Sunday 23 December 2012

तेजाब-पीड़िता सोनाली मुखर्जी और स्त्री-हिंसा – सारदा बनर्जी


                          


ऐसी वारदातें जो स्त्री के देह से होकर उसके मन तक को नारकीय यंत्रणा का नृशंस शिकार बना दे, देश के लिए शर्म हैं और ऐसे लोग जो इस तरह की गुनाहों के गुनहगार होते हैं , वे देश और समाज से बहिष्कृत किए जाने के योग्य हैं। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है तेजाब हमले की शिकार झारखंड के धनबाद की सत्रह साल की सोनाली मुखर्जी के साथ हुआ वारदात। झारखंड की इस युवती को उसके पड़ोस के तीन लड़के परेशान कर रहे थे। जब उसने इन तीनों के गलत व्यवहार का विरोध किया, तो उन तीनों युवकों ने रात में जब सोनाली छत पर अपने परिवारवालों के साथ सोई थी, उसके चेहरे पर तेजाब फेंक कर उसे जला दिया। इस हमले के बाद सोनाली की सुनने, देखने और बोलने की क्षमता खत्म हो गई, चेहरा बिगड़ गया। इस घाव के भरने के लिए पुश्तैनी जमीन से लेकर मां के जेवरात तक बेचा गया फिर भी इलाज में पैसे कम पड़ गए। अब तक कुल 22  छोटी-बड़ी शल्यचिकित्साएं हो चुकी हैं, पर ज़ख्म अब तक पूरा नहीं भरा।
चौंकाने वाली बात है कि सोनाली के इन तीनों गुनहगारों तापस मित्र, संजय पासवान और ब्रह्मदेव हाजरा को अदालत ने नौ साल की सज़ा तो सुनाई लेकिन तीन साल सज़ा काटने के बाद वे जेल से ज़मानत में रिहा होकर आज सरे आम समाज में घूम रहे हैं। दोषियों को दण्ड देने के लिए मंत्रियों के दरवाज़े खटखटाकर सोनाली थक चुकी हैं लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। यह घटना सार्वजनिक तौर पर तब सामने आया जब सोनाली ने सरकार से यूथेनेशिया यानि इच्छामृत्यु की मांग की। नैशनल कैडेट कोर की वर्दी पहनकर देश की सेवा के सपने देखने वाली सोनाली के सपनों को चकनाचूर करने वाले इन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा होनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता कुछ और है। स्वाभाविक तौर पर यहां सवालिया निशान लगता है कि आज हमारे समाज में स्त्रियां कितनी सुरक्षित हैं? अगर ऐसे अपराधी संगीन अपराध करके भी छुट्टे घूमेंगे तो क्या भविष्य में ऐसे भयानक हादसे दोबारा नहीं घट सकते ? यहां यह सवाल भी उठ खड़ा होता है कि क्या स्त्रियों पर हुए अमानवीय हमले समाज की नज़रों में कोई मायने नहीं रखता कि उनके अपराधी आज भी खुले घूम रहे हैं ?
इस घटना को केंद्र में रखकर 25 नवंबर, रात 8.30 बजे सोनी टी.वी. पर कौन बनेगा करोड़पति 6’ (केबीसी)  की विशेष कड़ी में सोनाली को अमिताभ बच्चन के साथ हॉट सीट के लिए बुलाया गया जिनके साथ अभिनेत्री लारा दत्ता ने सहयोग दिया। इस शो में सोनाली के ऑपरेशन के लिए उसे मदद करने के उद्देश्य से खेल के ज़रिए उसे एक 25 लाख की राशी भेंट की गई जो एक ज़िम्मेदार कदम था। इसे एक प्रगतिशील प्रसारण कहा जा सकता है। साथ ही सोनाली के साथ हुए इस वारदात से अनजान लोगों को भी ज्ञात हुआ कि किस तरह समाज में असामाजिक तत्व सिर उठाया हुआ है और स्त्रियों के लिए एक भयानक अभिशाप बना हुआ है। अमिताभ बच्चन ने सोनाली से यह सवाल पूछा कि इन सबको सहन करने की शक्ति सोनाली को कहां से मिली और सोनाली के पिता से पूछा कि जब यह हादसा उनकी बेटी के साथ हुआ तो उन पर क्या गुज़री या उन्हें क्या फ़ील हुआ। कायदे से जब हम किसी पीड़िता और यंत्रणा-भोगती महिला और उसके परिवारवालों से बात करें या सवाल पूछें तो हमें इन सवालों से बचना चाहिए। वजह यह है कि जब विपत्ति आती है तो उसे सहने और डटकर सामना करने के अलावा इंसान के पास कोई चारा नहीं होता और दूसरी बात अपनी बेटी के खूबसूरत चेहरे को पल भर में बिगड़ते देख किसी भी पिता को दर्द और तकलीफ़ के अलावा कुछ हो नहीं सकता। जायज़ है इन सवालों को पूछने का अर्थ पुराने दर्द को कुरेदकर जनसमक्ष उसे नए रुप में उभारना है।
चेहरा हर एक इंसान की प्राथमिक पहचान है। हमारी और खासकर एक स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व का पहला परिचय उसका चेहरा है। सोचा जा सकता है कि कितना कठिन और कष्टकर है वो जीवन जो पल भर में एक खूबसूरत चेहरे को बदसूरत चेहरे में तब्दील होते झेल रहा हो, उसके दर्द और पीड़ा को महसूस कर रहा हो। आँखों से देखने वाली दुनिया को आज छूकर फ़ील करना पड़ रहा हो। कहने के लिए इस हादसे ने केवल स्त्री-चेहरे को जलाया है लेकिन इसने स्त्री-तन के साथ-साथ स्त्री-मन और स्त्री आत्मा तक को जला दिया है। साथ ही उस परिवार को भी जलाया जो दिन-रात जोड़कर पैसे जुगाड़ करने की अथाह कोशिश में जुटा है, अपनी बेटी के खोए हुए चेहरे को फिर से सुधारने में लगा है। यह जलन पूरे समाज के दिल को जलाता है और समाज के सामने यह सवाल फेंकता है कि क्या स्त्री वजूद आज वाकई खतरे में है? स्त्रियों के साथ अत्याचार तो आम है जो सदियों से भोगा हुआ एक ज्वलंत सच है। लेकिन सवाल यह है कि क्या स्त्रियों के लिए अपनी अस्मिता के साथ सड़क चलना भी जोख़िम भरा है? क्या अपने अपमान का विरोध करना, अपने साथ होते छेड़छाड़ का विरोध करना अपने जीवन में ज़ख्म को न्यौता देना है? जीवित-मौत को बुलावा देना है?
सोनाली के साथ हुए इस वारदात की जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है। यहां सवाल यह भी उठता है कि भारत सरकार ने अभी तक तेजाब पीड़ितों के लिए कोई सशक्त कानून क्यों नहीं बनाया है जिसके तहत ऐसे पीड़ितों को मुफ़्त इलाज की सुविधा मुहैया कराई जाए और इसके अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए ? साथ ही इस तरह के अपराध ‘नॉन-बेलेबेल’ होने चाहिए। स्त्रियों के खिलाफ़ चल रही इन हिंसाओं को रोकने के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि समाज और देश सक्रिय हो। हमारी न्याय-व्यवस्था सक्रिय भूमिका निभाए। हम यह अपेक्षा ही कर सकते हैं कि सोनाली के गुनहगारों को जल्द से जल्द कड़ी सज़ा मिले। नौ साल की जद्दोजहद से सोनाली और उसके परिवारवालों को जल्द मुक्ति मिले। साथ ही स्त्री आज़ादी में हस्तक्षेप और स्त्री-ज़िंदगी में दखलंदाज़ी करने वाले इन असामाजिक पुंसवादी तत्वों को समाज बहिष्कृत करें, इन्हें सज़ा दें।

पुसंवाद को कितना डिस्टर्ब करता है स्त्रीवादी सोच - सारदा बनर्जी


                     

