Saturday 20 December 2014

बलात्कार के नए औज़ार— सारदा बैनर्जी


सोलह दिसम्बर, 2012 को मेडिकल की छात्रा निर्भया के साथ जिन अमानवीय हरकतों को किया गया उतने ही 'अमानवीय तरीके से बलात्कार करने' की धमकी देते हुए और रॉड जैसे हथियारों को साथ रखकर उसके ज़रिए दहशत पैदा करते हुए अब दूसरी लड़कियों के साथ बलात्कार को अंजाम दिेया जा रहा है। नृशंस बलात्कार की पुरानी घटनाएं अब होने वाले बलात्कार के समय औज़ार के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इसे बलात्कार के नए औज़ार के रूप में देखा जाना चाहिए। हाल में ही दिल्ली में उबेर नामक कंपनी के कैब में एक सत्ताइस साल की युवती के साथ कैब के ड्राइवर ने इसी युक्ति का सहारा लेते हुए बलात्कार किया। हरियाणा के हिसार ज़िले में बी.ए. के फार्म के लिए फॉटो खिंचवाने स्टुडियो पहुंची एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसका वीडियो बनाया गया और फिर वीडियो के ज़रिए लगातार तीन साल तक पीड़िता को ब्लैकमेल किया गया। पीड़िता ने साहस करके हाल में घटना का खुलासा किया है।
निर्भया बलात्कार कांड के अपराधियों को सज़ा दी गई। लेकिन इसके बाद भी देखा जा रहा है कि लगातार बलात्कार के वारदात होते रहे हैं। इन सारी घटनाओं ने पुराने सवालों को दोबारा उठाने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर स्त्रियां देश में कितनी सुरक्षित हैं? क्या स्त्रियों के पक्ष में दो-तीन कानून बना देने भर से ही स्त्रियां सुरक्षित हो जाएंगी? क्या समाज के गली-चौराहे कभी स्त्रियों के अनुकूल नहीं होंगे? निश्चिंत होकर कब स्त्रियां अपने घर पहुंचेगी? कब मर्द अपनी घिनौनी विचारधारा से मुक्त होगा?
निर्भया कांड ने पशुवत आचरण और हृदय रखने वालों को कितना संवेदनशील और मानवीय बनाया और बलात्कार जैसे अपराध के प्रति उन्हें कितना सचेत और सजग किया ये अब संशय के घेरे में है। शायद आए दिन आने वाली बलात्कारों की खबरें इन विकृत मानसिकता रखने वालों के लिए ईंधन का काम कर रहे हों ये भी संभव है कि जिन बर्बर बलात्कार की घटनाओं को अखबारों में पढ़कर हम सचेत और संवेदनशील नागरिक शर्मसार होते हों, वही खबरें इन पाशविक वृत्ति संपन्न इंसानों को नई ऊर्जा देती हो, नए औज़ार से लैस होकर ये बस बलात्कार करने का मौका तलाशते हों। यही वजह है कि किसी स्त्री को देखते ही सारी सभ्यताओं को तिलांजली देकर ये पुरुष अपने आदिम बर्बर रूप में आ जाते हैं जहां से स्त्री इन्हें केवलमात्र भोग्या के रूप में दिखाई देती है। सोचनेवाली बात है कि स्त्री-अनुभूति, स्त्री-संवेदना को दरकिनार कर स्त्री को केवलमात्र भोगवादी दृष्टि से देखने की यह आदिम प्रवृत्ति आई कहां से? क्या इसके लिए हम अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराए? लेकिन बलात्कार