Tuesday 23 May 2023

पुस्तक और अवसरवाद

 


मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से पुस्तकों को हाथ में लेकर पढ़ने तथा मनन करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। वे केवल इतना जानते हैं कि पुस्तक पढ़ने वालों को लोग सराहते हैं तो अगर मैं पुस्तकों को सजाकर रखूं तो लोग मेरी बड़ी तारीफ़ करेंगे। नामचीन लेखकों द्वारा लिखित जनप्रिय पुस्तकों को ऐसे लोग कांच के उस पार सजाकर रखते हैं।

इसी तरह कुछ लोग केवल पुस्तकों का नाम याद कर लेते हैं और सामने वाले को परेशान करने के लिए सद्य प्रकाशित विभिन्न पुस्तकों का धड़ल्ले से नाम बताते रहते हैं। यह अन्य के सामने स्वयं को अपडेटेड दिखाने का तरीका है। साथ ही पुस्तकों की सूचना के ज़रिए स्वयं को ज्ञानवान दिखाने का काल्पनिक छद्म भी है। किताब की अन्तर्वस्तु से इस तरह के लोगों का कोई संबंध नहीं। वे ना पढ़ते हैं, ना ही पढ़ाते हैं।

एक अन्य वर्ग है जो इंटरनेट से ज्ञान प्राप्त करके कुछ पुस्तकों का नाम जान लेते हैं, नेट पर उपलब्ध कुछ अंश पढ़ लेते हैं और फिर पढ़ने वालों के समक्ष यह भ्रम पैदा करते हैं कि उन्होंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है। 

एक और वर्ग है जिसके सामने आप किसी भी पुस्तक का नाम लेते जाइए, वे तुरंत कहते जाएंगे कि उन्होंने वे सारी पुस्तकें पढ़ ली है। अगर आप इन सारी पुस्तकों के भीतर से कोई आलोचनात्मक सवाल उठाएंगे तो वे बड़े नज़ाकत से कहेंगे कि बहुत गंभीर विषय है, इस पर कभी विस्तार से चर्चा करने की जरूरत है। लेकिन वह 'कभी', कभी भी नहीं आता। इसे पलायनवाद कहते हैं जो वास्तव में अविद्या की उपज है। 

प्रदर्शन को जीवन की पूंजी मानना पुस्तक के साथ साथ स्वयं का भी अनादर है। जीवन का मूल धन तो पुस्तकों के भीतर प्रवेश करके ही प्राप्त होता है। ज्ञान से बढ़कर कोई पूंजी नहीं। ज्ञान से बढ़कर कोई मित्र नहीं। ज्ञान से बढ़कर कोई शक्ति नहीं।

Friday 7 April 2023

वेदिक विलेज का सत्य

 


उत्तर-सत्य युग में हम छद्म में जीने के अभ्यस्त हो रहे हैं। छद्म सौन्दर्य, छद्म आनंद, छद्म फोटो-सुख, छद्म गांव-भ्रमण और छद्म अनुभूति। शहरी जीवन की यांत्रिकता एवं उबाऊपन से निकलने के लिए सुख का जो आभासीकरण हुआ है, उसने व्यवसायीकरण के नए मानक को जन्म दिया है।


पिछले कई दशकों से गांव लगातार उजाड़े जा रहे हैं और गांवों का लगातार शहरीकरण हो रहा है।  लाल मिट्टी की पगडंडियाँ लगातार काले कांक्रीट की चौड़ाइयों में बदल रही है। हरियाली को जड़ से उखाड़कर नई-नई अट्टालिकाएं, फैक्ट्रियाँ लाई जा रही हैं। नदियाँ मुसलसल दूषण से प्रभावित होकर अपना नीलापन और पारदर्शिता खो रही हैं। नदियों के किनारे कारखाने और नदियों के ऊपर लगातार बन रहे बाँधों के सिलसिलों ने नदियों के अस्तित्व को चुनौतीपूर्ण बना रखा है। लेकिन इन सबके मध्य एक मजेदार तथ्य यह भी है कि शहरों में नए कृत्रिम गांव बसाए जा रहे हैं, उनका सौंदर्यीकरण हो रहा है और उन्हें 'विलेज-रिसॉर्ट' या ‘वेदिक विलेज’ के चमकदार नाम से पुकारा जा रहा है। यानि वेद कालीन गाँव! यह सामयिक या क्षणिक गाँव-भ्रमण है। वास्तव में यह बाज़ारवाद का नया खेल है और हम शहरी जनमानस फ़िलवक्त इस खेल का ज़रूरी अंग बन रहे हैं।

महंगे शहरों में या इनके आसपास इस तरह के रिसॉर्ट बनाए जा रहे हैं और इनके अलग-अलग नामकरण हो रहे हैं। वहां मिट्टी के कच्चे घर जैसे नकली व आकर्षक घर बनाए जा रहे हैं। पुआल के छत बनाकर घरों के बाहर हाथ-पंखे, लालटेन, कुर्सी आदि से सजाकर घरों को ग्रामीण प्रतिरूप दिया जा रहा है। कुआं आदि बनाकर कृत्रिम जलाशयों के आसपास कुछ पेड़-पौधे लगाए जाते हैं, जलाशयों में कुछ रंगीन मछलियां डाल दी जाती हैं, कुछ राजहँस, कुछ कछुए इत्यादि भी छोड़ दिए जाते हैं। एकदम गाँव और समुद्र की मिलीजुली अनुभूति! बाँस के बने मेज़-कुर्सी, बिस्तर भी सजाकर रखे होते हैं और इस पूरे कुटीर का नाम ‘बैम्बू-कॉटेज’ रखा जाता है। पूरा परिवेश कृत्रिम हरियाली से ऐसे सजाया जाता है जैसे शहर की समग्र हरियाली टुकड़ा भर उसी रिसॉर्ट में व्याप्त हो। वहीं शहरी जनमानस का अत्याधुनिक तकनीकों से लैस स्वीमिंग पुल भी वहाँ बड़े नखरे के साथ पंख फैलाये है। साथ ही चीड़ियाघर की अनुभूति के लिए कुछ निरीह जीव जैसे बिल्ली, खरगोश, कुछ पंछी आदि भी रखे जाते हैं। यहाँ मनुष्य के समवेत-भोजन के लिए भी रसोइघर आदि की व्यवस्था होती है। यानि कुछ शहर कुछ-कुछ गांव-सा, थोड़ा समुद्र-सा!

 

गांव जैसी छद्म अनुभूति लाने के लिए लोग हजारों रूपए खर्च करके इन रिसार्ट्स की बुकिंग कर रहे हैं। अपने परिवार के साथ पिकनिक या भ्रमण पर जाते हैं, फोटो खींच कर लाते हैं और गांव वाली अनुभूति जनमाध्यमों पर साझा करते हैं। एक का नकली गाँव-सुख देखकर दूसरा उस छद्म सुख को पाने के लिए उन्मादित-लालायित हो उठता है। फिर वह भी इसी छद्म सुख का हिस्सा बन जाता है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर गांव इतना मनमोहक और आकर्षक था तो फिर हमने गांव क्यों उजाड़े?  गांव की प्राकृतिक सुंदरता को तबाह करके हम शहर में कृत्रिम ग्रामीण परिवेश निर्मित करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या हमें गाँव की अनुभूति अच्छी लगती है; लेकिन गाँव का धूल पसंद नहीं! गाँव की सुंदरता अच्छी लगती है; लेकिन बिजली, पानी, कीचड़ की अनेकानेक समस्याएं पसंद नहीं! गाँव की मिट्टी का चूल्हा तथा माटी के बर्तन देखने में अच्छे लगते हैं; लेकिन चूल्हे पर व मिट्टी के बर्तनों में पकाना नहीं! विलुप्त गाँव के चिह्न मन लुभाते हैं; लकिन उन विलुप्त चीज़ों का व्यवहार आकर्षित नहीं करता! गाँव की अनुभूति अच्छी लगती है; लेकिन गाँव नहीं! क्या हमें बीस प्रतिशत गाँव पसंद है और अस्सी प्रतिशत नहीं! असल में हमें छद्म पसंद है। केवल गांव का ही शहरीकरण हुआ है ऐसा नहीं है; हमारी अनुभूतियों का भी हुआ है। केवल कृत्रिम गांव ही बनाए गए हैं ऐसा नहीं है; हमारी अनुभूतियाँ भी कृत्रिम होती गई हैं। बनावटी आनंद, बनावटी उन्माद, बनावटी खुशफ़हमी!


मनुष्य होने के लिए इससे ज्यादा नकलीपन और क्या हो सकता है कि गाँव न हो लेकिन गाँव जैसा ‘कुछ’ हो। इसे आभासी दुनिया कहते हैं। यह सुख नहीं सुख जैसा है, अनुभूति नहीं अनुभूति जैसी है, असली नहीं असली जैसा ह। कुछ होना होना-सा लेकिन वास्तव में निःसार! असल में यह छद्मीकरण है और हम इसके अभ्यस्त हो रहे हैं।

Sunday 30 October 2022

आलोचक की सामाजिक भूमिका

 



कई सुधी जनमानस की राय है कि समाज की समस्याओं या बुराइयों को दृष्टिगत करके भी पूरी शिद्दत से उन्हें नज़रअंदाज़ करना चाहिए। अच्छी, मधुर और सुंदर-सुंदर चीज़ों को सहेजकर उन पर बातें की जानी चाहिए। रचनात्मक कार्यों में अपनी दक्षता को प्रमाणित करना चाहिए। बुरी बातों की आलोचना असल में समय का अपव्यय है। एक वाक्य में कहें तो समस्याओं से अवगत होकर भी आँख मूँदकर रहें, समाज की चिंता त्याग दें और अपना सृजनशील पेशेवर कर्म करें। सवाल यह है कि क्या इंसान सामाजिक प्राणी नहीं है? क्या समाज की समस्याओं का प्रभाव व्यक्ति की सृजनशीलता पर नहीं पड़ता? क्या व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता? क्या समाज की समस्याओं पर विचारशील लेखिकाओं का चुप रहना माकूल है?

