Thursday 12 December 2019

नोट्स-संस्कृति के खतरे


                                   
 आज भारत में उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में युवा-वर्ग में स्वायत्त पढ़ाई की अपेक्षा नोट्स आधारित पढ़ाई बेहद प्रचलन में है। कॉलेज और विश्वविद्यालय से जुड़े विद्यार्थी मूलतः पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ने के अभ्यस्त हैं। पाठ्यक्रम के बाहर के विषयों में उनकी रुचि कम है। वे पाठ्यक्रम को ही पढ़ाई मानकर चलते हैं। साथ ही ये विद्यार्थी यह भी चाहते हैं कि यह पढ़ाई कष्टसाध्य न हो और परीक्षा में नंबर भी बढ़िया आए जिससे बाद में नौकरी मिलने में कोई असुविधा न हो।फलतः कॉलेज या विश्वविद्यालय में दाखिला मिलने के दूसरे दिन से ही बनी-बनाई लेखनी या तथाकथित नोट्स जुगाड़ की पद्धति चलती रहती है। उसके बाद ठीक परीक्षा के कुछ चंद महीने पहले से इन नोटो को रटने की रटंत-विद्या शुरु होती है। किसी तरह से नोट्स रटकर परीक्षा के उपरांत डिग्री हासिल करना इनके जीवन का मूल उद्देश्य और लक्ष्य होता है।                      
                         इस दौरान कमसंख्यक छात्र-छात्राएं होते हैं जो व्यक्तिगत श्रमसाध्य कोशिश के तहत लाइब्रेरी की ख़ाक छानकर पढ़ते हैं,हर रोज़ कक्षा में जाते हैं और खुद की मेहनत से लिखे लेख के आधार पर परीक्षा की तैयारी कर परीक्षा देते हैं।बाकि छात्र-छात्राएं इस कोशिश में रहते हैं कि किसी तरह पढ़ाई की लड़ाई में तेज़-तर्रार और आगे रहने वाले सीनियरों से पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने वाले विषयों पर नोट्स उपलब्ध हो जाए। इस दौरान ये छात्र-छात्राएं अपनी सारी महनत सीनियरों की चाटुकारिता या पैरोकारी में गुज़ारते हैं।बाकि समय मौज-मस्ती में व्यतीत करने में लगे रहते हैं।कक्षा में भी ये गैर-हाजिरी लिस्ट में अपना नाम दर्ज कराते हैं। 