जैसे अपराध तो एक बड़े शिक्षित समूह द्वारा भी निष्पन्न किए जा रहे हैं। फिर क्या हमारी शिक्षा-व्यवस्था में समस्या है? लेकिन ये समस्या आई कहां से? इसके कारण की पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि इसके लिए सदियों से चली आ रही पितृसत्ताक विचारप्रणाली और पुसंवादी विचारबोध जिम्मेदार है जिसने समाज में उपभोग के अलावा किसी और रुप में स्त्री को देखने-समझने का मौका नहीं दिया। स्त्रियों के भोगवादी रूप को लगातार सामने रखा लेकिन एक इंसान के रूप में स्त्री की उपस्थिति को कभी दर्ज नहीं क्या गया, यही कारण है कि स्त्री-अस्मिता का विकास नहीं हो पाया। स्त्री-वजूद को सख्त बेड़ियों में बांधकर उसके स्त्री-अस्तित्व के मूल्य को बेहद संकुचित कर दिया गया।
ये हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि टेलीविज़न पर बलात्कार जैसी घटनाओं की अहर्निश निंदा हो रही है, बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को केंद्र में रखकर विभिन्न बुद्धिजीवियों के बीच सवांद आयोजित किए जा रहे हैं, सोश्यल साइट्स में बलात्कार के खिलाफ़ खूब लेख लिखे जा रहे हैं, बलात्कार-पीड़िता के प्रति संवेदनावाक्य प्रकट हो रहा है, बलात्कार के अपराधी पर तीखे शब्दबाण बरसाए जा रहे हैं लेकिन बलात्कार है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा। रुकना तो दूर की बात, बलात्कार नए-नए रूपों में, नए-नए तरीकों में, नए-नए औज़ारों के साथ, नित्यनूतन परिवेश में हर दिन दाखिल हो रहा है और हमारे देश की समाज-व्यवस्था की अक्षमता और असुरक्षा को जाहिरजहान कर रहा है। स्त्रियों के सामने नई-नई चुनौतियां उछाल रहा है और स्त्री-सुरक्षा को कठघरे में खड़ा कर रहा है।
हाल की परिस्थितियां यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि हमारे देश की सरकारें(केंद्र और राज्य) बलात्कार को रोकने में नाकाम हैं। बलात्कारियों को तुरंत सज़ा देने में भी असमर्थ हैं। निर्भया कांड को हुए दो साल पूरा हुआ लेकिन आज भी बलात्कार की घटनाएं नहीं थम रही। देश में स्त्रियां आज भी सुरक्षित नहीं है, सम्मान की नजर से नहीं देखी जा रहीं। ऐसी अवस्था में प्रशासन या सरकार से किसी भी प्रकार की अपेक्षा रखना बेमानी है। अभी ज़्यादा ज़रूरी है कि स्त्रियां मानसिक रूप से मज़बूत हों। राह चलते समय स्त्रियों को अपनी बुद्धि-विवेक का भरपूर प्रयोग करना होगा जिससे आने वाले खतरों को भांपकर उसी अनुसार कदम उठाया जा सके। अगर जरूरत पड़े तो कानून की हर तरह से मदद ली जाए। स्त्रियों को अपने दिल-ओ-दिमाग़ में यह साफ़ रखना है कि उन्हें अपना रास्ता खुद निकालना है, कोई और नहीं है जो उनकी मदद करे। इस दैनंदिन संघर्ष को जीवन का अंग मानकर, जीवन जीने का तरीका मानते हुए स्त्रियों तो आगे कदम बढ़ाना है।


