकतंत्र स्त्री-मुक्ति का मार्ग है। हमें बाह्य लोकतंत्र के साथ-साथ आंतरिक लोकतंत्र भी स्थापित करने की ओर आगे बढ़ना चाहिए। पुराने विचारों की स्त्रियां रजस्राव को गुप्त चीज़ कहकर युवा लड़कियों को रजस्राव होने की बात को पुरुषों से छुपाने की सलाह देती रहती हैं। इस मनोदशा से मुक्त होना ज़रूरी है और यह भी ज़रूरी है कि हम खुलकर रजस्राव और रजस्वला स्त्री की समस्याओं पर बातें करें, उसकी तकलीफ़ों को समझें। पर्दा करने पर समस्याओं का समाधान नहीं होता वरन् इससे समस्या बलवती होती है। लोकतंत्र में हर चीज़ पारदर्शी होती है। पर्दा लोकतंत्र का अंत है। आंतरिक लोकतंत्र के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि हर चीज़ पर बहस हो। आज सामंतकालीन भक्तों और पुंसवादी शास्त्रज्ञों से ‘रजस्राव’ और ‘रजस्वला स्त्री’ की मुक्ति बेहद ज़रूरी बन पड़ा है।

Friday 20 November 2015

आत्मनिर्णय से वंचित स्त्री की मानसिक गुलामी




वर्तमान समय में यह देखा जा रहा है कि आज़ादी से पहले स्त्रियों की स्थिति समाज में जैसी थी, आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी उसमें बहुत गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। स्त्रियां स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, शिक्षित होकर उच्च पदों पर नियुक्त हो रही हैं लेकिन ज़्यादातर स्त्रियों के व्यक्तित्व में अभी भी आत्मविश्वास का अभाव बना हुआ है। अभी तक स्त्रियां पुरुषों के निर्णयों को ही सर्वोपरि मानकर जीवन के समस्त क्षेत्रों के मुख्य फैसले पुरुषों के फैसलों पर निर्भर रहकर ही ले रही हैं। अभी स्त्रियों का जीवन घर की चौहद्दी तक सीमित नहीं हैं; वे उस घेरे से बाहर निकल चुकी हैं। उन्होंने समाज को देखा-समझा है लेकिन अधिकतर स्त्रियां अपना निर्णय स्वयं लेने का अधिकार व क्षमता अब तक हासिल नहीं कर पाई हैं। उनके पहनावे से लेकर खान-पान तथा नौकरी में भी प्रेमी या पति के राय तथा इच्छा-अनिच्छा की बड़ी भूमिका होती है। स्त्रियां जीन्स पहने या साड़ी, कुर्ती पहने या सलवर-कमीज़, रंगीले-भड़कीले कपड़े पहने या सादा कपड़े, ज़्यादा सजकर घर से निकले या कम सजकर, चावल खाए या रोटी, वेज खाए या नॉन-वेज आदि-आदि निर्णय प्रेमियों/पतियों की हिदायतों के मुताबिक ही प्रेमिकाओं/पत्नियों के नित्यकर्म में शामिल हो रहा है।
 
