Saturday 26 September 2020

धर्मनिरपेक्ष दृष्टि और भीष्म साहनी

 



वर्तमान दौर में औपनिवेशिक भारत के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं। मसलन् बेकारी, दरिद्रता, भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानता एवं साम्प्रदायिकता। इनमें साम्प्रदायिकता राजनीतिक तौर पर एक संवेदनशील मुद्दा है। आज इक्कीसवीं सदी में भी साम्प्रदायिकता एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में समाज पर हावी है जिसका मूल लक्ष्य सामाजिक विभाजन एवं घृणा पैदा करना है। इस तरह के सामाजिक अवमूल्यन के दौर में भीष्म साहनी का नाटक ‘कबीरा खड़ा बजार में’ का पुनर्मूल्यांकन करना प्रासंगिक होगा।

‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी ने शोषण, अछूत समस्या एवं साम्प्रदायिकता का विरोध किया है। तीन अंकों वाले इस नाटक में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक पतन को व्यापक धरातल पर उजागर किया गया है। साथ ही साम्प्रदायिक सद्भाव के विभिन्न पक्षों को चित्रित किया गया है। अमूमन साम्प्रदायिकता पर बात करते समय उसके समस्यामूलक पहलु पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है लेकिन भीष्म साहनी साम्प्रदायिक सद्भाव के परिप्रेक्ष्य में मानवीय उदात्तता का चित्रण करते हैं। साथ ही धर्मनिरपेक्षता और मिश्रित संस्कृति पर ज़ोर देते हैं।

वस्तुतः ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी वर्तमान असहिष्णु माहौल में कबीर की प्रासंगिकता को उद्घाटित करते हैं। इस कृति में कबीर की युगप्रवर्तक सोच एवं अलमस्त व्यक्तित्व को पूर्ण जीवंतता के साथ उभारा गया है। कबीर के सत्रह पदों को आधार बनाकर इस नाटक का ताना-बाना बुना गया है। वर्तमान सामाजिक विकृतियों को तोड़ने में कबीर के पद आज भी सक्षम हैं।

प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, “साम्प्रदायिकता का कोई धर्म नहीं होता। वह न तो धर्म के तर्क को मानती है, न संविधान के तर्क को मानती है, न नागरिक समाज के तर्क को मानती है.........साम्प्रदायिकता वस्तुतः आधुनिक वैचारिक प्रपंच है। किंतु इसके तर्क और लक्ष्यों का निर्माण ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ।”[1]

ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने धार्मिक अस्मिता पर ज़ोर दिया। धार्मिक अस्मिता की इस राजनीति के ताने-बाने को भीष्म साहनी बखूबी पहचानते थे। इसीलिए उन्होंने ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक में कबीर के ज़रिये मिश्रित धार्मिक परंपराओं पर ज़ोर दिया।

भीष्म साहनी ने जिस समय यह नाटक लिखा उस समय हमारे देश में राममंदिर आंदोलन पूरे जोशो-खरोश में था। साम्प्रदायिक घृणा का जन-माध्यमों के ज़रिये प्रचार हो रहा था। ये लोग बार-बार भारत में ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू संस्कृति’, ‘हिन्दू परंपरा’ पर ज़ोर दे रहे थे। इसके प्रत्युत्तर में भीष्म साहनी ने भारत की मिश्रित संस्कृति, सभ्यता एवं आचार-व्यवहार के साथ मिश्रित मूल्य-व्यवस्था को इस नाटक में कबीर के बहाने चित्रित किया। साम्प्रदायिकता की विषम समस्या को पहचानते हुए कबीर के द्वारा मानव-मानव के बीच प्रेम का संदेश दिया। इस नाटक में कबीर कहते हैं,

               “हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या

               रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या।”[2]

 

ब्रिटिश शासकों ने साम्प्रदायिकता को धार्मिक अस्मिता से जोड़ा। बाद में साम्प्रदायिक शक्तियों ने सत्ता की लालसा एवं व्यापक जनाधार के निर्माण के उद्देश्य से प्रेरित होकर हिन्दू एवं मुस्लिम दो सम्प्रदायों के बीच विभाजन तेज़ किया और अस्मिता के ह्रासशील रूपों का इस्तेमाल किया। आज़ादी के आंदोलन के दौरान सन् 1920 से लेकर 1947 के बीच में यह संवृत्ति व्यापक तौर पर दिखाई देती है। बाद में सन् 1980 से यह संवृत्ति केन्द्र में आया। इसका अर्थ है कि साम्प्रदायिकता कभी भी मौका पाते ही केन्द्र में आ सकती है।

सन् 1980 के बाद भारत में उपभोक्तावाद का उभार आया। साम्प्रदायिक राजनीति के मुद्दे आए, साम्प्रदायिक दंगों की बाढ़ आई। उस समय आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विश्व-बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की नीतियों के अंधानुकरण की ओर सत्ता मुखातिब हुई। हिन्दू एवं मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अपनी-अपनी माँगों के आधार पर सत्ता पर दबाव डाले एवं विभिन्न तरह के राजनीतिक लाभ प्राप्त किए। इसी दौर में धर्म का ह्रास हुआ, धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का आक्रामक चेहरा सामने आया।

इसी समय अप्रैल, सन् 1981 में त्रिवेणी के खुले नाटकगृह में श्री. एम. के. रैना के कुशल निर्देशन में ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक का मंचन हुआ। उस समय देश में भयानक अपसंस्कृति का माहौल था। साम्प्रदायिकता का मूल लक्ष्य ‘संस्कृति’ को ध्वस्त करना है और इसी के ज़रिये वह अपना प्रसार करता है। भीष्म साहनी ने बड़े कौशल से इस नाटक के लिए कबीर जैसे व्यक्तित्व को चुना एवं उनके पदों के द्वारा ‘संस्कृति’ पर बल दिया। साथ ही साम्प्रदायिक सद्भाव जैसे विषय को रंगमंच से जोड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर विषय को लेकर लोग सचेत हुए। नाटक की भूमिका में भीष्म साहनी ने लिखा है, “नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके निर्भीक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है।”[3]

इस नाटक को आधार बनाकर भीष्म साहनी कबीरकालीन सामाजिक परिस्थिति का दृश्य उपस्थित करते हैं और उसके बहाने वर्तमान सामाजिक अस्थिरता और अवमूल्यन से जुड़ी समस्याओं के हल तलाशते हैं। आज से करीब छह सौ वर्ष पूर्व कबीर ने अपने समाज में व्याप्त जाति-भेद, वर्ग-भेद, सम्प्रदाय-भेद का विरोध किया था, वे सभी तत्व आज भी भारतीय समाज पर हावी है।

साम्प्रदायिकता से बहस के दौरान धर्म और धार्मिकता के भेद को जानना बेहद ज़रूरी है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इन दोनों के अंतर का खुलासा किया है, “धर्म ने सहिष्णु बनाया, मानवीय बनाया, सामंजस्यवाद और सम्मिश्रण पर ज़ोर दिया। इसके विपरीत धार्मिकता ने असहिष्णु, अमानवीय, दौलत का दास और उपभोक्ता बनाया।”[4]

धर्म उपासना का विषय है किंतु जब यही धर्म प्रदर्शन की चीज़ में तब्दील हो जाता है तो वह उपभोग की वस्तु बन जाता है। सामाजिक तौर पर इस तरह का विनिमय धर्म को धार्मिकता या साम्प्रदायिकता में बदल देता है। धर्म के इस प्रदर्शन के खिलाफ़ कबीर अपने युग में सक्रिय बने रहे तथा धार्मिक प्रदर्शन से धर्म को पृथक किया।

नाटक में सिकंदर लोदी जब कबीर से यह पूछता है, “तेरा मज़हब क्या है?” तो कबीर इसका जवाब यह कहकर देते हैं,

               “एक निरंजन अल्लाह मेरा, हिन्दू-तुर्क दुहीं नहीं मेरा

                       पूजा करूँ, न नमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमस्कारूँ

             न हज जाऊँ, न तीरथ-पूजा, एक पिछाण्या तो क्या दूजा

             कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरन्तर सूँ मन लागा।”[5]

 

ऐसे जवाबों के फलस्वरूप कबीर पर जुल्म भी हुए जिसका पूरा विवरण नाटक में मौजूद है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों के आडम्बरमय जीवन का भंडाफोड़ कर उन पर कुठाराघात करने वाले कबीर को नगरू-कोतवाल की ओर से यातनाएँ दी गईं।

जाति-भेद, वर्ग-भेद के उन्मूलनार्थ जब कबीर अपने मित्र रैदास के साथ सत्संग करते हैं तो उधर उसकी झोपड़ी में आग लगा दी जाती है। इसके बावजूद धर्म और धार्मिकता के भेद को लक्ष्य कर कबीर कहते हैं,

                        “मोको कहाँ ढूँढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में

                     ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलास में।”[6]

 

लोदी राज्यकाल में कुटीर उद्योगों की दुर्दशा को बड़ी कुशलता से इस नाटक में दर्शाया गया है। महन्तों, मौलवियों एवं साधुओं के आधिपत्य तले दबे अछूतों की जिन्दगी कितनी बदतर हो सकती है, इसका दृष्टांत इस नाटक में है। कबीर के पदों को जब एक दीन-हीन भिखारी अपनी आजीविका प्राप्त करने हेतु गाता है तो उसे दण्ड स्वरूप अपनी जात गँवानी पड़ती है। इस घटना के माध्यम से भीष्म साहनी साम्प्रदायिकता के असहिष्णु एवं बर्बर रूप की ओर ध्यान खींचते हैं।

मनुष्य मात्र के प्रति समदृष्टि ही कबीर का मूल मंत्र था। नाटक में इस समदृष्टि की भावना का सुन्दर खुलासा हुआ है। हिन्दू-मुस्लिम में भेदभावपूर्ण दृष्टि रखने वाले सुल्तान सिकंदर लोदी को कबीर तर्क देते हैं, “मैं इंसान को हिन्दू और तुर्क की नज़र से नहीं देखता, मैं उसे केवल इन्सान की नज़र से, खुदा के बन्दे की नज़र से देखता हूँ।”[7]

धर्म के नाम पर चल रहे उत्पीड़न का समूल नाश करने के लिए कबीर अपने युग में तत्पर हुए थे। यही कारण है कि भीष्म साहनी ने कबीर जैसे दृढ़ व्यक्तित्व को चुना एवं उनके पदों के द्वारा समाज में व्याप्त तानाशाही, धर्मान्धता एवं बाह्याचार को दूर करने का प्रयत्न किया। मध्यकालीन माहौल में संघर्ष करने वाले कबीर को उनके सामाजिक एवं पारिवारिक संदर्भ सहित इस नाटक में चित्रित किया गया है जो नाटक के मंचन के समय से लेकर आज इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक है। भीष्म साहनी ने इस नाटक के जरिये मिश्रित सभ्यता, मिश्रित संस्कृति, मिश्रित धर्म और बहुलतावाद को प्रतिष्ठित किया है।

आज साम्प्रदायिकता का दायरा व्यक्तिगत संबंधों से लेकर स्थानीय, संस्थागत और राष्ट्रीय राजनीति तक फैला हुआ है जिसका विस्फोट साम्प्रदायिक दंगों के रूप में दिखाई देता है। साम्प्रदायिकता के लिए आज सामाजिक और राजनीतिक संबंधों का पूरा ताना-बाना मौजूद है जिनके ऊपर साम्प्रदायिक और फासीवादी शक्तियों की राजनीति चल रही है। अभी धर्म को बाज़ार के अनुरूप ढालने की कोशिश जारी है। धार्मिकता का प्रत्यक्ष संबंध बहुराष्ट्रीय पूँजी के हितों से जुड़ गया है। उपभोक्तावाद के बढ़ते वर्चस्व के कारण धार्मिक कट्टरता भी बढ़ी है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ पुराने मूल्यों, संस्कारों एवं मान्यताओं को नए आवरण में प्रस्तुत कर लोगों को आकर्षित कर रही हैं। साथ ही धर्म भावना को धार्मिक कट्टरता में बदल रही है। देश की राजनीतिक सत्ता भी अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु सामप्रदायिकता के दबदबे को कायम रखना चाहती है।