Wednesday 9 April 2014

किसानों की आर्थिक बदहाली और फलस्वरूप ‘आत्महत्या’ – सारदा बैनर्जी

           
देश में किसानों की आर्थिक बदहाली और उसके परिणामस्वरूप उनकी आत्महत्या की घटनाएं पिछले दो दशकों से एक बहुत बड़ी चुनौती के रुप में सामने आया है। यह बेहद परेशान करने वाली घटना है कि देश का प्रमुख उत्पादक वर्ग एवं देश की अन्नदाता शक्ति गरीबी और आर्थिक तनाव का बुरी तरह से शिकार हैं और इसकी मार को झेलने में असमर्थ, लगातार आत्महत्या के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा रह गया है।



ध्यानतलब है कि सन् 1990 से किसानों की आत्महत्या की खबरों ने लगातार समाचारों में जगह बनाई है। सर्वप्रथम महाराष्ट्र से किसान आत्महत्याओं की खबरें सामने आई। इसके बाद भारत के विभिन्न राज्यों से लगातार आत्महत्या की घटनाएं दर्ज होती गईं। एन.सी.आर.बी. (नैशनल क्राइम रेकार्ड्स ब्यूरो) के मुताबिक सन् 1995 से सन् 2010 तक भारत में कुल 256,913 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
भारत के अंतर्गत महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्णाटक, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में किसान-आत्महत्याएं ज़्यादा हुई। नैशनल क्राइम रेकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक सन् 2006 में अकेले महाराष्ट्र में 4,453 किसानों की आत्महत्या की घटनाएं हुई जो देश में हुई कुल आत्महत्याओं(17,060) की संख्या का एक-चौथाई हिस्सा था। सन् 2008 में भारत में कुल किसान-आत्महत्याओं की संख्या 16,196 थी तो सन् 2009 में बढ़कर 17,368 हो गई। सन् 2010 में यह संख्या 15,964 हुई। सन् 2011 में यह संख्या 14,027 दर्ज हुआ। सन् 2013 में यह संख्या घटकर 11,700 दर्ज हुआ। सन् 2014 में 5,642 दर्ज हुआ।एन. सी. आर. बी. के अनुसार भारत में हर दिन 46 किसान आत्महत्या करते हैं। इन राज्यों के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल जिसे ‘राइसबोल ऑफ़ ईस्ट’ कहा जाता है, में भी किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं की है जिनमें से अधिकतर किसान बर्धमान जिले से संबंधित हैं। बैंकों से लिए गए उधार का ब्याज चुकाने में असमर्थ तथा अपने पैदावार के अत्यधिक कम मूल्यों से परेशान होकर इन किसानों ने अपने प्राण त्याग दिए। इनके अतिरिक्त छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में भी आत्महत्या की घटनाएं हुई।

सन् 2002 में कारगिल(Cargill) और मॉनसैन्टो(Monsanto) कंपनियों ने भारतीय बाज़ार में जी.एम. बीज का प्रचार किया। ये सर्वप्रथम गुजरात में प्रयुक्त हुआ, धीरे-धीरे ये बाज़ार में फैलता गया और देशी कपासों की तुलना में जेनेडिकली निर्मित बी.टी. कपासों (Bt cotton) का प्रयोग ज़्यादा होने लगा। इन्हें कंपनियों से खरीदने में किसानों को भारी कीमतें चुकानी पड़ती है। उदाहरण के लिए, सन् 1991 में किसानों को देशी कपास का बीज 6 रुपया प्रति किलो की दर से प्राप्तहोता था लेकिन सन् 2014 में बी.टी. कपासों का वही बीज 4500 रुपया प्रति किलो की दर से बेचा जा रहा है। इससे किसानों की सुविधाओं का अनुमान किया जा सकता है। दूसरी समस्या, इन बीजों की उपज के लिए सिंचाई की ज़रूरत होती है यानि ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है, ज़्यादा कीटनाशकों और उर्वरकों की ज़रूरत होती है लेकिन पैदावार उस तुलना में कम ही होता है हालांकि इन्हें बाज़ार में प्रचार करते समय ये कहा गया था कि इसके पैदावार की संख्या देशी कपासों की तुलना में कई गुणा अधिक होगा। तीसरी समस्या, सिंचाई की सुविधा कमसंख्यक किसानों के पास है। अधिकांश किसान फसलों के लिए बरसात के पानी पर ही निर्भर रहते हैं। वर्तमान में जलवायु में आए विभिन्न बदलावों के कारण अक्सर बारिश ठीक से न होने से या सूखा हो जाने के कारण फसल मुरझा जाते हैं या मर जाते हैं, इससे किसानों की व्यापक हानि होती है। किसान ऋण की चपेट में आ जाते हैं और इस कर्ज को चुकाने का कोई वैकल्पिक माध्यम उनके पास नहीं होता। फलतः कोई उपाय न देख वे आत्महत्या की शरण लेते हैं। इसके अतिरिक्त पंजाब में किए गए एक शोध से ये भी पता चला है कि पंजाब के कई इलाकों में किसानों को कीटनाशकों के प्रयोग का सही मात्रा का कतई अनुमान नहीं है। फलतः वे अत्यधिक मात्रा में इन विषाक्त रसायनिकों का प्रयोग करते हैं जो कई बार उनकी मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार ठहरता है। इस तरह की घटनाएं आंध्र प्रदेश में भी देखने को मिली है, खासकर कपास-उत्पादक किसान इसके शिकार हुए हैं क्योंकि कपास के उत्पादन में कीटनाशकों की ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है।



