Saturday 6 April 2013

आख़िर पुरुषों को विचारसंपन्न स्त्री क्यों अच्छी नहीं लगती?


                   

क्या वजह है कि पुरुषों को विचारसंपन्न स्त्री अच्छी नहीं लगती? ऐसी स्त्री जिसके पास अपना नज़रिया हो, चीज़ों को परखने की वैज्ञानिक दृष्टि हो, वो लोगों को अपील नहीं करती। असल में विचारवती स्त्रियों से लोग कोसों दूर भागते हैं। स्त्री वही अच्छी है जो कमनीय हो, कोमलांगी हो, मधुरभाषिणी हो, मंदगामिनी हो और सब समय 'जी हां', जी हां' करें और ‘सब ठीक’,सब ठीक’ वाला एटीट्यूड हो। यानि कि पुरुष की हां में हां मिलाए। और अगर पुंसवादी मानसिकता को समझने में असमर्थ स्त्री हो तब तो क्या कहना! वही आदर्श स्त्री है, अच्छी स्त्री है। यानि आज्ञाकारी। यदि कोई स्त्री विचारवान बात कहती है तो उस बात को काटने की असंख्य कोशिशें पुरुष समुदाय करते रहते हैं या किस तरह से उसकी बात को कमतर घोषित किया जाए ये भी कोशिश करते हैं। चलिए पुरुष समुदाय! यह मान ही लिया कि स्त्रियों की बुद्धि और विचारशीलता से आपको ज़बरदस्त नफ़रत है। तो आप इसका उपचार कीजिए, नफ़रत पर मरहम लगाइए क्योंकि विचारशील स्त्रियां रुकने वाली नहीं है। वे अपने विचार लगातार समाज को देती जाएंगी, स्त्री-विचार का प्रसार करती जाएंगी।

दूसरी एक प्रवृत्ति यह भी है कि एक खास आलोचक वर्ग है पुरुषों का जिन्हें स्त्रियों के टोटल एपीयरेंस से ही परेशानी होती है। इनकी माने तो स्त्री स्वभावतः मूर्ख है। अगर स्त्री ना बोले तो ज़रुर बेवकूफ होगी, अगर बोले तो एकदम भयावह है। हौले हौले बात करे तो झेलने में परेशानी, तेज़ गति से बात करे तो ‘गज़ब लड़की है, कैसे बात करती है? कोई मैनर नहीं जानती’ जैसी टिप्पणी सुनने मे आती है। हाय रे स्त्री, तेरा तो दुनिया में जन्म लेना मुसीबत है। तेरे हर एक कदम पर परेशानी, तकलीफ़, बदनामी और पता नहीं क्या क्याइन पुरुषों से यह सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर स्त्री कैसे बात करे ? क्या करे?  आप स्त्री को किस रुप में देखना व सुनना चाहते हैं? आप चाहते क्या हैं? लेकिन मूल बात ये है कि पुरुषों के चाहने के अनुसार ही स्त्रियां क्यों बर्ताव करें, क्यों बातें करें ? स्त्रियों को जैसे मन होगा वैसे बात करेंगी, आप पुरुषों को पसंद हो तो हो वरना ‘गो टू हेल’। क्या आप पुरुषों के मामले में स्त्रियां कभी दखलंदाज़ी करती हैं ? नहीं करती। तो आप क्यों स्त्रियों पर छड़ी घुमाना चाहते हैं? नो...नो अब नहीं चलेगा ये सब शाषण-वाषण। सुन लीजिए पुरुष और जान भी लीजिए, अब स्त्रियां अपनी मर्ज़ी की मालकिन हैं, वे जो चाहेंगी वही करेंगी, वही कहेंगी, आपकी इच्छा ठेंगे पर।