इस संकटकालीन परिस्थिति में साम्प्रदायिकता की संकीर्ण मनोवृत्ति एवं राजनीति को ध्वस्त करने के लिए ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता है जिनकी वाणी का मूल धर्मनिरपेक्षता की भावना से प्रेरित हो। यही कारण है कि भीष्म साहनी ने कबीर को युग-प्रवर्तक के रूप में खड़ा किया है। जिस प्रकार मध्यकालीन समाज में कबीर बजार में खड़े होकर अपने पदों के द्वारा युग का मार्गदर्शन कर रहे थे, उसी तरह आज के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी साम्प्रदायिकता एवं सामाजिक अवमूल्यन के विरोध में कबीर की वाणी ही आम जनता का मार्ग-दर्शन कर सकती है।



[1] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडिया समग्र-5, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ.- 81

[2] . साहनी, भीष्म, कबीरा खड़ा बजार में, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.- 108

[3] . साहनी, भीष्म, कबीरा खड़ा बजार में, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.- 9

[4] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडिया समग्र-5, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ.- 84

[5] . वही, पृ.- 127

[6] . वही, पृ.- 72

[7] . वही, पृ.- 126

Monday 7 September 2020

रूपक-कथा, न्याय और जनतंत्रः कितने पाकिस्तान

 

       


 

कमलेश्वर ने अपने उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में रूपक-कथा की पद्धति के ज़रिये न्याय और अन्याय के प्रश्न पर गहराई से विवेचन किया है। इतिहास में हो चुके तथा वर्तमान दौर में लगातार हो रहे सत्य और नैतिकता के उल्लंघन की धाराप्रवाहता को संबोधित करते हुए कमलेश्वर ने उपन्यास की कथा-वस्तु को विकसित किया है। इस संदर्भ में लेखक ने दुनियाभर में हो चुके तमाम उत्पीड़न, अनाचार तथा अन्याय के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को सविस्तार खोलकर पाठकों के सामने रखा है तथा इतिहास की पुनर्व्याख्या के माध्यम से जनतांत्रिक विचारधारा को प्रतिष्ठित करने की आंतरिक कोशिश की है। भारत-विभाजन के दौरान व बाद में हुए सांप्रदायिक कत्लेआम व जातिसंहार के मूल में सांप्रदायिक भेदभाव की मनोवृत्ति को उत्तरदायी मानते हुए लेखक का उद्देश्य है धर्मनिरपेक्षता, प्रेम व मैत्रीभाव के ज़रिए मानवतावाद की स्थापना करना।

कमलेश्वर यह उपन्यास उस दौर में लिख रहे थे जब देश में पृथकतावादी, सांप्रदायिक, जातिवादी, भाषावादी नस्लवाद व धार्मिक ताकतें अपने पूरे जोशो-ख़रोश पर थीं। कट्टरपंथी शक्तियां जनता के मन में धीरे-धीरे अपना प्रभाव विस्तार कर रही थीं। इतिहास की तोड़-मरोड़ तथा तथ्यों की गलत व्याख्या के ज़रिये मज़हबी ताकतें हिन्दुत्ववाद एवं सांप्रदायिकता का प्रचार-प्रसार कर रही थीं। यह समस्या आपात्काल के खात्मे के समय से लगातार बनी हुई थी। सन् 1977-1979 तक अलिगढ़, बनारस तथा जमशेदपुर में, सन् 1981 में बिहारशरीफ़ में, सन् 1980 के मुरादाबाद दंगों, सन् 1982 में बड़ौदा तथा मेरठ में, सन् 1983 में असम में, सन् 1984 के सिख-विरोधी दंगे, सन् 1985 में अहमदाबाद में, सन् 1987 में मेरठ में, सन् 1989 में भागलपुर में तथा सन् 1990 में रामजन्मभूमि आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक देश का माहौल लगातार अतिसंवेदनशील बना हुआ था। विध्वंश के बाद मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, कानपुर, भोपाल, दिल्ली आदि जगहों में साम्प्रदायिक दंगों की भयंकर घटनाएं हुईं। मुंबई में 1000 लोगों का कत्ल किया गया, सूरत में मुस्लिम स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।1 (Dr.Asghar Ali Engineer, Sowing Hate and Reaping Violence, pp-10-16)

भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद से ही धार्मिक तत्वों ने लगातार हिन्दू और मुस्लिम जनसमुदाय के बीच नफ़रत का बीजवपन किया और ऐसा करने के लिए इतिहास की मनगढंत व्याख्या की गई जिससे हिन्दू-मुस्लिम दो संप्रदायों में नफ़रत पुख्ता हो और उनके धार्मिक बंटाधार में मदद मिले। सांप्रदायिक विद्वेष को जागृत करने के लिए उन्मादी तत्वों द्वारा किस प्रकार मिथ्या का सहारा लिया गया इस पर रोशनी डालते हुए प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है, “बाबरी मस्जिद प्रकरण में उपजी सांप्रदायिक विचारधारा ने जहां एक ओर कानून एवं संविधान को अस्वीकार किया, दूसरी ओर, इतिहास का विद्रूपीकरण किया। इतिहास के तथ्यों की अवैज्ञानिक एवं सांप्रदायिक व्याख्या की गई, इतिहास के चुने हुए अंशों एवं तथ्यों का इस्तेमाल किया। और यह सब किया गया विद्वेष एवं घृणा पैदा करने के लिए व समाज में विभेद पैदा करने के लिए।”2 (प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी, मीडिया समग्र, पृ.-218)

गंभीर अध्येताओं, प्रगतिशील चिंतकों तथा जनवादी साहित्यकारों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय था कि किस प्रकार देश में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण एवं विचारधारा को विकसित किया जाए तथा देश के इतिहास एवं वर्तमान को आधारहीन धार्मिक व्याख्या से मुक्त किया जाए।

कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में रूपक कथा के आवरण में ‘बाबरनामा’, बाबर की बेटी गुलबदन बेगम द्वारा लिखित ‘हुमायूँनामा’, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में ए. फ्यूहरर द्वारा बाबर के शिलालेख को देखकर किए गए अनुवाद तथा सरकारी तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि राममंदिर को गिराने में बाबर की कोई भूमिका नहीं थी और ना ही बाबर कभी अयोध्या गया था। अदीब के अदालत में बाबर, उसकी बेटी गुलबदन बेगम, ए. फ्यूहरर ने अपना-अपना पक्ष रखा और यह प्रमाणित किया कि अंग्रेज़ों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किस प्रकार बाबरनामा के बीस पन्ने गायब कर दिए। बाबरनामा के उन पन्नों में इस बात का ज़िक्र था कि बाबर अफ़गान विद्रोहियों का पीछा करते हुए घाघरा नदी के पश्चिमी कछारों तक तो गया था लेकिन जैसे ही काबुल से उनकी बेगम और बिटिया के हिन्दुस्तान आने की खबर मिली; फौरन अलीगढ़ वापस लौट पड़ा था। वह घाघरा नदी के पूर्वी किनारे के पार अयोद्ध्या कभी गया ही नहीं था।

धार्मिक तत्वों ने सालों से यह भी प्रचारित किया था कि मोहम्मद-बिन-कासिम चूंकि मुसलमान था इसलिए उसने मंदिरें तोड़ी थीं जो कि हिन्दू-विरोधी कदम था। जबकि वास्तविकता यह थी कि कासिम का मूल इरादा हिन्दुस्तान पर हुकूमत कायम करना और यहां की धन-संपदा को लूटना था ना कि हिन्दुओं पर हमले करना। उस दौरान खज़ाने चूंकि मंदिरों के नीचे ज़मींदोज़ रहते थे, इसलिए यह स्वाभाविक था कि खज़ानों की प्राप्ति के लिए मंदिरों पर हमले हुए जिस घटना पर बाद में धार्मिक रंग चढ़ाया गया और घृणा के प्रचार के लिए इतिहास की मज़हबी व्याख्या पेश की गई। प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक असग़र अली इंजीनियर का मानना है कि भारत के राजनेताओं के लिए इतिहास एक बेहद शक्तिशाली राजनैतिक औज़ार बन चुका है। मानवीय भावावेश को जागृत करने में धर्म की तरह इतिहास भी एक प्रभावशाली माध्यम है।3 (Puniyani Ram(Ed.), Ayodhya: Mandir-Masjid Dispute (Towards Peaceful Solution)

इन घटनाओं को उद्घाटित करके कमलेश्वर वस्तुतः इतिहास की पुनर्व्याख्या करते हैं, इतिहास का पुनरुद्धार करते हैं और इसके ज़रिए जनतंत्र को प्रतिष्ठित करते हैं। इसी क्रम में कमलेश्वर इतिहास के पन्नों को पलटते हुए पाठकों को नई जानकारियों से लबरेज़ करते हुए उदारवादी दृष्टिकोण को भी प्रतिष्ठित करते हैं। लोकतंत्र के आने के बाद यह ज़रूरी बन जाता है कि इतिहास की पुनर्व्याख्या की जाए और उन पहलुओं को सही ढंग से खोला जाए जिनका देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर गहरा प्रभाव रहा हो। यह उपन्यास इतिहास के विकृतिकरण को संबोधित करता है। इस प्रकार इतिहास की सही व्याख्या प्रस्तुत करके पाठकों का विरेचन(catharsis) भी करता है।

औरंगज़ेब ने तख्त प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया तथा अपने भाईयों दाराशिकोह, शुजा तथा मुराद के बीच धार्मिक भेदभाव निर्मित करने की कोशिश की। औरंगज़ेब और दाराशिकोह का मूल मतभेद इस बात में था कि औरंगज़ेब कट्टर इस्लामी साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और इसके लिए वह हर तरह की नृशंसता के लिए राज़ी था। इसीलिए औरंगज़ेब के ज़माने में ना केवल हिन्दुओं पर बल्कि मुसलमानों पर भी हमले हुए थे। जो निधर्मी थे या ईस्लाम के अनुयायी नहीं थे उन मुसलमानों को खूब सताया गया। जबकि दाराशिकोह एकत्व का रास्ता चाहता था जिसमें हर धर्म के मनुष्य को शामिल किया जाए। वह इस्लाम को केवल मुसलमानों के धर्म के रूप में ही नहीं बल्कि एक विराट मानव धर्म के रूप में फैलाना चाहता था।

शिबली नोमानी जैसे इतिहासकारों ने औरंगज़ेब और दाराशिकोह के वैचारिक मतभेद को काफिर बनाम नमाज़ी के युद्ध के रूप में पेश करके मामले को मज़हबी जामा पहनाया तथा औरंगज़ेब के पक्ष में झूठी कहानियां गढ़ी गई। औरंगज़ेब द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के पीछे मंदिर के पंडों द्वारा तहखाने में रानी के बलात्कार की मनगढ़ंत कहानी का इतिहासकार पट्टाभि सीतारमैया ने सहारा लिया जिससे मंदिर तोड़ना अन्याय के प्रतिवाद में की गई न्यायपूर्ण घोषणा जान पड़े। कमलेश्वर ने दाराशिकोह के साथ विश्वासघात करके झूठ का सहारा लेकर औरंगज़ेब का साथ देने वाले राजाओं की भी मुखालफ़त की है। इनमें जोधपुर के राजा जसवंत सिंह, जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह, जम्मू का राजा राजरूप, मलिक जीवन आदि अवसरवादी राजा थे जिन्होंने राज्य और सत्ता के खोने के डर से अहम वक्त पर औरंगज़ेब का साथ देकर दाराशिकोह को हार के लिए विवश किया। इस प्रकार हिन्दुस्तान की बनती एक सहिष्णु और एक नई तहज़ीब का अंत हो गया।