बैंकों की सुविधाओं का न होना भी किसानों के लिए एक बड़ी मुसीबत है। सन् 1993 से ही बैंकों की ग्राम्य शाखाएं बंद कर दी गईं और शहरी इलाकों में जाकर शाखाएं खोली गई जहां विकास और प्रौद्योगिकी की सुविधाएं उपलब्ध थी। इससे किसानों और गांववासियों को निश्चित तौर पर असुविधाओं का सामना करना पड़ा। इधर गांवों में जो चंद बैंक बचे थे और हैं, वे किसानों को उधार नहीं देना चाहते। किसानों को हाई-टेक बीज और रसायन की खरीददारी के लिए सरकारी सुविधा के अभाव में गैर-सरकारी साहूकारों से उधार लेना पड़ता है और ये लोग अत्यधिक ब्याज-दर मांगते हैं। जायज़ है इन उधारों को लेने के चक्कर में कोई उपाय न देखकर किसान अपनी ज़मीन गिरवी रख देते हैं। अब अगर फसल खराब होते हैं तो किसानों का सब कुछ तबाह हो जाता है। न फसल बिकती है और न कर्ज चुकाने का कोई उपाय ही बचा रहता है। फलतः उन्हें न चाहते हुए भी साहूकारों का नौकर हो जाना पड़ता है। अंततः चिंताओं का बोझ सहन करने में असमर्थ होकर ये किसान कीटनाशक खाकर अपना प्राण स्वाहा कर देते हैं।


जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी तो उन्होंने किसानों की विविधमुखी समस्याओं को देखते हुए महाराष्ट्र के ‘विदर्भ’ इलाके में दौरा किया और केंद्र सरकार की तरफ़ से 110 अरब के आर्थिक पैकेज की घोषणा की। आत्महत्या करने वाले किसानों के घरों को भी एक-एक लाख रूपए देने की घोषणा हुई। यहां तक कि भारत सरकार ने पूरे देश के किसानों के कर्ज माफ़ कर दिए गए ताकि कर्ज के बोझ से पीड़ित किसानों को आत्महत्या से किसी तरह रोका जाए लेकिन देखा गया कि इसके बाद भी आत्महत्याओं की संख्या में कोई खास कमी नहीं आई। सवाल ये है कि सिर्फ कर्ज माफ़ कर देने भर से ही क्या किसानों की ज़िंदगी में परिवर्तन आता है? जवाब है, नहीं। किसानों के जीवन की चौतरफा समस्याएं हैं जिन्हें समझने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम ज़रूरी शर्त ये है कि किसानों के कर्ज़ को माफ़ करने के साथ ही साथ फसलों के लिए नई रकम किसानों को दे दी जाए जिससे फसल उगाने के लिए जिस कीमत की ज़रुरत होती है उसे उपलब्ध करने में किसानों को दिक्कत न हो। साथ ही पैदावार फसलों को सरकार खरीदने की व्यवस्था करे चाहे फसल अच्छी हो चाहे खराब। यदि अच्छे फसलों को कंपनियां खरीदती है और खराब पैदावार को छोड़ देती है तो इसमें भी नुकसान किसानों का ही होता है, फिर जाहिरा तौर पर ये कदम अप्रत्यक्ष तौर पर किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर करता है।