क्या वजह है कि कोई स्त्री लेखिका जब पितृसत्ताक समाज के पुंसवादी रवैये की आलोचना करती हैं तो उन्हें पुरुषों की कटुक्ति का सामना करना पड़ता है? हमारा समाज अपने रवैये में बेहद पुंसवादी है और इस पुंसवाद के प्रभाव को स्त्रियां हर पल झेल रहीं हैं। लेकिन जब कोई स्त्री इन विषयों पर रौशनी डालती है या पुंसवाद की आलोचना पर लेख लिखती है तो उस पर इस तरह के कमेंट आते हैं, “लेख आपकी छोटी व कुंठित मानसिकता का परिचय देता है...” या फिर यह कहते हैं, “और एक ऐसी महिला का लेख लग रहा है... जो हर बुरी बात का श्रेय पुरुषों को देना चाहती हैं...।” यहां सवाल यह उठता है कि पुंसवादी समाज के डंक को तो स्त्रियां सदियों से झेल रही हैं और पितृसत्ताक मानसिकता की चक्की में वर्षों से पिस रही है लेकिन पुंसवाद की एक सामान्य सी जायज़ आलोचना पुरुष या कहें पुंसवादी मानसिकता के पुरुष क्यों नहीं ले पाते?
यह भी सर्वज्ञात है कि भले ही भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार की घोषणा करता हो लेकिन स्त्री आज भी पुरुषों के समकक्ष नहीं है। वे सभी अधिकार जो एक पुरुष को जीवन के प्रथम क्षण से मिलता है स्त्रियों को नहीं मिलता। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर उसे यह अहसास करा दिया जाता है कि वह स्त्री है। जैसा कि सीमोन द बोउवार ‘द सेकेंड सेक्स’ में कहती हैं, “One is not born, but rather becomes, a woman.”  आज इक्कीसवी सदी में भी स्त्रियों को स्त्री-पुरुष समानता की बातें हवाई लगती है क्योंकि वे जानती हैं कि हकीकत क्या है। उल्लेखनीय है कि यदि स्त्री-पुरुष समानता की हिमायत में कोई स्त्री लेख लिखती है तो उसे इस तरह के कमेंट्स को फ़ेस करना पड़ता है, “आम और नारंगी दोनों फल है, पर आम=नारंगी नहीं, न हो सकती है। नर=नारी नहीं है।” साथ ही इस तरह के पुंसवादी विचारों से लैस पुरुषों को स्त्री-पुरुष सामनता की बात पश्चिम से उधार ली गई लगती है। लिखते हैं, “ इन्हें समानता के लिए लड़वाने वाला पश्चिम आपस में वैर भाव जागृत कर कर, जन-मानस को ऐसा कलुषित कर चुका है, कि समानता की लड़ाई में परस्पर प्रेम का अंत हो रहा है, और कुटुंब संस्था नष्ट हो रही है।”  ध्यानतलब है कि परस्पर प्रेम के अंत का दोष भी ठीक स्त्रियों के सिर ही मढ़ा जा रहा है हालांकि वे समानता यानि अपने हक के लिए लड़ रही होती हैं। स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी टिप्पणी है, “स्त्री स्वतंत्रता के इन पश्चिम प्रेरित आन्दोलनों के प्रभाव से भारत की स्त्रियों का सम्मान बढना तो क्या था, उसे हर मंच पर निर्वस्त्र करने का काम बोल्डनैसके नाम पर हो रहा है। लीव इन रिलेशनशिप को बढावा देकर उसकी दशा वेश्याओं जैसी बनाने में कोई कसर नहीं रखी जा रही और यह सब हो रहा है, स्त्री की स्वतंत्रता व समानता के नाम पर।”
स्पष्ट होता है कि ‘स्त्री’ आज भी पुरुषों के लिए मूल्यहीन और चलताऊ है। स्त्रियों की समानता की बात पुरुषों को कितना परेशान करता है। यदि कोई प्रगतिशील या स्त्री-मुक्ति के विचार जनसमक्ष रखे जाते हैं तो उसमें ये पुंसवादी मानसिकता के पुरुष पश्चिम का प्रभाव ढूँढ़ने लगते हैं। उससे भी बड़ी बात यह कि किसी स्त्री द्वारा लिखे गए सच को स्वीकार करना पुरुषों के लिए कितना कठिन है। यही कायदे से यह प्रमाणित कर देता है कि भारतीय समाज मानसिकता और व्यवहार में घोर पुंसवादी है।
स्त्री अस्मिता की बात करते ही इन्हें पश्चिम दिखाई देता है। वकतव्य पढ़ें, “लेखिका में लेखन की प्रतिभा तो है पर वे मैकालियन शिक्षा के प्रभाव में आकर भारतीय समाज की अच्छाईयों, स्त्रियों के गुणों में भी दोष ही दोष देखने की नकारात्मक मानसिकता की शिकार हो गयी हैं।”  
अब इन जनाबों को कोई समझाए कि स्त्री मुक्ति की बात भारत में स्त्री मुक्ति के पक्षधर वर्षों से करते आएं हैं लेकिन इन पक्षधरों की बात पुंसवादी कानों तक कभी नहीं पहुंची। इसलिए इन्हें स्त्री-मुक्ति की बातों में मैकालियन शिक्षा का प्रभाव दिख रहा है। साथ ही जिन क्षेत्रों में व्रतों के नाम पर स्त्रियों का शोषण होता आया है उस पर लिखना भी इनके हिसाब से स्त्रियों को दोष देना है। यानि इनके अनुसार चुपचाप पुरुषों की मंगलकामना के लिए व्रत करना स्त्रियोचित गुण है। इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लिखते हैं, “आपको किसने कहा की स्त्रियों को व्रत आदि रखने की लिए विवश किया या उकसाया जाता है…?… यह सब वे अपने मर्ज़ी और ख़ुशी से करती हैं।”
अगर आप स्त्रियों के आधुनिक आचरण और आधुनिक व्यवहार की बात करें तो उनका सवाल होता है, “आधुनिक व्यवहार और आधुनिक आचरण से आप क्या अर्थ करती है? उदाहरण दे, तो सही समझ पाए| इसके लिए, कोई पुस्तक पढ़नी होगी क्या?” या फिर “स्वच्छंदता और मुक्तता का अर्थ आप क्या करती है? इन दोनों में कोई अंतर है क्या ? हो, तो, उस अंतर को स्पष्ट करें|तो महाशय इसका उत्तर पाना हो तो भारतीय संविधान को गौर से पढ़िए जहां इसकी बातें कही गई हैं। जायज़ है यह स्त्री-विरोधी मनोदशा है जो किसी तरह से स्त्री-मुक्ति का पक्षधर नहीं है। और सवाल करना भी बाकायदा पुंसवादी मनोदशा को दर्शाता है। आपको पुरुषों की स्वच्छंदता और मुक्तता अच्छी लगती है लेकिन जब स्त्रियों की बात की जाती है तो ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं। स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष समानता की बात इनकी समझ से परे है क्योंकि ये आदतन मजबूर हैं स्त्रियों को पिछड़ा हुआ देखने और बनाए रखने में। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, “स्त्री और पुरुष में समानता हासिल करना तब तक संभव नहीं है जब तक गैर-लिंगीय रुप में सोचते रहेंगे। दायित्वों एवं अधिकारों का प्रत्येक लिंग के लिए अलग-अलग विभाजन जब तक बना रहेगा वे भिन्न बने रहेंगे।” मूल बात हमारे दृष्टिकोण की है। इसलिए बदलाव हमारे सोच में लाना होगा। स्त्री के प्रति आधुनिक नज़रिया विकसित नहीं करेंगे तो रुढिवादी बातें ही करते जाएंगे। समानता के सिद्धांत को समझने के लिए लिंगीय रुप में सोचना होगा तभी स्त्री अस्मिता, स्त्री-स्वच्छंदता, स्त्री-मुक्तता, स्त्री-अस्तित्व की बात पुंसवादी समझ पाएंगे।

