Monday 9 May 2022

रवीन्द्रनाथ और शांतिनिकेतन

 


वैशाख के महीने का पच्चीस तारीख कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्मतिथि है। आज का दिन बंगाल के लिए विशेष महत्व रखता है। इस दिन शांतिनिकेतन, जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी(रवीन्द्रनाथ का घर), रवीन्द्रसदन समेत समस्त बंगाल के छोटे-बड़े हिस्सों में  उत्सवी मिज़ाज़ रहता है। आज बंगाल के कोने-कोने में रवीन्द्रनाथ को उनके गानों, उनकी कविताओं, उनके नाटकों, उनके नृत्यनाट्यों, कहानियों, उपन्यासों के ज़रिए याद किया जाता है। अपने जन्मदिन को केंद्र में रखकर स्वयं रवि ठाकुर ने एक कविता और गाने की रचना की थी--

'हे, नूताॅन देखा दीक बार-बार जन्मेरो प्रोथोमो शुभोक्खाॅन।'

अपने जीवनकाल में रवीन्द्रनाथ को अल्पसंख्यक बंगाली जनसमुदाय द्वारा असम्मान, कड़ी निन्दा एवं कटुक्ति का सामना करना पड़ा था। उनकी कहानियों और कविताओं को अश्लील, अनैतिक और असामाजिक तक कहा गया था। 

नोबेल पुरस्कार मिलने की खुशी भी ऐसे निन्दा-रसिकों के कारण वे मना नहीं पाए और उन्होंने आनन्दोत्सव में मग्न बंगालियों से कहा था,"आज आप लोगों ने सम्मान का जो सुरापात्र मेरे मुख के सम्मुख रखा है उसे मैं होठों से छू तो सकता हूं लेकिन इसे मैं अंतर से ग्रहण नहीं कर सकता। इसकी महत्ता से मेरे चित्त को दूर रखना चाहता हूं।"

रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि जिन्होंने सबसे ज़्यादा मेरा अपमान किया है, मेरी मृत्यु के पश्चात वे ही स्मरण-सभा में जाकर मेरी प्रशंसा करेंगे और खूब तालियां बजाएंगे। लेकिन मेरे सच्चे अनुरागी तमाम प्रचार से दूर रहकर मुझे मन ही मन स्मरण करेंगे, प्यार करेंगे।

अपनी आत्मकथा में रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती के निर्माण की व्यथा-कथा का वर्णन किया है-

"विश्वभारती के निर्माण में कितना परिश्रम करना पड़ा, क्या मेरे बाद इसे कोई मूल्य देगा? जब चारों ओर से ऋण का बोझ बढ़ रहा था तो छोटी बहू के गहने बेचने पड़े। स्कूल के लिए कोई लड़का देने को राज़ी नहीं था, अपने घर में खिलाकर-पहनाकर बाहर से लड़के खोजने पड़े और कुछ लोग भाड़े की गाड़ी से उनके घर जाकर स्कूल आने को मना कर आते थे। देशवासियों से मुझे ऐसी मदद भी मिली! उस समय मेरे जीवन में एक के बाद एक मृत्युशोक का कहर हावी था। उस दुख का इतिहास अब लुप्तप्राय है। लोगों को लगता है मैं वैभवपूर्ण अमीर हूं लेकिन उस समय मैं पूरी तरह से निस्सहाय हो चुका था।"

 रवीन्द्रनाथ की कविताओं में स्वच्छंद प्रेम का व्यापक रूप से चित्रण हुआ है। उस समय के बंगाल के परंपरावादी, स्वच्छंद प्रेम के ज़िक्र भर से बहुत नाराज़ होते थे। उनका मानना था प्रेम हो, लेकिन वह स्वच्छंद न हो, यानी प्रेम बंधनयुक्त हो। लेकिन प्रेम बंधनयुक्त नहीं होता, प्रेम है ही स्वच्छंद। जहां प्रेम है वहां स्वच्छंदता है। 

रवीन्द्रनाथ की निरावरण प्रेम की कविताएं इन्हीं परंपरावादियों को संबोधित करते हुए उनकी आलोचना में लिखी गई है। आज भी ऐसे परंपरावादी हैं जिनके लिए स्वच्छंद वर्णन, खुले रूप से प्रेम का चित्रण करना, प्रेमिका के शारीरिक अंगों पर कविता लिखना आदि असभ्यता है। आज इन्हें समझाने के लिए रवीन्द्रनाथ नहीं है लेकिन उनकी कविताएं हैं। 'चुंबन', 'बाहु' और 'स्तन' इस दृष्टि से लिखी गई असाधारण कविताएं हैं।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...