देश में किसानों की
आर्थिक बदहाली और उसके परिणामस्वरूप उनकी आत्महत्या की घटनाएं पिछले दो दशकों से एक
बहुत बड़ी चुनौती के रुप में सामने आया है। यह बेहद परेशान करने वाली घटना है कि देश
का प्रमुख उत्पादक वर्ग एवं देश की अन्नदाता शक्ति गरीबी और आर्थिक तनाव का बुरी
तरह से शिकार हैं और इसकी मार को झेलने में असमर्थ, लगातार आत्महत्या के अलावा
उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा रह गया है।
ध्यानतलब है कि सन्
1990 से किसानों की आत्महत्या की खबरों ने लगातार समाचारों में जगह बनाई है।
सर्वप्रथम महाराष्ट्र से किसान आत्महत्याओं की खबरें सामने आई। इसके बाद भारत के
विभिन्न राज्यों से लगातार आत्महत्या की घटनाएं दर्ज होती गईं। एन.सी.आर.बी. (नैशनल
क्राइम रेकार्ड्स ब्यूरो) के मुताबिक सन् 1995 से सन् 2010 तक भारत में कुल
256,913 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
भारत के अंतर्गत
महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्णाटक, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में किसान-आत्महत्याएं
ज़्यादा हुई। नैशनल क्राइम रेकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक सन् 2006 में
अकेले महाराष्ट्र में 4,453 किसानों की आत्महत्या की घटनाएं हुई जो देश में हुई
कुल आत्महत्याओं(17,060) की संख्या का एक-चौथाई हिस्सा था। सन् 2008 में भारत में
कुल किसान-आत्महत्याओं की संख्या 16,196 थी तो सन् 2009 में बढ़कर 17,368 हो गई। सन् 2010 में यह संख्या 15,964 हुई। सन् 2011 में यह संख्या 14,027 दर्ज हुआ। सन् 2013 में यह संख्या घटकर 11,700 दर्ज हुआ। सन् 2014 में 5,642 दर्ज हुआ।एन. सी. आर. बी. के अनुसार भारत में हर दिन 46 किसान आत्महत्या करते हैं। इन राज्यों के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल जिसे ‘राइसबोल ऑफ़ ईस्ट’ कहा जाता है, में भी
किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं की है जिनमें से अधिकतर किसान बर्धमान जिले
से संबंधित हैं। बैंकों से लिए गए उधार का ब्याज चुकाने में असमर्थ तथा अपने
पैदावार के अत्यधिक कम मूल्यों से परेशान होकर इन किसानों ने अपने प्राण त्याग
दिए। इनके अतिरिक्त छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में भी आत्महत्या की घटनाएं हुई।
सन् 2002 में कारगिल(Cargill) और मॉनसैन्टो(Monsanto) कंपनियों ने भारतीय बाज़ार में जी.एम. बीज का
प्रचार किया। ये सर्वप्रथम गुजरात में प्रयुक्त हुआ, धीरे-धीरे ये बाज़ार में फैलता
गया और देशी कपासों की तुलना में जेनेडिकली निर्मित बी.टी. कपासों (Bt cotton) का प्रयोग ज़्यादा होने लगा। इन्हें कंपनियों से
खरीदने में किसानों को भारी कीमतें चुकानी पड़ती है। उदाहरण के लिए, सन्
1991 में किसानों को देशी कपास का
बीज 6 रुपया प्रति किलो की दर से प्राप्तहोता था लेकिन सन् 2014 में बी.टी. कपासों का वही बीज 4500 रुपया प्रति किलो की दर से बेचा जा रहा है। इससे
किसानों की सुविधाओं का अनुमान किया जा सकता है। दूसरी समस्या, इन बीजों की उपज के
लिए सिंचाई की ज़रूरत होती है यानि ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है, ज़्यादा
कीटनाशकों और उर्वरकों की ज़रूरत होती है लेकिन पैदावार उस तुलना में कम ही होता
है हालांकि इन्हें बाज़ार में प्रचार करते समय ये कहा गया था कि इसके पैदावार की
संख्या देशी कपासों की तुलना में कई गुणा अधिक होगा। तीसरी समस्या, सिंचाई की
सुविधा कमसंख्यक किसानों के पास है। अधिकांश किसान फसलों के लिए बरसात के पानी पर ही
निर्भर रहते हैं। वर्तमान में जलवायु में आए विभिन्न बदलावों के कारण अक्सर बारिश
ठीक से न होने से या सूखा हो जाने के कारण फसल मुरझा जाते हैं या मर जाते हैं,
इससे किसानों की व्यापक हानि होती है। किसान ऋण की चपेट में आ जाते हैं और इस कर्ज
को चुकाने का कोई वैकल्पिक माध्यम उनके पास नहीं होता। फलतः कोई उपाय न देख वे
आत्महत्या की शरण लेते हैं। इसके अतिरिक्त पंजाब
में किए गए एक शोध से ये भी पता चला है कि पंजाब के कई इलाकों में किसानों को