Sunday 9 December 2012

मेरी दृष्टि में ‘शांतिनिकेतन’ – सारदा बनर्जी


                                  
यदि रवीन्द्रनाथ को जानना, समझना और अनुभव करना हो तो ‘शांतिनिकेतन’ सबसे उत्तम स्थान है। रवीन्द्रनाथ जिस विश्व-शांति का उद्घोष शांतिनिकेतन की प्रतिष्ठा द्वारा करना चाहते थे, उस ‘शांति’ को शांतिनिकेतन या बीरभुम की भूमि में, वहां के रम्य वातावरण में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। कोलाहल-मुक्त प्रकृति का आस्वाद अभी भी इस भूमि में पाया जा सकता है जिसे कविगुरु ने ‘शांतिनिकेतन’ नाम दिया था और आधिकारिक तौर पर जिसे ‘विश्वभारती’ कहा जाता है। यह सही है कि रवीन्द्रनाथ मूलतः प्रकृति के कवि रहे हैं और यही कारण है कि यदि रवि ठाकुर को महसूस करना है, उनकी प्राकृतिक कविताओं के वास्तविक मर्म को आत्मसात करना है तो बीरभुम की उस प्रकृति में जाना होगा जहां कभी कविगुरु रहा करते थे, जिसके सुरम्य सौंदर्य को भोगा करते थे और जहां घंटों विभोर होकर समय बिताया करते थे। वैसे तो प्रकृति से प्यार करने वालों को प्रकृति के किसी भी रुप में कविगुरु मिल जाते हैं लेकिन जिस प्रकृति को देखकर वे एक सुंदर गाना ही लिख डाले, उस प्रकृति का सौंदर्य कुछ और ही है। बीरभूम का यह मनो-मुग्धकारी स्थान है ‘खोआई’। अभी यह गांव से जुड़ा हुआ है और यहां संथालियों या गांव-वासियों की छोटी-छोटी झोपड़ियां देखने को मिल जाती हैं लेकिन कविगुरु के लिखे गाने से पता चलता है कि जिस समय रवीन्द्रनाथ मौजूद थे शायद उस दौरान यह गांव से अलग एक वीरान जगह थी। गांव को छोड़कर लाल माटी के बने हुए सुंदर पथ से मोहित होकर ही कविगुरु लिख बैठे होंगे , “ग्राम छाड़ा ओई राँगा मांटीर पथ, आमार मोन भुलाए रे..........।”
हां...कविगुरु मोहित हुए थे इसी लाल माटी के बने हुए पथ को शायद घंटो निहारकर। इस पथ से गुज़रते हुए एक तरफ नहर का शांत और सौम्य जल है जो काफ़ी आकर्षित करता है। नहर का यह जल एक आवाज़ करते ‘झोरा’ (छोटी झरना) से बहता हुआ आता है। पथ के दोनों ओर पंक्तिबद्ध लेकिन अपने मिज़ाज में खड़े सोनाझुरी पेड़ दिखाई देते हैं। सुबह की पहली किरण जब इन पेड़ों पर पड़ती है तब लगता है मानो समस्त पेड़ सोने के रंग में रंगकर सोना ही हो उठा हो। लाल पथ के दूसरे तरफ वनस्पतियों का फैला समूचा संसार है। वनस्पतियों के बीच ही एक छोटी थरथराती-कांपती नदी को पार करते हुए कुछ दूरी में ‘खोआई’ दिखाई दे जाता है।‘खोआई’ बांग्ला शब्द है जिसका अर्थ है – ‘ घिसकर कम हो जाना।’ दरअसल दूसरी तरफ से बहने वाला नहर का पानी भीतर से बहता हुआ उल्टे तरफ आता है और मिट्टी घिस-घिसकर अलग-अलग जगहों से बह जाती है और इसके कारण एक असाधारण भास्कर्य की सृष्टि होता आया है। एक विशाल क्षेत्र को लेकर बना यह प्राकृतिक भास्कर्य अपूर्व व अद्वितीय सौंदर्य-संपन्न है। ऐसा लगता है जैसे मिट्टी ने परत-दर-परत घिसते-घिसते अलग-अलग आकार व आकृति में अपना सौंदर्य खोलकर हमारे सामने बिखेर दिया हो। उसी सौंदर्य में वनस्पतियां उगकर अपना अलग स्थान बनाकर मिट्टी की सुंदरता को और अधिक निखार रहा हो। बड़े खोआई के पास फैले अनेकों छोटे-छोटे खोआई भी दूर तक दिखाई देंगे। खोआई के पास ही दूर-दूर तक यूकलेप्टस के अनगिनत पेड़ दिखाई देते हैं।इन यूकलेप्टस के पेड़ों के बीच अनेकों अद्भूत व शहरों में लुप्तप्राय पक्षियों को देख-देखकर मन उमंग से भर उठता है। इस परिवेश को निहारते हुए, महसूस करते हुए केवल कविगुरु के लिखे गाने ही होठों पर आ रुकते हैं।मन होता है कि सोचूं....यह वही जगह है जिसे विश्व-कवि कभी उपभोग किया करते थे,जिसका आनंद हृदय में अनुभव कर उनकी असंख्य कविताएं निसृत हुआ करती थीं। खोआई को देखते-देखते कब कहां किस बांक में कौन-सा विचित्र सौंदर्य देखने को मिल जाए यह कहना मुश्किल है। तभी खोआई पर लिखी कविगुरु की ये पंक्तियां सार्थक लगती है, ‘ओ कोन बांके कि धन देखाबे, कोनखाने कि दाय ठेकाबे, कोथाय गिये शेष मेले जे, भेबेइ ना कुलाय रे आमार मोन भुलाए रे।’
रानी चंद(चोंदो) जो शांतिनिकेतन में शुरु के दिनों की कला-भवन की छात्रा और नंदलाल बसू और रवीन्द्रनाथ की शिष्या थीं, के अनुसार नंदलाल बसू समेत शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं हर साल खोआई में पिकनिक करने जाया करते थे।इसी से समझा जा सकता है कि खोआई का अपना एक आकर्षण है। रानी चोंदो के अनुसार एक समय नंदलाल बसू के परामर्श से ही विश्वभारती के कला भवन के विद्यार्थी खोआई से मिट्टी जुगाड़ कर ले जाते थे।अंकन के लिए विभिन्न रंगों की मिट्टी से रंग बनाया करते थे, जैसे काली मिट्टी से काला रंग, लाल मिट्टी से लाल रंग आदि। वस्तुतः अवनींद्रनाथ ठाकुर के कहने से ही घर में यानि शांतिनिकेतन में रंग बनाने का सिलसिला शुरु हुआ जिससे कि रंगों के लिए विदेशों पर आश्रित न रहना पड़े।
खोआई में चलते-चलते हल्की धूप मेरे चेहरे पर आ ठहरती है।लाल माटी के पथ से गुज़रने वाले यात्री कभी पैदल सिर पर बोझ लेकर, कभी साइकिल में, कभी गाड़ी या ट्रैक्टर में चकित भाव से हमें देख-देखकर गुज़रने लगते हैं।उनकी आंखों में कौतूहल स्पष्ट दिखाई देता है लेकिन कोई अशालीन भाव-भंगिमा नहीं। ग्रामीण या आदिवासी पुरुषों द्वारा शहरी स्त्रियों को देखकर किया गया कोई अभद्र आचरण या इंगित तो बिलकुल ही नहीं। शायद इसीलिए शांतिनिकेतन दूसरे जगहों से अलग है। ये आदिवासी लोग कर्मरत हैं लेकिन ये शहरी व्यस्तता से कोसों दूर हैं।इन्हें नहीं पता थकान किसे कहते हैं, व्यग्रता किसे कहते हैं, ये काम करते रहते हैं लेकिन व्यस्त होने का शहरी दिखावा नहीं करते।
यूकलेप्टस वन से आगे जाकर शाल-वन मिल जाएंगे। फिर आदिवासियों (संथालियों) का गांव।‘खोआई’ शीर्षक कविता में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं, ‘एई शालबोन, एई एकला स्वभाबेर तालगाछ/ ओई सोबुज माठेर संगे रांगा माटिर मिताली..।’ नहर में धीर गति से बहने वाले पानी को निहारते हुए जब मैंने रवीन्द्रसंगीत छेड़ा तो जाने क्यों ऐसा लगा कि रवीन्द्रनाथ मेरे आस-पास ही कहीं है।सच है कि यहीं आकर विश्वकवि को अनुभव किया जा सकता है। यहां की शांत प्रकृति हृदय को आंदोलित करने की क्षमता रखती है।
नहर के उल्टे तरफ छोटे पत्थर हैं जहां बैठ कर आराम किया जा सकता है।कविगुरु को प्रकृति में किसी तरह का बंधन पसंद नहीं था,शायद इसीलिए बाद में खोआई में तीन-चार मुक्त भास्कर्य(पक्षियों के) स्थापित किया गया।दर्शकों के लिए बने इस जगह से कुछ आगे बढ़कर एक शांत छोटी नदी देखने को मिलेगी जो अपनी खूबसूरती में बेजोड़ है।आसपास छोटे खोआई और बीच में लाजवाब मीठी-सी नदी। खोआई में ही एक जगह ‘सुप्रीयो ठाकुर’ का आश्रम मिल जाता है। गांव के लोग इन्हें काफ़ी मानते हैं। खोआई में हर शाम चार बजे से ‘बाउल गान’ होता रहता है।
खोआई से आगे बढ़कर जहां रास्ता खत्म होता है वहां से दाहिने मुड़कर ‘आमार कुठी’ की तरफ जाया जा सकता है।यहां भी स्थानीय लोगों के बाउल गानों के मज़े लिए जा सकते हैं ।पंक्तिबद्ध सफेद सुंदर हंस देखे जा सकते हैं और कोपाई नदी के पास फैले मनमोहक शरदकालीन काश-फूल तो जैसे अपने पास खींचती है। खोआई से लौटते समय बाईं तरफ का रास्ता सीधे ‘कोपाई’ नदी की ओर जा रहा है।विभिन्न वनस्पतियों से भरा यह जगह अपने आप में असामान्य है।यह एक सुंदर नदी है जहां कविगुरु घंटो समय बिताया करते थे।गांववाले इस नदी का भरपूर उपयोग करते हैं। नदी के आस पास विभिन्न तरह के पेड़ दिखाई देते हैं। यह नदी अनेक दूर तक यात्रा करती है और इसका दूसरा छोड़ ‘आमार कुठी’ की तरफ देखा जा सकता है।
शांतिनिकेतन में कविगुरु के घर काफ़ी आकर्षित करते हैं। सुरेन कर (रवीन्द्रनाथ का इंजीनियर) के हाथों बने विभिन्न असाधारण मॉडेल के घर जो रवीन्द्रनाथ के निर्देशन में ही बनाए गए हैं, अपने मौलिक सौंदर्य से भरपूर है। मज़ेदार है सोचना कि रवीन्द्रनाथ तीन महीने से ज़्यादा किसी घर में रहना पसंद नहीं करते थे। वे घर परिवर्तित करते रहते थे और घर बनाने वाला सुरेन था।विभिन्न ऋतुओं के हिसाब से कविगुरु अपने घर का खुद मॉडेल बनाया करते थे। उनके सबसे पहले घर का नाम है ‘कोनार्क’। कोनार्क बेहद सुंदर घर है। कोनार्क से बाहर निकल कर एक शिमुल का पेड़ है जिसके पास कभी ‘माधवी-लता’ उग आया था और कविगुरु इसे ही देखकर एक असाधारण कविता लिखे थे।वो माधवी-लता अभी भी मौजूद है। इसी तरह ‘उदयन’, ‘उदीची’, ‘विचित्रा’, ‘पुनश्च’, ‘श्यामली’ नाम से घर हैं। सबसे अंतिम घर है ‘उदीची’। ‘पुनश्च’ की बनावट बौद्ध स्थापत्य पर आधारित है। सफेद रंग का यह घर आधे खुले आधे बंद तरीके से बना है।यह अद्भूत घर बेहद खींचता है।हर एक घर अपनी मौलिक विशेषता लिए दिखाई देता है।
घरों को देखने के बाद रिक्शा लेकर गेस्ट हाउस लौटते समय एक रिक्शेवाले को सुमधुर बांसुरी बजाते देख और सुन लिया। सुना था कि बीरभुम की भूमि में जगह-जगह प्रतिभाएं फैली हुई है, उस समय वह साक्षात हो गया। यहां लोगों का साधारण स्वभाव है लेकिन आसाधारण प्रतिभा। काश यह साधारण स्वभाव शहरी लोगों के पास भी हुआ होता।
शांतिनिकेतन के पाठ-भवन में पीले पोशाक में घेर कर बैठे छात्र-छात्राएं कितने सुंदर लगते हैं।पेड़ के नीचे सूर्य की स्थिति के अनुसार शिक्षकों की कुर्सियां(पत्थर) बनाई गईं हैं और बिना पंखे के,डेक्स के मिट्टी में बच्चे बैठे हुए हैं। उन्हें कोई शिकायत नहीं, उनमें कोई झल्लाहट नहीं, कोई विरक्ति नहीं। उन्हें शांतिनिकेतन से प्यार है,प्रकृति से आत्मीयता का रागात्मक संबंध है। कितना अच्छा लगता है सोचना कि अभी तक रवीन्द्रनाथ द्वारा बनाए गए नियम यानि मुक्त प्रकृति में पढ़ाई करना, को यहां माना जा रहा है। इसी समय एक दिलचस्प घटना घटी। जब मैं और अनुमिता पेड़ की छांव के नीचे से शांतिनिकेतन को देखते हुए जा रहे थे तो छात्राओं का एक दल जो हमारे साथ ही चल रहा था, अचानक छांव वाला रास्ता छोड़कर हरे मैदान में कड़ी धूप में टहलते हुए चलने लग गए। पहुंचे भी हमारे बाद। मैं हतवाक् देखती रही, समझ नहीं पाई इसका रहस्य कि छांव को छोड़कर कड़ी धूप में कोई टहलते-टहलते कैसे चल सकता है। शायद शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं प्रकृति को उपभोग करना जानते हैं। 
इसके अतिरिक्त शांतिनिकेतन में रामकिंकर बेज के स्थापत्य देखने लायक है। कला-भवन के भीतर ‘कालोबाड़ी’ है जो पूरा काला है लेकिन खूबसूरत स्थापत्य से भरा है। ‘तालभाज’ नाम से एक घर है जिसके बीच में ताड़ का पेड़ खड़ा है।यह मिट्टी का बना घर है। म्यूज़ियम है जहां रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसू की स्मृतियों का संसार है।विभिन्न देशों से रवि ठाकुर को मिले उपहार संग्रहीत हैं। ‘उपासना गृह’ बेहद सुंदर है लेकिन यह हर समय नहीं खुलता। ‘दोल’(होली), पुस के मेले(पौस-मेला) के समय जब शांतिनिकेतन असाधारण सौंदर्य से भर जाता है और अन्य विशेष अवसरों पर उपासना गृह खुलता है।
ज़्यादातर मामलों में मैंने देखा कि अधिकतर लोग शांतिनिकेतन में आकर म्यूज़ियम और रवीन्द्रनाथ के घर देखकर लौट जाते हैं। लेकिन मेरे अनुसार रवीन्द्रनाथ शांतिनिकेतन और बीरभुम की प्रकृति में रचे-बसे हैं और उसे महसूस करने के लिए रवि ठाकुर के घर के अलावा खोआई ,कोपाई नदी और पूरे इलाके में फैली प्रकृति को देखना ज़रुरी है।बीरभुम की भूमि में फैले वनस्पतियों के संसार से अनुभूत होना ज़रुरी है। बिना प्रकृति के रवीन्द्रनाथ शून्य हैं, इसीलिए रवीन्द्रनाथ को फ़ील करने के लिए प्रकृति में हमें बार-बार लौटना होगा, प्रकृति में जीना होगा। पेड़ों में, लताओं में, नदियों में, बालू में, मिट्टी में, हवा में रवीन्द्रनाथ मिलेंगे। जिस बीरभुम से मोहित होकर वे ज़िंदगी भर के लिए यहां बस गए थे, उसे देखना और देखकर समझना ज़रुरी है। इसलिए मेरे अनुसार प्रकृति के साथ रवीन्द्रनाथ के निविड़तम संपर्क को अनुभव करना ही शांतिनिकेतन को देखना है।

Thursday 6 December 2012

एकल परिवार और स्त्री – सारदा बनर्जी


                                

