Tuesday 13 June 2017

कोलकाता की स्त्रियां तथा उनका रूपांतरण- डॉ.सारदा बैनर्जी




किसी भी जाति की संस्कृति को बचाए रखने का श्रेय उस जाति की स्त्रियों को ही जाता है। एक ज़िंदादिल एवं उमंगभरे शहर के रूप में विख्यात कोलकाता अगर प्राणवंत है तो इसमें बंगकन्याओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपनी भाषा के प्रति प्रेम जितना इस शहर में है उतना शायद ही कहीं मिले। बंगाली स्त्रियां चाहे कितनी भी आत्याधुनिक हो गईं हो लेकिन आपस में बांग्ला में ही बातें करना पसंद करती हैं। वहीं अपनी लोकसंस्कृति के प्रति जुड़ाव भी अब तक बंगाली स्त्रियों में मौजूद है। इस लेख में मैं उन पहलुओं पर चर्चा करना चाहती हूं जिनसे लोग अनभिज्ञ हैं और जो चिंताजनक है।

यह माना जाता है कि बंगाली जनसमुदाय में साहित्य का पठन-पाठन कमोबेश हर घर में होता रहता है। एक समय बांग्ला साहित्य का एक बड़ा पाठक वर्ग बंगाली स्त्रियां रही हैं जबकि आज हकीकत दूसरी है। आज पढ़ी-लिखी आधुनिकाओं में साहित्यिक अभिरुचि का लगातार ह्रास हुआ है। पुरानी पीढ़ी में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास पढ़ने की उत्कंठा अभी भी बरकरार है जबकि आधुनिक सुशिक्षित व नौकरीज़दा पीढ़ी को ना बांग्ला के प्रमुख कवियों-लेखकों के नाम मालूम है और ना ही उनकी रचनाओं का कोई ज्ञान। ये ना विवेकानंद को पढ़ती हैं, ना रवीन्द्रनाथ को, केवल उनका नाम जानती हैं। वास्तविकता यह है कि कोलकाता के चर्चित नाट्यघरों में जहां हर दिन नाटक खेला जाता है, पंद्रह से ज़्यादा दर्शक नहीं आते और उनमें स्त्रियों की संख्या नगण्य है। रवीन्द्रनाथ पढ़ने वाली लड़कियों को उबाऊ और लिजलिजी कहा जाता है। यह दुखद है कि बंगाली आधुनिकाओं की रुचि लैपटॉप में फ़िल्में देखने, मॉल घूमने और परनिंदा तक सीमित होकर रह गई है।

वर्तमान दौर में पूरे भारतीय मध्यवर्गीय स्त्रियों में आत्मनिर्भरता का भयानक अभाव दिखाई देता है। कोलकाता की स्त्रियां भी इससे जुदा नहीं है। वे सुशिक्षित, बढ़िया कपड़े पहनने वाली, ऊपर से बनी-ठनी दिखती हैं लेकिन हैं घरेलू कर्म में अदक्ष। वे ना सिलाई के कर्म में सिद्धहस्त हैं, ना बुनाई, ना घर की साफ़-सफ़ाई, ना खाना पकाना और ना ही साहित्य से सरोकार। आज बंगाली लड़कियां सबसे ज़्यादा कमज़ोर है। कमसिन व मेदहीन बनने की होड़ ने उसे शरीर, ज्ञान और बुद्धि से कमज़ोर किया है। घर से बाहर निकलते समय उसे एक प्रेमी रूपी अंगरक्षक की ज़रूरत पड़ती है। फलतः वह व्यक्तित्वहीन तथा दब्बू बनती जा रही है, प्रतिरोधी व प्रतिवादी चेतना से हीन होती जा रही है। यही वजह है कि कोलकाता में स्त्रियों पर हमले भी ज़्यादा हो रहे हैं। एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों के अनुसार सन् 2015 में पश्चिम बंगाल बलात्कार के मामले में दूसरे स्थान पर है। विचारणीय है कि सबसे उन्नत जाति के रूप में जाना व माना जाने वाला बंगाली समाज व उनकी स्त्रियों में इतना बड़ा तारतम्य का कारण क्या है?

बंगाली स्त्रियों में व्यक्तित्व का जो रूपांतरण दिखाई दे रहा है उसका प्रधान कारण यह है कि पूरी बंगाली जाति ने अपने को विकसित करना बंद कर दिया है। नवजागरण ने कोलकाता में मौजूद पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सांस्कृतिक दबाव डाला था जिसका बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि नवजागरण के दौरान संस्कृति का विकास हुआ। संस्कृति तभी बचती है जब उसका निरंतर विकास होता जाता है। बंगाली जाति ने लगातार अपने को विकसित किया जिसके कारण राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर उसकी अलग पहचान बनी। स्त्रियां पढ़ने-लिखने लगी और आगे चलकर स्कूल-कॉलेज जाने लगी। लेकिन मौजूदा समय में स्त्रियां केवल उपभोग कर रही हैं, वे टी.वी. देखती हैं, मॉल्स में जाकर कपड़े खरीदती हैं, फ़ास्ट फुड खाती हैं लेकिन देश की दैनंदिन समाचारों में दिलचस्पी नहीं लेतीं। उनके पास राजनीति की कोई जानकारी व समझ नहीं होती, अपने मोहल्ले की कोई जानकारी नहीं होती और यह हाल मध्यवर्गीय स्त्रियों की है। जबकि निम्नवर्ग की स्त्रियों में सामाजिक सचेतनता होती है, उनके पास पूरे मोहल्ले की खबरें मौजूद होती हैं, उनके पास दूसरे वर्गों को लेकर आलोचनात्मक दृष्टि होती है लेकिन मध्यवर्गीय स्त्रियां अपनी स्थानीय राजनीतिक खबरों से बिल्कुल कटी, देश व दुनिया की तमाम समस्याओं से अनजान अलगाव की अवस्था में जी रही है। इस प्रवृत्ति ने कोलकाता के शहरी मध्यवर्ग को संवेदनहीन और अमानवीय बनाया है। इस तरह की अमानवीयता के किस्से हर दिन बांग्ला न्यूज़ चैनलों में सुनने को आते हैं। रास्ते में दुर्घटना का शिकार व्यक्ति तड़पकर मृत्यु का शिकार होता है लेकिन उसे अस्पताल पहुचाने में कोई मदद नहीं करता। संवेदनाशून्यता का आलम यह है कि बंगाली स्त्रियों के लिए वास्तविक दुनिया सीरियलों की दुनिया है, उन्हें सीरियल की नायिका का दर्द दिखाई देता है लेकिन पड़ोसिन अथवा कुलिग की समस्याओं को सुनने का वक्त नहीं है।