किसान जिस गांव में रह रहे हैं वहां उनकी चिकित्सा के लिए सुलभ व अच्छे चिकित्सालय का प्रबंध हो तथा केंद्र सरकार की ओर से वहां निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाए अन्यथा दवाइयों का खर्च उठाते-उठाते किसान आर्थिक तंगी के शिकार हो जाते हैं और आर्थिक बोझ को झेलते हुए प्राण त्यागने के अलावा उनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होता। अगर चिकित्सालय दूर हैं तो जाने-आने का खर्च झेलना भी साधारण किसान परिवार जिसकी आमदनी 2500 रूपए हो, के लिए कष्टदायक है। इसलिए गांव में ही अच्छे निःशुल्क चिकित्सालय का होना निस्संदेह ज़रूरी है।  


किसानों के बच्चों की पढ़ाई की दिशा में भी हमें निःसंदेह सोचना चाहिए। किसान के बच्चे गांव में ही पढ़ पाएं और उन्हें दूर तक न जाना पड़े इसके लिए ज़रूरी है कि गांव में ही अच्छे स्कूलों की व्यवस्था हो तथा ऐसे स्कूलों में अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति की जाए। आम तौर पर देखा गया है कि गांवों के स्कूल बदतर हालात में पड़े रहते हैं, वहां न अच्छी शिक्षा-व्यवस्था होती है न अच्छे शिक्षक। ऐसी अवस्था में किसानों के बच्चे दूर-दराज के शहरों में शिक्षार्थ जाते हैं लेकिन समस्या यहीं से शुरू होती है। बच्चों की सवारी का खर्च उठाना किसानों पर भारी पड़ता है जिसके फलस्वरूप वे बच्चों को पढ़ाना छोड़ देते हैं। फलतः किसानों का भविष्य अंधकायमय हो जाता है। वह बच्चा जो भविष्य में किसान परिवार में वैकल्पिक आमदनी का बड़ा श्रोत हो सकता था, खर्च के बोझ के चलते उसकी पढ़ाई बीच में ही रोक दी जाती है। इसीलिए स्कूलों की समस्या और किसानों के बच्चों की पढ़ाई की ओर सरकार को खास तौर पर ध्यान देना चाहिए। 

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि खेतों के आसपास के इलाकों में पेय पदार्थों का कारखाना न खोला जाए। कारण इस तरह के कारखानों के लिए बड़े पैमाने पर पानी की ज़रूरत होती है और ये पानी जाहिरा तौर पर गांव के तालाबों से ही खींचा जाता है। अगर पेय पदार्थों के लिए गांव में उपलब्ध पानी का भंडार प्रयोग में लाया जाएगा तो खेतों में प्रयोग किए जाने वाले पानी में स्वाभावतः कमी आएगी। इससे पानी का स्तर नीचे चला जाएगा। हरियाणा और पंजाब में इस तरह की समस्या से दो-चार होना पड़ा है जहां जलस्तर नीचे चला गया है और इसकी वजह से वहां ज़मीन दर ज़मीन पानी के अभाव में बिना खेती के पड़ा हुआ है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक हरियाणा के राज्यों के अधिकतर जिलों में जलस्तर 7.29 मीटर नीचे चला गया है, जबकि महेंद्रगढ़ इलाके में यह 19.45 मीटर और फतेहबाद में 15.79 मीटर नीचे हैं।[5]

इस प्रकार हम देखते हैं कि किसानों में हो रही आत्महत्याओं के मूल कारण ये हैं— कर्ज का बोझ, नए बीजों के ऊंचे मूल्यों के कारण उन्हें खरादने में परेशानी और फलस्वरूप कर्जगीर होना, अर्द्ध शुष्क इलाकों में खेती की समस्या, कृषि से कम आय, खराब फसलों के बिक्री की समस्या, वैकल्पिक आय के माध्यमों का अभाव, बैंक की सुविधाओं का न होना, अच्छे स्कूलों व चिकित्सालयों का अभाव।