आज के ज़माने में स्त्रियों के लिए एकल परिवार एक अनिवार्य शर्त बन गया है। स्त्री की आत्मनिर्भरता और सामाजिक गतिशीलता के विकास के लिए एकल परिवार बेहद ज़रुरी है। संयुक्त परिवार में स्त्रियों के पास अपने लिए समय नहीं होता। अपने आप को समझने और अपनी प्रतिभाओं के विकास का उन्हें बिल्कुल ही मौका नहीं मिलता। लेकिन एकल परिवार में स्त्री के पास यह निजी स्पेस होता है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को समय दें, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को डेवलप करें और सामाजिक तौर पर अपनी एक अलग प्रतिष्ठा का निर्माण करें। ये सारी सुविधाएं संयुक्त परिवार में स्त्री के पास नहीं होता चूंकि उसका अधिकांश समय परिवार यानि ससुरालवालों की देख-रेख में खर्च हो जाता है। साथ ही उसकी आज़ादी में हर समय हस्तक्षेप होता रहता है। सास, ननद और दूसरे सदस्यों के द्वारा उसके हर एक काम में हर पल निगरानी रखी जाती है।
देखा जाए तो आज एकल परिवार की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, चाहे दूसरे राज्य में नौकरी मिलने की वजह से हो या पारिवारिक कलह की वजह से दम्पति स्वतंत्र रहने लगे हों। नवीनतम आँकड़ों (कंसेंसस 2011) के अनुसार उत्तर प्रदेश में 27 प्रतिशत, राजस्थान में 25 प्रतिशत, हरियाणा में 24.6 प्रतिशत, पंजाब में 23.9 प्रतिशत, गुजरात में 22.9 प्रतिशत, बिहार और झारखंड में 20.9 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश में 20 प्रतिशत संयुक्त परिवार पाए गए हैं। जबकि दक्षिण भारत के राज्यों में संयुक्त परिवार की संख्या इससे भी कम दिखाई देती है। आंध्र प्रदेश में 10.7 प्रतिशत, तमिलनाडु में 11.2 प्रतिशत, पोंडिचेरी में 11.4 प्रतिशत, कर्णाटक में 16.2 प्रतिशत और केरल में 16.6 प्रतिशत। वहीं पश्चिम बंगाल में 15.5 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 17.6 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 17.7 प्रतिशत, उड़ीसा में 12.32 प्रतिशत और गोआ में 12.6 प्रतिशत संयुक्त परिवार मौजूद हैं। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है और लोग इसे ज़्यादा प्रेफर कर रहे हैं।
आम तौर पर एकल परिवार की महत्ता की बात सभी जगह की जाती है लेकिन एकल परिवार की अनेक दिक्कतें और तकलीफें भी हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता। इन असुविधाओं पर ध्यान देना बहुत ज़रुरी है। मसलन् यदि पति-पत्नी दोंनों जॉबहोल्डर हैं तो बच्चों के देख-रेख में एक स्वाभाविक परेशानी आ जाती है। वे सारा दिन किसके पास रहेंगे या बच्चे स्कूल से कैसे अकेले आएंगे या आ जाते हैं तो आकर अकेले कैसे अपना काम करेंगे आदि। बच्चे भी स्कूल से घर आकर जब मां-पिता को घर नहीं पाते तो वे अकेलापन महसूस करते हैं। दूसरी ओर एकल परिवार की जो स्त्रियां घर में रहती हैं वे अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पातीं। स्वभावत: वे भी मानसिक तौर पर अकेलेपन को झेलती हैं। हर एक छोटे से लेकर बड़े काम इन स्त्रियों को खुद करने पड़ते हैं। जहां संयुक्त परिवार की यह सुविधा रहती है कि आपका कोई छोटा-सा भी काम हो तो परिवार के किसी भी सदस्य को आप बाहर भेज दीजिए। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं। फलत: यह ज़रुरी बन जाता है कि एकल परिवार की सुविधा का उपभोग करने के लिए हम अपने माइंटसेट में परिवर्तन करें। चूंकि एकल परिवार एक आधुनिक संस्था है इसलिए यह आधनिक रवैये की मांग करता है। जब तक हम आधुनिक व्यवहार को डेवलप नहीं करेंगे तब तक एकल परिवार हमारे जीवन में दिक्कतें बढ़ाती जाएंगी। जब हमारे पास असुविधाएं होगीं तो उसे सोल्व करने के लिए हमें आधुनिक संस्थाओं और वैज्ञानिक उपायों और पद्धियों की शरण में जाना होगा। इसलिए एकल परिवार की सुविधाओं को उठाते हुए उसकी दिक्कतों को आधुनिक उपायों द्वारा समाधान करना होगा।
अक्सर देखा जाता है कि मां और पिता के नौकरी करने से बच्चों के घर में रहने की समस्या आती है तो विकल्प के रुप में घर में केयरटेकर रखा जा सकता है जो चौबीसों घंटे बच्चों की देखभाल कर सकते हैं। ऐसी सुविधाएं आज उपलब्ध हैं। ऐसी भी संस्थाएं हैं जहां बच्चे कुछ देर के लिए रखे जा सकते हैं। साथ ही मां-पिता के लिए यह ज़रुरी बन जाता है कि वे जब घर लौटे तो अपना कीमती वक्त़ बच्चों को दें। उन्हें खुश रखने की भरपूर कोशिश करें, उन्हें बाहर घूमाने ले जाएं। जो स्त्रियां घर में रहती हैं उन्हें अपने मन बहलाव के लिए विकल्प को ढूँढ़ना चाहिए। ऐसे विकल्प जिससे वे खुश रहें और अपनी प्रतिभाओं को समृद्ध कर सकें, अपने ज्ञान में इज़ाफा कर सकें, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। यदि बुखार आए तो बगैर किसी की सेवा लिए डॉक्टर से कंसल्ट करें। साधारणत संयुक्त परिवारों में किसी सदस्य को बुखार आने पर परिवार-वाले ही मरीज की देख-रेख और सेवा करते हैं, डॉक्टर घर बुला लाते हैं, खाना पास आ जाता है। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं है। कारण स्त्री यहां अकेली होती है, इसलिए उसे खुद ही अपना ख्याल रखना होता है। एकल परिवार में अनेक छोटे-छोटे कामों को निपटाने के लिए भी विभिन्न व्यक्तियों की मदद ली जा सकती है। मसलन् अगर एकल परिवार में रहने वाली स्त्री को बिजली का बिल जमा करना है तो वह खुद नहीं करके किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है जो यह काम कर दें। हो सकता है उसे कुछ पैसे देने पड़े लेकिन हर महीने के झंझट से उस स्त्री को मुक्ति मिल जाए।
यानि हमारे भीतर जो ट्रैडिशनल तरीके से काम करने का पुराना अभ्यास था उसे चेंज करना होगा। साथ ही नए तरीके का विकास कर उसे दैनंदिन जीवन में लागू करना होगा। तभी एकल परिवार की समस्याओं से हमें निजात मिलेगा। क्योंकि एकल परिवार ही एक ऐसी जगह है जहां स्त्री अपनी अस्मिता को पहचान सकती है, उसका विकास कर सकती है। संयुक्त परिवार स्त्री के दोयम दर्जे की भावना को बनाए रखने में मददगार होता है जबकि एकल परिवार स्त्री को यह स्पेस देता है कि वह अपने अस्तित्व को जानें, पहचानें और अपने आप को मूल्य दें। साथ ही अपने बच्चों को समय दें। संयुक्त परिवार में स्त्री केवल काम करने वाली एक यंत्र होती है जबकि एकल परिवार में वह स्वंय हर काम न कर विभिन्न ऑपशनस् का इस्तेमाल कर सकती है।   

Tuesday 27 November 2012

पितृसत्ताक समाज में पुंसवादी पर्वों के चंगुल में फँसीं स्त्रियां – सारदा बनर्जी


                  
भारत का पितृसत्ताक ढांचे में बना समाज अपने उत्सवों में भी बेहद पुंसवादी है। देखा जाए तो त्योहारों का अपना एक आनंद होता है। लेकिन आनंद के उद्देश्य से जितने भी त्योहारों या व्रतों की सृष्टि की गई है वे सारे आयोजन कायदे से पितृसत्ताक मानसिकता का ज़बरदस्त परिचय देता है। यह एक आम बात है कि ‘व्रत’ शब्द से स्त्रियों का घनिष्ठ संपर्क एवं संबंध बन गया है और शायद व्रत आदि उपचार पितृसत्ताक समाज द्वारा स्त्रियों के लिए ही बनाया गया है। चूंकि स्त्रियां ही व्रत आदि करती दिखाई देती हैं, इसलिए यह माना जाने लगा है कि यह स्त्रियां का ही काम है। कोई भी पर्व हो नियम के अनुसार परिवार की सुख-समृद्धि, कल्याण और श्री-वृद्धि के आयोजन के रुप में स्त्रियों के जीवन में व्रत एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। सवाल यह है कि जहां हर त्योहार एक नई खुशी का सौगात लेकर आती है वहां पुरुषों के जिम्मे उपवास जैसे महाकर्म को ना सौंपकर स्त्रियों पर ही यह गुरु-दायित्व का भार देकर यानि इस तरह के नियम बनाकर उन्हें क्यों शारीरिक यातना मिश्रित खुशी दी जाती है? वैसे यह भी सही है कि इस पुंस-मानसिकता के षड्यंत्र को समझ पाने में असमर्थ स्त्रियां भी इन व्रतों में लगी रहती हैं और परिवार के अमंगल को दूर करने की हर तरह से कोशिश करती रहती हैं।
भाई दूज का पर्व भाई-बहन के संपर्क को नए उल्लास और प्यार से बांधने का पर्व है।बंगाल में इसे ‘भाईफोटा’ के नाम से जाना जाता है जिसमें भाई के जीवन में हर एक मंगल को स्वागत करने हेतु चंदन का ‘फोटा’ यानि माथे पर चंदन का तिलक लगाया जाता है। लेकिन यहां भी भाई यानि पुरुष की मंगलकामना मायने रखता है। बहने भूखी रहकर फोटा देती हैं, भाई को मिठाई से लेकर विभिन्न सुंदर एवं स्वादिष्ट पकवानें खिलाई जाती है। भाई खाता है, भूखे बहनों को बाद में खाने का अवसर मिलता है। राखी के पर्व में भी भाई या भैया की कलाई में राखी बांधना कायदे से पुरुष कल्याण का ही प्रतीक है। उसका भी उद्देश्य बहन के प्रेम-बंधन द्वारा भाई के जीवन में आने वाले खतरे से भाई को बचाना यानि पुरुष जीवन को बेहतर बनाना होता है। लेकिन सोचने की बात यह है कि बहनों की मंगलकामना के लिए कोई त्योहार क्यों नहीं बनाया गया जिसमें भाई या भैया व्रत करें और बहन की लंबी आयु और सुख-समृद्ध के लिए भगवान से याचना करें, बहन की कलाई में राखी बांधें या मंगल रुपी चंदन का तिलक लगाएं।
पति की मंगलकामना के लिए किए जाने वाले तमाम व्रतों का तो कहना ही क्या? करवा चौथ से लेकर शिवरात्री तक जितने निर्जला उपवास पतियों की दीर्घायु और सुंदर स्वास्थ्य कामना के लिए पत्नियों यानि स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं उनमें भी पुरुष जीवन को विशेष प्राधान्य दिया जाता है। जहां पत्नियां भूखी रहकर पतियों के लिए त्याग करने में लगी होती हैं वहां पतियां मज़े में खा रहे होते हैं। अंत में भगवान के या पति नामक भगवान के दर्शन कर या पति के हाथों पानी पीकर व्रत भंग होता है। व्रत के पीछे स्त्री-शोषण की जो मानसिकता छिपी है उससे अधिकतर स्त्रियां अनजान हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि वे कोई महान त्याग या महान कर्म अपने पति के लिए कर रहीं है और यह सब करते समय शायद उनके मन में पति-परायण पत्नी या परम सती जैसी कोई फ़ीलींग होती होगी। यह पितृसत्ताक मानसिकता इतने बुरे तरीके से स्त्रियों के दिलो-दिमाग़ में घर कर गया है कि आज व्रत ने लगभग फ़ैशन का रुप ले लिया है। देखा जा रहा है कि आधुनिक स्त्रियां बड़े गर्व से इस सामंती आचार को अपने जीवन में स्वीकार करती जा रही हैं।
लेकिन ये भी सच है कि व्रत के इस फ़ेकनेस को पुरुष अच्छी तरह जानते हैं लेकिन वे कभी अपने परिवार की स्त्रियों के व्रत करने पर आपत्ति नहीं करते बल्कि पुरुषों के आधिपत्य-विस्तार के इन अवसरों को वे खूब एंजॉय करते हैं। ऐसे अनेक पुरुष हैं जो स्त्रीवादी सोच-संपन्न होने या वैज्ञानिक चिंतन को प्रधानता देने का बड़ा दावा करते हैं लेकिन उनके घर की स्त्रियों के साथ उनके व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि वे मानसिक रुप से कितने अवैज्ञानिक और पिछड़े हैं। इस तरह के पुरुष भी उपवासों को बड़ी प्राथमिकता देते हैं। गज़ब है ये देश जहां स्त्री-मूर्तियां तो बड़े धूम-धाम से पूजी जाती हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिया जाता। उनके जीवन की मंगलकामना के लिए कोई उपचार या पर्व नहीं मनाया जाता। यहां तक कि मां जिसकी हर एक व्यक्ति के जीवन में खास भूमिका होती है उसके लिए भी भारत में कोई खास दिन नहीं बनाया गया जिस दिन वह सम्मान से नवाज़ी जाए, उसे अपने कष्टों से कुछ राहत मिले।
स्त्रियों के प्रति पुरुषों का यह जो डॉमिनेटिंग रुख है यह केवल एक संप्रदाय की बात नहीं है, हर संप्रदाय में यह बात देखा जाता है।हर संप्रदाय में स्त्रियां ईश्वर के नाम पर हर तरह से शोषित एवं पीड़ित होती रही हैं और इसे अपना भाग्य समझकर स्वीकार करती रही हैं।
हर छोटे-बड़े त्योहारों, पर्वों को मनाने का उद्देश्य केवल जीवन में आनंद को स्वागत करना होता है। आनंद के बीच व्रत ,उपवास आदि को घुसेड़कर स्त्री जीवन को कष्टकर बनाने का कोई कारण नज़र नहीं आता। इसलिए सबसे पहले तो स्त्रियों को व्रत आदि से अपने आप को मुक्त करना होगा। व्रत आदि के पीछे जो पुंसवादी मानसिकता सक्रिय है उसकी सही पहचान स्त्रियों को करनी होगी। यह समझना होगा कि व्रत से पति के मंगल या अमंगल का कोई संपर्क नहीं। ना इसमें किसी तरह का आनंद है। कोई भी त्योहार हो, उसे स्वस्थ शरीर और मन से मनाना चाहिए और त्योहार के आनंद को जमकर उपभोग करना चाहिए। चूंकि स्त्रियों का भी हक बनता है कि वे भी जीवन में आनंद करें, जीवन को बेहतर बनाएं।