                      
                         इसी प्रकार आगे चलकर विभिन्न प्रतियोगितामूलक परीक्षाओं जैसे नेट, सेट और एस.एस.सी. में भी ये महान विद्यार्थी व्यक्तिगत श्रम-अर्जित पढ़ाई न कर विभिन्न जगहों से जुगाड़े नोट्स को तोते की तरह रटकर यानी रटंत पद्धति से परीक्षा में उत्तीर्ण होने की जी-तोड़ कोशिश में लगे रहते हैं।इस दौरान भी इन्हें किसी भी तरह के पुस्तकालयों में पढ़ते न देखा जाता है और न किताब खरीदते।फलतः गहरे ज्ञान के अभाववश परीक्षा हॉल में भी विभिन्न तरह की गलत हरकतों मसलन् कानाफूसी कर उत्तर जानना, इशारों से दूसरों तक उत्तर पहुँचाना, उत्तर के लिए चीट इत्यादि की सहायता लेना आदि में ये पारदर्शी नज़र आते हैं।दिलचस्प बात यह है कि इन हरकतों के बावजूद भी अगर ये परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होते तो शिक्षकों पर या कॉपी जांचने वालों पर सारा दोष मढ़ देते हैं और जिस विद्यार्थी को सफलता मिलती है उसके बारे में गलत अफवाह फैलाने में लगे रहते हैं।कायदे से इस तरह की हरकतें बंद होनी चाहिए।                       
                         यह समस्या प्रायः हर विषय की है चाहे वह कला का विद्यार्थी हो, विज्ञान का, वाणिज्य का या किसी और विषय का।किंतु खास तौर पर साहित्य के क्षेत्र में यह समस्या ज़्यादातर नज़र आ रहा है जहां इस तरह की विद्यार्थियों के सुंदर नमूने हैं।इन विद्यार्थियों का सीधा तर्क है – गहन अध्ययन की क्या ज़रुरत है, बने-बनाए नोट्स पढ़ो और पास करो। इससे दो चीज़ साफ होती है --- एक, विद्यार्थियों में अध्ययन करने यानी मेहनत करके पढ़ाई करने की प्रवृत्ति का लोप हो रहा है और दूसरा, ज्ञान अर्जित करने की इच्छा का व्यापक तौर पर अभाव दिखाई दे रहा है। नौकरी की हुड़दंग में लगे ये विद्यार्थी किसी भी विषय से संबंधित अधकचरी जानकारी रखते हैं। डिग्री हासिल कर अपने को शिक्षित समझ अपनी अधूरी जानकारी के आधार पर पढ़ने वाले विद्यार्थियों से तर्क करते हैं। कम ज्ञान के बावजूद इनके व्यवहार में विद्वतापूर्ण अचरण भी गौरतलब है।
                          किंतु यह चिंता की बात है कि यदि इस तरह की रटी-रटंत या नौकरी-आधारित पढ़ाई क्रमशः प्रचलन में आता जाएगा तो आने वाली नई पीढ़ी भी इन पूर्वजों से दीक्षा लेकर इसी ओर मुखातिब होगी। फलतः शिक्षा के स्तर में भयानक गिरावट आएगी। शिक्षा के स्तर और मूल्य में इस गिरावट का नतीजा यह होगा कि शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर से लेकर विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों के ज्ञान स्तर के अभाव का हमें हर पग पर सामना करना होगा। फलतः देश में शिक्षित अज्ञानी की संख्या में भी इज़ाफा होगा जो हर हाल में ग्रहण योग्य नहीं हो सकता। इस अज्ञान की वजह से ही आज शिक्षित होने के बावजूद युवा-वर्ग की मानसिकता में बदलाव नज़र नहीं आ रहा। शिक्षित होकर भी वे भयंकर पिछड़े और संकुचित मानसिकता के शिकार नज़र आते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि व्यक्ति को तराशने में शिक्षा की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बेहतर शिक्षा के फलस्वरुप एक बेहतर इंसान का निर्माण होता है। किंतु यदि शिक्षा डिग्री के कारण ली जा रही है और हमें अधजल गगरी भेंट कर रही है तो ऐसी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं है। इस तरह की शिक्षा से व्यक्ति में अवसरवादिता, चाटुकारिता जैसी बीमारियां घर कर जाती है और आगे चलकर भी वे अपने जीवन में इसी तरह के हथकंडे अपनाते नज़र आते हैं। स्वाभाविक तौर पर यह एक गंभीर विवेचन का मसला बनता है चूंकि यह धड़ल्ले से समाज में फैलता जा रहा है। इसका पार्श्व-प्रभाव है, ज्ञान में कमी और संबंधित विषय में गहराई का अभाव।
                          
वस्तुतः इस मामले में देश की शिक्षा विभाग की ओर से पहल बेहद ज़रुरी है। विभिन्न विश्वविद्यालयों के निर्धारित पाठ्यक्रम में बदलाव ज़रुरी है। हर दो साल के अनन्तर इस पाठ्यक्रम में बदलाव होना चाहिए। इसके साथ ही नए-नए विषयों की ओर रुझान हो और विभिन्न वर्तमानकालिक मुद्दों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। खासकर साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न नए उपन्यासों, कहानियों, कविताओं और आलोचनाओं को पाठ्यक्रम में फेर-बदल कर रखा जाए। हालिया दौर की सूचनाओं से छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाए। पाश्चात्य साहित्य में हो रहे परिवर्तन से उन्हें वाकिफ़ कराया जाए। इससे विद्यार्थियों के पढ़ने की रुचि में इज़ाफा होगा और तथाकथित ढर्रे पर चली आ रही नोट्स पद्धति की पढ़ाई का मौका उन्हें नहीं मिलेगा। चूंकि नए विषयों पर नोट्स मिलना मुश्किलदेह है, अतः वे संबंधित विषयों से संबंधित विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करने में अपना मन लगाएंगे। इसके लिए विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर पढ़ने की आदत विकसित होगी। पुराने घिसे-पीटे विषयों की विदाई होने पर सुधी और अध्ययनशील विद्यार्थियों को भी नए अनुसंधान का मौका मिलेगा। पढ़ाई में उनकी रुचि बढ़ेगी और वे नए-नए विषयों पर आधारित शोध-कार्यों की ओर मुखातिब होंगे।




