क्या वजह है कि पुरुषों
को विचारसंपन्न स्त्री अच्छी नहीं लगती? ऐसी
स्त्री जिसके पास अपना नज़रिया हो, चीज़ों को परखने की वैज्ञानिक दृष्टि हो, वो
लोगों को अपील नहीं करती। असल में विचारवती स्त्रियों से लोग कोसों दूर भागते
हैं। स्त्री वही अच्छी है जो कमनीय हो, कोमलांगी हो, मधुरभाषिणी
हो, मंदगामिनी हो और सब समय 'जी
हां', ‘जी
हां' करें और ‘सब ठीक’, ‘सब
ठीक’ वाला एटीट्यूड हो। यानि कि पुरुष की हां में हां मिलाए। और अगर पुंसवादी
मानसिकता को समझने में असमर्थ स्त्री हो तब तो क्या कहना!
वही आदर्श स्त्री है, अच्छी स्त्री है। यानि आज्ञाकारी। यदि कोई स्त्री
विचारवान बात कहती है तो उस बात को काटने की असंख्य कोशिशें पुरुष समुदाय करते रहते
हैं या किस तरह से उसकी बात को कमतर घोषित किया जाए ये भी कोशिश करते हैं। चलिए पुरुष समुदाय! यह मान
ही लिया कि स्त्रियों की बुद्धि और विचारशीलता से आपको ज़बरदस्त नफ़रत है। तो आप
इसका उपचार कीजिए, नफ़रत पर मरहम लगाइए क्योंकि विचारशील स्त्रियां
रुकने वाली नहीं है। वे अपने विचार लगातार समाज को देती जाएंगी, स्त्री-विचार का
प्रसार करती जाएंगी।
दूसरी एक प्रवृत्ति यह भी है कि एक खास आलोचक वर्ग है पुरुषों का जिन्हें स्त्रियों के टोटल एपीयरेंस से ही परेशानी होती है। इनकी माने तो स्त्री स्वभावतः मूर्ख है। अगर स्त्री ना बोले तो ज़रुर बेवकूफ होगी, अगर बोले तो एकदम भयावह है। हौले हौले बात करे तो झेलने में परेशानी, तेज़ गति से बात करे तो ‘गज़ब लड़की है, कैसे बात करती है? कोई मैनर नहीं जानती’ जैसी टिप्पणी सुनने मे आती है। हाय रे स्त्री, तेरा तो दुनिया में जन्म लेना मुसीबत है। तेरे हर एक कदम पर परेशानी, तकलीफ़, बदनामी और पता नहीं क्या क्या। इन पुरुषों से यह सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर स्त्री कैसे बात करे ? क्या करे? आप स्त्री को किस रुप में देखना व सुनना चाहते हैं? आप चाहते क्या हैं? लेकिन मूल बात ये है कि पुरुषों के चाहने के अनुसार ही स्त्रियां क्यों बर्ताव करें, क्यों बातें करें ? स्त्रियों को जैसे मन होगा वैसे बात करेंगी, आप पुरुषों को पसंद हो तो हो वरना ‘गो टू हेल’। क्या आप पुरुषों के मामले में स्त्रियां कभी दखलंदाज़ी करती हैं ? नहीं करती। तो आप क्यों स्त्रियों पर छड़ी घुमाना चाहते हैं? नो...नो अब नहीं चलेगा ये सब शाषण-वाषण। सुन लीजिए पुरुष और जान भी लीजिए, अब स्त्रियां अपनी मर्ज़ी की मालकिन हैं, वे जो चाहेंगी वही करेंगी, वही कहेंगी, आपकी इच्छा ठेंगे पर।
दिलचस्प है कि स्त्रियां आजकल पितृसत्ताक समाज और उनके पदवियों की मार भी मज़े में झेल रही हैं। आज इक्कसवीं सदी में भी अधिकतर स्त्रियां पति के बगैर अपनी स्वायत्त अस्मिता की बात कल्पनी भी नहीं कर पा रहीं। जहां देखो स्त्रियां फ़ैशन की तरह अपने नाम के पीछे दो दो पदवियों(एक पिता की पदवी, दूसरे शादी के बाद परंपरा से मिली पति की पदवी) को जोड़कर अपनी अस्मिता बना रही हैं। इस प्रकार इनका नाम एक लंबा-चौड़ा शक्ल ग्रहण कर रहा है। वजह ये है कि अधिकतर स्त्रियां आज पढ़ी-लिखी होती हैं। वे अपनी पैतृक पदवी के साथ जीती हैं, पढ़ती हैं, जायज़ है उस पदवी को अचानक शादी के बाद छोड़ देना उन्हें नहीं सुहाता या कह लें उस पदवी से भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है। तो दूसरी ओर स्त्रियां रिवाज़ के अनुसार पति की अस्मिता को ग्रहण करने की पुरानी मानसिकता को भी पूरी तरह त्याग नहीं पा रहीं। जायज़ है दो दो पदवी साथ लो। अगर दोनों पदवियां लम्बी हैं तो नाम तो लंबा होगा ही। अब कल्पना की जा सकती है कि नाम अपनी दो बड़ी पदवियों समेत कितना भाराक्रांत-सा लगता होगा। काश कोई इन स्त्रियों को समझाए कि पति की पदवी स्त्री-अस्मिता तो बिल्कुल नहीं दे सकती। हां, पति की पदवी में प्रभुत्व का भाव तो ज़रुर है यानि ये पदवी स्त्रियों में मातहती का भाव ज़रुर पैदा कर सकती है। पुरुष शादी के तुरंत बाद ही अपनी पदवी का वज़न पत्नी को थमा देते हैं, फिर अपना दायित्व भी, अपने परिवार का भी। जायज़ है स्त्री में पुरुष के अधीन होने वाली मानसिकता हावी होने लगती है। अब स्त्री तुम झेलो। पदवी झेलो, रसोई झेलो, बच्चे झेलो, पति झेलो, पति का गुस्सा झेलो, पति का परिवार झेलो और परिवार के सारे दोष भी झेलो। झेलते जाओ जब तक कि देह से प्राण न निकल जाए।
स्त्रियों के लिए
बेहद ज़रुरी शर्त है विचार। जिस स्त्री के पास विचार नहीं है, वह अस्मिता-बोध
शून्य स्त्री है, वह न अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी से वाकिफ़ है न अपने संवैधानिक
अधिकारों से। उसे न पुरुष-समाज के दमनात्मक रवैये का ज्ञान है न अपने फैसलों के
प्रति जागरुकता। इसलिए स्त्रियां ज़रा सुनिए और समझिए कि अगर आपके पास विचार नहीं
है तो विचार जागृत करें। अपने दिलोदिमाग में विचार को पैदा करें, उसे पकाएं और उस
का संप्रेषण करें। पुरुष कहां आगमन करेंगे आपके विचारों को। अपनी लड़ाई खुद लड़िए।
विचारों को स्वागत कीजिए।