स्त्री-आधुनिकता विचारों में है या ‘जीन्स’ में – सारदा बनर्जी


                        


आज अधिकतर भारतीय स्त्रियां प्रचलित भारतीय वस्त्रों की जगह जीन्स को वरीयता दे रही हैं। इसकी वजह है मार्केट में जीन्स का व्यापक तौर पर उपलब्ध होना और जीन्स का कम्फर्ट-लेबल । इसके अतिरिक्त जीन्स स्टाइलिश ड्रेस के रुप में भी माना जाता है। साथ ही यह आधुनिकता का भी परिचायक है। यही वजह है कि आज धड़ल्ले से जीन्स मार्केट में बिक भी रहे हैं और आधुनिक पीढ़ी की स्त्रियां इसे खूब पहन भी रही हैं। किंतु सोचने और विचारने की बात है कि क्या आधुनिक कपड़ों से ही आधुनिकता की पहचान होती है ? क्या स्त्रियों के लिए आधुनिक कपड़ों के साथ-साथ आधुनिक विचार भी ज़रुरी नहीं ? देखा जाए तो आधुनिक कपड़ों और आधुनिक विचारों के साथ-साथ आधुनिक व्यवहार और आधुनिक आचरण भी आज की आधुनिकाओं के लिए बेहद ज़रुरी है। अगर हकीकत की पड़ताल की जाए तो ज़्यादातर मामलों में आज की आधुनिक लड़कियां केवल कपड़ों से ही आधुनिक होती हैं। आज कॉलेज या विश्वविद्यालय की लड़कियां जीन्स-टॉप जैसे आधुनिक वस्त्रों में दिखती तो हैं लेकिन उनकी मानसिकता में ट्रैडिशनल मानसिकता से कोई ज़रुरी फेर-बदल दिखाई नहीं देता। यानि उदार या ओपेन विचारों का उनमें सर्वथा अभाव दिखाई देता है। दूसरी ओर उनसे बात करते ही उनके दिमाग में पैठी पिछड़ी मानसिकता या पुंसवादी मानसिकता का ज़बरदस्त एफ़ेक्ट दिखाई देता है। यही वह मुद्दा है जिस पर विचार करने की ज़रुरत है कि आख़िर क्या कारण है आधुनिक कपड़ों ने तो हम स्त्रियों पर हमला बोल दिया लेकिन आधुनिक विचारों ने नहीं।
देखा जाए तो पुंस समाज ने स्त्रियों पर आधुनिक वस्त्रों का लबादा ओढ़कर उनमें आधुनिक होने का विभ्रम पैदा किया है। लेकिन आधुनिक सोच को बढ़ावा देने में पुंस-समाज की भूमिका प्राय: ज़ीरो है। भारतीय समाज में आज भी स्त्री अधिकारहीन है, उसे किसी भी मामले में स्व-निर्णय का हक नहीं है। परिवार में चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री सबके जीवन का निर्णयक-कर्ता वही पुरुष है। कारण यह कि स्त्रियों को फैसले लेने या अपने विचार को रखने का स्पेस ही नहीं दिया जाता। जीन्स-टॉप में फ़िट आज की अधिकतर स्त्रियां यह सोचती हैं कि वे तो आधुनिका हैं लेकिन उनकी यह सोच दरअसल गलत है। आज की अधिकतर(सभी नहीं) स्त्रियां आधुनिक कपड़ों में लिपटी पिछड़ी विचारों से लैस स्त्रियां है जिन्हें अपने साथ घट रही हर एक पल की सूचना अपने परिवारवालों को देनी पड़ती है, पुरुष घरवालों की मर्ज़ी के अनुसार चलना पड़ता है। वे अपने पसंदीदा फील्ड में नहीं पढ़ सकतीं, पसंदीदा लड़के से शादी नहीं कर सकतीं, पसंदीदा जिंदगी नहीं जी सकतीं। तो आखिरकार उनके जीवन में आधुनिकता है कहां ?
मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि स्त्रियां जीन्स पहनना छोड़ दें और भारतीय वस्त्र पहनकर ही आधुनिक विचारों से संपृक्त हों। बल्कि यह कि स्त्रियों की यह मौलिक अभिरुचि हो कि वह क्या पहने क्या नहीं। साथ ही उनके विचार भी मौलिक और आधुनिक हो, ना कि पराए या पुराने। सर्वप्रथम तो स्त्री विचारों पर पुंस आधिपत्य बिल्कुल न हो तो दूसरी ओर स्त्रियां खुद अपने विचारों में आधुनिकता का स्वयं समावेश करें। वे अपनी अस्मिता के प्रति सचेत हों, अपनी दृष्टि से अपने सौंदर्य को परखें और अपनी रुचिबोध से परिचालित हों ना कि पुरुषों के। पुरुषों की इच्छानुसार स्वयं को ढालने की कोशिश न करें। अपने लिए अपने आप को ब्यूटीफाई करें ना कि पुरुषों की नज़रों में पर्फ़ेक्ट होने के लिए। अपनी प्रतिभाओं को पहचानकर जीवन में सही कदम बढ़ाएं ना कि पुंस घरवालों के चुने हुए रास्ते पर चलें। जब तक इन आधुनिक मुद्दों में हेर-फेर नहीं होगा तब तक स्त्री जीन्स पहनकर भी आधुनिका नहीं हो सकती यानि स्त्री मेंटली पुरुष आधिपत्य में ही सिमटी रह जाएगी और उन्हीं के द्वारा परिचालित होती रहेंगी।
इक्कीसवीं सदी की स्त्रियों के लिए यह ज़रुरी हो गया है कि कपड़ों के साथ-साथ उनके विचारों में भी आवश्यक बदलाव आए क्योंकि जब तक वे आधुनिक विचारों से लैस नहीं होंगी तब तक अपने संवैधानिक अधिकारों और समाज व परिवार में व्याप्त पुंसवादी रवैये के प्रति जागरुक नहीं होंगी। पितृसत्ताक मानसिकता से मुक्ति के लिए स्त्रियों को सचेत होना पड़ेगा। स्त्री-सचेतनता के लिए आधुनिक विचारों को दिल खोल कर स्वागत करना होगा। उदार मानसिकता को अपनाना होगा जिससे वे स्वच्छंद हो सकें, मुक्त हो सकें। मॉडर्न एटीट्यूड का विकास कर उसे अपने जीवन में लागू करना होगा। 

Sunday 11 November 2012

स्त्री और कृष्ण-चरित्र – सारदा बनर्जी


             