ऐसी भी स्त्रियां हैं जो केवल संसार(घर) बसाने के उद्देश्य से ही नौकरी छोड़ रही हैं या पुरुष(पति) जिस तरह की नौकरी पसंद करता है या करने की अनुमति देता है, वैसी नौकरी ही स्वीकार कर लेती हैं। पति जिस –जिस तरह से अपनी और अपने पत्नी के संसार और जीवन को सजाना चाहता है उसी अनुरूप स्त्रियां भी परिचालित हो रही हैं और पुरुषों की हां में हां कर रही हैं। स्पष्ट है कि स्त्रियों के पास स्वायत्त निर्णय और अस्मिता-बोध का भयानक अभाव सामने आया है। सवाल उठता है कि क्या स्त्री-शिक्षा का उद्देश्य स्त्रियों को जीती-जागती गुड़िया में रूपांतरित करना है? क्या स्त्री-शिक्षा का अर्थ शिक्षित किंतु पति की आज्ञाकारी पत्नी बनाना है? क्या स्त्री-शिक्षा का अभिप्राय बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षित पत्नी का निर्माण करना लेकिन उसे पुरुषों के हिसाब से परिचालित कराना है?
ये चिंता की बात है कि शिक्षित होकर भी आधुनिकाएं आज्ञाकारी बेटी और पत्नी और प्रेमिका बन रही है यानी शारीरिक तौर पर आज़ाद होकर भी मानसिक गुलामी की शिकार हैं। हालांकि इस आज्ञाकारिता को हमारे प्राचीन पितृसत्ताक परिवार-व्यवस्था में बहुत सम्मान दिया जाता रहा है और आज भी आज्ञाकारी होना सबसे बड़ा गुण माना जाता है। लेकिन इस आज्ञाकारी मनोवृत्ति ने स्त्रियों की कितनी क्षति की है; उसका जितना भी बखान किया जाए वह कम है। इस आज्ञाकारिता ने स्त्री के व्यक्तित्व में कोई भी मूलभूत परिवर्तन नहीं होने दिया। वह हर बात में ‘हां’ कहनेवाली तथा अपनी बुद्धि का एक-तृतीयांश भी खर्च न करने वाली आज्ञाकारी गुलाम बनती जा रही है।

किसी भी प्रकार का निर्णय लेने के लिए बुद्धि, विवेक और अनुभव महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन जब स्त्रियां गुलाम मानसिकता में जीएगी तब इनके उपयोग की ज़रूरत ही महसूस नहीं होगी कारण सारे निर्णय पुरुष लेंगे और स्त्रियां उसे अनुसरण करने वाली आज्ञाकारी पत्नी बनी रहेगी। जाहिर है फिर स्त्रियां एक ऐसी गुलाम मानसिकता को समृद्ध कर रही है जो बुद्धि रहते हुए भी बुद्धिहीन, विवेक रहते हुए भी विवेकहीन और आत्ममर्यादा रहते हुए भी आत्ममर्यादाहीन है। वह चलती-फिरती गुड़िया में रूपांतरित हो रही है जो हंसती है, बोलती है, खाती है, कमाती है लेकिन ‘ना’ नहीं कहतीं। कारण ‘ना’ प्रतिवाद है और प्रतिवाद आज्ञाकारिता का विलोम रचता है। स्त्रीवादी ‘ना’ पुरुषवाद के लिए खतरा है। आज्ञाकारी स्वभाव पुरुषों को विशेष प्रिय होता है लेकिन स्त्रियों के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह नुकसानदेह है। इस आज्ञाकारिता के कारण ही स्त्रियां अब तक पुरुषवाद के वैचारिक व दैहिक गुलामी का शिकार बनती आई है तथा अपने अधिकार व स्वायत्ता को समझने में असमर्थ रही है।

स्त्रियों के संदर्भ में शिक्षा का पहला अर्थ है अज्ञान से मुक्त होकर ज्ञान से रूबरू होना, दूसरा अर्थ है पुंसवादी गुलामी से मुक्त होना। यह मुक्ति केवल पुरानी श्रृंखलाओं से ही नहीं है जो अनादि काल से स्त्रियों के ईर्द-गिर्द बना हुआ है बल्कि उन मानसिकताओं से भी है जो स्त्रियों को परवश बनाती आई है। उन विचारधाराओं से भी है जो स्त्रियों को गुलाम बनाती आई है और उस दृष्टिकोण से भी है जो स्त्री-अस्मिता की पहचान और उसके विकास में लगातार बाधा बनती रही है। शिक्षा का सही कार्यान्वयन तब होगा जब पुरुषों की अधीनता वाली मानसिकता से स्त्रियां अपने आप को मुक्त करके जीवन में सही निर्णय ले सके व हर बात पर पुरुषों पर निर्भरशील ना हो। अपनी स्वतंत्र अस्मिता व अस्तित्व का स्वायत्त ढंग से विकास करें तथा अपने जीवन के फैसले स्वयं लें।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...