Monday 2 December 2019

स्त्री के वस्तुकरण में विज्ञापन की भूमिका


                                  

स्त्री के वस्तुकरण में जितनी मदद विज्ञापन ने की है उतना किसी और माध्यम ने नहीं।विज्ञापन ने स्त्री के इमेज को वस्तु में तब्दील करके उसे लोकप्रिय बनाने में गहरी भूमिका अदा की है।यही वजह है कि आज स्त्री घर में प्रयोग होने वाली सामान्य वस्तुओं से लेकर खास किस्म के प्रोडक्ट को भी विज्ञापनों के ज़रिए प्रोमोट करती हुई नज़र आती है। स्त्री साबुन, शैम्पु, हैंडवाश, बर्तन, फ़िनाइल, डीओ, तेल, विभिन्न तरह के लोशन, क्रीम, टॉयलेट क्लीनर से लेकर पुरुषों के दैनंन्दिन प्रयोग की चीज़ों के विज्ञापनों में भी दिखाई देती हैं। पुरुषों के अंर्तवस्त्रों या डीओड्रेंट्स के विज्ञापनों में तो अधनंगी स्त्रियां पुरुषों के साथ एक खास किस्म के कामुक अंदाज़ में प्रस्तुत की जाती हैं। इसका उद्देश्य होता है, स्त्रियों के कामोत्तेक हाव-भाव और सम्मोहक अंदाज़ के ज़रिए पुरुष दर्शकों को निर्दिष्ट विज्ञापन के प्रति आकर्षित करना और उस निश्चित ब्रांड के प्रति दर्शकों के रुझान को बढ़ाना जिससे वे उसे जल्द खरीदें।

                    यह देखा गया है कि खास किस्म के विज्ञापनों में भी स्त्री-शरीर के ज़रिए विज्ञापनों का प्रचार किया जाता है। मसलन् मोटापा कम करने या कहें स्लिम-फिटहोने के विज्ञापन मुख्यतः स्त्री-केंद्रित होते हैं। चाहे यह विज्ञापन मशीनों द्वारा वज़न कम करने का हो या रस और फल-सेवन के उपाय सुझाने वाला लेकिन हमेशा स्त्री-शरीर ही निशाने पर रहता है। इसमें एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली अधनंगी (बिकिनी पहनी) स्त्री पेश की जाती है तो दूसरी तरफ स्लिम-अधनंगी स्त्री। एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली के खाने का चार्ट दिखाया जाता है तो दूसरी तरफ कम वज़न वाली का। फिर दोनों की तुलना की जाती है कि किस तरह कम वज़न वाली स्त्री मशीन के प्रयोग से या कम सेवन कर आकर्षक, कामुक और सुंदर लग रही है, दूसरी तरफ अधिक वज़न वाली स्त्री वीभत्स, अकामुक और कुत्सित लग रही है। इसलिए फलां फलां चीज़ सेवन करें या फलां मशीन उपयोग में लाएं ताकि आप भी आकर्षक और कामुक दिख सकें।