इसे समझने की आवश्यकता है कि आलोचना अगर बुराई को लक्ष्य कर लिखा गया हो तथा उस बुरे के सुधार की गुंजाइश में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा हो, तब वह जनकल्याणमूलक होता है। हालांकि यह भी सत्य है कि गलत की आलोचना को समाज नज़रअंदाज़ कर दे और इसकी शत-प्रतिशत संभावना है! तब भी आलोचना का काम विवेकशील एवं जागरुक लेखिकाओं को मुसलसल करते रहना चाहिए। कारण यह वक़्त की माँग है और एक दायित्वशील नागरिक का कर्तव्यबोध भी।

इस संदर्भ में मुक्तिबोध याद आते हैं जिन्होंने अपने समय की तमाम समस्याओं पर कई निबंधों एवं कविताओं के माध्यम से बेबाक व्यंग्यात्मक चोट किया है। चाहे वह प्रोफेसर वर्ग पर हो, चाहे अवसरवादियों पर हो, चाहे मध्यवर्ग की कमज़ोरियों पर हो या फिर हिन्दी के विद्वानों या साहित्यिकों पर। मुक्तिबोध के इस चोट का लक्ष्य जाहिरा तौर पर किसी समुदाय, वर्गविशेष या व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्रोश प्रदर्शित करना नहीं था। इस संदर्भ में ‘आपने समाज को सुधारने का ठेका लिया है क्या?’, ‘क्या आपके लेखन से समाज सुधर जाएगा?’, ‘आपको कैसे पता क्या सही है और क्या गलत!’ इत्यादि वाक्य भी अर्थहीन है। प्रतिवाद एवं उसके फलस्वरूप बदलाव की उम्मीद ही है जो विवेकशील लेखिकाओं एवं लेखकों को प्रेरित करती हैं कि वे जनविरोधी, अन्याय, गलत और अर्थहीन विषयों या करतूतों के खिलाफ़ प्रतिवाद की आवाज़ उठाएं। यह आख्यान(fiction) के ज़रिये भी संभव है तथा आलोचना(non-fiction) के ज़रिये भी। मुक्तिबोध के हवाले से कहें तो इसे ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’ कहते हैं।

मुक्तिबोध ने लिखा है, “व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ यह है कि लेखक अभिनय न करे, आडम्बर से बाज़ आये, अतिशयोक्ति न करे, वरन् जिस अनुपात में, जितनी तीव्रता के साथ, जो भाव जिस ढंग से, उदित हुआ है, उस अनुपात में, उतनी तीव्रता के साथ, उस भाव को उसी ढंग से प्रकट करे।”

अभिव्यक्ति की यह प्रकिया ही लेखकीय ईमानदारी है। अनुभूतिप्रवण एवं चेतन लेखिकाओं की दृष्टि किसी वायवीय घटना पर नहीं जाती अपितु अपने आसपास के परिवेश यथा अपने कर्मस्थल, अपने परिचितों से जुड़ी समस्याओं तथा उलझनों की ओर ही जाती है। जिस परिवेश में लेखिका रह रही होती हैं, जहाँ की समस्याओं से वह दो-चार हो रही होती हैं, उन समस्याओं को वह बेहतर जानती हैं। फलतः यह उसका दायित्व है कि उसे सही ढंग से पहचानें, पाठकों के समक्ष निरावृत करें तथा उससे निकलने का पथ भी सुझाए।

इस प्रसंग में मुक्तिबोध की चंद पंक्तियों का उल्लेख मौजूँ होगा—

                       “भावना के कर्तव्य...त्याग दिये,

                        हृदय के मन्तव्य...मार डाले!

                        बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,

                        तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

                        जम गये, जाम हुए, फँस गये,

                        अपने ही कीचड़ में धँस गये!!

                        विवेक बघाड़ डाला स्वार्थों के तेल में

                        आदर्श खा गये।”

 

 इंसान जीवित तो रहेगा लेकिन किस तरह? एक विचारशील एवं बुद्धियुक्त नागरिक और लेखिका का फ़र्ज़ है कि वह अपने विवेक को मरने न दे। अंतरात्मा की पुकार पर मनन करें तथा उसे उसकी गत्यात्मकता में सम्प्रेषित करे। इसे सीधे तौर पर करें या प्रतीकों के रूप में यह लेखिका के व्यक्तिगत चयन पर निर्धारित होगा।

प्रसंगतः लू शुन की बेहद जनप्रिय कहानी ‘डायरी ऑफ़ ए मैडमैन’(Diary of a Madman) की चर्चा की जा सकती है। यह कहानी राजनीतिक रूपक-कथा के ज़रिये चीन की तद्युगीन सामंती संस्कृति तथा समाज पर प्रहार करती है। ‘Cannibalism या मानवमांस-भक्षण की कथा के ज़रिये इस बात की आलोचना हुई है कि उस दौर में चीन के लोग एक-दूसरे के प्रति किस तरह का मनोभाव रखते थे। मानवमांस-भक्षण असल में प्रतीकात्मक है। यह समाज द्वारा व्यक्तित्व के क्षरण को प्रतीकात्मक तौर पर पेश करता है। सरकार की अनैतिकता, भ्रष्टवृत्ति, अधिकार पाने के लिए जबरन नागरिकों पर सख़्त कानून लागू करना इत्यादि घटनाओं को प्रतीक के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। वहीं स्वतंत्र विवेकशील लोग पागल करार दिए जाते हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए योजनाएं बनाई जाती है। यह कहानी दरअसल सरकार तथा उसकी गुलाम प्रतिनिधियों की तीखी आलोचना में लिखी गई है।

प्रतिवाद का यह एक विशिष्ट तरीका है जिसमें दिग्भ्रष्ट समाज को चेतनावस्था में लाने के लिए प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है। एक नागरिक का समाज के प्रति प्रतिबद्धता का भाव ही अन्याय या शोषण के खिलाफ़ सवाल खड़े करने के लिए उसे मजबूर करता है। यह सकारात्मक पहल है। नकारात्मक है उत्पीड़न को देखते हुए भी उसे अनदेखा करना। अपने सुरक्षित वलय में रहकर रचनात्मक कर्म करना, गंभीर विषयों को दरकिनार कर हल्के विषयों को बड़ा विषय बनाकर उस पर चर्चा-परिचर्चा का माहौल गर्म बनाना दरअसल ज़िम्मेदारी से भागना कहलाता है।

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जब ‘देवदारु’ निबंध लिखते हैं तब देवदारु की प्रवृत्तियों के साथ महादेव की प्रवृत्तियों को जोड़ने के अतिरिक्त देश की वर्तमान सामाजिक एवं नैतिक समस्याओं की ओर भी पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हैं। बानगी देखें, “इस देश के लोग पीढ़ियों से सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है न परवाह है....अर्थमात्र जाति है, छंदमात्र व्यक्ति है। अर्थ आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि वह धरती पर चलता है, छंद आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह आसमान में उड़ा करता है।”

यह पंक्तियाँ वर्तमान दौर में भी प्रासंगिक है कारण भारतीयों की चेतना में अब भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। आज भी किसी अन्य देश में किसी भारतीय के प्रधानमंत्री बनने पर हमारे देश में उसकी जाति का चीर फाड़कर विश्लेषण होता है। किसी सफल शख़्सियत को उसके कर्मों के कारण नहीं उसकी जाति के आधार पर परखा जाता है। किसी इंसान को उसके मेधा के आधार पर नहीं जाति के आधार पर विवेचित किया जाता है। शायद यही वजह रही होगी कि वादियों में बसे देवदारु का वर्णन करते हुए भी युगीन समस्याओं को द्विवेदी जी दरकिनार नहीं कर पाते।

तथाकथित सभ्य समाज की समकालीन उलझनों की तस्वीर द्विवेदीजी के लेखन में बार-बार आ ही जाती है। ‘कुटज’ निबंध में भी इसका स्पर्श मिल जाता है, “कुटज क्या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्मोन्नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है—काहे वास्ते, किस उद्देश्य से? कोई नहीं जानता।”

‘कुटज’ के स्वभावगत वैचित्र्य से पाठकों को अवगत कराने की प्रक्रिया में द्ववेदीजी ने चाटुकारों, तैलमर्दकों एवं सिफ़ारिशीलालों की अच्छी खबर ली है। अपने कर्मों पर अविश्वास कर ज्योतिष के भरोसे जीवन काटने वालों पर भी तंज कसा गया है। वहीं कुटज में इन अवगुणों का अभाव है। वह आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्रचेता है। लेखक के लिए ये दोनों गुण बेइंतहा ज़रूरी है। अन्य के कंधे पर लता की तरह पनपने से अच्छा है अपनी कद भर ऊँचाई।

अब इस बात पर गौर करें कि भक्तिकाल की कवयित्री मीराबाई ने यदि आलोचनात्मक ढंग से अपने तत्कालीन परिवेश, परिवार, वंश तथा समाज द्वारा दी गई ज़्यादतियों, अपमान-लांछन, पैरों में घुँघरू बाँधकर नाचने, इकतारा बजाकर गाने, साधु-संगति करने के कारण राणा द्वारा हत्या के कुचक्र, कक्ष में कैद करना आदि पर न लिखा होता तब आज के पाठकों को कैसे पता चलता कि मीरा की चुनौती कितनी दुर्बोध थी? वे केवल भक्तिभाव में डूबकर कृष्णप्रेम से सराबोर कविताएं लिखी होतीं तो हम उन्हें भक्तिन कवयित्री तो मान सकते थे लेकिन उनकी समस्याओं की दुरूहता की अनुभूति हमें न मिल पाती! जब मीरा ‘छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई’ कहती है तब पति एवं परिवार सत्ता से मुठभेड़ करती है। समाज की रीतियों को धता बताते हुए समाजनिर्मित संस्कारों एवं नियमों के विपरीत जाकर अकेले समाज से लोहा लेने वाली स्त्री की अस्मिता को साकार करती है।

जब मीरा लिखती हैं, ‘भजन करस्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो घण नामी’ तब अपनी विधवा सत्ता को अस्वीकार करती है। सती होने से मना करना सिसोदिया वंश की सत्ता तथा सत्ता के अहंकार का अस्वीकार है। अपनी मर्ज़ी से गिरधर से प्रेम की घोषणा करके मीरा कुलद्रोही व समाजद्रोही तो बनती है लेकिन समाज के सामने एक ख़ुदमुख़्तार स्त्री की छवि को भी दर्ज करती है।



इस प्रकार अपनी इच्छा को प्राथमिकता देने वाली एक स्वायत्तचेता, रूढ़िमुक्त व आज़ादख्याल स्त्री के रूप में हम मीरा की मनोदशा को पढ़ पाते हैं। संभवतः मीरा भक्तिकाल की एकमात्र कवयित्री हैं जिन्होंने अपने निजी को सार्वजनिक किया। आत्मकथा को जनसमक्ष प्रस्तुत करके व्यक्तिगत को ‘पाठ’ का हिस्सा बनाया। हम मीरा से यह सीखते हैं कि तमाम विपरीत परस्थितियों में भी लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए। प्रतिवाद की आवाज़ कर्म और लेखन दोनों में परिलक्षित हो।

रवीन्द्रनाथ ने भी ‘मृणालेर पॉत्रो’ कहानी के माध्यम से तत्कालीन बंग-समाज की पितृसत्ताक मनोदशा तथा मानसिक दरिद्रता को चिह्नित किया है। बिन्दु की मृत्यु की घटना के उपरांत इस वारदात पर बात करते हुए बंग-समाज के पुरुषों ने कहा, ‘लड़कियों का कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब एक फैशन हो गया है।’

स्त्रियों के संदर्भ में यह व्यंग्योक्ति भी है और हल्की उक्ति भी। आत्महत्या का फैसला एक लड़की तब लेती है जब जीवन जीने की अंतिम अभिलाषा भी लुप्तप्राय हो। अनेक तकलीफ़ें संचित करके ही कोई स्त्री आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाती है। इसी तथ्य के आलोक में रवीन्द्रनाथ पुरुष समाज की निर्ममता को परिलक्षित करते हुए व्यंग्यात्मक प्रत्युत्तर देते हैं। वे मृणाल से लिखवाते हैं, ‘....लेकिन नाटक का तमाशा सिर्फ बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों होता है, बंगाली वीर पुरुषों की धोती की चुन्नटों पर क्यों नहीं होता, यह भी तो सोचकर देखना चाहिए।’