क्या कारण है कि स्त्रियों में मिथकीय नायकों में राम की अपेक्षा कृष्ण ज़्यादा पॉप्यूलर हैं ? कृष्ण को लेकर स्त्रियों में जितनी फैंटेसी, प्रेम और उत्सुकता दिखाई देती है उतनी उत्सुकता राम को लेकर नहीं। कृष्ण को लेकर सुंदर कल्पनाएं करने, कथाएं रचने और चर्चा करने में स्त्रियां जितनी रुचि लेती हैं उतनी राम-कथा में नहीं। वजह यह है कि स्त्रियां लिबरल चरित्र को ज़्यादा पसंद करती हैं और उसे अपने निजी जीवन में अहमियत भी देती हैं।कृष्ण चरित्र में स्त्रियों को स्त्री-मुक्ति की भावना दिखाई देती है, इस चरित्र में उन्हें स्त्री-अस्मिता का बोध होता है। कृष्ण का चरित्र मुक्त विचार, मुक्त सोच, मुक्त क्रिया और मुक्त जीवन को प्रधानता देता है। यही कारण है कि कृष्ण और कृष्ण-कथा स्त्रियों को ज़्यादा अपील करता है।
आज स्त्रियां जीवन और समाज में अपनी आइडेंटिटी को लेकर काफ़ी सचेत हैं। साथ ही वे समाज से स्व-मर्यादा और स्व-सम्मान भी चाहती हैं और यह सम्मान का बोध उन्हें समाज रुपी कृष्ण-चरित्र में महसूस होता है।कृष्ण के चरित्र की ख़ासियत यह है कि वह स्त्री-मुक्ति का पक्षधर है। वह स्त्रियों के अस्तित्व को चलताऊ ढंग से नहीं देखता बल्कि उसे विशेष मर्यादा देता है, हर एक स्त्री की व्यक्तिगत इच्छाओं और मनोदशाओं को खास सम्मान करता है। यह चरित्र संपर्क में रहने वाली हर स्त्री की प्राय हर एक इच्छा को पूर्ण करता है। हर छोटी बात को अनुभूति के धरातल पर समझता है। स्त्रियां इस उदार चरित्र से स्वभावत: आकर्षित होती हैं और कृष्ण में अपने आदर्श पुरुष को देख पाती हैं। यही वजह है कि कृष्ण-राधा की कथाओं की विभिन्न कल्पनाओं में स्त्रियों को जितना आनंद मिलता है उतना राम-सीता की कहानियों में नहीं। फैंटेसिकल चिंतन में भी कृष्ण एक उदार चरित्र के रुप में स्त्री-हृदय में व्याप्त है।
कृष्ण के चरित्र की दूसरी विशेषता उसका हंसमुख स्वभाव है।चाहे सीरियल हो चाहे फिल्म हर जगह कृष्ण का चरित्र एक सुंदर हंसी के साथ सामने आता है। स्त्रियों को इस हंसमुख स्वभाव से बेहद प्यार है।सदियों से अपने हक के लिए लड़ रही स्त्रियां पुरुषों से केवल अच्छा व्यवहार और एक स्वस्थ हंसी ही चाहती हैं और वह भी उन्हें नहीं मिलता। कृष्ण का मनमोहक रुप और उससे झर-झर निसृत सुंदर हंसी कहीं न कहीं स्त्री-हदय को मुग्ध करता है।
देखा जाए तो राम का चरित्र भी स्त्री को पर्याप्त सम्मान करता है और वह एकपत्नी-व्रत चरित्र भी है फिर भी क्या वजह है कि स्त्री-हृदय में राम की अपेक्षा कृष्ण-चरित्र ही ज़्यादा छाया हुआ है। हो सकता है सीता की अग्निपरिक्षा जैसी मार्मिक घटनाओं से स्त्रियां कहीं न कहीं आहत होती हैं और राम के चरित्र को नापसंद करती हैं या राम के चरित्र से उन्हें घोर शिकायत है। ध्यानतलब है कि स्त्रियां उस चरित्र को ज़्यादा पसंद करती हैं जो समाज की परवाह न करें, जो केवल अपने हृदय की बात मानें, स्त्री-हृदय को पढ़ें, उसे सम्मान करें और ये सारे गुण प्रकटत: कृष्ण-चरित्र में है।
कृष्ण के चरित्र की तीसरी विशेषता है उसका सखा-भाव या कहें उसका फ्रेंडली एटीट्यूड। स्त्रियां आम तौर पर अपने संपर्क के हर एक पुरुष में फ्रेंडली एटीट्यूड को चाहती है, पुंसवादी रवैया और दमनात्मक व्यवहार बिल्कुल नहीं चाहती। कृष्ण–चरित्र में मेल शोवेनिस्टिक एटीट्यूड एक सिरे से गायब है। वहां स्त्री-पुरुष में मित्रता का संपर्क है चाहे उम्र में कितना भी फर्क हो। कृष्ण-कथा में कृष्ण जिन स्त्रियों के संपर्क में रहते हैं, बात करते हैं सबसे उनका फ्रेंडली रिलेशन दिखाई देता है। स्त्रियां भी अपनी व्यक्तिगत पीड़ाएं और आंतरिक अभिलाषाएं कृष्ण से शेयर करती हैं। वैसे देखा जाए तो स्त्रियों की व्यक्तिगत बातों और पीड़ाओं को राम के चरित्र ने भी सुना और समझा है लेकिन राम के चरित्र में फ्रेंडली एटीट्यूड का अभाव दिखाई देता है। यही वो जगह है जहां कृष्ण स्त्री-मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पॉज़िटिव रुप में सामने आते हैं।
राम और कृष्ण दोनों ही चरित्रों में दुष्ट-दलन की शक्ति, शत्रु-निधन-क्षमता इत्यादि गुण देखे जाते हैं। लेकिन दिलचस्प है कि स्त्रियों को इन गुणों से कोई लगाव नहीं है। कारण यह है कि शक्ति, शौर्य आदि से स्त्री आकर्षित नहीं होती। स्त्री सर्वप्रथम विनम्र व्यवहार से मुग्ध होती है जो कृष्ण और राम दोनों चरित्रों में मौजूद है। साथ ही स्त्री सम्मान व मर्यादा की आकांक्षी होती है। वह पुंसवादी रवैया तो बिलकुल नापसंद करती है। पुंस-व्यवहार में वह हमेशा अपने लिए रेस्पेक्ट को खोजती है। सबसे अहम है वह अपने लिए स्पेस चाहती है और कृष्ण के चरित्र की यह खासियत है कि वह स्त्रियों को पर्याप्त स्पेस देता है। स्त्री-अनुभूति को महत्व देता है। फलत स्त्रियों के लिए कृष्ण का चरित्र जितना आत्मीय है उतना राम का नहीं है। कृष्ण के चरित्र से स्त्रियों की जितनी रागात्मकता है उतनी राम के चरित्र से नहीं। इसलिए स्त्रियों में कृष्ण जितने पॉप्यूलर हैं उतने राम नहीं।   


Friday 12 October 2012

राजनीति में स्त्री दिलचस्पी की कमी – सारदा बनर्जी


                                
आम तौर पर देखा गया है कि स्त्रियों में राजनीति के प्रति दिलचस्पी बेहद कम होती है। स्त्रियां राजनीति पर बात करना, चर्चा या आलोचना करना कतई पसंद नहीं करतीं। वे दूसरे अनेक रोचक विषयों पर जमकर बात करती हैं, आलोचना करती हैं पर राजनीति से कोसों दूर रहती हैं। उसे ‘बोगस’ विषय समझती हैं। बहुत कमसंख्यक स्त्रियां हैं जो देश में घट रहीं दैनंदिन राजनीतिक गतिविधियों में दिलचस्पी लेती हैं और विभिन्न घटनाओं की खबर और जानकारी रखती हैं। यह भी देखा गया है कि इन राजनीतिक खबर रखने वाली स्त्रियों को अन्य स्त्रियां आश्चर्य भरी नज़रों से निहारती हैं। उनका भाव ऐसा होता है कि ‘ये भी कोई सुनने, देखने और समझने की चीज़ है ?’ पेइंग-गेस्ट या हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों में फिल्मी गानों ,फिल्मों, सीरियलों को देखने की होड़ लगी रहती है। इस बीच यदि कोई लड़की न्यूज़ सुनने की ज़िद कर बैठे तो वहां मौजूद दूसरी लड़कियां विरक्ती भाव से उसे देखती हैं। अगर राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत छेड़ी जाए तो स्त्रियां उसे एवोएड करती हैं या कहती हैं, ‘पॉलिटिक्स बहुत खराब चीज़ है’ या कहती हैं, ‘कोई नेता या नेत्री क्या देश के लिए कुछ कर रहे/रही हैं ?’ बात कुछ हद तक सही है लेकिन सोचने की बात है कि क्या बिना देश की राजनीति को जाने, राजनीतिक गतिविधियों को समझे, राजनैतिक इतिहास की जानकारी रखे सिर्फ ऊपरी कमेंट पास करना ठीक है? क्या दैनंदिन राजनीतिक हरकतों की जानकारी रखे बगैर देश-सुधार या राज्य-सुधार पर विचार हो सकता है? क्या संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की जानकारी के बिना संवैधानिक अधिकार अर्जित करना संभव है? कतई नहीं।
घर-घर में स्त्री-अत्याचार आज एक आम विषय है।यह भी सच है कि स्त्रियां इन अन्यायों, अत्याचारों और अपमानों को आए दिन घुट-घुट कर झेलती रहती हैं। एक ऐसा वर्ग है स्त्रियों का जो अपने संवैधानिक अधिकारों से एकदम अनजान है।उन्हें यह पता ही नहीं कि वे अपने अत्याचार का प्रतिरोध कर सकती है, उन्हें कानूनी सहायता मिल सकता है। इस अनजान रुख का बहुत बड़ा कारण है राजनीतिक ज्ञान का अभाव। दूसरी ओर जो स्त्रियां अपने संवैधानिक अधिकारों से वाकिफ़ हैं भी वे जीवन में कोई भी पुख्ता कदम उठाने से डरती हैं। स्त्रियों के मन में बैठे इस डर, इस अज्ञानता का बहुत बड़ा कारण उनके राजनीतिक ज्ञान या शिरकत की कमी है। लेकिन कभी किसी पुरुष को कोई राजनैतिक या संवैधानिक कदमों को उठाते हुए डरते नहीं देखा जाता क्योंकि पुरुष जमकर देश की राजनीतिक गतिविधियों में बराबर दिलचस्पी लेते रहे हैं, हिस्सा लेते रहे हैं।
स्त्री-अपदस्थीकरण का एक बहुत बड़ा कारण स्त्रियों का राजनीति के प्रति रुचि का अभाव है। यह कटु सत्य है कि भारत में अधिकतर स्त्रियां चुनाव के समय अपने मन-पसंद उम्मीदवार को वोट नहीं देतीं। वो अपने पति या पिता द्वारा कहे(समझाए) गए उम्मीदवार को ही वोट दे आती हैं। कारण अधिकांश स्त्रियां राजनीति सुनती ही नहीं, ना फ़ोलो करती हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि किसे वोट दिया जाए। वोट से तुरंत पहले अपने पुंस घरवालों से सीख-समझकर कुछ ज्ञान संग्रह करती हैं और उसी आधार पर अपना वोट देना सार्थक समझती हैं। कमसंख्यक स्त्रियां हैं जो राजनीति में वास्तविक रुचि लेती हैं और अपने स्वायत्त फैसले रखते हुए उसी आधार पर वोट देती हैं। लेकिन स्त्री-मुक्ति के लिए स्त्रियों का राजनीति में दिलचस्पी लेना और राजनीति में शिरकत करना दोनों बेहद ज़रुरी है।
यह देखा गया है कि ऑफिस में या परिवार में जब पुरुष-समूह राजनीतिक विषयों पर चर्चा करने लगते हैं तो स्त्रियां अचानक चुप्पी साध लेती हैं या न्यूज़ चैनलों में राजनीतिक खबरों के आते ही स्त्रियां भाग खड़ी होती हैं। यह जो उपेक्षा का भाव है राजनीति के प्रति यही खतरनाक है।यही वह जगह है जहां स्त्रियां कमज़ोर हो जाती हैं और पुरुष स्त्रियों को मूर्ख या बुद्धिहीन समझने लग जाते हैं। साथ ही स्त्रियों को राजनीतिक-शिक्षा देते-देते स्त्रियों पर अपने पुंस आधिपत्य का विस्तार करने लगते हैं।
स्त्रियों की राजनीति में कम दिलचस्पी के कारण ही देश में स्त्रियों की राजनीति में शिरकत की भी कमी है। भारत में जिस गति में पुरुष राजनीति में शिरकत करते हैं,राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं उसी अनुपात में स्त्रियां नहीं लेतीं। इसका एक कारण यह भी है कि स्त्रियों के स्वायत्त निर्णय लेने में परिवारवालों की ओर से भी पाबंदी होती है। भारत में बड़ी स्त्री-नेत्रियाँ हाथ में गिनी जा सकती हैं, जबकि पुरुषों की एक लंबी फौज राजनीति से जुड़ा है।
स्त्री अस्मिता और स्त्री-मुक्ति के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि स्त्रियां देश के राजनीतिक गतिविधियों में रुचि लें। उसे जानें, समझें और राजनीति में शिरकत करें। राजनीतिक विषयों पर अपने विचार रखें और उन विषयों पर कायदे से तर्क करें। इससे स्त्रियों में आत्मविश्वास का संचार होगा, उन्हें पुंस दासता से मुक्ति मिलेगी।


Saturday 29 September 2012

स्त्री-आकर्षण का केन्द्र : अनुभूति, ताकत नहीं - सारदा बनर्जी


         
                                            