                  आजकल फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइट्स में भी इस तरह के विज्ञापनों का खूब प्रचलन हो रहा है। इस तरह के विज्ञापनों का स्त्री को अपमानित करने और वस्तु में रुपांतरित करने में बड़ी भूमिका है। मध्यवर्ग की कुछ स्त्रियां इन विज्ञापनों से प्रभावित भी होती हैं। वे या तो मशीन का उपयोग करने लगती हैं या फिर डाइटिंग के नुस्खे अपनाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञापन केवल स्त्री-शरीर ही नहीं स्त्री-विचार पर भी हमला बोलता है। वह तयशुदा विचारों को लोगों के दिमाग में थोपता है और इसमें खासकर स्त्रियां निशाने पर होती हैं।
                 यह विज्ञापनों का स्त्री-विरोधी या पुंसवादी रवैया है जो स्त्री की व्यक्तिगत इच्छाओं और आकांक्षाओं पर हमला करता है। स्त्री के शरीर को केंद्र में रखकर स्त्री को कमसिन होने के लिए उत्तेजित करना कायदे से उसे पुंस- भोग का शिकार बनाना है। स्त्री के ज़ेहन में यह बात बैठाया जाता है कि अगर वह कमसिन होगी तो वह पुरुषों को आकर्षित कर पाएगी। स्त्रियों में विज्ञापनों के ज़रिए यह जागरुकता पैदा किया जाता है कि वो अपने शरीर को लेकर सचेतन हो, उसे सही शक्ल दें। जायज़ है कि स्त्रियां अपनी इच्छाओं को महत्व न देकर दूसरों की या कहें पुरुषों की इच्छानुसार अपने को ढालने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती है। वह अपने को आकर्षक और कामुक स्पर्श देने के लिए अपार मेहनत करती रहती है। धीरे-धीरे स्त्री अपनी स्वायत्त इच्छाओं के साथ-साथ अपना स्वायत्त व्यक्तित्व तक खो देती है और हर क्षण पुरुषों की इच्छानुसार परिचालित होती रहती है। अंततः स्त्री व्यक्तिकी बजाय पुरुषों के लिए एक मनोरंजक वस्तुया भोग्याबनकर रह जाती है।

                   सवाल यह है कि अधिकांश विज्ञापन स्त्री-शरीर केंद्रित ही क्यों होते हैं ? क्या स्त्री के अधोवस्त्र या निर्वस्त्र शरीर के ज़रिए विज्ञापन प्रचारित करने पर वस्तु के मार्केटिंग में इज़ाफा होता है? क्या इससे विज्ञापन कंपनी को फायदे होते हैं? ध्यान देने की बात है कि विज्ञापनों ने स्त्री के परंपरागत रुप को तवज्जो दी है लेकिन स्त्री का आधुनिक रुप विज्ञापनों में एक सिरे से गायब है। टी.वी. विज्ञापनों में स्त्री हमेशा अच्छी खरीददार के रुप में नज़र आती हैं लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका शून्य के बराबर होता है। वह विज्ञापनों में धड़ल्ले से विभिन्न वस्तुओं को खरीदती, प्रयोग करती नज़र आती हैं, पुरुष के फैसले पर अमल करती दिखाई जाती है जो उसका परंपरागत रुप है। किंतु उसके आधुनिक रुप को सामने नहीं लाया जाता जिसमें वह खुद फैसले लेती हो और उसे भी पुरुषों के समान अधिकार उपलब्ध हों। स्त्री के परंपरागत रुप को तवज्जो देने वाले विज्ञापन स्त्री को फिर से सामंती मानसिकता और सामंती विचारों से जोड़ने लगता है। उसे मुक्त सोच और मुक्त कार्य की आज़ादी से वंचित करता है। स्त्री के दूसरे दर्जे की पुरानी इमेज को कायम रखने में मददगार होता है।
                    बुद्धि और मेधा पर ज़ोर देने वाले विज्ञापनों में स्त्रियों की भूमिका केवल मां तक सीमित रहती है। मसलन् टी.वी. पर आने वाले विभिन्न पेय पदार्थों (कॉमप्लैन, हॉरलिक्स से लेकर पीडिया-स्योर तक)के विज्ञापनों में मुख्यतः लड़कों को ही हेल्थड्रींक पीकर लंबाई बढ़ाते और मेधा का विकास कराते दिखाया जाता है। सिर्फ मां के किरदार में एक औरत अपने बेटे को हेल्थड्रींक पिलाती हुई दिखाई देती हैं। लेकिन लड़कियों को केंद्र में रखकर कभी इस तरह के विज्ञापन नहीं बनाए जाते। इन हेल्थड्रींक्स के प्रयोग से मेधा में इज़ाफा होता है या नहीं यह दीगर बात है लेकिन इस बात की पुष्टि ज़रुर होती है कि विज्ञापन स्त्रियों के उन्हीं रुपों को प्रधानता देता है जो शरीर के प्रदर्शन से संबंध रखता है, उसकी बुद्धि और मेधा के विकास से नहीं, उसकी पढ़ाई से नहीं, उसकी सर्जनात्मकता से नहीं, उसकी अस्मिता से नहीं।