दिलचस्प है कि स्त्रियां आजकल पितृसत्ताक समाज और उनके पदवियों की मार भी मज़े में झेल रही हैं। आज इक्कसवीं सदी में भी अधिकतर स्त्रियां पति के बगैर अपनी स्वायत्त अस्मिता की बात कल्पनी भी नहीं कर पा रहीं। जहां देखो स्त्रियां फ़ैशन की तरह अपने नाम के पीछे दो दो पदवियों(एक पिता की पदवी, दूसरे शादी के बाद परंपरा से मिली पति की पदवी) को जोड़कर अपनी अस्मिता बना रही हैं। इस प्रकार इनका नाम एक लंबा-चौड़ा शक्ल ग्रहण कर रहा है। वजह ये है कि अधिकतर स्त्रियां आज पढ़ी-लिखी होती हैं। वे अपनी पैतृक पदवी के साथ जीती हैं, पढ़ती हैं, जायज़ है उस पदवी को अचानक शादी के बाद छोड़ देना उन्हें नहीं सुहाता या कह लें उस पदवी से भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है। तो दूसरी ओर स्त्रियां रिवाज़ के अनुसार पति की अस्मिता को ग्रहण करने की पुरानी मानसिकता को भी पूरी तरह त्याग नहीं पा रहीं। जायज़ है दो दो पदवी साथ लो। अगर दोनों पदवियां लम्बी हैं तो नाम तो लंबा होगा ही। अब कल्पना की जा सकती है कि नाम अपनी दो बड़ी पदवियों समेत कितना भाराक्रांत-सा लगता होगा। काश कोई इन स्त्रियों को समझाए कि पति की पदवी स्त्री-अस्मिता तो बिल्कुल नहीं दे सकती। हां, पति की पदवी में प्रभुत्व का भाव तो ज़रुर है यानि ये पदवी स्त्रियों में मातहती का भाव ज़रुर पैदा कर सकती है। पुरुष शादी के तुरंत बाद ही अपनी पदवी का वज़न पत्नी को थमा देते हैं, फिर अपना दायित्व भी, अपने परिवार का भी। जायज़ है स्त्री में पुरुष के अधीन होने वाली मानसिकता हावी होने लगती है। अब स्त्री तुम झेलो। पदवी झेलो, रसोई झेलो, बच्चे झेलो, पति झेलो, पति का गुस्सा झेलो, पति का परिवार झेलो और परिवार के सारे दोष भी झेलो। झेलते जाओ जब तक कि देह से प्राण न निकल जाए।


स्त्रियों के लिए बेहद ज़रुरी शर्त है विचार। जिस स्त्री के पास विचार नहीं है, वह अस्मिता-बोध शून्य स्त्री है, वह न अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी से वाकिफ़ है न अपने संवैधानिक अधिकारों से। उसे न पुरुष-समाज के दमनात्मक रवैये का ज्ञान है न अपने फैसलों के प्रति जागरुकता। इसलिए स्त्रियां ज़रा सुनिए और समझिए कि अगर आपके पास विचार नहीं है तो विचार जागृत करें। अपने दिलोदिमाग में विचार को पैदा करें, उसे पकाएं और उस का संप्रेषण करें। पुरुष कहां आगमन करेंगे आपके विचारों को। अपनी लड़ाई खुद लड़िए। विचारों को स्वागत कीजिए।




Thursday 4 April 2013

मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम शर्मिला चानू और उसका संघर्ष


         