आत्महत्या की धाराप्रवाहता को ‘फ़ैशन’ आदि कहकर उसके कारणों की खोज न करना, उसके निराकरण की चिंता न कर उसे लड़कियों की गलती बताना तथा हँसी-मज़ाक में टाल देना समस्या के प्रति अगंभीर रवैया था। यह रुख सामाजिक नागरिक का सामाजिक दायित्व से पलायन भी था। यह पलायन का भाव तत्कालीन बंग-समाज का अंग बन गया था जिसकी आलोचना वक्त की माँग थी। इसी समस्या को संबोधित करते हुए रवीन्द्रनाथ ने लिखा, “ऐसा ही था बिंदु का दुर्भाग्य। जितने दिन जीवित रही, तनिक भी यश नहीं मिल सका। न रूप का, न गुण का – मरते वक्त भी यह नहीं हुआ कि सोच-समझकर कुछ ऐसे नए ढंग से मरती कि दुनिया-भर के लोग खुशी से ताली बजा उठते। मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया।”

आलोचनात्मक दृष्टि ही है जो ‘जो होना चाहिए’ और ‘जो नहीं है’ के बीच की खाई को पाटने का काम करती है। आलोचनात्मक विवेक ‘जो हो रहा है वह गलत हो रहा है’ के विवेचन की क्षमता प्रदान करता है। यह वास्तविकता है कि दुनिया में सुंदर चीज़ें हैं लेकिन सवाल यह भी है कि इस दुनिया को और सुंदर क्यों न बनाया जाए। और यह तब संभव है जब असुंदर पर भी नज़र दौड़ाई जाए! उसे आलोचना के दायरे में लाकर उसमें परिवर्तन की गुंजाइश बनाई जाए। अन्याय से पलायन करके हम समाज को बेहतर नहीं बना सकते, अन्याय का प्रतिवाद करके समाज में अत्यल्प सुधार लाने की कोशिश ज़रूर कर सकते हैं।


Monday 10 October 2022

शिक्षण-कला एवं विद्यार्थी के गुण



जहां पाठ्यक्रम पूरा करने का गुरुभार शिक्षिकाओं पर हावी हो वहां स्वतः यह घटित होता है कि आप किसी भी कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, साहित्येतिहास  या विचार-साहित्य में सम्पूर्ण डूबकर पूरी भावप्रवणता और एकाकार चित्त से सराबोर हो नहीं पढ़ा पाती हैं। किसी भी विषय से विद्यार्थियों को संबद्ध करने तथा स्वयं संबद्ध होने के लिए यह ज़रूरी है कि संबंधित विषय पर कई कक्षाओं में सारगर्भित चर्चाएं हो तथा संबधित विषय के साथ आत्मीयता स्थापित हो। यांत्रिक भाव से पढ़ाना या पाठ्यक्रम समाप्त करने के उद्देश्य से अध्यापन में रत होना असल में अध्यापन का अवमूल्यन है। यह अवमूल्यन ही फ़िलवक्त घोर यथार्थ है।

इस अवमूल्यन में अहम भूमिका निभाती है नोट्स आधारित शिक्षण की पद्धति। अधिकांश शिक्षकों को नये विचारों से परहेज़ है। वे नये विचारों से किनाराकश़ी करते हैं तो वहीं परिश्रम से कतराते हैं। वे सालों पुराने लिखे हुए पीले-पीले नोट्स तब तक लिखाते रहते हैं जब तक कि पाठ्यक्रम न बदले। विद्यार्थी भी इसी प्रथा में प्रशिक्षित हो जाते हैं। वे शोध करके पढ़ाने वाले या मौलिक व्याख्या करने वाले शिक्षकों को वैमनस्य के भाव से निहारते हैं। भाव यह होता है कि फिर आ गईं ज्ञान बघारने! वे नोट्स लेना पसंद करते हैं और ऐसा करते हुए स्वतंत्र चिंतन तथा विचार-मंथन से दूर होते जाते हैं। किसी भी विषय पर नए सिरे से सोचना उन्हें हास्यास्पद मालूम होता है। एक विचार पर कई कोणों से विश्लेषण संभव है इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं! उनकी मानसिकता यह है कि जो भी सही है उसे लिखा दिया जाए कारण फलां-फलां शिक्षक और शिक्षिका लिखाती हैं! अब कौन समझाए कि साहित्य में सार्विक सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

एक बार किसी एक बैच के विद्यार्थियों ने महादेवी की कविता पढ़ाते समय मुझसे दिलचस्प सवाल पूछा था कि जिस प्रकार आप समझा रही हैं वह कविता की पंक्तियों के साथ अर्थपूर्ण लग रहा है लेकिन क्या इसे लिखने पर नंबर मिलेंगे कारण व्याख्या की किताबों में तो ऐसी व्याख्या कहीं नहीं है। नंबर के लिए चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि विद्यार्थियों को भी यह पता है कि शिक्षक व्याख्या की किताबों का अनुसरण करते हैं। यह चिंताजनक परिस्थिति है।

इंसान स्वयं कर्म करके ही अन्य को उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकता है। कामयाब मनीषियों की वाणियाँ हम इसलिए पढ़ते-सुनते हैं कि वे तकलीफ़देह परिस्थितियों से गुज़रकर एक निश्चित ऊँचाई को छू सके हैं। अतः वे हमें प्रेरित करते हैं तथा मार्गदर्शक की भूमिका में आसीन होते हैं। ध्यान रहे शिक्षिका या शिक्षक भी अपने दैनन्दिन अध्यापन के कर्म के माध्यम से विद्यार्थियों के मानस-पटल को आन्दोलित करती या करते हैं। उनमें शिक्षण तथा शिक्षकीय दायित्वबोध का बीजवपन करती हैं। अपने गहन विचारों से अपने ज्ञान एवं अभिरुचि का परिचय देती हैं तथा इसी क्रम में विद्यार्थियों को पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा भी मिलती हैं। अर्थात् शिक्षिका का कर्मजीवन एवं आचरण ही उनके ज्ञान का मूलभूत संदेश है। सनद रहे कि विद्यार्थी किन्तु शिक्षकों से ही सीखते हैं। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा क प्रिय प्रतीक ‘दीपक’ की जिजीविषा तथा उसके कर्म को देखें। महादेवी ने लिखा हैं,

                            “सौरभ फैला विपुल धूप बन

                             मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु तन

                             दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,

                             तेरे जीवन का अणु गल-गल

                             पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!”

 

जिस प्रकार ‘दीपक’ अपने कोमल तन को गलाकर तमिस्र परिवेश को प्रदीप्त करती है उसी प्रकार एक परिवार में स्त्री की भूमिका होती है। एक गृहिणी भी अव्यवस्थित को सँवारकर घर को स्वच्छ एवं द्युतिमान बनाती है। शिक्षिका की भी यही चित्तवृत्ति होनी चाहिए यानि अध्ययन की प्रक्रिया से गुज़रकर जो ज्ञान अर्जित होता है उसका सारतत्व विद्यार्थियों को सौंपना तथा उनका जीवनमार्ग प्रशस्त करना। स्वयं ज्ञान की अग्नि में तपकर दुर्बोध्य विषयों को तरल जल सदृश सहजता से उद्घाटित करना।

गुरु के संदर्भ में सहजोबाई की निम्न पंक्तियाँ बहुत मायने रखती हैं जिनमें वे मानती हैं कि गुरु चार प्रकार के होते हैं जो अपनी-अपनी विशिष्टता के अनुसार शिष्य का पथ-प्रशस्त करते हैं। एक गुरु पारस पत्थर की तरह होता है जो लोहे को भी परिशुद्ध सोने में बदलने की क्षमता रखते हैं अर्थात् शिष्य को सोने की तरह उज्जवल एवं दिव्य कांति से संपन्न बनाता है। दूसरा गुरु दीपक की तरह शिष्य के ज्ञान एवं बोध के मार्ग को प्रज्वलित करता है। तीसरा गुरु मलयाचल यानि मलय पर्वत की ओर से आने वाली सुंगधित पवन की भांति शिष्य को सुंगधित करता है अर्थात् गुण एवं ज्ञान से दीप्त करता है। चौथा गुरु भँवरे की तरह होता है। जिस प्रकार भँवरे केवल फूलों का ही रसपान करते हैं उसी प्रकार गुरु ईश्वर के अनुराग को ही सही गंतव्य बताकर शिष्य को अमोघ ज्ञान प्रदान करते हैं। 

                      “गुरुहैं चारि प्रकार के, अपने अपने अंग।

                                             गुरुपारस दीपक गुरु, मलयगिरिगुरुभृंग।।”

 

 विद्यार्थियों को संवारने में शिक्षागुरु की भी विशेष भूमिका होती है। सही दिशा तो विद्यार्थी ढूँढ़ ही लेते हैं लेकिन बेहतरीन पुस्तकों को पढ़ने की सलाह, भाषा में पकड़, बात करने की तहज़ीब, जीवन के प्रति नज़रिया, समस्याओं के बीच में भी सकारात्मक होकर जीना, वक्त का पालन, सत्य और ईमानदारी को मूलधन बनाना आदि गुरु से ही सीखते हैं। विद्यार्थियों में निहित अंदरूनी प्रतिभाओं को आविष्कृत करने, संकोची स्वभाव वालों को अभिप्रेरित करने में भी शिक्षकों की भूमिका होती है।

 

किसी साहित्यकार के विषय में एक मूर्त धारणा तभी बन पाती है जब आप उन्हें वक्त देते हैं। उनमें सम्मोहन पैदा करने के लिए उन पर गहन शोधपरक पठन की ज़रूरत होती है तब उस सारतत्व को विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। स्वयं प्रबुद्ध होना पड़ता है तभी शिक्षक विद्यार्थियों को प्रबुद्ध कर पाएंग। चलताऊ ढंग से पढ़ाना, कक्षाएं लेनी है तो कुछ भी इधर-उधर का कहकर आ जाना है, गप्प सुनाकर आ जाना है, एक घंटे की कक्षा को पंद्रह मिनट में समेटकर आ जाना है वाला भाव, शिक्षकीय दायित्व से पलायन का भाव है।

कायदे से शिक्षक को हर दिन की कक्षा के लिए तैयारी करके जाना चाहिए। कक्षा के प्रति हल्केपन का भाव न होकर संजीदगी का भाव हो। संजीदगी का अर्थ गंभीर मुखड़े के साथ कक्षा में प्रवेश करना या मुसलसल गंभीर बने रहना या हर समय विद्यार्थियों को डाँट बताना नहीं होता बल्कि निर्दिष्ट विषय को विचारशीलता एवं रोचक भाव से पढ़ाना होता है कि संबंधित विषय में आकर्षण एवं रुचि जागृत हो। विद्यार्थियों को सवाल पूछने के लिए प्रेरित करना, दोस्ती का व्यवहार रखना लेकिन ज़रूरत पड़ने पर सख़्ती से पेश आना तथा नयी दृष्टि से किसी विषय पर मनन करने को प्रोत्साहित करना भी शिक्षकीय कर्तव्य में शामिल है।