किसान जो देश का प्रमुख उत्पादक वर्ग है, उनको आत्महत्या से रोकना और उन्हें हर संभव मदद करना केंद्र व राज्य सरकार का दायित्व व अहम कर्तव्य बनता है। अगर किसानों की समस्याओं की ओर से हम आंख फेर लेंगे तो देश का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। देश का पूंजीपति वर्ग जब पांच सितारा होटलों में बैठकर अच्छा खाना खा रहे होते हैं या फिर महंगे कपड़े पहनकर बड़ी-बड़ी सभाओं में हिस्सा ले रहे होते हैं, घर में चैन की नींद ले रहे होते हैं उस समय गरीब किसान दिन-रात कड़ी धूप में अक्लांत परिश्रम करके खद्य उत्पादन में लगा रहता है, वस्त्र उत्पादन के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है लेकिन अंत में कष्ट और दुख के अलावा उसे कुछ नसीब नहीं होता। चुनाव के समय सारे दलों के प्रत्याशी बड़े बड़े प्रलोभनों और वायदों के साथ गांवों में दौरा करते हैं और भोले-भाले किसान परिवारों को यह आश्वासन देते हैं कि अगर उनकी सरकार बनती है तो किसानों की अवस्था में आवश्यक सुधार कर देंगे लेकिन चुनाव के बाद कौन किसान और कौन परिवार, अगले पांच साल तक फिर उन नेताओं को गांव के आसपास फटकते नहीं देखा जाता।

सोचने का विषय ये है कि इस महनतकश वर्ग को अगर असहाय अवस्था में तकलीफ़ भरी ज़िंदगी जीने के लिए छोड़ दिया जाए और आत्महत्याओं को रोकने के लिए सरकार कोई खास कदम ना उठाए तो वह दिन दूर नहीं जब हम दाने-दाने के लिए तरस जाएंगे। अगर दिन-व-दिन किसान खुदकुशी का पथ चुन लेंगे तो फिर किसानों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज होगी और ये सिलसिला शुरु हो गया है और जाहिरा तौर पर यह देश के लिए बहुत शुभ-संवाद नहीं माना जा सकता। इसलिए ये बेहद ज़रूरी है कि किसानों की अवस्था में ज़रूरी बदलाव आए और किसान खुश हों। जिन सुविधाओं के साथ आम जनता जी रही है किसानों को भी उन सारी सुविधाओं का हक बनता है। ये बदलाव तभी संभव है जब किसानों की बेहतर परिस्थिति की ओर सरकार ध्यान दें। उन्हें ऋणमुक्त किया जाए, उन तक सारी सुविधाएं पहुंचे। ये बेहद ज़रूरी है कि सरकार देश की जमा पूंजी में से एक मोटी रकम किसानों पर खर्च करें, किसान परिवारों को खुशहाल रखने की ओर नज़र डालें।





[1] . http://agrariancrisis.in/2011/12/20/ncrb-all-india-figure-1995-2010-256913-farm-suicides/
[2] . http://en.wikipedia.org/wiki/Farmers'_suicides_in_India
[3] . http://agrariancrisis.in/2011/12/20/ncrb-all-india-figure-1995-2010-256913-farm-suicides/
[4] . http://archive.indianexpress.com/news/2.90-lakh-farmers-committed-suicide-during-19952011-govt/995981/
[5]. http://timesofindia.indiatimes.com/india/Groundwater-levels-depleting-fast-in-Haryana/articleshow/15611030.cms

Thursday 6 March 2014

स्त्री-जीवन में साहित्य की भूमिका — सारदा बैनर्जी

                      
                                     