स्त्रियों को जब किसी महत्वपूर्ण उपाधि से नवाज़ा जाता है तो उसके पीछे एक ज़बरदस्त संघर्ष का किस्सा छुपा रहता है, उसके बलिदान की एक लंबी स्टोरी होती है। पुरुषों की तरह आसानी से कोई भी टैग उसके नाम से नहीं जुड़ जाता। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका इरोम शर्मिला के ज़ज्बे को देखते हुए उन्हें लोगों ने ‘आयरन लेडी’ या ‘लौह-महिला’ के नाम से मशहूर कर दिया। वजह यह है कि इरोम शर्मिला चानू पिछले 12 साल से मणिपुर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर ऐक्ट,1958 (ए.एफ.एस.पी.ए.) यानि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की मांग कर रही है। इस एक्ट के तहत मणिपुर में तैनात सैन्य बलों को यह अधिकार प्राप्त है कि उपद्रव के अंदेशे पर वे किसी को भी जान से मार दें और इसके लिए किसी अदालत में उन्हें सफाई भी नहीं देनी पड़ती है। साथ ही सेना को बिना वॉरंट के गिरफ़्तारी और तलाशी की छूट भी है। 
इसी कानून को हटाने की मांग पर इरोम सन् 2000 से लगातार अब तक भूख हड़ताल पर है, उसने पिछले 12 साल से अन्न का एक दाना भी नहीं लिया है। दरअसल 1 नवंबर को इरोम एक शांति रैली के लिए बस स्टैंड पर खड़ी थी कि अचानक दस लोगों को सैन्य बलों ने भूनकर मार डाला। इस घटना का इरोम पर बहुत गहरा असर पड़ा। 29 वर्षीया इरोम चानू ने 2 नवंबर को ही आमरण अनशन शुरु कर दिया हालांकि 6 नवंबर को उन्हें 309 के तहत ‘आत्महत्या करने के प्रयास’ के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया गया। 20 नवंबर से उन्हें जबरन नाक में पाइप डालकर तरल पदार्थ दिया गया था। उसके बाद से इरोम को लगातार पकड़ा और रिहा किया जाता रहा है क्योंकि 309 धारा के तहत यह नियम है कि पुलिस किसी को भी एक साल से ज़्यादा जेल में कैद नहीं रख सकती। इसलिए साल के पूरे होने से पहले ही दो-तीन दिन के लिए उन्हें छोड़ दिया जाता है और फिर पकड़ लिया जाता है। पुलिस हर 14 दिन में हिरासत को बढ़ाने के लिए उन्हें अदालत ले जाती है। तब से अब तक इरोम का यह जीवन इसी तरह संघर्षपूर्ण बना हुआ है।
इस असाधारण मनोबल की वजह से इरोम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए हैं। साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों और नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार महाश्वेता देवी ने केरल के लेखकों के एक संगठन की ओर से जब शर्मिला की ओर से आए उनके भाई इरोम सिंघजीत को अवॉर्ड दिया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे वापस कर दिया। अवॉर्ड के तहत एक स्मृति चिह्न् और 50,000  रुपए का चेक दिया गया था। सिंघजीत ने कहा कि जब शर्मिला की जीत होगी तो वे खुद ही अवॉर्ड स्वीकार कर लेंगी।
प्रमुख सवाल ये है कि इरोम के पहले और बाद में भी कई बार देश में कई लोगों ने अनशन किए हैं और उनकी मांगे भी सरकार ने मान ली है या तो कोई उपाय ज़रुर हुआ है। तो क्या कारण है कि इरोम की मांगे मानी नहीं जा रही? वह पिछले 12 सालों से अनशन पर है लेकिन मीडिया में उसे लेकर कोई हलचल नहीं है, कोई समाचार नहीं है? उसे क्यों सीरियसली नहीं लिया गया? क्या इसका कारण इरोम का स्त्री होना है ? या यह कि इरोम के पास कोई सशक्त शख्सियतें नहीं है? या कि इरोम जिस मणिपुर राज्य के लिए मांग कर रही है वह मुख्यधारा से एक अलग राज्य माना जाता है। इसलिए मणिपुर राज्य के लिए किया गया मांग सरकार के लिए उतना महत्व नहीं रखता जितना दूसरे मुख्य राज्यों का।
यह सही है कि इस एक्ट के बिना कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की हालत बहुत गंभीर भी हो सकती है। लेकिन इरोम मणिपुर में हो रहे उत्पीड़नों के प्रतिवादस्वरुप जो मांग कर रही हैं वह जायज़ मांग है और वह भी अहिंसक तरीके से किया जा रहा है। यदि सरकार के लिए उसकी मांगों को पूरी तरह से मानना संभव नहीं था तो यह भी ज़रुरी था कि कोई न कोई उपाय किया जाता जिससे वहां बस रहीं जनता सुरक्षित रह सके। उन पर बेवजह ज़ुल्म न हो। ये कैसे संभव है कि बिना गुनाह के सिर्फ़ अनशन करने की वजह से किसी स्त्री को सालों-साल जेल में रहना पड़े? एक नागरिक होने की हैसियत से इरोम को अधिकार है कि वह अपने राज्य की सुरक्षा की गारंटी सरकार से मांगे। इसलिए यह बेहद ज़रुरी है कि इरोम को सम्मान देते हुए, उसके जज़्बे को सलाम करते हुए सरकार द्वारा उसकी मांगों को गंभीरता से लिया जाए। मणिपुर राज्य की असुरक्षा पर विचार किया जाए और वहां आम जनता की सुरक्षा के लिए सरकार ठोस कदम उठाएं।