किसी भी विषय के मंथन से ही उसका सारतत्व निकलता है। यह मंथन तभी संभवपर है जब अनुकूल कक्षा व विद्यार्थी मिले। जिस कक्षा में आप पढ़ा रही हैं वहां के विद्यार्थी अगर मानसिक तौर पर अपरिपक्व, अपढ़ और अशांत हों तब भी शिक्षिकाओं का ध्यान भटकता है। आप कक्षा में बैठे चंद दुष्ट विद्यार्थियों को शांत करें, कविता में आए तत्सम शब्दों के अर्थ बताएं या अपने हृदय में उमड़-घुमड़ रहे मौलिक एवं गूढ़ विचारों को रूपायित करने की ओर बढ़ें।

कई बार विद्यार्थी ‘मोरल ऑफ़ द पोएम’ ही जानना चाहते हैं यानि कविता का मूल भाव बता दें। पूरी कविता के शब्दशः अर्थ से हमें संबंध नहीं; बस कविता किस भाव पर लिखी गई है बता दें। फिर वही यांत्रिक भाव! जैसे कविता न हो बच्चों की कहानियाँ हो! हक़ीक़त यह है कि कविता का एक ही भाव या अर्थ नहीं होता। साहित्य कोई गणित नहीं है जो तयशुदा मानदंडों पर फलित होगा। साहित्य में अनेक भावों और विचारों के लिए संभावनाएं एवं जगह होती है। व्याख्या पर लिखित संदर्शिका पुस्तकें चूंकि एक ही भाव के ईर्द-गिर्द घूर्णन करती हैं सो वे मानकर चलते हैं कि कविता का एक ही भावार्थ होता है। इस तरह के अनचाहे सवालों एवं प्रतिक्रियाओं के कारण जिस आंतरिक और निविड़ भाव के साथ एक शिक्षिका पढ़ाने जाती हैं वह मझधार में ही काल-कवलित हो जाती है।

गौरतलब है कि विचार एकाएक नहीं पैदा होते, वह बोलने के क्रम में ही रूप, रंग और आकृति लेते हैं। बोलना या समझाना कोई मशीनकृत तकनीक नहीं, एक सहजात प्रक्रिया है। शिक्षण विचारशीलता, चिंतन एवं मनन की प्रक्रिया है। इसमें बाधा पड़ने पर अध्यापन का स्वतःस्फूर्त प्रवाह क्षतिग्रस्त होता है।

वर्तमान पीढ़ी को सामाजिक व्यवस्था ने इस रूप में प्रशिक्षित किया है कि यंत्रचालित ढंग से विद्यार्थी कक्षा में बैठते हैं, सुनते हैं और चले जाते हैं। सवाल करना, तर्क करना या संबंधित विषयों की आलोचना को पढ़कर कक्षा में आना आदि बातें अमूमन कपोलकल्पना है। अधिकांश विद्यार्थी बिना कहानी या कविता पढ़े कक्षा में दाखिल होते हैं। भाव यह कि मैम तो पढ़ाएंगी, बाकि ट्यूशन या संदर्शिका(गाइड) पुस्तकों के सहारे परीक्षा उत्तीर्ण कर लेंगे। स्पष्ट है कि बिना पढ़ाई के केवल डिग्रीधारी होने का गौरव भी समाज में कम मायने नहीं रखता है। वहीं डिग्री से नौकरी का भी गहरा सम्पर्क है।

विद्यार्थी का संधिविच्छेद होता है-- विद्या + अर्थी अर्थात् विद्या को अर्जित करने का आकांक्षी या विद्या को ग्रहण करने की स्पृहा से संबद्ध। विद्या के प्रति चाह ही एक विद्यार्थी को निर्मित करता है। विद्या से सान्द्रता आती है तो विनयशीलता का भी व्यक्तित्व में संचार होता है। संस्कृत सुभाषितों में विद्यार्थियों के पाँच लक्षण बताए गए हैं--

                       “काकचेष्टा बकोध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।

                       अल्पहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।”

 

कौए की तरह सदैव जानने की व्याकुलता यानि विद्या का लगातार अभ्यास करते रहना, बगुले की तरह एकाग्रता यानि विषय एवं लक्ष्य के प्रति सान्द्रता, स्वान की तरह अल्पनिद्रा यानि सदैव चौकन्ना रवैया, आवश्यकतानुसार आहार करने वाला(न कम न ज़्यादा) अर्थात् लालच का संवरण तथा गृहत्यागी अर्थात् घर के भौतिक आकर्षणों से मोहमुक्त होना। इसी प्रकार वे विद्यार्थी जो केवल अन्य के लिखे पुराने नोट्स पढ़कर परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते हैं, जो पुस्तकालयों से संबंध नहीं जोड़ते, जो स्वयं पुस्तकीय यात्रा से गुज़रकर अपना नोट्स नहीं बनाते वे परीक्षा में नंबर भले ही पा ले या नौकरी की प्रतियोगिता में भले उत्तीर्ण हो ले किन्तु ज्ञान एवं विद्या के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। विषय की गहराई में प्रवेश करने की चेष्टा न होने के कारण, विद्यार्जन की एकाग्रता न होने के कारण वे केवल नोटार्थी बनकर रह जाते हैं, विद्यार्थी नहीं।

संस्कृत में एक अन्य सुभाषित की मानें तो सुख की चाह रखने वाले या सुख को ही परम अर्थ मानने वाले विद्या त्याग दें और विद्या की याचना करने वाले सुखों को त्याग दें। जो सुख की कामना करते हैं उनके लिए विद्या कहाँ है और जो विद्या का अभिलाषी हो उसके लिए सुख कहाँ?

                            “सुखार्थी त्यजते विद्यां

                             विद्यार्थी त्यजते सुखम्।

                             सुखार्थिनः कुतो विद्या

                             कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।।”

 

अर्थात सुख और विद्या परस्पर साथ नहीं रह सकते। विद्या एक साधना है, ज्ञानार्जन एक तप है जिसे प्राप्त करने के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। कक्षा में बैठकर मानसिक तौर पर कक्षा में न होना, तदर्थ भाव से शिक्षिका को सुनना, अटेंडेंस के लिए कक्षा में आना, बिना पढ़े कक्षा में आना, कक्षा में कोई सवाल न करना आदि बताते हैं कि शिक्षा के प्रति निष्क्रिय भाव ने बसेरा किया है। इस प्रक्रिया से गुज़रकर नौकरी मिलती है तभी पढ़ना है अन्यथा इससे कोई लगाव नहीं वाला भाव पढ़ाई एवं जीवन के प्रति निश्चेष्ट भाव है। कुछ भी नया जानने-सुनने की इच्छा नहीं वाला भाव अज्ञान-प्रेम को दर्शाता है। जबकि विद्यार्थियों के जीवन का उद्देश्य अज्ञान से ज्ञान की ओर परिवर्धन है। इसके लिए सुख और मोह का विसर्जन ज़रूरी है। जीवन का नवनिर्माण हमारा उद्देश्य है जो परिश्रम के द्वारा ही संभव है।

 

 




Thursday 22 September 2022

भाषा-प्रेम के मायने

 

 





हिन्दी दिवस 'इवेंट' में रूपान्तरित हो गया है। जब भाषा इवेंट का रूप धारण करता है तब भाषा में सहज ही क्षय के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। भाषा का कार्यक्रम बनना या कार्यक्रम तक सीमित हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है; यह भाषा-प्रेम के अवमूल्यन के चिह्न है। जब भाषा के प्रति प्यार और सम्मान कम हो जाता है तब प्रदर्शन की भावना बलवती होती है। फलतः भाषा कामचलाऊ चीज़ बन जाती है और भाषा दिवस, उत्सव दिवस में बदल जाता है।

भाषा-प्रेम से उत्सव का कोई संबंध नहीं है। भाषा तो बहती धारा है जो प्रेम के बलबूते पर ही ज़िन्दा रहती है। इस प्रेम के कई रूप हैं - पाठकों का प्रेम, लेखकों का प्रेम तथा संबंधित भाषा को बोलने वालों का प्रेम। भाषा दो रूपों में जनसमाज में बहता है— पहला साहित्यिक भाषा के रूप में तथा दूसरा लोक-भाषा रूपी प्रवाहमयी नीर के रूप में।

उत्सव दिवस में तब्दील होते ही भाषा-पर्व, खानापूर्ति पर्व में बदल जाता है। वर्तमान समय में दिवस का परिपालन बेहद ज़रूरी बन गया है ठीक जैसे माँ दिवस का पालनोत्सव। जो बच्चे कभी भी माँ के दुखों को जानने की कोशिश नहीं करते, जिनके पास माँ से बात करने का भी अवकाश नहीं होता, वे भी माँ दिवस के दिन फेसबुक में माँ पर एक पोस्ट डाल आते हैं। यानि माँ भी इवेंट में बदल चुकी है। हाड़-मांस की माँ जो रसोईघर में मेहनत करती है, घर को सुंदर व स्वच्छ रखती हैं, बच्चों के जीवन की हर छोटी चीज़ का ध्यान रखती हैं, बच्चों के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करती हैं, की तकलीफ़ समझने के लिए बच्चों के पास भले ही वक्त न हो लेकिन उत्सवी परिवेश का हिस्सा वे ज़रूर बन आते हैं। वजह यही है कि आज संवेदनाएं भी ‘इवेंट’ में बदल गई हैं। हर सुंदर अनुभूति तथा भावना के लिए एक ‘दिवस’ निर्धारित कर दिया गया है। वह अनुभूति चाहे मनुष्य के लिए हो चाहे ईश्वर के लिए।

आज भक्ति भी दिवस है। बाज़ारवाद किसी ख़ास दिन को ही आराधना का विशिष्ट दिन बताकर आम जन में उसका प्रचार-प्रसार करता है। अमुक नक्षत्र, अमुक योग, तमुक तिथि की ख़ासगी समझाकर लोगों को विभ्रमित किया जाता है। जबकि भक्तिकाल के कवियों ने कभी भी दिन पर नहीं भक्ति, प्रेम और त्याग पर ज़ोर दिया था। भक्ति नित्य के आचरण का हिस्सा होना चाहिए। माँ से तथा ईश्वर से प्रेम करना दैनन्दिन आदत का हिस्सा हो, उसे दिवस में लघुकृत करना उसके मूल्य को कमतर करना है। दरअसल बाज़ारवाद का यही उद्देश्य है— हर चीज़ को घटना में रूपान्तरित करो तथा उसे व्यावसायिकृत करो। आज धर्म भी व्यवसाय है। भगवान भी माल है, उसका क्रय-विक्रय होता है। हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदाय नहीं, मनुष्य नहीं, संवेदना नहीं दो लड़ाकू गुटों में रूपान्तरित हो चुके हैं। दलित तथा आदिवासी वोटबैंक है। स्त्रीवाद पर कविता लिखना वक्त की मांग के स्वरूप जनप्रिय कवि बनने का पैमाना है, ना कि स्त्री की समस्याओं के प्रति ज़िम्मेदाराना लेखन!