                  कायदे से उन विज्ञापनों पर सख्त़ पाबंदी लगनी चाहिए जो स्त्री-अस्मिता के बजाय स्त्री शरीर को प्राथमिकता दे और स्त्री को माल में तब्दील होने में भरपूर मदद करें। यह बेहद ज़रुरी है कि ऐसे विज्ञापन बनाए जाएं जो स्त्री के आधुनिक रुपों को सामने लाए। स्त्री हमें मौलिक फैसले लेते हुए दिखाई दे। ऑब्जेक्टके बजाय व्यक्तिके रुप में स्त्री सामने आए।



Wednesday 22 May 2019

सोश्यल मीडिया और बधाईवादी


यह बधाईवाद का युग है। आभासी माध्यम में किसी की सद्य प्रकाशित पुस्तक, प्रकाशित आलेख पर आप बधाई और शुभकामनाएँ न दें तो आप असामाजिक और अन्य की उपलब्धि और खुशियों पर ईर्ष्या करने वाले व्यक्तित्व माने जा सकते हैं। एक समय था जब किताब आने पर लोगों में उसके पठन की आदत थी। अब किताब के प्रकाशक की जानकारी लेना, अनुक्रम देखना, किताब मंगवाना, उसे खरीदकर पढ़ना, पढ़कर आलोचना करना मूल्यहीन हो गया है। प्रकाशित आलेख को पढ़ना महत्व नहीं रखता; आलेख का छपना महत्वपूर्ण है। आलेख में परिश्रम दिखाई दे रहा है या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है; महत्व रखता है छपना। ध्यान रहे प्रकाशित आलेख पर ही आभासी बधाईयाँ मिलती हैं। इसी तरह किताब छपना ज़रूरी है। कई समय किताब छपने के नाम पर ही आप बुद्धिजीवी की श्रेणी में आ जाते हैं। तो महत्व की बात है कि बधाई ही परम सत्य है!

कई समय देखा गया है कि किसी लेखक ने पांच साल पुरानी अपनी किताब की जानकारी देते हुए फेसबुक में अपने पुस्तक की छवि डाली। बधाईवादियों ने त्वरित गति से आकर बिना कुछ पढ़े केवल चित्र के आधार पर उसे नई किताब मानकर बधाइयों का तांता लगा दिया। एक मिनट में पच्चीस बधाइयाँ। इस प्रकार बधाईवाद में अपार शक्ति है कि वह क्रमशः पुरानी किताब को ताज़ी किताब में रूपान्तरित कर दे और आपको बधाई-सागर में डुबकी लगाने पर मजबूर कर दें। आप लाख समझाएं बधाईवादी न माने कि पुस्तक पहले प्रकाशित हुई है। मान लेने पर वे बधाई कैसे दें? सनद रहे बधाईवादी केवल बधाई के शेर हैं।


आभासी माध्यम में मिठाई देखकर उसका आभासी स्वाद लेने का जो सुख है वही खोखला सुख लेखक को ‘बधाई’ नामक शब्द से मिलता है! आभासी में ‘बधाई’ प्राप्ति की कुल संख्या से भी लेखक की लोकप्रियता व प्रतिष्ठा का संबंध जुड़ गया है। यह बधाईवाद की परंपरा सोश्यल मीडिया यानि आभासी समाज से शुरु होते हुए दफ्तर और असली समाज तक व्याप्त हो गया है। लगातार बधाई पाते-पाते आप लोगों की नज़रों में अलग विशेषता रखते जाते हैं। सामान्य इंसान से महान लेखक की यात्रा तय करने लगते हैं। लेकिन यह बधाई देने वाले पढ़ते नहीं है, न किताब, न आलेख, वे केवल बधाई देते हैं। स्पष्ट है ज्ञानहीन बधाईवादियों के बीच में आप ज्ञान का परचम लहराते हैं और बधाईप्राप्ति से गदगद हो उठते हैं। जब ‘लेखन’ मूल्यहीन हो जाए और ‘बधाई’ मूल्यवान तो उस युग को हम ‘बधाईवाद’ का युग कहते हैं।