दरअसल कमलेश्वर इस उपन्यास के ज़रिए स्मृतियों को पुनर्जीवित करते हैं और स्मृतियों मे ले जाकर इतिहास के कारणों की जांच करते हैं। स्मृतियां ही हैं जिनके ज़रिए धार्मिक तत्व इतिहास की विकृत व्याख्या करके हिंसामूलक गतिविधियों को अंजाम देती आई है। इसलिए स्मृतियों को पुनर्जीवित करके उनकी पुनर्व्याख्या करना और पाठकों के ज़ेहन में सत्य को पुनर्प्रतिष्ठित करना कमलेश्वर का उद्देश्य है। कमलेश्वर ने लिखा है, “नफ़रत एक ऐसा स्कूल है जिसमें पहले खुद को प्रताड़ित, अपमानित और दंशित किया जाता है...उसे घृणा की खाद से सींचा जाता है और तब उसकी स्मृति को एकात्म करके प्रतिशोध के नुकीले हल से जोत कर हमवार किया जाता है। इसीलिए घृणावादियों के तर्क इकहरे और एक से होते हैं....उनके पास अधिक बातें नहीं होतीं। वे हजारों-लाखों मुखों से एक ही स्वर में बोलते हैं, एक से प्रश्न उठाते हैं, एक सी दलीलें देते हैं....यही उनकी एकता की पहचान बन जाती है।”4 (कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान, पृ.-93-94)

मानव-मन की शाश्वत अदालत खोलकर अदीब बैठे हैं। यह अदालत अप्राकृतिक मृत्यु वरण कर चुके लोगों के लिए खुली है जो कुदरती मौत से पहले मर चुके। कमलेश्वर के शब्दों में, “यह मजलिस नहीं, वक्त की अदालत है...तमाम सदियों के उस वक्त की अदालत, जो इंसान की रूह पर भारी पड़ता है...सदियों की इसी तहक़ीकात के मुकदमे इस अदालत में चल रहे हैं ताकि अपने मन की अदालत में सच के फ़ैसलों को हासिल करके, दुनिया की हर रूह, खुद को विस्थापित होने से बचा सके और दुनिया की इस सराय में भयमुक्त होकर सुकून से अपना वक्त गुज़ार सके।”5 (पृ.-259-260)

वस्तुतः कमलेश्वर एक लेखक के ज़रिए इतिहास को चुनौती देते हैं, न्याय के सवाल पर बहस करते हैं। वक्त की अदालत वक्त को पीछे ले जाती है, घटनाओं की तहकीकात करती है, उन गुत्थियों को खोलती है जिन पर गांठ पड़ी हुई थी तथा बहस, गवाहों और तथ्यों के मद्देनज़र सत्य का पुनरूत्थान करते हुए न्यायशीलता के पक्ष में फैसले सुनाती है। यह अदालत विभिन्न चरित्रों, गंगा, यमुना, चंबल, सतलुज, नर्मदा, व्यास, सिन्ध आदि नदियों, कई इतिहासकारों के ज़रिये इतिहास की पुनर्व्याख्या करती है और इसके ज़रिए सही तथ्यों एवं वास्तविक घटनाओं को पाठकों के समक्ष लाती है। दुनिया के तमाम अन्यायों को बेनकाब कर सत्य की खोज करना और न्याय की प्रतिष्ठा ही रचनाकार का उद्देश्य है।

अलग-अलग देशों में बन रहे छोटे-छोटे पाकिस्तान की घटनाओं से भी कमलेश्वर व्यथित और चिंतित हैं। युगोस्लाविया, अफ़गानिस्तान, मिश्र, ईरान, ट्यूनिशिया, तुर्की, सोमालिया, अल्जीरिया, लेबनान में धर्म के नाम पर अपने-अपने ढंग का गैर-कुदरती पाकिस्तान बना। नफ़रत और त्रासदी की प्रक्रिया से गुज़रते हुए जब इंसान गुटों में बंट जाता है तब वह अपने इतिहास से ही नहीं बिछुड़ता, अपनी उदार संस्कृति को भी अपमृत्यु की ओर ले जाता है। कमलेश्वर के शब्दों में, “.......कोई भी संस्कृति पाकिस्तानों के निर्माण के लिए जगह नहीं देती। संस्कृति अनुदार नहीं, उदार होती है......वह मरण का उत्सव नहीं मनाती, वह जीवन के उत्सव की अनवरत श्रृंखला है...इसी सामासिक संस्कृति की ज़रूरत हमें है क्योंकि वह जीवन का सम्मान करती है।”6 (पृ.- 182)

 

कमलेश्वर ने मानव-सभ्यता को संवेदनशील, नैतिक, मैत्रीपूर्ण और मानवीयता से परिपूर्ण माना है जबकि देव-सभ्यता में मौजूद आचारहीनता, नियमहीनता, अनैतिकता और भोगवादिता की सख्त़ आलोचना की है। ऐसा करते हुए उन्होंने मिथकीय चरित्रों की आचार-संहिता पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाया है। दुनिया की तमाम धार्मिक लड़ाईयों, साम्प्रदायिक हत्याकांडों के बीज में मौजूद देव-सभ्यता के प्रति आस्था और भक्ति के नकलीपन को बेनकाब करते हुए कमलेश्वर ने देव-सभ्यता की पतनशील मानसिकता को चुनौती दी है। ऐसा करते हुए कमलेश्वर ने देव-सभ्यता के विमर्श को तैयार किया है। देव-सभ्यता में मौजूद जितनी भी नियमहीनता है, आचार-संहिता के उल्लंघन की प्रवृत्ति है वही धरती पर विराजमान उनके कट्टरपंथी भक्तों में भी मौजूद है। राम द्वारा शंबूक की हत्या, इंद्र द्वारा अहिल्या का बलात्कार, चंद्र द्वारा गुरू-पत्नी तारा का अपहरण और बलात्कार आदि घटनाओं का उल्लेख करके देवताओं की दलित-विरोधी तथा स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति को ऊजागर किया गया है।

इसी देव-परंपरा का अनुसरण करते हुए धर्मांध कट्टरतापंथी ताकतों ने राममंदिर बनवाने के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराई, सदियों तक स्त्रियों और दलितों को उनके अधिकारों से वंचित रखा तथा उनका शोषण किया, दलितों को गुलाम तथा स्त्रियों को भोग्या माना। किसी भी संस्कृति की पहचान उस संस्कृति में स्त्री की अवस्था, उसके सम्मान, उसकी मर्यादा और सामाजिक हैसियत से स्वीकृत होती है। कमलेश्वर का मानना है, “औरत की आबरू ही संस्कृति के मयारों को तय करती है...जो तहज़ीब अपनी औरत की आबरू को इज्ज़त नहीं दे सकी, वह रोम, यूनान और मिश्र की तरह मिट गई।”7 (पृ.-219)

ग्रीकदेवता पॉसायडन और एज़ैक्स जब महायुद्ध के बाद लौट रहे थे तो एज़ैक्स ने एथीनी की प्रतिमा से लिपटी चिरकुमारी कज़ैण्ड्रा को घसीटकर उसके साथ बलात्कार किया, साथ ही एथीनी के साथ भी किया। अपोलो भी कज़ैण्ड्रा के साथ बलात्कार करना चाहते थे जिसका उसे अवसर नहीं मिल पाया। भोगवाद की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके देवताओं को धिक्कारते हुए देवी तानिया समग्र देवी-देवताओं से कहती हैं, “तुम समस्त देवता लोग प्रेमविहीन और एकांगी व्यक्ति हो। तुम सब स्त्री पर आसक्त होकर उसका शीलभंग कर सकते हो...अवैध संतानें पैदा कर सकते हो, क्योंकि तुम अहंमन्य हो। तुम नितान्त व्यक्तिवादी हो। तुम्हारे पास मित्रता का मूल्य नहीं है....तुम्हारे पास केवल वासना है, प्रेम नहीं है। केवल वैयक्तिक श्रेष्ठता का द्वेष है इसलिए मित्रता नहीं।”8 (पृ.-29)

देवसभ्यता से विरासत में मिली बलात्कार की इस परंपरा को धरती पर रह रहे उनके कट्टरपंथी भक्तों ने संभाला हुआ है। युद्धों के दौरान सैनिकों, हमलावरों तथा धार्मिक कठमुल्लों द्वारा सामूहिक बलात्कार और लूटपाट पूरी दुनिया में अब तक बरकरार है। इस उपन्यास में दंगों के दौरान विद्या के साथ दो लड़के दो बार बलात्कार करते हैं। चाहे किसी भी मुल्क का सैनिक हो, स्त्री उसके लिए भोग्या है, कामतृप्ति की वस्तु है। यही वजह है कि ‘बीवी’ के साथ दुश्मन फ़ौज के वर्दीवाले फौजियों ने जितनी बेरहमी से बलात्कार किया, उसके अपने मुल्क के फौजियों ने भी उतनी ही बेरहमी से किया। दोनों बार बलात्कार के बाद समाचारपत्रों में सैनिकों की जांबाज़ी को लेकर तारीफ़ों की पुल बांधी गई। लेकिन कमलेश्वर के शब्दों में, “वह रौंदी हुई औरत बार-बार सोच रही थी—आख़िर हमलावर था कौन?”9 (पृ.-340)  भोगवादी मानसिकता स्त्री को जिस्म से आगे नहीं देख और सोच पाती, इसी मनोदशा पर प्रहार करते हुए कमलेश्वर ने पुरुषों की दृष्टि में स्त्री की उपादेयता के प्रश्न को रेखांकित किया है।

जिन परमपवित्र देवताओं के मंदिर-निर्माण के लिए धरती पर मनुष्य नियम तोड़ रहा है, एक-दूसरे की आस्थाओं पर हमले कर रहा है, दंगे करवा रहा है, कत्लेआम करवा रहा है, विश्रृंखलता पैदा कर रहा है, वे देवता आचरण और व्यवहार की दृष्टि से कितने अनैतिक, भ्रष्ट, पातकी व सवर्णवादी हैं यही दिखाना कमलेश्वर का उद्देश्य है। हर एक धर्म की अपनी सभ्यता होती है लेकिन जब उस सभ्यता का आधार ही अनैतिकता पर आधारित हो फिर उस धर्म का क्या मूल्य? कमलेश्वर इस बात को स्थापित करना चाहते हैं कि जो धर्म शांति और सौहार्द की जगह दंगे करवाता हो, मनुष्य-मनुष्य में भेद की सृष्टि करता हो उसका परित्याग की श्रेयस्कर है। मानवीयता और प्रेम ही एकमात्र धर्म है जहां कोई अनिष्ट नहीं होता।

इसी मानवीयता की भावना को बूटा सिंह के ज़रिये कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में चित्रित किया है। विभाजन के बाद जब कुछ लोग जेनिब की अस्मत लूटने की कोशिश कर रहे थे तब बूटा सिंह अपनी सारी जमा पूँजी उन्हें देकर जेनिब को बचा लेता है। मित्रता और विश्वास के मानवीय संपर्क को सुमेरी सभ्यता के सम्राट गिलगमेश और एकिंदू के मैत्री के माध्यम से वर्णित किया गया है और ऐसा करके यह प्रमाणित किया है धरती पर विराजमान मनुष्य स्वर्ग के देवताओं की तुलना में कहीं अधिक विश्वसनीय, विवेकशील, संवेदनशील, आवेगप्रवण और नैतिकतावादी हैं। जहां गिलगमेश और एकिंदू की मैत्री को तोड़ने के लिए दुष्ट देवता षड्यंत्र करके एकिंदू को मार देते हैं वहीं साम्प्रदायिक ताकतों की वजह से जेनिब और बूटा सिंह की प्रेमकहानी अधूरी रह जाती है।