हिन्दी दिवस के दिन भाषा फुलों के गुच्छों, शिल्ड, तोहफों, फ़ुड-पैकेटों, चाय-बिस्किट, भाषणों आदि में बदल जाती है। भाषणों में बदलती भाषा ज़ायकेदार लफ़्ज़ों, श्रुतिमधुर वाक्यों और प्रशस्ति गान के भँवर में अठखेलियाँ करती हैं। भाषणों में वक्ताओं की हिंग्रेजी, भोजपुरी तथा अंग्रेज़ी मिश्रित खड़ी बोली के उच्चारण से खड़ी बोली हिंदी और अधिक निखर-संवर उठती है। जैसे हिंदी दिवस न हो हिन्दी-उद्धार दिवस हो!

हिन्दी दिवस के भाषणों में देश की अन्य भाषाओं से हिन्दी के साम्य को बैठाने की कोशिश भी की जाती है। मसलन् भारत की समस्त भाषाएं आपस में सगी बहनें हैं और बाकि सारी भाषाएं सौतेली या शरारती बहनें। ख़ासकर विदेशी भाषा अंग्रेज़ी के प्रति खूब वैमनस्य का भाव प्रकट किया जाता है, उसे लक्ष्य करके दुर्वचन भी उच्चरित होते हैं। विदेशी भाषा शत्रु भाषा तथा स्वदेशी भाषाएं मित्र भाषाएं आदि धारणा के फलस्वरूप हिंदी दिवस की पूरी कार्य-प्रणाली आगे बढ़ती है। भाषाओं के प्रति यह दृष्टि अत्यंत संकुचित एवं अनुदार है।

अगर आप किसी भाषा को खारिज करते हैं तो उस भाषा के साहित्य को भी स्वतः खारिज करते हैं। गौरतलब है कि साहित्य से साम्राज्यवादी दमन का कोई संबंध नहीं है कारण उत्तम या श्रेष्ठ साहित्य साधारण जनता की सृजनशील प्रतिभा की उपज होता है। साम्राज्यशाही देशों द्वारा पराधीन बनाए जाने के कारण यदि उनके देश में विकसित साहित्य को भी हम दमनकारी, त्याज्य या व्रात्य घोषित करें तो यह दृष्टिकोण की अनुदारता ही कही जाएगी।

साहित्य का संबंध मूलतः जनधारा तथा समाज की परिस्थितियों से होता है। समाज और जीवन की अंतःबाह्य परिस्थितियाँ साहित्य की उत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। अंतर्देशीय साहित्य का पठन हमारी दृष्टि, हमारी सोच एवं हमारे चिंतन के आयाम को प्रभावित तथा व्यापित करता है। जैसे सुरों की कोई भाषा नहीं होती, वह हर भाषा से परे अतीन्द्रिय है उसी तरह भावों की भी कोई भाषा नहीं होती। कोई भी भाव या अनुभूति जब भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है तब वह साहित्य कहलाती है।

मातृभाषा के प्रति प्रेम की भावना को बढ़ावा देने के लिए विदेशी भाषा पर अपशब्दों के तीर चलाना ज़रूरी नहीं। अंग्रेज़ी के प्रति नफ़रत के भाव बोने से क्या बोलचाल की भाषा में हिन्दी सुधार संभव है? हमारे नित्य की बोली में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों के अधिकाधिक व्यवहार के लिए सचेत प्रयत्न की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम अपनी-अपनी मातृभाषा को अंग्रेज़ी से हीन, कमतर, कम सुरूप न मानें। समस्या भाषा में नहीं हमारी मानसिकता में है। हम अंग्रेज़ी को ज़्यादा स्टाइलिश और स्मार्ट भाषा मानकर चलते हैं। यही वजह है कि शब्दों के इस्तेमाल के समय भी स्वयं वैभवपूर्ण लगने की चाह में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रचुरतम प्रयोग करते हैं। ऐसी भावना हीनग्रंथि से जन्म लेती है। अतः सुधार सोच व मनोदशा में ज़रूरी है। विदेशी भाषा को अपशब्दों से छलनी करने से न विदेशी भाषा को क्षति पहुँचती है और ना ही मातृभाषा समृद्ध एवं महिमामंडित होती है। मातृभाषा तब फलती-फूलती है जब हम अधिक से अधिक उस भाषा का प्रयोग अपनी आम बोलचाल, जीवनचर्या, लेखन में करें। जब बोलचाल की भाषा लेखन की भाषा बनती है तब वह समृद्ध होती है तथा उसका दायरा बढ़ता है।

हिन्दी दिवस की संगोष्ठियों की एक और ख़ास बात है भाषणों के मध्य 'मेरी भाषा महान' की हुंकार ध्वनि का सम्पूर्ण ओजस्विता से निकलना। यह भाषा का क्षेत्रियतावादी जयकारा है जो हिन्दी-हिन्दी करते-करते हिन्दू में रूपांतरित होने लगती है। जाहिरा तौर पर भाषा दिवस का तब्दीलीकरण हिन्दू दिवस में होने लगता है। यह हिन्दी को और अधिक संकुचित घेरे में आबद्ध करने वाली मानसिकता है जो सर्वथा त्याज्य है।

भाषा तब दीर्घजीवी बनती है जब हम संबंधित भाषा की पुस्तकों से प्रेम करें, उन्हें पढ़ें और उन्हें परिसंचारित करें। भाषा लिखने से बचती है, केवल बोलने से नहीं। अगर बोलने से बचती तो दुनिया की कई भाषाएं आज जीवित रह जातीं। पूरी दुनिया में लगभग तीन हज़ार भाषाएं संकटग्रस्त अवस्था में है। यूनेस्को के 2018 की शोध के अनुसार भारत में कुल बयालीस भाषाएं विलुप्ति की ओर अग्रसर है। यह बयालीस भाषाएं दस हज़ार से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती हैं। यूनेस्कों के अनुसार कोई भी भाषा जो दस हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाती हो, वह संकटापन्न स्थिति में है। भाषाविज्ञान विशेषज्ञ प्रोफेसर गणेश एन. देवी के अनुसार जहाँ कई भारतीय भाषाएं विलुप्ति के संकट से गुज़र रही है वहीं गोंडी, भीली, मिज़ो, गारो, खासी, कोकबोरोक आदि भाषाएं आगे बढ़ रही है। इन समुदायों के शिक्षित लोग इन भाषाओं में कविता, नाटक आदि लिख रहे हैं। नाटकों को खेला जा रहा है। गोंडी भाषा में फिल्में भी बनाई जा रही है। भोजपुरी फ़िल्मी उद्योग का प्रसार भी ऊर्ध्वमुखी है। हालांकि बोडो तथा संथाली भाषाओं के प्रसार में ह्रास दिखाई दे रहा है।

भाषा के क्षय का मूल कारण है संबंधित भाषाओं में साहित्य का अभाव। अन्य कारण हैं संबंधित भाषा की लिपि को पढ़ने तथा समझने वालों का अभाव। अगर सामान्य कुछ लिखा भी गया हो तो उसकी लिपि से परिचित न होने के कारण भी कई बार भाषाएं नहीं बचतीं। कई भाषाओं की तो लिपि ही नहीं होती जो एक अन्य कारण है। कोई भी भाषा सम्पन्न भाषा तभी बन सकती है जब हम भाषा को बोलचाल से आगे कविता, आलेख, निबंध, नाटक, उपन्यास को सम्प्रेषित करने का माध्यम बनाते हैं। तब भाषा की गतिशीलता भी स्वतः बढ़ जाती है। लोगों में उस भाषा की ग्रहणात्मकता एवं उसकी पहुँच का विस्तार होता जाता है। साथ ही भाषा की रूपरेखा में भी विपुल परिवर्तन आता है।

भाषा के साथ प्रदर्शन का कोई संबंध नहीं है जबकि भाषा के साथ ज्ञान का अंतरंग संबंध है। भाषा का विस्तार होता है पुस्तक प्रेम से। ‘मेरी मातृभाषा महान’ के नारे गूंजित करके आप उसे महानता के उच्चासन पर नहीं बैठा सकते। क्या कारण है कि आज भी अधिकांश लोग टेक्नालॉजी का प्रयोग करते समय रोमन में ही हिन्दी लिखते हैं? वे क्यों मोबाइल तथा लैपटॉप में लिखते समय यूनिकोड फ़ान्ट के रहते हए भी उसका प्रयोग नहीं करते? देवनागरी को अभ्यास का हिस्सा नहीं बनाते? अपनी भाषा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता ही आपके भाषा-प्रेम का सूचक है। भाषा के प्रति निष्ठा की भावना ही उसे जीवित रखने का एकमात्र ज़रिया है। भाषा का निरंतर एवं दैनन्दिन प्रयोग ही उसके रूप में सकारात्मक निखार लाता है। साहित्य उसे सौष्ठव एवं सुघरता से समृद्ध करता है। लेकिन कोरे नारेबाज़ी से भाषा-प्रेम का कोई संबंध नहीं होता।

 

Monday 9 May 2022

रवीन्द्रनाथ और शांतिनिकेतन

 


वैशाख के महीने का पच्चीस तारीख कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्मतिथि है। आज का दिन बंगाल के लिए विशेष महत्व रखता है। इस दिन शांतिनिकेतन, जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी(रवीन्द्रनाथ का घर), रवीन्द्रसदन समेत समस्त बंगाल के छोटे-बड़े हिस्सों में  उत्सवी मिज़ाज़ रहता है। आज बंगाल के कोने-कोने में रवीन्द्रनाथ को उनके गानों, उनकी कविताओं, उनके नाटकों, उनके नृत्यनाट्यों, कहानियों, उपन्यासों के ज़रिए याद किया जाता है। अपने जन्मदिन को केंद्र में रखकर स्वयं रवि ठाकुर ने एक कविता और गाने की रचना की थी--

'हे, नूताॅन देखा दीक बार-बार जन्मेरो प्रोथोमो शुभोक्खाॅन।'

अपने जीवनकाल में रवीन्द्रनाथ को अल्पसंख्यक बंगाली जनसमुदाय द्वारा असम्मान, कड़ी निन्दा एवं कटुक्ति का सामना करना पड़ा था। उनकी कहानियों और कविताओं को अश्लील, अनैतिक और असामाजिक तक कहा गया था। 

नोबेल पुरस्कार मिलने की खुशी भी ऐसे निन्दा-रसिकों के कारण वे मना नहीं पाए और उन्होंने आनन्दोत्सव में मग्न बंगालियों से कहा था,"आज आप लोगों ने सम्मान का जो सुरापात्र मेरे मुख के सम्मुख रखा है उसे मैं होठों से छू तो सकता हूं लेकिन इसे मैं अंतर से ग्रहण नहीं कर सकता। इसकी महत्ता से मेरे चित्त को दूर रखना चाहता हूं।"

रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि जिन्होंने सबसे ज़्यादा मेरा अपमान किया है, मेरी मृत्यु के पश्चात वे ही स्मरण-सभा में जाकर मेरी प्रशंसा करेंगे और खूब तालियां बजाएंगे। लेकिन मेरे सच्चे अनुरागी तमाम प्रचार से दूर रहकर मुझे मन ही मन स्मरण करेंगे, प्यार करेंगे।

अपनी आत्मकथा में रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती के निर्माण की व्यथा-कथा का वर्णन किया है-

"विश्वभारती के निर्माण में कितना परिश्रम करना पड़ा, क्या मेरे बाद इसे कोई मूल्य देगा? जब चारों ओर से ऋण का बोझ बढ़ रहा था तो छोटी बहू के गहने बेचने पड़े। स्कूल के लिए कोई लड़का देने को राज़ी नहीं था, अपने घर में खिलाकर-पहनाकर बाहर से लड़के खोजने पड़े और कुछ लोग भाड़े की गाड़ी से उनके घर जाकर स्कूल आने को मना कर आते थे। देशवासियों से मुझे ऐसी मदद भी मिली! उस समय मेरे जीवन में एक के बाद एक मृत्युशोक का कहर हावी था। उस दुख का इतिहास अब लुप्तप्राय है। लोगों को लगता है मैं वैभवपूर्ण अमीर हूं लेकिन उस समय मैं पूरी तरह से निस्सहाय हो चुका था।"

 रवीन्द्रनाथ की कविताओं में स्वच्छंद प्रेम का व्यापक रूप से चित्रण हुआ है। उस समय के बंगाल के परंपरावादी, स्वच्छंद प्रेम के ज़िक्र भर से बहुत नाराज़ होते थे। उनका मानना था प्रेम हो, लेकिन वह स्वच्छंद न हो, यानी प्रेम बंधनयुक्त हो। लेकिन प्रेम बंधनयुक्त नहीं होता, प्रेम है ही स्वच्छंद। जहां प्रेम है वहां स्वच्छंदता है। 

रवीन्द्रनाथ की निरावरण प्रेम की कविताएं इन्हीं परंपरावादियों को संबोधित करते हुए उनकी आलोचना में लिखी गई है। आज भी ऐसे परंपरावादी हैं जिनके लिए स्वच्छंद वर्णन, खुले रूप से प्रेम का चित्रण करना, प्रेमिका के शारीरिक अंगों पर कविता लिखना आदि असभ्यता है। आज इन्हें समझाने के लिए रवीन्द्रनाथ नहीं है लेकिन उनकी कविताएं हैं। 'चुंबन', 'बाहु' और 'स्तन' इस दृष्टि से लिखी गई असाधारण कविताएं हैं।

Sunday 4 July 2021

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की अवस्थिति और सीमाएं

 



भाषा का संस्कृति, सभ्यता और विचार से गहरा संबंध है। हिन्दी भाषा तभी विकसित होगी जब साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रियतावादी विचारधारा से उसका वास्ता टूटे। क्षेत्रियतावाद के आधार पर साहित्य-पाठ या जीवनदर्शन निर्मित करने का अर्थ है भारत की मिश्रित संस्कृति और मिश्रित मूल्यबोध की ऐतिहासिक वास्तविकता को नकारना। यह कैसे संभव है कि साम्प्रदायिक सोच का विस्तार करते हुए हिन्दी फल-फूल रही हो? केवल हिन्दी में बोलने से हिन्दी की उन्नति नहीं होगी। कोई भी भाषा पठन-पाठन, लेखन और आचरण से जीवित रहती है। भाषा का संबंध केवल शब्दभर से नहीं होता। भाषा की आत्मा है उससे जुड़ा विचार। अगर भाषा का वैचारिक पक्ष कमज़ोर हो तो वह भाषा भी स्वतः कमज़ोर बन जाती है। विचार और भाषा का संबंध अन्योन्याश्रित है।

उपग्रह क्रान्ति के बाद संचार क्रान्ति की शुरुआत होती है। संचार क्रान्ति के कारण सबसे बड़ी घटना यह घटी कि भाषा की केन्द्रीकृत संरचना की विदाई हुई। अब राज्यस्तर की भाषाओं को भी समान मूल्य मिल पाया। हर भारतीय भाषा का सॉफ्टवैर अलग से बनाया गया, मुफ्त में फॉन्ट मुहैया कराया गया। इस काम के लिए भारत सरकार को तकरीबन 1300 करोड़ रूपए खर्च करने पड़े। डिजिटल माध्यम में हिन्दी-लेखन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में यूनिकोड फॉन्ट(मंगल) की महती भूमिका है। यूनिकोड फ़ाण्ट कम्प्यूटर की मानक भाषा है। इस फ़ॉण्ट के ज़रिये एक ही दस्तावेज़ में अनेक भाषाएं लिखी जा सकती है। वहीं यूनिकोड में लिखित किसी भी लेख को दूसरी भाषाओं में अनुवाद करना संभव है। हिन्दी में वेबसाइट तथा ब्लॉग बनाने, ई-मेल आदि की सुविधा यूनिकोड प्रदान करता है। पहले किसी भी हिन्दी वेबसाइट को पढ़ने के लिए कम्प्यूटर में उसके फ़ॉण्ट को डाउनलोड करना पड़ता था लेकिन यूनिकोड में इसकी ज़रूरत नहीं होती। यही वजह है कि सभी सरकारी कार्यालयों में प्रशासनिक कार्यों के लिए यूनिकोड को अनिवार्य कर दिया गया है। इसके कारण लिखित भाषा का महत्व बढ़ा है।

आजकल हर मोबाइल में यूनिकोड फ़ॉण्ट की सुविधा उपलब्ध है। पहले केवल ब्लैकबेरी के मोबाइल में तथा ऐपेल के आइपैड में यूनिकोड की सुविधा होती थी। अन्य कंपनी के मोबाइल में उपलब्ध फ़ॉण्ट के ज़रिए इंटरनेट में सोश्यल मीडिया तथा अन्य स्थानों पर लिखना संभव नहीं था। यूनिकोड में भारत की हर क्षेत्रीय भाषा को जोड़ा गया जिससे लोग अपनी मातृभाषा या अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान आसानी से कर सके, आपसी संवाद कर पाएं। इसने भाषा की स्थानीयता की समस्या को खत्म किया तथा हर भाषा को वैश्विक स्वीकृति प्रदान की। इसमें केवल हिन्दी ही नहीं, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, गुजराती, मराठी, पंजाबी, कन्नड़ समेत बाईस राजकाज की भाषाएं वैश्विक दर्जा पा चुकी है। इस वैश्विक स्वीकृति के कारण ही कई विदेशी कम्पनियों को भारतीय बाज़ार में अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए हिन्दी भाषा की मदद लेनी पड़ी।

हिन्दी भाषी दर्शकों को ध्यान में रखकर ही रूपर्ट मारडॉक ने भारत में आकर हिन्दी में ‘स्टार न्यूज़’ चैनल का प्रसारण किया। हालांकि उसने दुनियाभर में अंग्रेज़ी के ही समाचार चैनल खोले थे लेकिन भारत में व्यवसाय शुरु करने आए तो उन्हें जनता की माँग के समक्ष अपने विचार बदल देने पड़े। केवल हिन्दी ही नहीं, विभिन्न राज्यस्तर की भाषाओं में भी ‘स्टार न्यूज़’ ने चैनल खोले। यही हाल एम टी.वी., सोनी, सी.एन.एन. आदि का भी हुआ। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने भी एम.एस.एन. तथा हॉटमेल के हिन्दी संस्करण की शुरुआत की। एम.एस.एन. का कहना था कि अस्सी प्रतिशत भारतीय चूंकि अँग्रेज़ी नहीं समझते इसलिए भारत में प्रवेश करने के लिए हिन्दी संस्करण लाना ज़रूरी है।

विदेशी कंपनियाँ जिस गति से भारतीय जनमाध्यमों और बाज़ार में पूँजी निवेश कर रही है, इससे पता चलता है कि भारत की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं की अहमियत को वह समझने लगी है। मेक्सिको की कम्पनी ‘सिनेपोलिस’, चीन की ‘मॉबविस्टा’, ब्रिटेन की ‘कार्निवल फ़िल्म्स प्राइवेट लिमिटेड’ आदि अतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर भारत में पूँजीनिवेश कर रही है। वहीं सी.एन.बी.सी. आवाज़, ज़ी बिसनेस जैसे व्यापारिक समाचार चैनल भी हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं।  

सवाल यह है कि जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की अवस्था कैसी है? ऐसा न हो कि हिन्दी केवल बोलने के लिए बोली जाए, लिखने के लिए लिखी जाए! समाचार पत्रों एवं दूसरे जनमाध्यमों को चाहिए कि वह उसकी समृद्धि की योजना भी बनाए।

भारत में सबसे ज़्यादा पठनीय अखबार दैनिक जागरण के समाचारों के शीर्षक एकदम अपठनीय होते हैं। शीर्षकों के प्रस्तुतीकरण, शब्दों के चुनाव तथा वाक्य-संरचना पर ध्यान शून्य के बराबर होता है। समाचारों के शीर्षक बस रखने के लिए रख दिए जाते हैं। उनके चारित्रिक गठन एवं भाषाई उत्कर्ष की योजना न संपादक के पास है, न समाचार-लेखक के पास। यदि हिन्दी के अखबारों की तुलना अंग्रेज़ी के अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ या ‘द हिन्दू’ से करें तो स्वतः गुणवत्ता का भेद समझ में आ जाता है। वहीं हिन्दी के अखबारों में अंगेज़ी शब्दों का बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है जो बंद होना चाहिए। अंग्रेज़ी के जो नये शब्द प्रचलन में आ रहे हैं, उनके लिए हिन्दी में नये शब्द गढ़े जाने चाहिए। मसलन् बांग्ला दैनिक अखबार ‘आनन्दबाज़ार पत्रिका’ में अग्रेज़ी के शब्दों का न्यूनतम प्रयोग होता है। गुणवत्ता के लिहाज़ से यह पत्रिका बेहतरीन स्थिति में है। इस अखबार की खासियत यह है कि अंग्रेज़ी के हाल में प्रचलित शब्दों के लिए बांग्ला में नए शब्द गढ़े जाते हैं। धीरे धीरे ये शब्द जनसाधारण में प्रचलित हो जाते हैं। जैसे ‘फ्लॉईओवर’ के लिए ‘उड़ालपुल’, स्काईवाक के लिए ‘उड़ालपथ’ आदि।

आज भी अधिकतर ब्रांड के विज्ञापन अंग्रेज़ी में ही लिखे जाते हैं जो बाद में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होते हैं। देखा गया है कि भारत में विज्ञान की पढ़ाई कर चुके युवा तथा अभिजनवर्ग अंग्रेज़ी में पढ़ने, बोलने-लिखने को ही प्राथमिकता देते हैं। चाहे वैज्ञानिक हों, डॉक्टर हों, उच्च पदस्थ पदाधिकारी हों; सभी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा अंग्रेज़ी में ही शोध-लेख लिखते हैं। लेकिन विज्ञान पढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी भाषा में बोलना-लिखना बंद कर दें। हिन्दी जनप्रिय तो है लेकिन उसके जानकार घट रहे हैं। हिन्दी में बोलने वाली जनता तो है लेकिन वे मातृभाषा में लिखने से बचती रहती है। अपनी भाषा में लिखने पर वह भी समृद्ध होता है, अपनी भाषा का विकास होता है। अन्य की भाषा में लिखने से अन्य की भाषा का विकास होता है लेकिन अपने यहाँ भाषा-दरिद्रता पैदा होती है।