         आम तौर पर पुरुषों में यह धारणा प्रचलित रही है कि स्त्रियां पुरुषों के मर्दानगी वाले एटीट्यूड, बलिष्ठ भुजाओं वाले ताकतवर शरीर से ही आकर्षित होती हैं लेकिन यह धारणा सरासर गलत है। यहां हमें अपनी परंपरागत मानसिकता में थोड़ा फेर-बदल करना होगा। स्त्री –हृदय की पड़ताल के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि स्त्री-मनोविज्ञान की सही रीडिंग की जाए, स्त्री-मन को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाए। स्त्री न तो  पुंस-रुप के प्रति आकर्षित होती है, और नहीं पुंस-रंग के प्रति, नहीं उसकी दौलत के प्रति, ना पुंस-ज्ञान के प्रति और ना ही पुंस-ताकत के प्रति। बल्कि स्त्रियों को पुरुषों में व्याप्त स्त्री-मन को समझने की गहन अनुभूति-क्षमता आकर्षित करती है। पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं। 
दिलचस्प है कि टी.वी. में भी इसी गलत समझ के आधार पर विज्ञापन प्रायोजित किए जा रहे हैं जिसके नमूने अक्सर देखने को आते हैं।मसलन् पुरुषों के गोरेपन की क्रीम, बॉडी स्प्रे या बाइक के विज्ञापनों में बलिष्ठ ‘मसेल’(muscle) संपन्न युवकों को विज्ञापन प्रमोट करते दिखाया जाता है और उसके आस-पास सुंदर अल्पवस्त्र पहनी स्त्री या स्त्रियां उसके बदन पर विभिन्न पॉस्चर में हाथ फेरती नज़र आती हैं। साफ़ है कि इसके ज़रिए दर्शकों को यह संदेश दिया जाता है कि स्त्रियां बलिष्ठ और शक्तिशाली युवक के प्रति ही ज़्यादा आकर्षित होती हैं। इसलिए स्त्रियों को आकर्षित करने का फॉर्मूला है ताकतवर होना।
   फ़िल्मों को भी इस तरह के अप-प्रचार का खास श्रेय जाता है। मसलन् सलमान खान, ऋत्विक रोशन, शाहरुख खान, आमिर खान, सैफ-अली खान जैसे बॉलीवुड के हीरो, विलेन को मसेल-पावर के ज़रिए पटकते और हीरोइन और दूसरे कमज़ोर लोगों की सम्मान व मर्यादा-रक्षा करते दिखाया जाता है, तो दूसरी ओर ‘सिक्स-पैकस्’ द्वारा हीरोइन को प्रभावित करते भी दिखाया जाता है। हीरोइन कभी हीरो के बाहुबलि शरीर पर फ़िदा होकर उसे मदहोश नज़रों से देखती हुई गाना गाने लगती हैं तो कभी उसे छूकर आनंद लेती दिखाई जाती है।
    वास्तविकता की सही पड़ताल की जाए तो यह देखा जाएगा कि अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों के फुले हुए भुजाओं का शरीर आकर्षित ही नहीं करता। वे तो संबंधित नायक का नायिका के प्रति कहे गए अनुभूति-प्रवण वाक्यों से, सहृदयपूर्ण व्यवहार से द्रवित होती हैं। स्त्रियों पर किए गए इस अप-प्रचार में पुंसवाद और पुंस-मानसिकता की अहम भूमिका है। इस गलत मीडिया प्रोपेगेंडा से कुछ स्त्रियां तब तक प्रभावित होती हैं जब तक वास्तविकता से परिचित नहीं होतीं। वास्तविकता का सामना करते ही स्त्रियों के सामने इस फ़ेक प्रचार का वि-रहस्यीकरण हो जाता है और स्त्रियां हकीकत को पढ़ लेती हैं। इसलिए यथार्थ जीवन में वह इस फ़ेकनेस को फ़ोलो नहीं करतीं। वह पुरुषों से कोई सुझाव नहीं चाहती, बस अपने मन को खोलने का स्पेस चाहती है। जहां उसे यह स्पेस मिलता है वहां वो सार्थक फ़ील करती है।
कॉलेज या विश्वविद्यालय में पुरुष विद्यार्थियों द्वारा भी स्त्रियों के बारे में यही मिसरीडिंग देखी जाती है।मसलन् अगर किसी लड़की से उसके फ़ेबरेट हीरो का नाम पूछा गया और उसने मशहूर हीरो ‘सलमान खान’ का नाम नहीं लिया तो अधिकतर लड़के अवाक् रह जाते हैं या उस लड़की पर अविश्वास करने लगते हैं चूंकि उनके अनुसार स्त्रियां ‘मसेल’ और ताकत-संपन्न पुरुषों से ही प्रभावित होती हैं, इसलिए अगर किसी को सलमान पसंद है तो वह ‘मसेल’ की ही वजह से और अगर नहीं है तो वह लड़की ठीक नहीं कह रहीं। यानी ताकतवर पुरुषों को ही स्त्रियों का आदर्श पुरुष होना है, अन्यथा नहीं। यह कायदे से स्त्री-मनोविज्ञान की मिसरीडिंग है। 
लेकिन हकीकत बताते हैं कि स्त्रियां उन्हीं पुरुषों के साथ रहना या खुलकर अपनी बात कहना पसंद करती हैं जो उनकी अनुभूति को समझे चाहे वो ताकतवर हो चाहे न हो। यह भी संभव है कि वह पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले, अपने मन की परतों को खोलकर रख सके। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री वहां होती है जहां वो मुक्त हो और अनुभूति महसूस करे।  पुरुषों का बलिष्ठ शरीर कभी भी स्त्रियों को अपील नहीं करता। ना ही स्त्री ताकतवर पुरुषों को देखकर आकर्षित और सम्मोहित होती हैं। स्त्री को यदि आकर्षित करना है तो उसके मन में स्थान पाना होगा और मन में स्थान पाना तभी संभव है जब पुरुष उसकी अनुभूति को स्पर्श करे, स्त्री-हृदय को समझे। 

Monday 17 September 2012

स्त्री के वस्तुकरण में विज्ञापन की भूमिका –



स्त्री के वस्तुकरण में जितनी मदद विज्ञापन ने की है उतना किसी और माध्यम ने नहीं।विज्ञापन ने स्त्री के इमेज को वस्तु में तब्दील करके उसे लोकप्रिय बनाने में गहरी भूमिका अदा की है।यही वजह है कि आज स्त्री घर में प्रयोग होने वाली सामान्य वस्तुओं से लेकर खास किस्म के प्रोडक्ट को भी विज्ञापनों के ज़रिए प्रोमोट करती हुई नज़र आती है। स्त्री साबुन, शैम्पु, हैंडवाश, बर्तन, फ़िनाइल, डीओ, तेल, विभिन्न तरह के लोशन, क्रीम, टॉयलेट क्लीनर से लेकर पुरुषों के दैनंन्दिन प्रयोग की चीज़ों के विज्ञापनों में भी दिखाई देती हैं। पुरुषों के अंर्तवस्त्रों या डीओड्रेंट्स के विज्ञापनों में तो अधनंगी स्त्रियां पुरुषों के साथ एक खास किस्म के कामुक जेस्चर में प्रेज़ेंट की जाती हैं। इसका उद्देश्य होता है, स्त्रियों के कामोत्तेक हाव-भाव और सम्मोहक अंदाज़ के ज़रिए पुरुष दर्शकों को टारगेटेड विज्ञापन के प्रति आकर्षित करना और उस निश्चित ब्रांड के प्रति दर्शकों के रुझान को बढ़ाना जिससे वे उसे जल्द खरीदें।
                    यह देखा गया है कि खास किस्म के विज्ञापनों में भी स्त्री-शरीर के ज़रिए विज्ञापनों को प्रमोट किया जाता है।मसलन् मोटापा कम करने या कहें स्लिम-फिटहोने के विज्ञापन मुख्यतः स्त्री-केंद्रित होते हैं।चाहे यह विज्ञापन मशीनों द्वारा वज़न कम करने का हो या रस और फल-सेवन के उपाय सुझाने वाला लेकिन हमेशा स्त्री-शरीर ही निशाने पर रहता है। इसमें एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली अधनंगी (बिकिनी पहनी) स्त्री पेश की जाती है तो दूसरी तरफ स्लिम-अधनंगी स्त्री। एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली के खाने का चार्ट दिखाया जाता है तो दूसरी तरफ कम वज़न वाली का। फिर दोनों की तुलना की जाती है कि किस तरह कम वज़न वाली स्त्री मशीन के प्रयोग से या कम सेवन कर आकर्षक, कामुक और सुंदर लग रही है, दूसरी तरफ अधिक वज़न वाली स्त्री वीभत्स, अकामुक और कुत्सित लग रही है।इसलिए फलां फलां चीज़ सेवन करें या फलां मशीन उपयोग में लाएं ताकि आप भी आकर्षक और कामुक दिख सकें।
                  आजकल फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइट्स में भी इस तरह के विज्ञापनों का खूब सर्कुलेशन हो रहा है। इस तरह के विज्ञापनों का स्त्री को अपमानित करने और वस्तु में रुपांतरित करने में बड़ी भूमिका है। मध्यवर्ग की कुछ स्त्रियां इन विज्ञापनों से प्रभावित भी होती हैं।वे या तो मशीन का उपयोग करने लगती हैं या फिर डाइटिंग के नुस्खे अपनाती हैं।इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञापन केवल स्त्री-शरीर ही नहीं स्त्री-विचार पर भी हमला बोलता है। वह तयशुदा विचारों को लोगों के दिमाग में थोपता है और इसमें खासकर स्त्रियां निशाने पर होती हैं।
                 यह विज्ञापनों का स्त्री-विरोधी या पुंसवादी रवैया है जो स्त्री की व्यक्तिगत इच्छाओं और आकांक्षाओं पर हमला करता है।स्त्री के शरीर को केंद्र में रखकर स्त्री को स्लिम होने के लिए प्रोवोक करना कायदे से उसे पुंस- भोग का शिकार बनाना है। स्त्री के ज़ेहन में यह बात बैठाया जाता है कि अगर वह स्लिम होगी तो वह मर्दों को आकर्षित कर पाएगी। स्त्रियों में विज्ञापनों के ज़रिए यह जागरुकता पैदा किया जाता है कि वो अपने फ़िगर को लेकर सचेतन हो, उसे सही शक्ल दें। जायज़ है कि स्त्रियां अपनी इच्छाओं को महत्व न देकर दूसरों की या कहें कि पुरुषों की इच्छानुसार अपने को ढालने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती है।वह अपने को आकर्षक और कामुक लुक देने के लिए अपार मेहनत करती रहती है। धीरे-धीरे स्त्री अपनी स्वायत्त इच्छाओं के साथ-साथ अपना स्वायत्त व्यक्तित्व तक खो देती है और हर क्षण पुरुषों की इच्छानुसार परिचालित होती रहती है। अंततः स्त्री व्यक्तिकी बजाय पुरुषों के लिए एक मनोरंजक वस्तुया भोग्याबनकर रह जाती है।