स्त्रियों के व्यक्तित्व के सही विकास के लिए श्रेष्ठ किताबें पढ़ना और लगातार पढ़ना व पठन से प्राप्त श्रेष्ठ मूल्यों को जीवन में लागू करना बिना शर्त ज़रूरी है। निश्चित तौर पर जब स्त्रियां पढ़ने का अभ्यास विकसित करेंगी तो उन्हें इसके सकारात्मक फ़ायदे होंगे, वे व्यापक समाज से जुड़ पाएंगी और अपनी इच्छाओं के प्रति जागरूक बनेंगी तथा उसे एक नया मोड़ दे पाएंगी। स्त्रियों को खासकर साहित्य से अपना संबंध जोड़ना चाहिए। साहित्य किसी भी इंसान की सोच को विस्तार देता है, मानसिकता को उदार बनाता है, विभिन्न संकीर्णताओं से मुक्त कर स्वस्थ और सुंदर दृष्टिकोण प्रदान करता है और सबसे बढ़कर साहित्य हर एक इंसान को मानवीय बनाता है। साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति है, साधारणीकरण करने की क्षमता। साहित्य के पठन के दौरान कविता, कहानी, नाटक या उपन्यास के किसी पात्र की पीड़ा पाठक की पीड़ा बन जाता है, किसी पात्र का हर्षोल्लास पाठक के सुख में रूपांतरित हो जाता है। पाठक रचना से इस प्रकार एकमेक हो जाता है कि वह पाठ में खो जाता है, पाठ उसे आंदोलित करता है, उद्वेलित करता है और इस प्रकार पाठ से पाठक का एक गहन और आंतरिक संबंध बन जाता है। पाठ का पाठक पर यह प्रभाव बहुत गहरा व दूरगामी पड़ता है।


साहित्य के इस बहुआयामी प्रभाव से स्त्रियों का परिचित होना भी विशेष आवश्यक है। वे स्त्रियां जो साहित्य का अध्ययन नहीं करतीं, उनके लिए महान साहित्य से रुबरू होना इसलिए मायने रखता है ताकि वे अपनी सोच और सोच की परिधि को विस्तार दे पाएं, एक दैनन्दिन साहित्यिक रूचि-बोध विकसित कर पाएं। भारत में जिस चारदीवारी में कैद होकर अधिकांश स्त्रियां ज़िंदगी गुज़ारती हैं, उससे निकलने के लिए साहित्य जैसा विकल्प दूसरा नहीं है। इसका अर्थ कतई ये नहीं है कि स्त्रियां चारदीवारी के बाहर की दुनिया को बिल्कुल नहीं जानतीं या संबंधों की जटिलताओं को नहीं समझतीं, स्त्रियां बेशक समझती हैं और पुरुषों से बेहतर समझती हैं, लेकिन साहित्य का पठन उन्हें जीवन में एक दिशा दे सकता है, सदियों से स्त्रियां मुक्ति के जिस मार्ग की प्रतिक्षा कर रही हैं, साहित्य उस मुक्ति का पथ है। अनेक स्त्रियां आज नौकरी के सिलसिले में बाहर निकल रही हैं लेकिन क्या वे अपने लिए एक अलग अस्मिता और अस्तित्व का निर्माण कर पाई हैं? क्या स्त्रियां अपने व्यक्तिगत फैसले स्वयं ले रही हैं, क्या समानता के संवैधानिक घोषणा के बावजूद समाज ने स्त्री को उसका दर्जा और सही हक प्रदान किया है? अपवादों को छोड़ दें तो इन सवालों के उत्तर नकारात्मक हैं। कारण ये कि स्त्रियां भले ही बाहर निकलें, उच्च पदों पर काम करें लेकिन अपना संविधान-प्रदत्त हक अर्जित करना वे अब तक नहीं जानतीं। अपने विचारों को रखने के लिए जिस दृढ़ व्यक्तित्व की ज़रूरत है उसे स्त्रियां अब तक अर्जित नहीं कर पाईं। यानि स्त्रियां अपनी अस्मिता के प्रति आज भी सचेत नहीं हैं। इस सचेतनता की वृद्धि में साहित्य मदद करता है।
आज भी अनेक घरों में स्त्रियों को बोलने या फैसले सुनाने का अधिकार नहीं के बराबर है। साहित्य में यह गुण निहित है कि वह इंसान को अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति जागरूक बनाता है और गलत विचारों को दृढ़तापूर्वक खंडित करने व अपनी बात दूसरों के सामने रखने का नैतिक साहस भी प्रदान करता है जो इस तरह की परिस्थिति में रहने वाली स्त्रियों के लिए बेहद ज़रूरी है। दूसरी ओर स्त्रियां यदि कविता या किसी दूसरी विधा के ज़रिए अपनी अनुभूतियों को सम्प्रेषित करें और उसे एक सार्थक रूप दे पाएं तो यह निश्चित तौर पर एक अच्छा कदम ही माना जाएगा।