कभी दारा के बहाने, कभी तहज़ीब, कभी सलमा तो कभी अदीब के बहाने कमलेश्वर ने आंसुओं का ज़िक्र किया है जो पवित्र है, जो इंसानियत पर हुए हमलों के दौरान ग़मगीन वक्त पर दाखिल होता है, जो संस्कृति को ज़िंदा रखने की नाकामयाबी पर ज़ार-ज़ार बहता है। आँसुओं के माध्यम से लेखक ने मानवीयता को ज़िंदा रखने की ओर कदम बढ़ाया है जो हर देशकाल में हर साधारण इंसान की आंतरिक तकलीफ़ पर बहता है। वह आंसू न सांप्रदायिक होता है न लिंगीय, वह वर्ण, रंग, नस्ल, संप्रदाय, लिंग से परे होता है और इसीलिए एक मानवीय प्रस्फुटन होता है।

कमलेश्वर ने इस पूरे उपन्यास में रूपक-कथा का सहारा लिया है और उसके माध्यम से वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं को संबोधित किया है। उपन्यास की घटनाएं, उसका वातावरण, उसका परिदृश्य, उसके चरित्रों का गठन रूपक-कथा के आवरण में किया गया है जिसके ज़रिये लेखक कई प्रतीकात्मक विचारों को सामने रखना चाहते हैं। सन् 1945 में लिखा गया जॉर्ज ऑरवेल का बहुचर्चित उपन्यास ‘ऐनिमल फ़ार्म’ भी रूपक-कथा पर आधारित है। इसमें पशु-जगत से जुड़े हुए चरित्रों, उनके वक्तव्यों तथा उनकी गतिविधियों के अंतराल में रूसी-क्रांति तथा सोवियत संघ में स्तालिन के अधिनायकवादी समयकाल पर व्यंग्यात्मक लेखन हुआ है।

कमलेश्वर के अनुसार दाराशिकोह की हत्या धर्मनिरपेक्ष और मानवीय विचारों की हत्या है। इस हत्या ने एक विचारशून्य और विवेकहीन पीढ़ी को जन्म दिया है। कमलेश्वर के शब्दों में, “हिन्दुस्तान नाम का एक ऐसा मुल्क उसके सामने था, जिसके बाशिंदों की गर्दनों पर सिर नहीं थे। हर तरफ़ रुण्ड की रुण्ड दिखाई दे रहे थे। बाजार खुले थे, मंदिरों-मस्जिदों के दरवाजे भी खुले थे। चाँदनी चौक की दुकानें भी खुली थीं और बिना सिर वाले रुण्ड जगह-जगह आ जा रहे थे। वे केवल धड़ ही धड़ थे। वे बात करते थे, मोल-भाव करते, चीज़ें खरीदते, मंदिर-मस्जिदों में पूजा-इबारत के लिए जाते भी दिखाई देते थे। उनकी आवाज़ भी सुनाई पड़ती थी पर धड़ पर सिर न होने के कारण उनके बोलते हुए ओंठ नहीं दिखाई देते थे। झपकती हुई आँखें नज़र नहीं आती थीं।”10 (पृ.-246)

असल में कमलेश्वर ने यह दिखाने की कोशिश की है कि हिन्दुस्तान और सुदूर मध्य एशिया से लेकर तुर्की तक जब धर्म के आधार पर कत्लेआम और हिंसाचार का माहौल गर्म हो रहा है तब किस तरह सोचने, समझने, विचार करने, सत्य की खोज करने की मनुष्य की क्षमता विलुप्त हो जाती है। इंसान मज़हबी दृष्टि से हर चीज़ को परिभाषित करने लगता है और अपना निजी विवेक खो बैठता है। वह धारा के साथ बहने लगता है, भेड़चाल चलने लगता है। मनुष्य का दृष्टिकोण उसकी बुद्धि तथा विवेक के आधार पर बनता है। सिर पर धड़ का नहीं होना वस्तुतः बुद्धि और विवेक की ह्रासशीलता की ओर इशारा है। 

जिस मज़हब के नाम पर दारा की हत्या हुई थी उसी मज़हबी कट्टरता ने सन् 1984 के दंगों, बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड जैसे वारदातों को भी अंजाम दिया। इक्कीसवीं सदी में भी यही मज़हबवादी विचारधारा तमाम दंगों और हत्याकांड के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। मज़हब सीमाएं तय करता है और हत्या की राजनीति को वैधता प्रदान बनाता है। इस मज़हबवादी नज़रिए के प्रतिवाद में लिखा गया यह उपन्यास इंसानियत के नज़रिया को ही आदर्श मानता है। 

कमलेश्वर ने रूपक-कथा की आड़ में परमाणु परिक्षण और मानव-बमों के उत्पादन और प्रयोग का भी घोर विरोध किया है। सुमेरी सभ्यता का सम्राट गिलगमेश जीवनौषधि लाने समुद्र की अतल गहराईयों में पाताल-लोक गया हुआ है। धन्वंतरि शुरुप्पक का जियसुद्दु जिनके पास यह औषधि है, वही मनुष्य को मृत्यु से मुक्ति दिला सकता है। वैज्ञानिक तकनीकी का सहारा लेते हुए मानव-हत्या को कमलेश्वर ने भयानक अपराध माना है। इसी तरह जो धर्मांधता में कत्लेआम करते हैं उनके प्रतिवादस्वरूप प्रगतिशील कवि कबीर बोधिवृक्ष लगाना चाहते हैं। बोधिवृक्ष नीलकंठ की तरह सारा विष पी लेता है। दरअसल यह मानवीयता का बोधिवृक्ष है, धर्मनिरपेक्षता और प्रेम का बोधिवृक्ष है जो मानव-मानव के बीच हिंसा को खत्म करके एक संवेदनशील मानव-जाति के निर्माण में मदद करे।

कमलेश्वर ने देश के बंटवारे को सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में देखा है जिसके लिए अंग्रेज़ ज़िम्मेदार थे। अंग्रेज़ों से भी पहले औरंगज़ेब ने इसकी भूमिका तैयार की थी जिसे अंजाम अंग्रेज़ों ने दिया। कमलेश्वर के शब्दों में, “दिल्ली के तख़्त को पाने के लिए औरंगज़ेब ने धर्म को तलवार बनाया था। दाराशिकोह को मारने के बाद वह कुंठाग्रस्त हो गया था....इसकी इसी कुंठा का नतीजा था कि उसने भारत में रच-बस गए मुसलमानों को मानसिक रूप से विस्थापित बना दिया था। वही मानसिक विस्थापन लगभग दो सदियों के बाद विभाजन का कारण बना।”11 (पृ.- 260)

सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की व्यापक क्रांति से भयग्रस्त अंग्रेज़ों ने भारत में अपने शासन और अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए हिन्दु-मुस्लिम दो संप्रदायों में धार्मिक हिंसा व भेदभाव को तेज़ किया और आज़ादी के समय भी इसी भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण का सहारा लेते हुए देश को भारत-पाकिस्तान में विभाजित किया गया। विभाजन की इस मंशा को साकार करने के लिए साम्राज्यवादियों ने मोहम्मद अली जिन्ना को राजनीतिक सत्ता का आश्रय देकर अपना मोहरा बनाया। इसी तरह इंडोनेशिया को विभाजित करने के लिए उपनिवेशवादियों द्वारा मुसलमान और ईसाई में धार्मिक विभेद की सृष्टि की गई। कमलेश्वर ने भारत-विभाजन के लिए जिन्ना को ज़िम्मेदार ना मानकर माउन्टबेटन, रेडक्लिफ़, चर्चिल, सर कोनराड कोरफ़िल्ड के दिमागी षड्यंत्र को माना है। लेकिन इससे भी पहले सन् 1905 में ही लार्ड कर्ज़न ने बंग-भंग के प्रस्ताव के माध्यम से बंगाल की मनोदशा को हिन्दू-मुस्लिम में विभाजित कर दिया था भले ही बंगाल का विभाजन तब संभव ना हुआ हो।

उपनिवेशवादियों ने माया सभ्यता, अज़टेक साम्राज्य को भी जड़ से नष्ट किया। अमेरिका, त्रिनिदाद, कनाडा, मेक्सिको, क्यूबा, पनामा, ब्राज़ील, पेरू आदि के मूल निवासियों पर चढ़ाई करके वहां उपनिवेश स्थापित किया। वहां के कच्चे मालों पर अधिकार करके नए बाज़ारों का निर्माण किया। साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए बाज़ारवाद की आंतरिक रणनीति को स्पष्ट करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “सुनो—बाज़ारों के लिए ही बनते हैं साम्राज्य! और साम्राज्यों को जीवित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं बाज़ार! साम्राज्यों की नाभि बाज़ार से जुड़ी है। साम्राज्यों के रूप बदल सकते हैं..वे प्रजातांत्रिक आर्थिक साम्राज्य का रूप ले सकते हैं परन्तु, इन पूँजीवादी प्रजातन्त्रों को जीने के लिए मुनाफ़े के बाजारों की ज़रूरत है।”12 (पृ.-291)

लेकिन यह बाज़ारवाद संस्कृतियों व सभ्यताओं को किस प्रकार तोड़ती है तथा नियंत्रण के ज़रिए अपना प्रभाव विस्तार करती है इसका ज़िक्र करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “नियंत्रण द्वारा आत्माओं को तोड़ा जाता है....फिर उन्हें विभाजित किया जाता है....उनमें सांस्कृतिक प्रतिरोध की शक्ति विखंडित की जाती है और तब बाज़ारवादी जोंकें उस विभाजित कौम का सारा रक्त चूस लेती हैं।”13 (पृ.-45)

उपन्यास में सलमा एक सशक्त, बुद्धिमती, विवेकशील, आज़ाद-ख्याल और भावनाप्रवण स्त्री-चरित्र के तौर पर सामने आती है। सलमा धर्म के आधार पर इंसान के विभाजन की सर्वथा विरोधी है और इसके लिए विरोधी विचारों से लगातार संघर्ष भी करती है। इस चरित्र के बहाने कमलेश्वर स्त्री से जुड़ी दो परंपरागत धारणाओं से पाठकों को मुक्त करते हैं; पहली, स्त्री बुद्धिमति और संवेदनशील होते हुए भी राजनीति में कम दिलचस्पी लेती है या उससे संबंधित कम जानकारी रखती है और दूसरी, स्त्री मूक प्रतिवाद करती है। पूरे उपन्यास में सलमा राजनीतिक विषयों में गहरी जानकारी और अभिरुचि रखने वाली तथा लगातार मुखर प्रतिवाद करने वाली स्त्री के तौर पर नज़र आती है। कभी धर्मांधता से, कभी पितृसत्ताक मानसिकता से तो कभी साम्प्रदायिक विचारबंदी से लड़ती है। धर्मांध शक्तियों के खिलाफ़ उसके जवाब प्रखर, दो टूक और बुद्धिमत्ता से लैस होते हैं। सलमा के चरित्र की दो विपरीतमुखी खूबियां हैं, अदीब के साथ बातचीत के समय वह बहुत ही आवेगप्रवण व संवेदनशील हो उठती है जबकि कट्टरपंथी शक्तियों के सामने निर्मम और बेबाक। पितृसत्ताक विचारधारा की मुखालफ़त करते हुए सलमा नईम से कहती है, “आपके कुनबे से छिटक कर, अपनी मर्ज़ी का मालिक कोई भी मर्द आज़ाद हो सकता है पर औरत को आप अपने कुनबे की जायदाद समझते हैं ! अगर किसी हादसे के बाद कोई औरत किसी और कुनबे के मर्द को मंज़ूर कर ले तो आप लोग बर्दाश्त नहीं करते...।”14 (पृ.-120)