इसी अलगाव के कारण बंगालियों में नवजागरण के पहले वाला पिछड़ापन लौट आया है। स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों की सामाजिक समस्याओं को लेकर सजग दृष्टिकोण अपनाया था। फ़िलवक्त कोलकाता के मध्यवर्ग की स्त्रियों में बलात्कार की घटनाओं को लेकर गंभीरता का भयानक अभाव है। खासकर आधुनिक स्मार्ट लड़कियों का मानना है कि बलात्कार, मीडिया द्वारा किया गया दुष्प्रचार है। अन्य लड़कियों का मानना है कि बलात्कार का कारण स्त्रियां स्वयं है; इसमें पुरुषों की कोई गलती नहीं है। दामिनी बलात्कार-कांड के एक महीने बाद तक कई लड़कियां इस घटना से अनभिज्ञ थीं। जब क्राइम पैट्रोल में घटना को फिल्माते हुए दिखाया गया तब वे वाकिफ़ हुईं।
नवजागरण के दौरान बाल-विवाह को रोकने के लिए, कॉलेजों-विश्वविद्यालयों तक स्त्रियों की पहुंच के लिए कितने आंदोलन लड़े गए लेकिन कोलकाता की सत्तर प्रतिशत लड़कियों के जीवन की हकीकत यह है कि कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने से पहले ही उनके हाथ पीले हो जाते हैं, विवाह के बाद नौकरी की कोई परिकल्पना भी इनके पास नहीं होती। ये मानकर चलती हैं कि उनका जन्म घर बसाने के लिए हुआ है।

सबसे परेशानीमूलक बात यह है कि इन लड़कियां के पास आलोचनात्मक दृष्टि का घोर अभाव है। ये हर तरह की फिल्में देखती हैं, चाहे आर्ट हो चाहे कमर्शियल, चाहे अंग्रेज़ी हो, बांग्ला हो या हिन्दी और हर फ़िल्म देखकर ‘भालो’ कहती है। लेकिन ‘भालो’ किस वजह से है, फ़िल्म में समस्या कहां-कहां है, मध्यवर्ग/निम्नवर्ग की किन-किन समस्याओं को उठाया गया है या कोई समस्या है ही नहीं; इनसे उन्हें कोई संबंध नहीं। वे केवल ‘उपभोक्ता’ की भूमिका अदा करती हैं। उनकी चर्चा व रूचि का विषय दुपट्टा, कुर्ती, इयरिंग आदि से घिरी होती है। इस उपभोक्तावादी मनोदशा ने कोलकाता में एक समय मौजूद तर्कवादी, विवेकवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा विचारप्रणाली को खत्म कर दिया है। अब हर चीज़ अंधविश्वास से चलती है। बिल्ली का रास्ता काटते ही रुक जाना और किसी की प्रतीक्षा करना, हर बंगाली की उंगलियों में तीन-चार या उससे ज़्यादा ग्रहरत्नों का होना इस बात को दर्शाता है कि वे अवैज्ञानिक दृष्टि व रूढ़िवादी मानसिकता से घिरे हुए हैं। 

बंगाली मध्यवर्ग की सबसे बड़ी क्षति ज्ञानविहीन कैरियरिस्ट मनोदशा ने की है। कैरियर बनाने की होड़ ने आधुनिक युवतियों को विचारों से दूर किया है। हर विषय में बढ़िया नंबर लाने के बावजूद किसी भी विषय में उनकी गहरी पकड़ नहीं है। उनके पास कोई सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि नहीं है, उनकी कोई सामाजिक चिंता नहीं है, देश को बदलने, समस्याओं को दूर करने की कोई फ़िक्र नहीं है। वे केवल नौकरी के लिए पढ़ती हैं, परीक्षा में अच्छे नंबर के लिए पढ़ती हैं।

यह सही है कि आज भी कोलकाता तथा बंगाली स्त्रियों में कुछ ऐसी विशेषताएं मौजूद हैं जो उन्हें अन्य राज्य की स्त्रियों से अलग करती है लेकिन बंगाली संस्कृति का जो अवमूल्यन लगातार हो रहा है उसमें उपरोक्त समस्याओं की अहम भूमिका रही है। जब तक समय के अनुसार स्त्रियां अपने को नहीं बदलेंगी तब तक संस्कृति विकसित नहीं होंगी और संस्कृति के स्थिर हो जाने का अर्थ है एक जाति का नष्ट होने के कगार पर पहुंच जाना। संस्कृति को बचाने के लिए यह ज़रूरी है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ-साथ शारीरिक व मानसिक आत्मनिर्भरता भी विकसित हो, वैज्ञानिक दृष्टि तथा साहित्य-बोध विकसित हो, हम लगातार अपग्रेड हों।


पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...