अक्सर भारतीय परिवारों में रह रही स्त्रियों में अनेक रूढ़िवादी ढकोसलों और आडम्बरों का वास भी देखा जाता है। स्त्रियां अनेक ऐसी प्रथाओं और नियमों में आबद्ध रहती हैं या परिवार द्वारा आबद्ध कर दी जाती हैं जिनका कोई वैज्ञानिक अर्थवत्ता व स्वस्थ मूल्य नहीं होता। इन विभिन्न रूढ़ियों से मुक्त होने में भी साहित्य बड़ी भूमिका अदा करता है। सिर्फ एक नहीं विभिन्न भाषाओं के साहित्य का ज्ञान और उसका प्रसार होने पर स्त्रियां एक रूढ़िविहीन जीवन-शैली और वैज्ञानिक चेतना से सहज ही संपृक्त हो पाएंगी। उन्हें देश के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी मिलेगी। स्त्री अपने मन में जिस सीमित दुनिया को बसाई हुई है, उससे बाहर निकलेगी और व्यापक यथार्थ को ठीक-ठीक समझकर अपनी समस्याओं का हल करने में सक्षम होगी, सही मूल्यों की परख कर सकेगी। जिन रिवाज़ों को सही कहकर बरसों से स्त्रियों पर थोपा जाता रहा है उसकी सटीक पहचान कर उसे अपने जीवन से त्याग पाएंगी। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, “साहित्य तत्कालीन सामाजिक जीवन में भाग लेने, उसकी समस्याएँ हल करने आदि की प्रेरणा देता है; साथ ही उसका व्यापक प्रभाव मनुष्य के संस्कारों के निर्माण में देखा जा सकता है।”
वर्तमान दौर में बहुसंख्यक स्त्रियां साहित्य के प्रति आग्रह नहीं रखतीं, ये सच है। ये भी सच है कि यदि श्रेष्ठ साहित्य को वे अपने जीवन की कसौटी और प्रेरणा मान लें तो उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव दिखाई दे। क्षमा, त्याग, संवेदनशीलता, दया, सहानुभूति, सहृदयता आदि गुण साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है लेकिन हकीकत ये है कि उपरोक्त सारे गुण अधिकतर स्त्रियों में स्वाभाविक तौर पर विद्यमान रहता है, स्त्रियों को जिन चीज़ों की ज़रूरत है, वे हैं अपनी अस्मिता का बोध, अपने अस्तित्व का ज्ञान तथा अपने संवैधानिक अधिकारों को अर्जित करने की इच्छा तथा मांग। इसे केवल साहित्य ही दे सकता है। साहित्य न केवल स्वस्थ मूल्यों वरन् प्रगतिशील मूल्यों से इंसान को जोड़ता है। सही और गलत का फैसला लेने में मददगार होता है। रूढ़िबद्ध सामंती विचारों से मुक्त होकर प्रगतिशील मनोदशा व विचारों को विकसित करने के लिए प्रगतिशील व आधुनिक दृष्टिकोण से लैस साहित्य का अध्ययन बेहद ज़रूरी है। साथ ही दुनिया की तमाम श्रेष्ठ स्त्रीवादी रचनाओं को पढ़ने से स्त्रियां अपनी अस्मिता के प्रति स्वयं सचेत होंगी और ये सचेतना ही है जो स्त्री-मुक्ति का मार्ग है।









पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...