लेकिन कमलेश्वर अपनी नायिका को विचारों से सशक्त दिखाते हुए भी आर्थिक तौर पर मज़बूत नहीं दिखा पाते। शिक्षित, होनहार और बुद्धिमति होने के बावजूद पूरे उपन्यास में सलमा नौकरी करती नहीं दिखाई जाती यानि उसके पास आर्थिक स्वायत्तता का अभाव है। हालांकि स्त्री-अस्मिता की प्रतिष्ठा में आर्थिक स्वावलंबन की अहम भूमिका होती है। दूसरी ओर जब सलमा अदीब के साथ प्रेमसूत्र में बंधती है तब वह विधवा हो चुकी होती है। यानि भारतीय नैतिकता के तराजू पर एकदम सटीक बैठती है। भारतीय मान्यता के मुताबिक एक स्त्री पति के रहते पति के अलावा किसी गैर पुरुष से विवाहेतर संबंध नहीं रख सकती जबकि पुरुष कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। यह उपन्यास इस धारणा का अतिक्रमण नहीं कर पाता बल्कि उसे पुख्ता करता है। अदीब विद्या से प्रेम करता है, अपनी पत्नी शांता के अतिरिक्त सलमा से भी प्रेमसंबंध जारी रखता है लेकिन सलमा अपने पति की गैरहाज़िरी(मृत्यु के उपरांत ही) में ही अदीब के साथ प्रेमसंबंध को बरकरार रखती है और ज़रुरत पड़ने पर उपन्यास के अंत में अपने बेटे के खातिर उसका भी परित्याग कर देती है। स्पष्ट है कि पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के लिए स्त्री को अपना प्रेम भी कुर्बान करना पड़ सकता है। यानि बहुपत्नित्व तो सही है लेकिन बहुपतित्व नहीं। पुरुष एकाधिक प्रेमिकाओं के रहते हुए भी न्याय-अन्याय पर विचार-विमर्श कर सकता है लेकिन स्त्री नहीं कर सकती। यौन-शुचिता की तरह यौन-हदबंदी(एक समय पर एक ही पुरुष के लिए) वाली मानसिकता को कमलेश्वर तोड़ नहीं पाते। कहने का अर्थ यह है कि कमलेश्वर इस उपन्यास में पितृसत्ताक विचारधारा की हदबंदियों को संपूर्णतः तोड़ नहीं पाते।

कमलेश्वर ने इस उपन्यास में पुंसवादी विचारधारा के साथ-साथ ब्राह्मणवादी विचारधारा पर भी कड़ा प्रहार किया है। वैदिक आर्यों की ब्राह्मणवादी परंपरा को कमलेश्वर ने अप्राकृतिक करार दिया है। जिस निराधार पायदान पर खड़े होकर ब्राह्मणगण अपने श्रेष्ठत्व का जयगान करते हैं, वह कितना अर्थहीन, कल्पित और अवैज्ञानिक है इसे साफ़ करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “...ब्राह्मणों की पत्नियों को भी मासिक धर्म के चक्र से गुज़रना पड़ता है। वे भी गर्भवती होती हैं। वे भी बच्चों को जन्म देती हैं, उन्हें दूध पिलाती और उनका पालन-पोषण करती हैं...इतने पर भी यह आर्य ब्राह्मण, जिनका जन्म स्त्रियों की कोख से होता है, यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं....ब्रह्मा के मुख में गर्भाशय नहीं है...।”15 (पृ.-256-257)

वस्तुतः कमलेश्वर जनतांत्रिक सोच और जनतांत्रिक दृष्टि को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। जनतंत्र में स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा दूसरे पिछड़े तबकों को समानता के अधिकार हासिल हैं लेकिन हकीकत में वे लगातार उत्पीड़ित व लांछित हो रहे हैं। कमलेश्वर सिद्धांत और व्यवहार के इस बड़े अंतराल को संबोधित करते हैं। आज भी ब्राह्मणवाद, वर्णवाद, पुंसवाद का व्यापक कहर समाज व देश पर हावी है। साम्प्रदायिक समस्याएं आज भी सिर उठा रही हैं। कमलेश्वर जनतांत्रिक दृष्टिकोण से ऐतिहासिक घटनाओं को देखते हैं और जनतांत्रिक दृष्टिकोण से ही उनका निदान प्रस्तुत करते हैं। सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा उसका अंग है। कमलेश्वर मनुष्य को धर्म, लिंग, जाति, नस्ल से ऊपर उठकर समानता के दृष्टिकोण से, विशुद्ध जनतांत्रिक दृष्टिकोण से देखने के पक्षधर हैं और इस उपन्यास के माध्यम से जनता में जनतांत्रिक विवेक निर्मित करने की कोशिश करते हैं।

 

 


संदर्भ-सूची --

 

1)Engineer, Dr. Asghar Ali, Dalwai, Shama, Mhatre, Sandhya,  Sowing Hate and Reaping Violence(The Case of Gujarat Communal Violence), New Age Printing Press, Mumbai, 2002, pp.– 10-16

2)चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडियासमग्रः हिंदू सांप्रदायिकता और मीडिया(भाग-5), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.- 218

3) Puniyani Ram(Ed.), Ayodhya: Mandir-Masjid Dispute (Towards Peaceful Solution), Engineer, Dr. Asghar Ali, A Brief Survey of Communal Situation in the Post Babri-Demolition Period, (http:/www.countercurrents.org)

4) कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 2000, 2010(बारहवां संस्करण), पृ. -93-94

5)वही, पृ.- 259-260

6)वही, पृ. 182

7)वही, पृ. -219

8)वही, पृ.-29

9)वही, पृ.-340

10)वही,पृ.-246

11)वही,पृ.-260

12)वही,पृ.-291

13)वही, पृ.-45

14)वही, पृ.-120

15)वही, पृ.-256-257

 

 

 

Sunday 6 September 2020

जगदीश्वर चतुर्वेदीः व्यक्तित्व एवं विचारधारा


आज हम ऐसे दौर में हैं जहां ज्ञानवान, ईमानदार, बेबाक, समय के पाबंद, विद्यार्थियों के साथ उदार एवं मित्रवत व्यवहार रखने वाले, समस्या के समय विद्यार्थियों को सही परामर्श देने वाले मर्मज्ञ शिक्षकों का घोर अभाव है। ऐसे वक्त में इन गुणों को अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्म के ज़रिये चरितार्थ करते हुए प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी शिक्षा जगत के लिए एक मिसाल हैं। प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी यानि अपने विद्यार्थियों के प्रिय ‘जे.सी. सर’। कलकत्ता विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं के लिए यह केवल एक शिक्षक को सम्बोधित करने का नाम भर नहीं है अपितु अपार ऊर्जा, प्रचंड साहस, प्रखर बुद्धिमत्ता, जानदार वक्ता, अथाह ज्ञान, जोशीला अंदाज़, हँसमुख स्वभाव, विचक्षण दृष्टि, भरपूर श्रद्धा, आंतरिक भरोसा एवं सम्मान का नाम है ‘जे.सी. सर’।

मैं पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर शहर से प्रेसिडेन्सी कॉलेज में स्नातक की पढ़ाई के लिए आई थी। जब स्नातकोत्तर के बारे में सोचा तो पहली उलझन यह थी कि प्रेसिडेन्सी से किया जाए(उस समय विश्वविद्यालय नहीं बना था लेकिन स्नातकोत्तर की पढ़ाई होती थी) या कलकत्ता विश्वविद्यालय से? मेरे माता-पिता, पिता के परिचित, मेरे कोलकाता में रहने वाले रिश्तेदारों की राय थी कि प्रेसिडेन्सी एक नामचीन कॉलेज है सो वहीं से करना चाहिए। मैंने अपने से एक साल वरिष्ठ दीदियों से पूछा कहाँ दाखिला लूँ तो उनका जवाब था, ‘तुम पागल हो यह सवाल पूछ रही हो? वहाँ जे.सी. हैं यार!’ मैंने पूछा ‘यह जे.सी. कौन हैं?’ यह सवाल पूछते ही सारे वरिष्ठ मुझे ऐसे निहारने लगे जैसे मैं कोई अजूबा प्राणी हूं जिसने ऐसा पूछा हो और जिसने जे.सी. का नाम न सुनकर बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। ऐसा था सर का प्रभामंडल जो कलकत्ता विश्वविद्यालय के बाहर तक फैला हुआ था! अंततः मुझे सर के बारे में जानकारी दी गई कि वे कितने प्रतिभाशाली और ज्ञानी हैं, जे.एन.यू. से पढ़कर आए हैं, उनके पढ़ाने का तरीका हिन्दी के आम शिक्षकों से बिल्कुल अलग है, कितने हैंडसम और स्मार्ट भी हैं आदि आदि। उन्होंने बताया कि वे प्रेसिडेन्सी कॉलेज में तृतीय वर्ष की छात्रा रहते समय ही कलकत्ता विश्वविद्यालय जाकर जे.सी. सर की कक्षा कर आई थीं। कुछ सर के ज्ञान से परिचित होने तो कुछ सर की सुंदरता को निहारने। मैं अचम्भित थी! मैंने ठान लिया था कि अब तो सी.यू. में ही दाखिला लेना है कारण वहां कोई ‘जे.सी.’ हैं। घर और रिश्तेदारों के ज़बरदस्त दबाव का सामना करके मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँची बस एक ‘जे.सी.’ नाम के भरोसे। यह मानकर कि वे जो कोई भी हों कोई तो बात होगी उनमें। उन्हें देखना है, जानना है, उनसे पढ़ना है।

जे.सी. सर वे हैं जिनसे स्नातकोत्तर पढ़ने के लिए विद्यार्थी प्रतिष्ठित कॉलेज और विश्वविद्यालय का मोह भी छोड़ सकते थे; जिनकी कक्षा छूट जाने पर अपना आना व्यर्थ मान लेते थे। किसी विद्यार्थी की ओर देखकर हँस देते थे तो वह धन्य धन्य हो उठता था। एम.ए. के दौरान आँखों देखा एक वाकया कुछ ऐसा हुआ— जे.सी. सर की कक्षा से पहले जिस शिक्षक की कक्षा होती थी वे नहीं आए। उनकी नामौजूदगी के कारण कुछ विद्यार्थियों ने जे.सी. सर को उनकी अपनी कक्षा के निर्धारित समय से एक घंटे पहले बुला लिया। उसी कक्षा के कुछ अन्य विद्यार्थी उस शिक्षक के न आने के कारण बाहर गए हुए थे। उन्हें इस बात की सूचना नहीं थी कि सर बुला लिए जाएंगे। वे बड़ी आशा लेकर घंटे भर बाद आए तो जानकर बहुत निराश हुए कि सर ने अपनी कक्षा निर्धारित समय से पहले ही ले ली। वे सीधे सर से ही लड़ने चले गए कि आप उन विद्यार्थियों के कहने पर कैसे मान गए? हम बाहर गए थे और आपकी कक्षा के लिए प्रतीक्षारत थे? आज तो हमारा आना ही व्यर्थ हो गया! ऐसी थी सर की लोकप्रियता! सर की कक्षा के लिए विद्यार्थियों की छटपटाहट!