                   सवाल यह है कि अधिकांश विज्ञापन स्त्री-शरीर केंद्रित ही क्यों होते हैं ? क्या स्त्री के अधोवस्त्र या निर्वस्त्र शरीर के ज़रिए विज्ञापन प्रोमोट करने पर वस्तु की मार्केटिंग में इज़ाफा होता है? क्या इससे विज्ञापन कंपनी को फायदे होते हैं? ध्यान देने की बात है कि विज्ञापनों ने स्त्री के परंपरागत रुप को तवज्जो दी है लेकिन स्त्री का आधुनिक रुप विज्ञापनों में एक सिरे से गायब है। टी.वी. विज्ञापनों में स्त्री हमेशा अच्छी खरीददार के रुप में नज़र आती हैं लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका शून्य के बराबर होता है। वह विज्ञापनों में धड़ल्ले से विभिन्न वस्तुओं को खरीदती, प्रयोग करती नज़र आती हैं, पुरुष के फैसले पर अमल करती दिखाई जाती है जो उसका ट्रैडिशनल रुप है। किंतु उसके आधुनिक रुप को सामने नहीं लाया जाता जिसमें वह खुद फैसले लेती हो और उसे भी पुरुषों के समान अधिकार उपलब्ध हों। स्त्री के ट्रैडिशनल रुप को तवज्जो देने वाले विज्ञापन स्त्री को फिर से सामंती मानसिकता और सामंती विचारों से जोड़ने लगता है। उसे मुक्त सोच और मुक्त कार्य की आज़ादी से वंचित करता है। स्त्री के दूसरे दर्जे की पुरानी इमेज को कायम रखने में मददगार होता है।
                    बुद्धि और मेधा पर ज़ोर देने वाले विज्ञापनों में स्त्रियों की भूमिका केवल मां तक सीमित रहता है। मसलन् टी.वी. पर आने वाले विभिन्न हेल्थड्रींक्स (कॉमप्लैन, हॉरलिक्स से लेकर पीडिया-स्योर तक)के विज्ञापनों में मुख्यतः लड़कों को ही हेल्थड्रींक पीकर लंबाई बढ़ाते और मेधा का विकास कराते दिखाया जाता है। सिर्फ मां के किरदार में एक औरत अपने बेटे को हेल्थड्रींक पिलाती हुई दिखाई देती हैं। लेकिन लड़कियों को केंद्र में रखकर कभी इस तरह के विज्ञापन नहीं बनाए जाते। इन हेल्थड्रींक्स के प्रयोग से मेधा में इज़ाफा होता है या नहीं यह दीगर बात है लेकिन इस बात की पुष्टि ज़रुर होती है कि विज्ञापन स्त्रियों के उन्हीं रुपों को प्रधानता देता है जो शरीर के प्रदर्शन से संबंध रखता है, उसकी बुद्धि और मेधा के विकास से नहीं, उसकी पढ़ाई से नहीं, उसकी सर्जनात्मकता से नहीं, उसकी अस्मिता से नहीं।

                  कायदे से उन विज्ञापनों पर सख्त़ पाबंदी लगनी चाहिए जो स्त्री-अस्मिता के बजाय स्त्री शरीर को प्राथमिकता दे और स्त्री को माल में तब्दील होने में भरपूर मदद करें।यह बेहद ज़रुरी है कि ऐसे विज्ञापन लौंच किए जाएं जो स्त्री के आधुनिक रुपों को सामने लाए। स्त्री हमें मौलिक फैसले लेते हुए दिखाई दे। ऑब्जेक्टके बजाय व्यक्तिके रुप में स्त्री सामने आए।


Monday 10 September 2012

नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क




 नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क- सारदा बनर्जी



हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी दैनिक 'वाल स्ट्रीट जर्नल' को दिए साक्षात्कार में स्त्री-कुपोषण पर बयान दिया कि गुजराती मध्यवर्गीय औरतें स्वास्थ्य की तुलना में सुंदरता के प्रति ज़्यादा जागरुक है। उन्होंने कहा कि यदि मां अपनी बेटी से कहती है कि दूध पीओ तो वह लड़ती है और कहती है कि वह नहीं पीएगी चूंकि इससे वह मोटी हो जाएगी। यहां सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या स्त्री-कुपोषण की समस्या महज सुंदरता की समस्या है? यदि ऐसा है तो बच्चों में कुपोषण क्यों है ? आदिवासी स्त्री मध्यवर्ग में नहीं आती उनमें कुपोषण की मात्रा सबसे अधिक पाई गई है ।  इसलिए सिर्फ मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर कुपोषण को देखना गलत है।
               आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति बदतर है जबकि गुजरात भारत का तेज़ी से विकास करने वाला राज्य है। 2005-2006 के दौरान हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक गुजरात में 5 साल के नीचे 45 प्रतिशत बच्चों का वज़न कम पाया गया ।  पूरे देश के स्तर पर आंकड़े के हिसाब से 52 प्रतिशत कमवज़न वाले बच्चे गुजरात से है बाकि 48 प्रतिशत पूरे देश से। जहां राष्ट्रीय औसत के हिसाब से स्त्रियों में खून की कमी का प्रतिशत 1.8 है ,वहां गुजरात में यह प्रतिशत बढ़कर 2.6 है। भारत की  मानव विकास रिपोर्ट- 2011 ,के मुताबिक गुजरात भुखमरी में 13 वें नंबर पर है यानी उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम से भी नीचे है।
               ध्यान देने की बात है कि भारत में स्त्रियों में व्याप्त कुपोषण एक गंभीर चुनौती है जिस पर चर्चा नहीं होती।इस मसले पर कभी राजनीति में चुनाव नहीं लड़ा जाता।मसलन् यदि गुजरात की समस्या पर बात करनी है तो सांप्रदायिकता की समस्या पर बहस होती है,स्त्री के कुपोषण पर नहीं। हमारे यहां स्त्री के सवाल अभी तक राजनीति के सवाल नहीं बन पाए हैं।इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में राजनीति पुंस अधिकार-क्षेत्र तक ही सीमित है।चूंकि इस बार बयान नरेंद्र मोदी का था और निकट भविष्य में विधानसभा का चुनाव होने जा रहा है, इसलिए लोगों की नज़र स्त्री-कुपोषण के आंकड़ों की ओर गई।
             नरेंद्र मोदी का बयान पुंसवादी विचारधारा को व्यक्त करने वाला बयान है। कुपोषण का यह अजीब तर्क कम से कम एक मुख्यमंत्री का नहीं होना चाहिए।देखा जाए तो कुपोषण के लिए मुख्यमंत्री और प्रशासन की नीतियां ही ज़िम्मेदार हैं।  भारतीय ज़ेहन में बैठी पुंसवादी मानसिकता ज़िम्मेदार है। कायदे से हमें स्त्री-कुपोषण की समस्या को राजनीतिक और पुंसवादी दृष्टिकोण से परे जाकर देखना चाहिए।                    
             भारत में स्त्री कुपोषण का मुख्य कारण है स्त्री का हाशिए पर रहना, पुरुष के अधीन रहना और उसका अधिकारहीन होना। भारतीय परिवार का पूरा ढांचा पुंसवादी है। परिवारवाले जन्म के बाद से ही लड़का और लड़की में अनेक तरह के भेदभाव करने लगते हैं।लड़के को स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है,उसका खास ख्याल रखाजाता है।इसकी तुलना में लड़की पर कम ध्यान दिया जाता है। लड़की को गृहकार्य में निपुण और लड़के को पढ़ाई में तेज़ बनाने की कोशिश रहती है।लड़कियों की पढ़ाई को महत्व नहीं दिया जाता।उन्हें चलताऊ ढंग से पढ़ाया जाता है।इससे अनेक तरह की सुविधाओं से वे वंचित रह जाती हैं।उन्हें केवल अपनी सुंदरता पर ध्यान देने की बात सिखाई जाती है जिससे बड़े होने पर लड़की की विदाई में कोई परेशानी न हो, वह लड़केवालों को तुरंत पसंद आ जाए। स्वाभाविक तौर पर लड़की खाने और पढ़ने को छोड़कर विभिन्न तरह के लेप लगाने में और रुप-निखारने में लगी रहती है। धीरे-धीरे लड़कियों के जीवन में यह भेदभाव एक अंतरंग हिस्सा बन जाता है और वह इसकी अभ्यस्त हो जाती है।
            लड़कों की तुलना में लड़कियों का खाना मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होता है।प्रायः समस्त भारतीय परिवारों में यह नियम है कि स्त्री पुरुष के बाद भोजन करती है, इसका असर यह होता है कि स्त्री अंत में बचा-खुचा खाना खाती है । अपने पति, बेटे ,बुज़ुर्ग और परिवारवालों को खिलाने के बाद उसके पास खाने को सारवान खाना कम बचता है।इसका दूरगामी असर यह होता है कि घर में परिश्रम करने वाली औरतें आगे चलकर बेहद कमज़ोर हो जाती है। आगे चलकर उनमें आयरन और कैलशियम की कमी दिखाई देती है। फलतः खून और कैलशियम की कमी के कारण हड्डियां कमज़ोर हो जाती हैं और वे अनेक किस्म की तकलीफों को भोगती हैं। यहां तक कि गर्भवती औरतें और दूध पिलाने वाली माताएं भी लापरवाही की ही शिकार बनी रहती हैं।न पति देखभाल करता है न ससुराल वाले।उन्हें न हीं फल खिलाया जाता है न हीं पौष्टिक खाना जिसका असर आने वाले बच्चे पर पड़ता है। यही कारण है कि भारत में कुपोषण की मात्रा बच्चों और औरतों में सबसे अधिक है।यही हाल आदिवासियों का है।                                                
         यह सही है कि मध्यवर्गीय लड़कियों का एक छोटा सा भाग है जो सुंदरता और शरीर के रख-रखाव को लेकर बेहद सचेतन है।लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात है कि सुंदरता का जो मायाजाल मोदी ने गुजराता माता के बहाने बुना है वह पुंसवादी विचारधारा ने बनाया है।पुंसवाद से जितने प्रभावित पुरुष हैं उतनी ही स्त्रियां भी। असल में स्त्री की सुंदरता का तर्क पुरुष का तर्क है, ना कि स्त्री का। स्त्री स्वभावतः सुंदर होती है। स्त्रियों के दिलो-दिमाग में यह शुरु से बिठाया जाता है कि उसे कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, तन्वी होना है ,उसके ज़ेहन में बिठाया गया है कि यही स्त्री-जनित गुण है और पुरुष इसी से आकर्षित होंगे। इस बात को और पुष्ट करने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका है।स्त्रियों का एक छोटा भाग इसे मान लेता है और इससे आकर्षित भी होता है और कोमलांगी और सुंदर दिखने के चक्कर में वह अपने सेहत और स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देतीं।इसके दो तरह के असर हुए हैं, एक तो कम खाने की वजह से लड़कियां दुर्बल हो रही हैं। शारीरिक तौर पर दुर्बल होने के कारण वह बौद्धिक रुप से भी कमज़ोर हो जाती हैं।आए दिन उन पर हमले होते रहते हैं। दूसरी ओर उनका सामाजिक अस्तित्व भी खतरे में है।                                                
    स्त्री के कुपोषण की समस्या केवल सुंदरता की समस्या नहीं है।यह किसी एक मुख्यमंत्री की भी समस्या नहीं है क्योंकि पूरा देश कुपोषण से ग्रस्त है।प्रत्येक राज्य कुपोषण का शिकार है।यह समस्या पूरे देश में व्याप्त पुंसवादी दृष्टिकोण की देन है। इसलिए स्त्री कुपोषण की समस्या को हल करने के लिए पुंसवादी पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को बदलना पड़ेगा।पुंसवादी मानसिकता को त्यागना होगा।



पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...