Sunday 3 March 2019

धर्मनिरपेक्षता और रामविलास शर्मा





राजनीतिक तौर पर सांप्रदायिकता एक संवेदनशील मुद्दा है। सांप्रदायिकता अनेकरुपा है, बावजूद इसके उसका लक्ष्य एक है— वह है सामाजिक विभाजन पैदा करना तथा राष्ट्रीय एकता को खंडित करना। रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता के आर्थिक आधार, सामाजिक आधार और अंतर्राष्ट्रीय सहजिया संप्रदाय का गंभीरता से उद्घाटन किया है। यह ध्यान देने की बात है कि रामविलास शर्मा ने आज़ादी के बाद इस मसले पर सबसे अधिक बारीकी से विश्लेषण प्रस्तुत किया है। आम तौर पर हिन्दी के लेखक सांप्रदायिकता के सवाल पर तदर्थ रुख अपनाते रहें हैं। हिन्दी लेखकों में एक वर्ग सीधे हिन्दू सांप्रदायिकता की हिमायत करता रहा हैं। दूसरी कोटि ऐसे लेखकों की है जो राजनातिक अवसरवाद के शिकार रहें हैं।

          रामविलास शर्मा के सांप्रदायिकता विरोधी लेखन का महत्व इस संदर्भ में भी है कि उन्होंने आधुनिक साहित्य, जातीय साहित्य, जातीय संस्कृति और भारतीय साहित्य की अवधारणाओं के साथ सांप्रदायिकता विरोधी साहित्य दृष्टि का विकास किया। रामविलास शर्मा के लिए सांप्रदायिक समस्या महज राजनीतिक समस्या नहीं हैं बल्कि वे इसे साहित्य के धर्मनिरपेक्ष परिप्रेक्ष्य के विकास के पथ की प्रमुख समस्या मानतें हैं।

 रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता को पूंजीवादी संवृत्ति माना। एक साक्षात्कार के दौरान सांप्रदायिकता के विकास के कारणों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे खयाल से दो कारण हैं। एक कांग्रेस ने जो गलत नीतियां अपनाईं उससे जनता में असंतोष बढ़ा। इसका लाभ सांप्रदायिक ताकतों ने उठाया। यह तो मुख्य कारण है। दूसरा कारण यह है कि आम जनता में जो असंतोष बढ़ा उसे लेकर वामपंथी दलों को जो काम करना चाहिए था—जैसे जनता को इकट्ठा करना, गरीबों को संगठित करना और गलत नीतियों के खिलाफ जनमत तैयार करना—वह नहीं हुआ। इस वजह से भी सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ने का मौका मिला।”