सर की कक्षा सबसे अंत में होती थी लेकिन सुखद आश्चर्य यह कि सारे विद्यार्थी उनकी कक्षा के लिए अंत तक बैठे रहते थे। उनकी खासियत यह थी कि वे हर दिन आते थे और समय के बेहद पाबंद। पचास मिनट की कक्षा एक से लेकर डेढ़ घंटे तक तन सकती है लेकिन बीस मिनट पढ़ाकर अपने शिक्षण-दायित्व एवं कर्तव्य की इतिश्री समझना उनके स्वभाव का हिस्सा बिल्कुल न था। वे निर्धारित ढर्रे पर कभी नहीं पढ़ाते थे। उनके शिक्षण का तरीका सबसे जुदा था। पाठ्यक्रम में अंतर्भुक्त शीर्षकों के अनुसार निर्धारित पद्धति की पढ़ाई को सर ‘उपभोक्तावादी पद्धति की पढ़ाई’ मानते हैं। इस तरह की पढ़ाई विद्यार्थियों में सामाजिक व राजनीतिक चेतना नहीं जगाती, सही-गलत का विवेक पैदा नहीं करती। सर के अनुसार पाठ्यक्रम की पढ़ाई सीमित नज़रिया बनाती है। वह सोच के दायरे को संकीर्ण कर देती है, उसे व्यापक फैलाव का अवसर नहीं देती।

शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य होता है अधिक से अधिक सचेतनता पैदा करना। शिक्षा नागरिक चेतना पैदा करता है। लेकिन अभी शिक्षा एक तयशुदा पैटर्न बन गया है। यह पैटर्न जितना अनुत्पादक है, उतना ही क्षतिकारक। सूत्रबद्ध पढ़ाई जड़ता और बुद्धिहीनता को प्रश्रय देता है तो वहीं मौलिक सोच व चिंतन में सबसे बड़ी बाधा होती है। कॉलेज से पढ़कर जब विद्यार्थी कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाखिला लेते थे तो पाठ्यक्रम आधारित पढ़ाई के अभ्यस्त विद्यार्थी जे.सी. सर की कक्षा में द्वंदग्रस्त रहते थे कि पाठ्यक्रम में लिखित प्रत्येक बिन्दु-दर-बिन्दु क्यों नहीं पढ़ा रहे! करीब तीन-चार महीने बाद विद्यार्थियों को पता चलता था कि यही शिक्षण की सटीक प्रणाली है जिसका पता अब तक उन्हें न था। बस क्या था अब तो सर के ज्ञान, उनकी दृष्टि, उनके विचार को जानने के लिए उनके जोशीले अंदाज़ वाली कक्षा हर विद्यार्थी के लिए अनिवार्य बन जाता था। वे तूफ़ान की तरह प्रवेश करते थे और पूरी कक्षा को नये विचारों से लबरेज़ करके जाते थे। पीएच.डी. कोर्स-वर्क के समय भी सर की कक्षा के वक्त पूरी कक्षा भर जाती थी। अन्य शिक्षकों के पाठ्यक्रम से संबंधित जिज्ञासाओं का समाधान भी जे.सी. सर की कक्षा में होता था। विद्यार्थी यह मानकर चलते हैं कि सर के पास हर जिज्ञासा का समाधान है।

दिलचस्प यह कि उनसे असहमत होने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी कम नहीं। इस असहमति के बावजूद वे उनके ज़बरदस्त मुरीद और इस बात के प्रति सहमत कि सर असाधारण पढ़ाते हैं। पढ़ाते समय रपटनदार भाषा का प्रयोग सर कभी नहीं करते थे। उनके पढ़ाने की शैली काफ़ी ‘बोल्ड’ और खुली होती थी। समाज में यह धारणा बनाई गई है कि प्रकांड विद्वान बड़े गंभीर ढंग से, धीरे-धीरे, रुक-रुककर एक-एक शब्द श्रोताओं के समक्ष रखते हैं। कई प्रोफेसर इस धारणा का अक्षरशः पालन करते हुए भी पाए जाते हैं। सर ने अपनी अध्यापन-शैली के द्वारा इस पुराने ‘क्लीशे’ को तोड़ा है और अध्यापन की एक नई शैली स्थापित की है। जे.सी. सर का पढ़ाना ऐसा था जैसे वे हँस-हँसकर विद्यार्थियों से वार्तालाप कर रहे हों। वे विद्वता-प्रदर्शन का भाव बिल्कुल नहीं रखते थे अपितु विद्यार्थियों से सहज एवं मित्रसुलभ ढंग से पेश आते थे। दूसरी ओर बिना विराम के धाराप्रवाह बोलने के लिए सर मशहूर हैं। सर ने इसे प्रमाणित किया कि ज्ञान किसी तयशुदा नियम में बंधा नहीं होता और प्रकृत ज्ञानी नकली व्यक्तित्व ओढ़कर नहीं चलते। पढ़ाते समय किसी संजीदे विषय को नीरस ढंग से न पढ़ाकर उसकी उपादेयता को समझाने के लिए यथार्थ से, जन-जीवन से तथ्य और उदाहरण देते रहते थे। कभी खूब हँसना और हँसाना तो कभी खूब गंभीर रवैया, हर बेंच की ओर घूमकर पढ़ाना उनके अध्यापन की विशेषता थी। जे.एन.यू के अपने छात्र-जीवन के संघर्षों तथा अनुभवों को बीच-बीच में सुनाकर विद्यार्थियों का हौसला-अफ़ज़ाई करते रहते थे। कई विद्यार्थियों की ज़िंदगी बदलने में भी उनकी अहम भूमिका रही है।

जे.सी. सर के व्यक्तित्व के प्रभाव को समझने के लिए स्नातकोत्तर के दौरान का एक अनुभव बताना ज़रूरी है। मेरी एक बंगाली दोस्त है जो बिल्कुल मेरे बगल में बैठती थी। उसने एक दिन अपने ममेरे भाई को अपनी कुछ किताबें देने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय बुला लिया। कहा ठीक ढाई बजे ही आना; दस मिनट पहले आना लेकिन बाद में मत आना। उस दिन ठीक ढाई बजे जे.सी. सर की कक्षा होती थी। मुझसे कहा कि आज एक चीज़ होगी जो तुम्हें बाद में बताऊंगी। ढाई बजे तक जिस शिक्षक की कक्षा थी वे पढ़ाकर निकले तो उसका भाई बाहर खड़ा था। मेरी दोस्त किताबें लेकर गई और तीन-चार मिनट बात करती रही जब तक जे.सी. सर स्टाफ़रूम से न निकले और हमारी कक्षा में न प्रवेश करें। ज्योंही सर निकले वह तुरंत बोली ‘सर आश्छेन...’। उसके भाई ने सर को मुड़कर देखा और पूछा, ‘इनी सर?’ सर दोनों के सामने से आकर कक्षा में प्रवेश किए। मेरी दोस्त भी कक्षा में घुस गई। मेरे पास बैठकर बोली कि उसने सर को देख लिया; मैं यही चाहती थी। मैंने पूछा कि इससे क्या होगा? उसने कहा, ‘पॉरे बोलबो तोके’(बाद में बताऊँगी)। अगले दिन आकर बोली कि उसके भाई ने फ़ोन पर पूछा, ‘तोमादेर सर तो भीषोन शुंदोर आर स्मार्ट! कि बेक्तित्तो! उनी हिन्दी पॉरान? ओनार नाम की?’ (तुम लोगों के सर तो बहुत सुंदर और स्मार्ट हैं! क्या व्यक्तित्व है! उनका नाम क्या है?)

बस क्या था! उस लड़की ने तुरंत जे.सी. सर की लंबी फ़ेहरिस्त दे डाली, “वे जे.एन.यू. से पढ़कर आए हैं, सिर्फ़ सुंदर ही नहीं हैं असामान्य मेधावी भी हैं...मीडिया पढ़ाते हैं....बहुत पढ़ते हैं और खूब सारी किताबें लिख चुके हैं....पढ़ाते समय अंग्रेज़ी शब्दों का बीच-बीच में प्रयोग करते हैं। वैसे ये तो कुछ भी नहीं हैं और भी हैंडसम और स्मार्ट शिक्षक हैं हिन्दी विभाग में...” हालांकि वह खुद भी जानती थी कि जे.सी. जैसे कोई नहीं तभी सर की कक्षा के पहले भाई को हिन्दी विभाग का दृष्टांत पेश करने के लिए बुलाई थी। दरअसल मेरी दोस्त इस बात को लेकर परेशान थी कि बंगालियों में हिन्दी विभाग के शिक्षकों के बारे में एक किस्म की धारणा प्रचलित है जिसे वह बदलना चाहती थी। इसीलिए उसने यह सारा प्रपंच रचा और पुरानी धारणा को तोड़ने के लिए एकमात्र मुकम्मल इंसान हैं जे.सी. सर और उनका सम्मोहक व्यक्तित्व।

आदर्श शिक्षक का कोई पैमाना नहीं होता लेकिन बेहतरीन शिक्षक वह होता है जो विद्यार्थियों में देश की समसामयिक समस्याओं के प्रति बोध निर्मित करता है। वर्तमान राजनीतिक, समाजार्थिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति जागरुकता पैदा करता है, लोकतांत्रिक चेतना पैदा करता है। जे.सी. सर नोट्स आधारित पढ़ाई और नौकरी केन्द्रित पढाई के घोर विरोधी हैं तो दूसरी ओर प्रयोजन-मुक्त पढ़ाई या ज्ञानार्जित पढ़ाई के प्रबल समर्थक। स्नातकोत्तर में मीडिया पढ़ाते समय सर साम्प्रदायिकता जैसी समस्या की गंभीरता पर खूब बात करते रहे हैं। उसके असली कारण और कट्टरपंथी ताकतों के मंसूबों, उपभोक्तावाद, पितृसत्ता की आंतरिक रणनीति एवं उसके अंतर्विरोध उनकी चिंता के केन्द्र में होते थे। स्त्रीवाद पढ़ाते समय छात्राओं के अंदर लगातार संवैधानिक अधिकारों को लेकर सचेतनता निर्मित किया करते थे।

पीएच. डी. के दौरान शोध-निर्देशक खोजते समय मुझे खासा दिक्कत का सामना करना पड़ा। उसी साल यू.जी.सी. ने यह नियम तय कर दिया कि किसी भी निर्देशक के अंतर्गत अधिकतम स्कॉलरों की संख्या आठ होगी। एक तो मेरा कलकत्ता विश्वविद्यालय के किसी भी प्रोफेसर से कोई व्यक्तिगत जान-पहचान न था, दूसरा, किसी भी निर्देशक के पास जगह खाली न थी। मैंने दो-तीन कॉलेज के प्रोफेसरों से बात की लेकिन बाद में पता चला कि चूँकि मैं जे.आर.एफ़ थी सो यह नियम था कि मुझे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही पढ़ाने वाले किसी शिक्षक के साथ अपना पंजीकरण करना होगा।

मैं ऐसी दशा में पहुंच चुकी थी कि कोई न ले पाए और मैं अपने जे.आर.एफ. से हाथ धो बैठूं। पंजीकरण करने के बाद उसका प्रमाण दिल्ली भेजने की अंतिम तारीख में बस एक सप्ताह बाकी था। विश्वविद्यालय के जे.आर.एफ. विभाग से लगातार तगादा दिया जा रहा था। मेरी आर्थिक परिस्थिति भी ऐसी न थी कि बिना आर्थिक सहयोग के थीसिस लिख लूँ और वह भी अपने घर से दूर पेयिंग-गेस्ट में रहकर। एम.ए. प्रथम श्रेणी और जे.आर.एफ. हाथ में लेकर मैं एक प्रोफेसर से दूसरे प्रोफेसर के पास जाती रही लेकिन नकारात्मकता ही हाथ लगी। किसी प्रोफेसर ने उत्तरबंग विश्वविद्यालय में आवेदन करने का परामर्श भी दे डाला। ऐसी हताश अवस्था में एकमात्र सकारात्मक व्यवहार जे.सी. सर से मिला।