भाषा का विचारों से आन्तरिक संबंध होता है। किसी भी समाज की मनोदशा एवं विचारधारा उसकी भाषा से स्पष्ट हो जाती है। जब लगातार कुकथ्य का बोलबाला हो तो जान लीजिए कि समाज भी कुसंस्कृति एवं कुविचार से आच्छन्न है।

अमुमन लोगों में यह धारणा व्याप्त है कि तमाम दुनिया की खबरों का एकमात्र श्रोत टेलीविज़न ही है। टेलीविज़न भी दर्शकों में यह भ्रांत धारणा पैदा करता है कि वह सूचनासमृद्ध बनाता है जबकि यह धारणा सिरे से गलत है। टेलीविज़न, दर्शकों का यथार्थ से संपर्क छिन्न कर देता है। यथार्थ का बोध ही खत्म कर देता है। आप ज्योंहि किसी माध्यम पर आँख मूंदकर विश्वास करने लगते हैं; आप उसके अधिकार-क्षेत्र में आ जाते हैं। टी.वी. की खूबी है कि उसने बिना किसी सेंसरशिप के दर्शकों को अपनी विचारधारा में कैद कर रखा है। उसने यह विभ्रम बनाया है कि उसमें दिखाई जाने वाली घटनाएं ही परमसत्य है। वास्तविकता यह है कि टेलीविज़न हमें सूचनादरिद्र बनाता है। वह जनसरोकार के मुद्दों मसलन् बेरोज़गारी, बिजली-पानी की समस्या, कृषि-योजना, गाँव की समस्याओं आदि पर कभी चर्चा नहीं करती। अपितु तयशुदा विषयों या गैर-ज़रूरी विषयों को सनसनीखेज़ समाचार के रूप में पेश करता है और घंटों उस पर वाद-विवाद या उसका सीधा प्रसारण करता रहता है।

ध्यान रहे टेलीविज़न केवल यथार्थ पर ही हमले नहीं करता, वह जन-संस्कृति और जन-भाषा को भी छीनता है। जब सनसनीखेज़ खबरें आएंगी तो उसकी भाषा भी सनसनीखेज़ ही होगी, जातीय भाषा तो नहीं होगी। टेलीविज़न कभी भी अपनी प्रकृति के बाहर नहीं जाता। वह जो दिखाता है उसी रूपरेखा के तहत दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। मसलन् अगर समाचार चैनलों ने किसी इंसान को अपराधी घोषित कर दिया तो जनता भी आज्ञाकारी भक्त की तरह आँख मूंदकर उसे मान लेती है और तुरंत उस व्यक्ति के उद्देश्य में गाली-गलौच शुरू कर देती है। देखा जाए तो अपराधी घोषित करने का काम समाचार-माध्यमों का नहीं न्यायपालिका का है। जैसे वे कहते हैं - ‘अभी-अभी फलाँ कांड का अपराधी पकड़ा गया है’ तो वे स्वतः अपराधी को चिह्नित कर फैसला भी सुना देते हैं। जबकि वह व्यक्ति अपराधी है या नहीं, यह जाँच का मसला होता है। जब तक न्यायपालिका प्रमाणों के मद्देनजर उस व्यक्ति को अपराधी नहीं घोषित करतीं, तब तक हम उसे अपराधी नहीं कह सकते। ऐसी कई घटनाएं हमारे सामने हैं जब किसी को कथित अपराधी के तौर पर पकड़ा गया, अपराधी के तौर पर मीडिया ने उसके खिलाफ़ खूब प्रचार किया लेकिन न्यायिक-प्रक्रिया के दौरान अपराध प्रमाणित न होने पर उसे चंद सालों बाद रिहा कर दिया गया।

यह भाषिक खेल टेलीविज़न की प्रकृति है। दर्शक इस भाषाई खेल को समझने में अक्षम है सो टेलीविज़न द्वारा दी गई हर सूचना को नतमस्तक होकर मान लेता है। टेलीविज़न के प्रति यह जो पूजा-भाव है, यह स्वतंत्र विचारबुद्धि एवं स्वतंत्र विवेक को हर लेता है। ऐसे ही अगर किसी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाना होता है तो उसके नाम की पुनरावृत्ति करते हुए उसे नायक बना दिया जाता है। टेलीविज़न के माध्यम की खूबी यह है कि वह जिसको नायक बनाता है उसे ही प्रतिनायक में भी रूपान्तरित कर सकता है।

जनसंचार-माध्यम के रूप में अखबार की विशेषता यह है कि वह सोचने का समय देता है लेकिन टी.वी. सोचने का मौका नहीं देता। पढ़ने में यह सुविधा है कि हम सोचते हैं, विचार करते हैं और विवेक के आधार पर निर्णय कर सकते हैं। टीवी में खबरों का लगातार प्रवाह है जो दिमाग पर कब्ज़ा कर लेता है और स्वतंत्र विवेक को जागृत होने ही नहीं देता। आप ज्योंहि सोचने लगते हैं तुरंत एक नई खबर आपके जेहन को घेर लेती है। अगर पाँच मिनट में बीस खबरें दिखाई जाएंगी तो सिर्फ़ खबरें होंगी, अनुभूति नहीं। अभी हमने खबरों को महसूस करना बंद कर दिया है। खबरें सुनने तक सिकुड़ गई है, वह संवेदना का हिस्सा नहीं बनती।

इस प्रसंग में बच्चों के कार्टून कार्यक्रमों का उदाहरण देना समीचीन है। बच्चे लगातार एक के बाद एक कार्टून के कार्यक्रम देखते रहते हैं। उनका मनोरंजन तो होता रहता है लेकिन सोचने की शक्ति क्षीण होती जाती है कारण वहाँ अवकाश नहीं होता। वहीं अगर हम बच्चों को बाल पत्रिका पढ़ने दें तो उन्हें मनन का मौका मिलता है। उनकी हिन्दी भी सुधरती है साथ ही कल्पनाशक्ति में इज़ाफा होता है। ‘शिनचैन’ से लेकर ‘छोटा-भीम’ तक जितने भी कार्टून आते हैं उन्हें देखकर बच्चों की हिन्दी तो कम से कम नहीं सुधरती कारण भाषा-ज्ञान के लिए व्यवहार-ज्ञान और अक्षर-ज्ञान ज़रूरी है। भाषा सचेत प्रयास से सीखी जाती है, स्वतः नहीं सीखी जाती।

टेलीविज़न में आने वाले तमाम धारावाहिक उपभोक्तावाद के पूरे पैकेज को लेकर आते हैं। एक खास किस्म की जीवन-शैली के प्रचार के लिए ही धारावाहिक बनाए जाते हैं। मसलन् जो धारावाहिक उन्नीसवीं सदी की विधवा-समस्या पर बनाई जाती हैं, उनमें सारी विधवाएँ महँगी सफ़ेद साड़ी पहनती हैं, नकली सँवरे हुए बाल तथा तमाम तरह के फ़ेस-मेकअप के आवरण से लदी होती हैं। असल में विधवा भी प्रसाधन-सामग्री उद्योग का सम्पूर्ण पैकेज लेकर आती है। इस पूरी प्रक्रिया में उपभोक्तावाद की दृश्यात्मक भाषा से दर्शकों को रूबरू करवाया जाता है जो सतह पर दिखाई नहीं देता। सतह पर धारावाहिक की कहानी रहती है और सतह के नीचे प्रसाधन-सामग्री के विज्ञापन।

जबकि वास्तविकता यह है कि विधवा के साथ आज भी समाज क्रूरतम रूप में पेश आता है। उसे एक अच्छी साड़ी तक मयस्सर नहीं होता। यह मासकल्चर या लोकवादी संस्कृति है जो नकलीपन का लगातार विस्तार कर रही है और लोक-संस्कृति को नष्ट कर रही है। धारावाहिकों में गहनों से लदी-फँदी सुन्दर गृहिणियाँ तो दिख जाती हैं लेकिन मजाल है कि नौकरीशुदा विचारशील स्त्रियाँ दिख जाए! धारावाहिक देखकर आप हिन्दी-भाषी क्षेत्रों की स्त्रियों तथा उनके जीवन के बारे में कुछ नहीं जान सकते। उसके लिए यथार्थ सम्पर्क और यथार्थ का ज्ञान आवश्यक है। वहीं धारावाहिक देखने वाली स्त्रियों के पास हिन्दी भाषा का ज्ञान न्यूनतम होता है। यह ज़रूरी नहीं है कि वह घरेलू स्त्री जो हर दिन पांच-छह हिन्दी धारावाहिक देख रही है, उसका हिन्दी भाषा का ज्ञान भी बेहतरीन हो।

बाल-विवाह गैर-कानूनी और अपराध है लेकिन ‘बालिका वधू’ धारावाहिक दर्शकों में ज़बरदस्त सफल रहा। आज भी दहेज न लाने के कारण स्त्रियाँ जलाई जाती हैं लेकिन टी.वी. और फिल्मों में बहू की एक आकर्षक छवि बनाई गई है। इसी तरह शिक्षक की छवि माँगपूर्ति वाली बना दी गई है। रामायण सीरियल के नए-नए संस्करण इसलिए नहीं बन रहे हैं कि सीरियलकर्ता भारतीय संस्कृति परोसकर दर्शकों को समृद्ध करना चाहते हैं। उत्तर-आधुनिक ‘राम’ का इमेज ईश्वर से अधिक मैचोमैन का है और ‘सीता’, मैय्या से ज़्यादा मेकअप और साड़ी उद्योग की मॉडेल नज़र आती हैं।

दूसरी बात यह कि जब आप भोगवादी जीवन को महत्व देंगे तो ज्ञान आपके लिए महत्वहीन बन जाएगा। वस्तुप्रेम की मनोदशा ने मनुष्य के गुणों को गौण बना दिया। अब बाज़ार में उपलब्ध अत्याधुनिक ब्रांड की नए-नए फीचर से युक्त वस्तुएं एवं उसका कृत्रिम प्रदर्शन ही आपके व्यक्तित्व एवं अस्तित्व को निर्मित करता है। अब एक इंसान का मूल्य उसकी शिक्षा, उसके ज्ञान, उसकी भाषा, उसके आचरण से तय नहीं होता बल्कि अत्याधुनिक वस्तुओं, अत्याधुनिक कपड़ों जैसी सतही एवं तुच्छ चीजों से तय होता है। उसकी भाषा कैसी होगी यह भी बाज़ार ही तय करता है। मोबाइल में सारे नंबर रहते हैं, सारे तथ्य रहते हैं लेकिन इसमें जो चीज़ छूटती है, वह है स्मृति। मोबाइल के आने के बाद हमारी स्मृति कमज़ोर हुई है। वहीं कई मोबाइल में एक फीचर के तहत बोल-बोलकर लिखने की सुविधा है जिसने युवावर्ग के लिखने की मेहनत को भी कम कर दिया है।