                            रामविलास शर्मा ने कांग्रेस की सांप्रदायिकता-विरोधी दृष्टिकोण की आलोचना की और कांग्रेस की नीतियों में निहित प्रतिक्रियावादी रवैये में इसकी जड़ें तलाश कीं। उनके अनुसार कांग्रेस का सन् बीस, तीस और छियालिस के क्रांतिकारी उभार को रोकने, सन् पैंतीस के काले-कानून को लागू करने का परिणाम हुआ भीषण दंगे। भारत का विभाजन और विभाजन के बाद और भी भीषण दंगे। जैसे-जैसे दंगे हुए वैसे-वैसे सांप्रदायिक संगठन और भी मजबूत हुए।
रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता  के साथ साम्राज्यवाद के अंतस्संबंध की खोज की है। उनके अनुसार सांप्रदायिकता के खिलाफ़ संघर्ष का आधारभूत कार्यक्रम साम्राज्यवाद के खिलाफ़ सुसंगत संघर्ष से जुड़ा है। उनके अनुसार, “भारत में फासिस्टवाद का खतरा वास्तविक है। यह फासिस्टवाद जर्मनी की तरह एकाधिकारी पूंजीवाद का प्रतिनिधि नहीं है। वास्तव में वह साम्राज्यवाद का सहयोगी है और उसका मुख्य आधार सामंती अवशेष अथवा अनुत्पादक पूंजीपति वर्ग है। राष्ट्रवाद की विचारधारा को तोड़-मरोड़कर और जातीय संस्कृति को साम्प्रदायिक जामा पहनाकर वह अपनी शक्ति बढ़ाता है।”                                                                    
                उनके अनुसार फासीवाद विरोधी संघर्ष में प्रत्येक जाति के इतिहास की उपलब्धियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसका जनता पर गहरा असर पड़ता है। रामविलास शर्मा का मानना था कि सांप्रदायिकता और बुनियादपरस्ती एक ही चीज़ है। इन दोनों का धर्म से कोई संबंध नही है।बल्कि धर्म के मूल सिद्धांतों को तोड़-मरोड़ कर वर्तमान पूंजीवादी हितों से जोड़ना उसका लक्ष्य रहता है। सांप्रदायिकता के तर्कजाल को विश्लेषित करते हुए उन्होंने लिखा कि सांप्रदायिक दल राष्ट्रीय एकता पर बल देतें हैं, किंतु बहुजातीय राष्ट्रीयता की उपेक्षा करतें हैं। वे धर्म आधारित जातीयता की वकालत करते हैं। वे कहतें हैं कि हिन्दुत्ववादी भारत में अनेक भाषाओं का अस्तित्व स्वीकारतें हैं किन्तु इन भाषाओं के बोलने वाली जातियों का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। ऐसे अनेक प्रगतिशील समीक्षक हैं जो रामविलास शर्मा को संघ के दृष्टिकोण का प्रतिपादक कहतें रहें हैं। इन राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी इतिहासकारों को ध्यान में रखकर उन्होंने कहा ,“जितने भी सम्प्रदायवादी इतिहासकार हैं,उनका मूल उद्देश्य यह दिखाना है कि हिन्दुओं के वास्तविक शत्रु मुसलमान हैं और मुसलमानों के हिन्दू हैं,और दोनों के सबसे बड़े हितैषी अंग्रेज हैं।”

     रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता की प्रकृति में निहित दंगे की संस्कृति का विस्तार से विश्लेषण किया है।दंगे क्यों होतें हैं? दंगों की प्रकृति क्या एक जैसी रही है?उनका मानना है कि ये दंगे नही ,जनता का कत्लेआम है। पुलिस और फौज के बड़े अफसरों,नवाबों,राजाओं और बड़े-बड़े ज़मींदारों और पूंजीपति नेताओं, मुनाफाखोरों और चोर-बाजार के आढ़तियों की साजिश से ये संगठित किए गए हैं।उनके अनुसार सांप्रदायिकता का हमला जनता पर ही नही बल्कि संस्कृति और इन्सानियत पर किया गया हमला है।यह हमारे स्वाधीनता संग्राम की धर्मनिरपेक्ष विरासत के खिलाफ खुली जंग है। यह चुनौती है समूची जनता को और खास तौर पर लेखकों के लिए कि वे अगला कदम ज़िंदगी की तरफ उठातें है या मौत की तरफ। यह चुनौती हमारी मनुष्यता और देशभक्ति के लिए भी है।
                           रामविलास शर्मा के अनुसार सांप्रदायिकता वस्तुत: प्रतिक्रियावाद है जो वर्ग-संगठनों को तोड़ता है और वर्गीय-शक्तियों को क्षीण करता है। किसानों और मजदूरों की एकता में भी संप्रदायवाद बहुत बड़ा बाधक है। इतने स्पष्ट रुप में अपने विचारों को रखने के बावजूद रामविलास शर्मा को सांप्रदायिक कहा गया और उनके सांप्रदायिकता विरोधी दृष्टिकोण को नजरअंदाज किया गया। उन्होंने कहीं भी संघ के समर्थन में बात नहीं कही।कभी भी उन्होंने सांप्रदायिक शक्तियों का साथ नहीं दिया। इसके विपरीत उन्होंने बराबर सांप्रदायिकता के विपक्ष में लिखा है। संप्रदायवादियों की तीखी आलोचना की है।उनका मानना था “यदि हम धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दे सकें,सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष कर सकें और इतिहास और संस्कृति का सही ज्ञान दे सकें तो यह हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।”






पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...