हालांकि सर से जुड़ने के लिए विद्यार्थी दो-ढाई साल तक प्रतीक्षा करते थे लेकिन इस विकट समस्या और मेरी पीएच.डी. के प्रति प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए अततः जे.सी. सर मेरे शोध-निर्देशक बनने के लिए राज़ी हो गए। मुझे लेने का एक और कारण मेरा गैर-तिकड़मी होना भी रहा है, सर तिकड़मी विद्यार्थियों को सख्त नापसंद करते थे। निर्धारित अंतिम दिन के दो दिन पहले मेरा पीएच.डी. में पंजीकरण हुआ। सर उस दिन साथ न होते तो न मुझे जे.आर.एफ. की सुविधा मिल पाती न मेरी थीसिस ही लिखी जाती। उनका मानना है कि लड़कियाँ अनेक बाधाएँ तोड़कर आगे आती हैं, उनकी हर तरह से सहायता की जानी चाहिए। इत्तेफ़ाक से उनके साथ जुड़े विद्यार्थियों में लड़कियों की संख्या अधिकतम रही है। सर तहेदिल से चाहते थे कि लड़कियाँ बढ़िया से शोध-प्रबंध लिख ले, इसके लिए सर भरपूर विचारात्मक, ज्ञानात्मक और किताबों से सहयोग देते रहे। यह भी सत्य है कि पढ़ने, मेहनत करने एवं किताबें खरीदकर खूब पढ़ने वाले विद्यार्थी उनके प्रिय रहे हैं। शोधार्थियों से घर का काम करवाना, रसोईघर में सब्ज़ी-पराठे बनवाना उनकी आदत में शुमार नहीं था अपितु इस तरह की मानसिकता से सर घृणा करते हैं। वहीं अपने घर आए विद्यार्थियों को स्वयं अपने हाथों से पकाकर खिलाते रहे हैं।

अन्य शोध-निर्देशकों के अंतर्गत काम करने वाले शोध-छात्राओं की जे.सी. सर को लेकर जो उत्सुकता थी वह काबिल-ए-गौर और दिलचस्प थी। मेरे शोध-निर्देशक का नाम पता चलते ही किस्म-किस्म के अजीबोगरीब सवाल विभिन्न विद्यार्थियों के मन के अंधेरे तहों से झांकते हुए मुझ तक पहुँचते थे। सवालों के साथ-साथ उनके गंभीर सुझाव भी आते थे। कुछ नमूने पढ़िए— “सर से घर में मिलती हो? अगर घर नहीं जाती हो तो जाना चाहिए। कहाँ बैठती हो? सोफ़े हैं घर में? कितने रूम हैं? क्या! नहीं पता! तुम्हें घूमकर देखना चाहिए पूरा घर। घर में डाइनिंग टेबिल है? कहाँ खाते होंगे? घर का राशन सर खुद खरीदते हैं? नौकरानी है घर पर या सारा काम खुद करते हैं? घर में क्या पहनते हैं?” ऐसे ही कितने गैर-अकादमिक सवाल थे जो कायदे से शिक्षक को लेकर नहीं पूछे जाने चाहिए। ऐसे ही किसी उत्सुक शोधार्थी(मेरी हमउम्र) ने शोध-निर्देशक का नाम पूछा तो मैंने बहुत धीरे से कह दिया ‘जे.सी. सर’। उसे सुनाई न दिया तो ज़रा ज़ोर से कहा। वह सुनते ही चहक उठी, बोली, “सर का नाम इतने धीरे ले रही हो। तुम भाग्यशाली हो सर मिले हैं बतौर गाइड। तुम्हें सर का नाम ज़ोर से उच्चारण करना चाहिए।” फिर उच्चारण करके समझाने लगी कि ऐसे कहो। जैसे सर न हुए इलेक्ट्रिक शॉक हुए! ऐसा था ‘जे.सी.’ नाम का आकर्षण!

बतौर निर्देशक सर ने सबसे पहली बात जो कही वह थी, प्रथम श्रेणी की किताबें पढ़ोगी; द्वितीय या तृतीय श्रेणी की नहीं। शुरु में मेरे लिए पुस्तकों में प्रथम और द्वितीय का भेद करना ज़रा मुश्किल था लेकिन काम करते हुए मैं स्वयं इससे वाकिफ़ होने लगी। यह ज्ञान जीवनभर के लिए मेरी पूँजी बनी हुई है। अपने साथ काम करने वाले विद्यार्थियों को तराश कर निखारने में सर की विशिष्ट भूमिका रही है। मुझे प्रथम अध्याय ‘जनतंत्र’ पर लिखना था जिसके लिए राजनीति-विज्ञान की किताबों को पढ़ना ज़रूरी था। मैंने सर से कुछ महत्वपूर्ण किताबों का नाम पूछा तो उन्होंने शुरु में ही ‘कन्स्टिट्यूशन असेम्ब्ली डिबेट्स’ (Constitution Assembly Debates) पढ़ने के लिए कहा। यह बारह खंडों में विशालकाय किताबों का संकलन है। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का भरपूर प्रयोग करते हुए सारे खंड पढ़ लिए और इसने मेरे दृष्टिकोण और लेखन की दिशा को बदलने में अहम भूमिका अदा की।

मैंने पी.एच.डी. के पाँच साल के अपने कार्यकाल के तहत दो पुस्तकें लिखने का काम किया। पहली, मेरी थीसिस तथा दूसरी ‘बलात्कार, संस्कृति और स्त्रीवाद’ शीर्षक पुस्तक। यह दुनिया में पहली और आखिरी घटना होगी कि किसी गाइड ने अपनी शोध-छात्रा को बिना परेशान किए शोध लिख लेने के बाद बचे हुए कार्यकाल में दूसरी किताब लिखने की अनुमति दे दी। मैंने समय का सदुपयोग किया और दो किताबों को अंजाम दे दिया। बलात्कार वाली किताब लिखते समय किसी भी शंका व दुविधा के दौरान लगातार सर से बहुमूल्य सहयोग मिलता रहा।

हालांकि सर ने बतौर शोध-निर्देशक हर तरह सहयोग किया। लेकिन उनका मानना है कि नौकरी खोजने का कर्म स्वयं का है। विद्यार्थियों को पीएच.डी. में लेते समय पहले ही कह देते थे कि वे नौकरी लगाने में मदद नहीं करेंगे। यह जानते हुए भी जो विद्यार्थी उनसे जुड़े हैं उनमें लड़कियों की संख्या अधिक है। यही वजह है कि जे.सी. सर लड़कियों को साहसी मानते आए हैं। वे मानकर चलते हैं कि विद्यार्थी अपनी लड़ाई स्वयं लड़ना सीखें। इस तरह वे परनिर्भरता के बजाय आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देते रहे हैं।

हालांकि सर की विशेषज्ञता का क्षेत्र मीडिया है लेकिन उन्हें राजनीतिक विषय विशेष पसंद है। वे हिन्दी साहित्य तथा साहित्य के अतिरिक्त किसी भी विषय पर चाहे पर्यावरण हो, आदिवासी हो, फ़िल्मी नायक-नायिका हो, पक्षी हो पर ज्ञानवर्धक और सरस ढंग से घंटों बोल सकते हैं। संगोष्ठी में बुलाने वाले उन्हें आम तौर पर स्त्री-विमर्श या मीडिया पर ही बोलने के लिए बुलाते हैं जबकि वे अन्य विषयों पर इतनी गहन जानकारी रखते हैं कि जब तक आप न सुनें आप समझ न पाएं। संगोष्ठियों में अन्य वक्ताओं के बाद जब जे.सी. सर बोलने आते थे तो बोरियत की पराकाष्ठा तक पहुँच चुके सुप्तप्राय श्रोताओं को झकझोर देते थे। सिर्फ़ अपनी तेज़ आवाज़ और दमदार भाषण-शैली से ही नहीं अपने मौलिक दृष्टिकोण से भी वे श्रोताओं में हलचल, जिज्ञासा और कौतूहल पैदा कर देते हैं। यह संभव ही नहीं कि आपने उनका भाषण सुना और उन्हें भूल गए। वे बोलते नहीं हैं सिहरन पैदा करते हैं। उनकी बातें चेतना की गहराई में धँस जाती है, नयी दृष्टि देती है, पढ़ने का नया उत्साह जगाती है। संगोष्ठियों में भाषण के ज़रिये जिनकी धारणाओं का खंडन करते थे, वे उनके तीखे शब्दबाणों से काफ़ी दिन तक घायल पड़े रहते थे।

स्त्री-साहित्य या स्त्रीवाद पर जितना शानदार भाषण सर देते हैं वैसा ऊर्जस्वित करने वाला भाषण शायद ही कोई दे पाए। लक्ष्य करने वाली बात यह है कि पितृसत्ता के प्रति उनकी घृणा केवल लेखन का विषय मात्र नहीं है; उनके ज़ेहन व उनकी चेतना का अंग है। इसके लिए वे रामचंद्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक को भी नहीं बख्शते। यही वजह है कि स्त्री पर बात करते समय वे पुंसवाद की परतें खोलकर पुंसवाद की बेहद तीक्ष्ण आलोचना करते हैं। पढ़ाते समय विद्यार्थियों को दहेज-प्रथा, बुर्क़ा जैसे सामंती आचारों से मुक्त करने का सचेत प्रयत्न भी करते रहे हैं। इसमें सफल भी हुए हैं। उनके मानवीय आचरण के कुछ नमूने हमारे बैच में ही घटित हुए। जिस समय मैं एम.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा थी उसी बैच में दो लड़कियाँ गर्भवती थीं। जुलाई में जिस समय परीक्षा होनी थी उसी समय उनका प्रसव होना था। सो उन्होंने सर से अनुरोध किया(उस समय जे.सी.सर विभागाध्यक्ष थे) कि परीक्षा कुछ दिन पीछे कर दी जाए। सर ने परीक्षा सितंबर में तय करके पूरी कक्षा में यह बात कही और उन तीनों की समस्या के प्रति उदार और संवेदनशील होने के लिए कहा। स्त्रीवादी होना सिर्फ़ लेखन का विषय नहीं है उसे व्यवहार में भी चरितार्थ करना होता है। सर ने हर संभव तरीके से इसे कर दिखाया।

शिक्षक केवल उन्हीं विद्यार्थियों के नहीं होते जिन्हें उन्होंने पढ़ाया है। वे हर एक जिज्ञासु के होते हैं। सर सिर्फ़ विचार और लेखन में ही जनपक्षधर नहीं हैं इसे उन्होंने अपने कर्म में भी उतारा है। किसी भी निर्देशक के अंतर्गत काम करने वाले विद्यार्थियों को अगर काम के सिलसिले में कोई सवाल पूछने हों, चाहे वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हों या बंगाल के बाहर के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय के हों, सर तुरंत अपने मौलिक विचारों का सम्भार खोलकर उनके हितयशी बन जाते हैं। कल या परसों फ़ोन कीजिए या अलां-फलां दिन मिलिए तब हम अपने ज्ञान का पिटारा खोलेंगे या सोचकर बतायेंगे वाली मनोदशा व व्यक्तित्व सर की कभी नहीं रही। वे तत्क्षण किसी भी विषय पर बिना पूर्व तैयारी के बोल सकते हैं। किसी भी परिचित या अपरिचित विद्यार्थी की कभी भी मदद कर देते हैं।