आख़िर ये स्त्री-उत्पीड़न कब बंद होगा ? - सारदा बनर्जी


                        

                     क्या महज महिला दिवस को सेलिब्रेट करके, सलामी ठोककर या नमन करके या उस दिन स्त्री-सम्मान और स्त्री-महिमा की असंख्य बातें करके स्त्रियों का कोई भला हो सकता है? क्या यह ज़रुरी नहीं कि एक दिन नहीं हर दिन स्त्रियों का हो यानि स्त्रियों के पक्ष में हो, स्त्री की समानता के पक्ष में खड़ा हो। स्त्रियों का भला तो तब हो जब हर घर में स्त्री का सही सम्मान(देवी की आड़ में नहीं) हो, उस पर शारीरिक या मानसिक
 यातना न हो। स्त्री मुक्त हो, उसके पास अपनी अस्मिता हो, उसके पास अपने फैसले हो। स्त्री के हकों को लेकर तो आए दिन मीडिया के विभिन्न माध्यमों में तमाम तरह के बहस हो रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों से लेकर आम जनता तक स्त्रियों के प्रति होते हिंसाचार से तंग है और वे निरंतर इसका विरोध कर रहे हैं। इसका ताज़ा नमूना है दिल्ली में दामिनी गैंगरेप पीड़िता के लिए हज़ारों की तादाद में जनता का एकजूट होना। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इन विरोधों का समाज पर कोई असर हो रहा है? क्या स्त्रियों के साथ होते हिंसाचार में कोई कमी नज़र आ रही है? क्या हमारे घरों में स्त्रियों के साथ बदसलूकी की घटनाएं कम हुई है? इसका जबाव है नहीं, नहीं, नहीं।
आँकड़े बताते हैं कि स्त्रियां अभी तक सुरक्षित नहीं है। कहीं पति ने पत्नी पर तेजाब फेंका, कहीं बलात्कार किया, कहीं पत्नी पर शक करके उसे उत्पीड़ित किया, कहीं दूध पीती बच्ची के साथ बलात्कार हुआ, कहीं भाई ने बहन का रेप किया, कहीं राह चलती लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटना हुई आदि आदि। लेकिन ये किस्से तो घर के बाहर की हैं, घर के अंदर हो रहे उत्पीड़न का हिसाब हमारे पास नहीं होता लेकिन यह सच है कि स्त्रियां हर दिन घरेलू-हिंसा से मुखातिब होती हैं। इससे साबित होता है कि स्त्री-समानता का संवैधानिक अधिकार महज सिंद्धांत बन कर रह गया है वह व्यवहार में तब्दील नहीं हुआ है। साथ ही स्त्री के पक्ष में हो रहे तमाम विरोधों, प्रदर्शनों, जुलूसों का कोई मूल्य नहीं है, सारे के सारे निराधार विरोध प्रमाणित हो रहे हैं क्योंकि अभी भी स्त्रियां पितृसत्ताक समाज के पुंसवादी उत्पीड़न से मुक्त नहीं हो पाई हैं। स्त्रियां आज भी पीड़िता हैं ना कि मुक्ता।