आधुनिकता के दौर में छापे की मशीन आई। छापे की मशीन ने वाचिक को लिखित में रूपान्तरित किया। लिखित प्रारूप ने जातीय भाषा के रूप-गठन एवं उसकी अग्रगति में मदद की। जातीय भाषा की महत्ता प्रतिष्ठित हुई तथा इसने आगे की पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इसी दौर में रेडियो, कैमरा तथा सिनेमा भी आया। बाद में दूरदर्शन दाखिल होता है। रेडियो ने जातीय के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रीय तथा आंचलिक भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। शुरु में सिनेमा के ज़रिए भारतीय संस्कृति और कलारूपों का प्रस्तुतिकरण किया गया। कई हद तक इसमें सफलता भी मिली। लेकिन आगे चलकर सत्तर के दशक से सिनेमा में अंतर्वस्तु और भाषा दोनों क्षेत्रों में गिरावट देखी गई। फ़िल्मों की पटकथा शहरी मध्यवर्ग केन्द्रित होती चली गई। ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश, ग्रामीण संस्कृति व जीवन-शैली का चित्रण कम होता गया तो दूसरी ओर भाषा का क्षय भी लक्षित हुआ। जिसे हम ‘फिल्मी डायॉलॉग’ कहते हैं, वह इसी दौर में जन्म लेता है जिसका वास्तविकता से संबंध कम और वायवीयता से संबंध ज़्यादा है। आगे चलकर केबल टेलीविज़न के आने के बाद भाषा के क्षय में और अधिक इज़ाफा होता है।

आजकल कई फ़िल्मों में जिस टपोरी भाषा, अधकचरी भाषा का चलन हुआ है दरअसल वह पूरे भारत में कहीं नहीं मिलेगा। टपोरी भाषा का टपोरी अस्मिता और संस्कृति से गहरा ताल्लुकात है।

सन् 1990 के बाद उत्तर-आधुनिकता का भारत में आगमन हुआ। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का डिजिटलीकरण सन् 1995 के बाद होता है। डिजिटलीकरण और इंटरनेट एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते। इंटरनेट के आने के बाद चिप तकनीकी ने डिजिटल मीडिया की शुरुआत की। इसने स्थान की समस्या को खत्म कर दिया एवं दबाव की तकनीक को महत्व दिया। एक छोटे चिप में दबाव के ज़रिये अनेक तथ्य, लेख, संगीत, वीडियो, ऑडियो आदि रखे जा सकते हैं।

उत्तर-आधुनिकता के दौर की खासियत है कि जो चीज़ें हाशिए पर थी वह केन्द्र में आई और जो चीज़ें केन्द्र में थी, वह हाशिए पर चली गईं। उत्तर-आधुनिकता ने आधुनिकता की सभी उपलब्धियों एवं कसौटियों को एक सिरे से खारिज किया। आधुनिकतावादी भाषा-विमर्श में भाषा का अब तक ज्ञात पारंपरिक अर्थ या मूल अर्थ मूल्यवान था लेकिन उत्तर-आधुनिकतावाद के दौर में त्वरित या तात्क्षणिक अर्थ मूल्यवान है। आज के दौर में हर चीज़ तात्क्षणिक है। फ़ास्ट फ़ुड संस्कृति की तरह तात्कालिक जीवनशैली, तात्कालिक भाषा, तात्कालिक रवैया तथा तात्कालिक विचार ने जनजीवन में अपनी जगह बनाई है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के शब्दों में कहें, “शब्दों के नए अर्थों की सृष्टि, उन्हें वस्तुओं के बहाने अर्थ देने, समूह या व्यक्तियों के बहाने नए अर्थ देने की कोशिशें उत्तर-आधुनिक भाषाई खेल का मुख्य लक्ष्य है।” (मीडिया समग्र)

इसका सबसे बढ़िया उदाहरण विज्ञापन है। विज्ञापन का सबसे बड़ा कार्य विज्ञापित वस्तुओं पर दर्शकों का विश्वास दिलाना होता है ताकि वे आदर्श क्रेता में तब्दील हो पाए। विज्ञापन बिना झूठ के बन नहीं सकता। विज्ञापनों के प्रचार-वाक्य भी क्षणिक या त्वरित अर्थों के आधार पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मसलन् ‘डेटॉल’ के विज्ञापन का प्रचार-वाक्य है, ‘मम्मी माने डेटॉल का धुला।’ डेटॉल कंपनी मूल संदेश देना चाहती है स्वच्छता और वायरस मुक्ति का। हालांकि इस स्लोगन से और वायरस-मुक्ति से डेटॉल का कोई संबंध नहीं है। इसी तरह ‘कोलगेट मैक्स फ़्रेश’ के विज्ञापन का प्रचार-वाक्य है— ‘ताज़गी का धमाका’। मूल संदेश है वस्तु के प्रयोग के बाद ताज़गी की अनुभूति का लेकिन ताज़गी के साथ धमाके का तथा इस धमाके का कोलगेट से कोई संबंध नहीं। यहाँ संदेश और भाषा में अंतर है। भाषा संकेतार्थी है और इसका सच से वास्ता नहीं है। असल में सामाजिक संदर्भविहिन भाषा का प्रयोग उत्तर-आधुनिक भाषा की खासियत है। इसने भाषा और अर्थ का संबंध-विच्छेद किया है। विज्ञापनों में उत्तेजनापूर्ण शब्दों, उसके स्मार्ट उच्चारण एवं बोलने की उत्तर-आधुनिक शैली पर ज़ोर होता है। उत्तर-आधुनिक दौर की पूँजी है अर्थहीन भाषा में जीना और इस सिलसिले को मुसलसल बनाए रखना।

उत्तर-आधुनिक भाषा का एक अन्य पक्ष जनसंचार माध्यमों की दृश्यात्मक भाषा है। जब जनसंचार माध्यमों से हिंसाचार का सीधा प्रसारण होता है तो दहशत एवं आक्रामक सोच की बढ़ोतरी होती है। वैचारिक एवं कार्यात्मक हिंसाचार में वृद्धि होती है। बिना शब्दव्यय के किसी हिंसाचार के दृश्य को दर्शकों के सामने हूबहू रख देने से साम्प्रदायिक विद्वेष जल्दी फैलता है।

सोश्यल मीडिया में पढ़े-लिखे पेशेवर लोग अंग्रेज़ी में लिखना पसंद करते हैं। दर्शन, चिकित्सा, विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, पर्यावरण, इतिहास के क्षेत्र में आज भी हिन्दी, संचार की भाषा नहीं बन पाई है। जब सामान्य बोलचाल में गुलाब ‘रोज़’ में बदल जाए, सूरजमुखी ‘सनफ्लावर’ में, दिन ‘डे’ में, रात ‘नाइट’ में तो हिन्दी की दुर्दशा सहज ही अनुमेय है। देशभर के डॉक्टर प्रेसक्रिप्शन अंग्रेज़ी में लिखते हैं। दुकान की रसीदें अंग्रेज़ी में दी जाती हैं।

एक और ज़रूरी मसला। हिन्दी भाषा अकेले खड़ी बोली से नहीं बनती। उसमें तमाम क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाएं भी शामिल हैं। हमें यह सोचना पड़ेगा कि भाषा से बोली में बदल चुकी भाषाओं का भविष्य क्या है? क्या एक भाषा के वर्चस्व तले बाकि भाषाओं का अस्तित्व खत्म तो नहीं हो रहा? क्या कारण है कि युवाओं को खड़ीबोली तो आती है लेकिन अपनी मातृभाषा में दो मिनट भी बोल नहीं पाते? यह केवल विस्मरण है या अपनी मातृभाषा के प्रति हेय या पिछड़ा होने का भाव? क्या कारण है कि भोजपुरी भाषी या मगही भाषी लड़की भोजपुरी या मगही का गीत गाने में संकोच करती है? उसे यह बोध होता है कि वह खड़ी बोली की तुलना में कमतर भाषा है इसलिए लोग सुनकर हँसेंगे!   

आज जब अधिकतर अभिभावक बच्चों को अँग्रेज़ी माध्यम के स्कूल से पढ़ा रहे हैं तो सहज ही यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में चाहते हैं कि हिन्दी प्रगति करे या बस चर्चा करने के लिए कि हिन्दी महान है और उसकी अग्रगति ज़रूरी है हम बहस किए जा रहे हैं? मातृभाषा दिवस या हिन्दी दिवस में हिन्दी का जयकारा लगाने से हिन्दी यकायक समृद्ध नहीं हो जाएगी। ज़रूरी नहीं कि ‘मैं मैथिली भाषी हूँ’ कहकर गर्व करने वाले को मैथिली भाषा बोलनी आती भी हो। आज हम केवल गर्व करते हैं, कर्म नहीं करते।

अपनी मातृभाषा के प्रति हेय दृष्टि की भावना से हिन्दी भाषी अभिजनों को निकलना चाहिए और लेखन के क्षेत्र में ज़्यादा से ज़्यादा हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। मसलन् लोग ह्वट्सऐप और मेसेन्जर में सामान्य चर्चा में हिन्दी को रोमन में लिखते हैं। आज हर मोबाइल में देवनागरी लिपि के रहते हुए भी उसे आदत का हिस्सा न बनाना और रोमन में ही हिन्दी लिखना आलस्य को दर्शाता है। हिन्दी भाषा आलस्य से प्रगति नहीं करेगी उसके लिए सचेत प्रयत्न करने होंगे। मेहनत से भाषा बचती है।

गौरतलब है कि जिस भाषा में प्रेमचंद लिख रहे थे, यशपाल और भीष्म साहनी लिख रहे थे वह भाषा एक सिरे से मीडिया से गायब है। दूसरी ओर जनता जिस भाषा में बात करती है वह भी मीडिया में है नहीं! सिनेमा की हिन्दी अलग, टेलीविज़न की हिन्दी अलग, धारावाहिकों की हिन्दी अलग, अखबारों की हिन्दी अलग, सोश्यल मीडिया की हिन्दी अलग और जनता के बोलचाल की हिन्दी अलग।

आज हम प्रायोजित भाषा के दौर में जी रहे हैं। समाचार-चैनलों से लेकर समाचार-पत्रों तक भाषिक पदबंधों के ज़रिये नई-नई कथाएँ बुनी और परोसी जा रही हैं। ऐसे में विचारधारा की समझ ज़रूरी शर्त है। जनमाध्यमों की विचारधारा को भाषा संचालित करती है। इसलिए सिर्फ़ भाषा-ज्ञान ही नहीं ई-साक्षरता भी ज़रूरी है। इसके लिए संचार क्रांन्ति से जुड़ना होगा। सोश्यल मीडिया में हिन्दी में पढ़ना तथा लिखना होगा। हर दिन हिन्दी में लिखने से, विचारों एवं भावनाओं के आदान-प्रदान से, हिन्दी में तर्क-वितर्क से, सामान्य आचरण में हिन्दी की आदत बनाने से हिन्दी सशक्त होती है।

 

 


 

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...