सर को सबसे ज़्यादा पसंद है अपने साथ जुड़े शोधार्थियों के साथ खुलकर हर विषय पर बात करना और उनकी बातें सुनना। अधिकांश शिक्षक शोधार्थियों को स्पेस नहीं देते, वे स्वयं बोलते हैं लेकिन अपने विद्यार्थियों की नहीं सुनते। परंतु जे.सी. सर विद्यार्थियों को एक स्वतंत्र स्पेस देते रहे हैं। यही वजह है कि उनसे जुड़े सारे शोधार्थी खुलकर अपने मन के विचार, अपनी दुविधा, व्यक्तिगत दुख-सुख आदि साझा करते रहे हैं और सर से उचित परामर्श लेते रहे हैं। शोध-विषय से संबंधित बात करने के लिए सर को कभी भी मुकरते या व्यस्तता का अभिनय करते नहीं देखा। वे तुरंत बुलाते थे और शंकाओं का समाधान कर कुछ अच्छी पुस्तकों का नाम बताते या कभी-कभी पुस्तक पढ़ने के लिए देते थे। वास्तव में एक शोध-निर्देशक की भूमिका प्रेरक की होती है। शोधार्थियों को परेशान करना, उनसे कहना कि एक अध्याय लिखकर लाइए तब फ़ेलोशिप के फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर करेंगे, उन्हें किसी जगह बुलाकर उनसे न मिलना आदि खराब आदतें उन्हें कतई पसंद नहीं। सर ने ऐसा कभी किया भी नहीं। वे शोधार्थियों के लिए प्रेरणाश्रोत का काम करते रहे हैं। सर मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहे हैं और सदा रहेंगे।

सर के शख़्सियत की खासियत है कि वे मार्क्सवादी और उदारचेता दोनों हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी वे विरोधी विचारधारा के लोगों के साथ सहृदयतापूर्वक वार्तालाप करते हैं। ज्ञान की अपनी गरिमा होती है। यह गरिमा सर में समाहित है। उनकी किताब से उनका ज़िक्र न करते हुए हूबहू उतारने वालों के बारे में उनकी राय है कि करने दो, ज्ञान का विस्तार हो रहा है....यही तो हमारा उद्देश्य है कि जनमानस में नये और अच्छे विचार फैले।

अब तक सर की लगभग पैंसठ किताबें प्रकाशित हो चुकी है। वैसे तो उनकी हर किताब महत्वपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक है लेकिन कुछ खास किताबों का ज़िक्र करना चाहूँगी जिसे हिन्दी साहित्य के हर विद्यार्थी को पढ़ना चाहिए। मसलन् ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’, ‘मीडिया समग्र’, ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’, ‘उत्तर-आधुनिकतावाद’, ‘कामुकता, पॉर्नोग्राफी और स्त्रीवाद’, ‘उंबर्तो इको, चिह्नशास्त्र, साहित्य और मीडिया’(मीडिया सिद्धांतकार-4) आदि।

‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ हिन्दी साहित्य में स्त्रीवादी दृष्टिकोण से लिखी गई आलोचना की पहली पुस्तक है। हिन्दी साहित्य में स्त्री रचनाकारों की पहचान भक्तिकाल में मीरा और आधुनिक काल में महादेवी तक सिमटकर रह गई थी। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस सीमित पहचान को विस्तार दिया और पुरुष-आलोचकों की कलम-शिलाओं तले दबी पड़ी उपेक्षिता कवयित्रियों एवं निबंध लेखिकाओं को उनकी रचनाओं सहित पुनर्जीवित किया।

इतिहास ग्रंथों की मानें तो निर्गुण काव्यधारा की शुरुआत कबीर एवं अन्य संत पुरुष कवियों से होती है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने सावित्री सिन्हा की शोध-पुस्तक ‘मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ’ के हवाले से उमा और पार्वती से भक्तिकाल का एवं निर्गुण काव्यधारा का आरंभ माना है। उन्होंने मध्यकाल के स्त्री रचित काव्य को दो वर्गों में विभक्त किया—पहला लोकप्रिय स्त्रीवादी काव्यधारा तथा दूसरा अभिजनवादी स्त्री काव्यधारा। लोकप्रिय स्त्रीवादी काव्यधारा में उमा, पार्वती, मुक्ताबाई, झीमा चारिणी, मीराबाई, गंगाबाई, रत्नावली, शेख रंगरेजन, ताज, सुंदर कली, इंद्रामती, दयाबाई, सहजोबाई आदि कई कवयित्रियाँ आती हैं। अभिजनवादी स्त्री काव्यधारा में महारानी सोन कुंवरि, वृषभानु कुंवरि, चंपा दे, ठकुरानी काकरेची, मधुर अली, पद्माचारणी, प्रवीण पातुर राय, रूपवती बेगम, जुगल प्रिया आदि आती हैं।

यह दुखद है कि किसी भी विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में भक्तिकाल की पहली कवयित्री के तौर पर उमा और पार्वती की कविताएं अब तक शामिल नहीं हो पाई, अन्य कवयित्रियों एवं लेखिकाओं की तो बात ही क्या! प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं सुधा सिंह की ‘स्त्री-काव्यधारा’ शीर्षक पुस्तक में इन्हीं मध्यकालीन एवं आधुनिककालीन (सन् 1388-1950 तक) कवयित्रियों की चुनिंदा कविताएं संकलित है तथा ‘स्वाधीनता-संग्राम, हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र’ शीर्षक पुस्तक में विभिन्न आधुनिक लेखिकाओं द्वारा देश की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों एवं समस्याओं पर लिखा गया विचारशील निबंध संकलित है।

‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ पुस्तक पितृसत्तात्मक साहित्य की गंभीर आलोचना तथा स्त्रीवादी साहित्यालोचना की दृष्टि से स्त्री-साहित्य के इतिहास-लेखन एवं मूल्यांकन पर केन्द्रित है। इस पुस्तक में संस्कृत स्त्री लेखिकाओं एवं पुरुष लेखकों के काव्यों का विस्तार से विवेचन हुआ है। स्वतंत्रता-पूर्व एवं स्वातंत्र्योत्तर स्त्री साहित्य, लेस्बियन स्त्री-साहित्य सैद्धांतिकी पर भी गंभीरता से विवेचन हुआ है। एलेन शोवाल्टर, मिशेल बरेट, ज्यांक लाकां, लूस इरीगरी, हेलिनी सिक्साउस, एद्रीनी रीच आदि विभिन्न स्त्रीवादी सिद्धांतकारों के सिद्धांतों एवं स्त्री भाषा संबंधी चिंतन का विश्लेषण किया गया है। राजेंद्रबाला घोष, उषा देवी मित्रा, कमला चौधरी, होमवती देवी, सत्यवती मल्लिक, शिवरानी देवी, महादेवी वर्मा से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान तक के कथा-साहित्य का भी मूल्यांकन हुआ है।

कुल मिलाकर स्त्री साहित्य एवं विचारधारा की विस्तृत जानकारी हेतु यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के लिए एक बहुमूल्य धरोहर से कम नहीं। इस पुस्तक के प्रकाशित होने का सकारात्मक परिणाम यह निकला कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में ‘स्त्री-साहित्य’ का समावेश हुआ एवं अनेक अनुसंधानात्मक कार्य भी हुए और लगातार हो रहे हैं।

प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी की दूसरी महत्वपूर्ण कृति ‘मीडिया समग्र’ है। यह कुल ग्यारह खंडों में है। मीडिया समग्र समय-समय पर प्रकाशित मीडिया संबंधित पुस्तकों में से चुनिन्दा पुस्तकों का संग्रह है। इसमें हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास का मास-मीडिया के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण हुआ है। इस पुस्तक में माध्यम, जनमाध्यम से लेकर जनसंचार माध्यम की संचार क्रांति के इतिहास, उसकी विचारधारा, संस्कृति और समाज के अंतस्संबंधों का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिकता, युद्ध और आतंकवाद, माध्यम साम्राज्यवाद, ब्लॉगिंग तथा साइबर संस्कृति पर भी पूरी संजीदगी से विचार-विमर्श हुआ है। कहा जा सकता है कि मीडिया की अंतर्वस्तु, उसकी आंतरिक रणनीति, समाज एवं संस्कृति पर उसके प्रभाव को समझने के लिहाज से मीडिया समग्र का कोई विकल्प नहीं।

‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ पुस्तक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनरावलोकन हुआ है। हिन्दी साहित्य के जितने भी इतिहास अब तक लिखे गए हैं वे सब पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लिखे गए हैं। यही वजह है कि उसमें स्त्री और दलित साहित्येतिहास सिरे से गायब है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विधेयवादी इतिहास-दृष्टि के अंतर्गत जो नायककेंद्रित मॉडल चुना है, उससे साम्प्रदायिक नज़रिये का विस्तार होता है। उनका मानना है कि दलित तथा स्त्री साहित्येतिहास को हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल किया जाए। साथ ही इतिहास के नए परिप्रेक्ष्य में नई विधाओं जैसे फिल्मी पटकथा, सीरियल पटकथा आदि को भी हिन्दी साहित्य का हिस्सा माना जाए।

जे.सी. सर के लेखन की धुरी है अंतर्विषयवर्ती दृष्टिकोण। उनके लेखन का फ़लक काफ़ी बड़ा है। जहाँ मार्क्सवादी विचारधारा मदद नहीं करती वहां उन्होंने अन्य विचारधारा को अपने मूल्यांकन का आधार बनाया है। मसलन् स्त्रीवाद, विखंडनवाद, मनोविज्ञान, मानवाधिकार का दृष्टिकोण आदि। अंतर्विषयवर्ती दृष्टि आधुनिक मार्क्सवादी दृष्टि है जिसका उन्होंने विभिन्न दायरे के लेखन के क्षेत्र में प्रयोग किया है। उनके लेखों में मानवाधिकार का दृष्टिकोण भी प्रबल है। भारत जैसे बहुलतावादी सांस्कृतिक देश में मानवाधिकार के धरातल पर ही समन्वयवादी समाज की स्थापना संभव है।

वर्तमान युग में किसी भी इंसान के लिए जनतांत्रिक चेतना एवं नज़रिए का विकास बेहद ज़रूरी शर्त है। लोकतंत्र का अर्थ केवल मतदान नहीं होता; लोकतंत्र का अर्थ आचरण भी होता है। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक नियम के साथ-साथ लोकतांत्रिक मनुष्य का अस्तित्व भी ज़रूरी होता है। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र अधूरा है। जे.सी. सर ने लोकतांत्रिक चेतना, लोकतांत्रिक मूल्य तथा लोकतांत्रिक आचरण को अपने सम्पूर्ण चरित्र में विकसित किया। एक लेखक एवं चिंतक के तौर पर किसी विचार पर लिखना और बतौर शिक्षक एवं इंसान उस विचार को आचरण में उतारना मुश्किलदेह हुआ करता है। किसी भी पद-प्रतिष्ठा से मोहमुक्त रहते हुए, एक सामान्य जीवन जीते हुए सर ने अपने शिक्षण-दायित्व का पूरी ईमानदारी के साथ निर्वाह किया। अपनी विचारधारा के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध रहते हुए देश की समसामयिक महत्वपूर्ण समस्याओं पर बिना विचलन के उन्होंने लगातार लिखा और अभी भी लिख रहे हैं। किसी भी राजनीतिक दल का जनविरोधी पक्ष चाहे वह साम्प्रदायिकता का सवाल हो या जन-उत्पीड़न का, जे.सी. सर ने उसके खिलाफ़ लगातार अपनी जनपक्षधर आवाज़ उठाई। यही बात एक लोकतांत्रिक मनुष्य होने का प्रमाण है।

 


पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...