ऐसी ही एक पीड़िता है ‘सोनी सोरी’ जो आदिवासी होने की दर्दनाक सज़ा भुगत रही है। सोनी सोरी एक ऐसी स्त्री है जो आदिवासी पत्रकार, कार्यकर्ता, शिक्षिका होने के साथ-साथ तीन बच्चों की मां भी है। वह एक ऐसी साहसी महिला है जो छत्तीसगढ़ सरकार और खनन कंपनियों के खिलाफ़ बोलने का साहस जुटाई है और इसकी वजह से वह आज तक जेल में है। उसने आदिवासी समुदाय और उनकी परंपरागत ज़मीन पर खनन कंपनियों के कब्ज़े का प्रतिवाद करके अपनी लोकतांत्रिक अधिकार का ही प्रयोग किया लेकिन उसे छत्तीसगढ़ सरकार ने 4 अक्टूबर, 2011 में माओवादी होने के संदेह पर गिरफ़्तार किया हालांकि उसका गुनाह अब तक साबित नहीं हो पाया है। जेल में उसके हौसले को पस्त करने के लिए पुलिस द्वारा उस पर तमाम तरह के शारीरिक, मानसिक और यौन-उत्पीड़न की जी-तोड़ कोशिश हुई है जो एन.आर.एस. मेडिकल कॉलेज, कोलकाता में मेडिकल टेस्ट के दौरान प्रमाणित हो चुका है। अपने साथ हुए इस भयानक उत्पीड़न का ज़िक्र करते हुए सोनी ने 27 जुलाई,2012 सुप्रीम कोर्ट को एक चिट्ठी लिखा और अपने मानवाधिकार के सवाल को उठाया। उसने कोर्ट से आवेदन किया कि उसे दांतेवाड़ा जेल से स्थानांतरित किया जाए। 8 जनवरी,2013 को सुप्रीम कोर्ट ने सोरी को दांतेवाड़ा जेल से जगदलपुर जेल में शिफ़्ट कराने का आदेश दिया।
वस्तुतः सोरी के साथ जिस तरह का ज़ुल्म जेल में हुआ मसलन् उसे नंगा करके उसके शारीरिक अंगों को छूना, पैर में बिजली के झटके देना, उसके यैनांगों में पत्थर घुसाना आदि मानवता को बेहद शर्मसार करने वाली घटनाएं हैं। अगर वह दोषी है या उसका माओवादियों से कोई संपर्क है तो उसे सज़ा देने का प्रावधान संविधान में मौजूद है, उसे बेशक सज़ा मिले लेकिन उसके गुनाह का बिना प्रमाणित हुए उसे जिस तरह की सज़ा दी गई वह किसी भी अपराध के लिए किसी भी देश के संविधान की दंड संहिता में नहीं मिलेगा। उसने चिट्ठी में जिन उत्पीड़नों का ज़िक्र किया है वह अलोकतांत्रिक है, असंवैधानिक है, मानवाधिकार के खिलाफ़ है। इसलिए ज़रुरी है कि सरकार और अदालत संज्ञान ले कि कौन-कौन उसके गुनहगार हैं, उस पर किस-किस तरह के ज़ुल्म हुए हैं और उन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दें।
स्पष्ट है कि स्त्रियां देश में आज भी सुरक्षित नहीं है, चाहे वह घर में हो, चाहे बाहर या चाहे जेल में हो। उसके अस्तित्व को शरीर के बाहर निकलकर नहीं देखा जाता, स्त्री का अर्थ केवल भोग्या बनकर रह गया है। लोकतंत्र के आने के बाद अहम शर्त यह थी कि स्त्री-पुरुष में एक लोकतांत्रिक संपर्क विकसित हो। स्त्रियों के साथ पुरुषों का लोकतांत्रिक व्यवहार हो चाहे घर हो या बाहर लेकिन ऐसा नहीं हुआ। स्त्री वजूद के मूल्य को नकारा गया और उसे दूसरे दर्जे में रखा गया। वह हाशिए पर रही, उसके फैसले हाशिए पर रहे, उसका अस्तित्व हाशिए पर रहा। यही कारण है कि स्त्रियों पर ज़ुल्म बरकरार रहा, वह पीड़िता ही बनी रही और वह आज तक बनी हुई है। अभी भी वह शोषिता है।  

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...