कीटनाशकों के प्रयोग का सही मात्रा का कतई अनुमान नहीं है। फलतः वे अत्यधिक मात्रा
में इन विषाक्त रसायनिकों का प्रयोग करते हैं जो कई बार उनकी मृत्यु के लिए
ज़िम्मेदार ठहरता है। इस तरह की घटनाएं आंध्र प्रदेश में भी देखने को मिली है,
खासकर कपास-उत्पादक किसान इसके शिकार हुए हैं क्योंकि कपास के उत्पादन में
कीटनाशकों की ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है।
बैंकों की सुविधाओं
का न होना भी किसानों के लिए एक बड़ी मुसीबत है। सन् 1993 से ही बैंकों की ग्राम्य
शाखाएं बंद कर दी गईं और शहरी इलाकों में जाकर शाखाएं खोली गई जहां विकास और प्रौद्योगिकी
की सुविधाएं उपलब्ध थी। इससे किसानों और गांववासियों को निश्चित तौर पर असुविधाओं
का सामना करना पड़ा। इधर गांवों में जो चंद बैंक बचे थे और हैं, वे किसानों को
उधार नहीं देना चाहते। किसानों को हाई-टेक बीज और रसायन की खरीददारी के लिए सरकारी
सुविधा के अभाव में गैर-सरकारी साहूकारों से उधार लेना पड़ता है और ये लोग अत्यधिक
ब्याज-दर मांगते हैं। जायज़ है इन उधारों को लेने के चक्कर में कोई उपाय न देखकर किसान
अपनी ज़मीन गिरवी रख देते हैं। अब अगर फसल खराब होते हैं तो किसानों का सब कुछ तबाह
हो जाता है। न फसल बिकती है और न कर्ज चुकाने का कोई उपाय ही बचा रहता है। फलतः
उन्हें न चाहते हुए भी साहूकारों का नौकर हो जाना पड़ता है। अंततः चिंताओं का बोझ
सहन करने में असमर्थ होकर ये किसान कीटनाशक खाकर अपना प्राण स्वाहा कर देते हैं।
जब केंद्र में मनमोहन
सिंह की सरकार थी तो उन्होंने किसानों की विविधमुखी समस्याओं को देखते हुए
महाराष्ट्र के ‘विदर्भ’ इलाके में दौरा किया और केंद्र सरकार की तरफ़ से 110 अरब के
आर्थिक पैकेज की घोषणा की। आत्महत्या करने वाले किसानों के घरों को भी एक-एक लाख
रूपए देने की घोषणा हुई। यहां तक कि भारत सरकार ने पूरे देश के किसानों के कर्ज
माफ़ कर दिए गए ताकि कर्ज के बोझ से पीड़ित किसानों को आत्महत्या से किसी तरह रोका
जाए लेकिन देखा गया कि इसके बाद भी आत्महत्याओं की संख्या में कोई खास कमी नहीं
आई। सवाल ये है कि सिर्फ कर्ज माफ़ कर देने भर से ही क्या किसानों की ज़िंदगी में
परिवर्तन आता है? जवाब है, नहीं। किसानों के जीवन की चौतरफा समस्याएं हैं जिन्हें
समझने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम ज़रूरी शर्त ये है कि किसानों के कर्ज़ को माफ़
करने के साथ ही साथ फसलों के लिए नई रकम किसानों को दे दी जाए जिससे फसल उगाने के
लिए जिस कीमत की ज़रुरत होती है उसे उपलब्ध करने में किसानों को दिक्कत न हो। साथ
ही पैदावार फसलों को सरकार खरीदने की व्यवस्था करे चाहे फसल अच्छी हो चाहे खराब। यदि
अच्छे फसलों को कंपनियां खरीदती है और खराब पैदावार को छोड़ देती है तो इसमें भी
नुकसान किसानों का ही होता है, फिर जाहिरा तौर पर ये कदम अप्रत्यक्ष तौर पर किसानों
को आत्महत्या के लिए मजबूर करता है।
किसान जिस गांव में
रह रहे हैं वहां उनकी चिकित्सा के लिए सुलभ व अच्छे चिकित्सालय का प्रबंध हो तथा केंद्र
सरकार की ओर से वहां निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाए अन्यथा दवाइयों का खर्च
उठाते-उठाते किसान आर्थिक तंगी के शिकार हो जाते हैं और आर्थिक बोझ को झेलते हुए प्राण
त्यागने के अलावा उनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होता। अगर चिकित्सालय दूर हैं तो
जाने-आने का खर्च झेलना भी साधारण किसान परिवार जिसकी आमदनी 2500 रूपए हो, के लिए
कष्टदायक है। इसलिए गांव में ही अच्छे निःशुल्क चिकित्सालय का होना निस्संदेह
ज़रूरी है।
किसानों के बच्चों
की पढ़ाई की दिशा में भी हमें निःसंदेह सोचना चाहिए। किसान के बच्चे गांव में ही
पढ़ पाएं और उन्हें दूर तक न जाना पड़े इसके लिए ज़रूरी है कि गांव में ही अच्छे
स्कूलों की व्यवस्था हो तथा ऐसे स्कूलों में अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
आम तौर पर देखा गया है कि गांवों के स्कूल बदतर हालात में पड़े रहते हैं, वहां न
अच्छी शिक्षा-व्यवस्था होती है न अच्छे शिक्षक। ऐसी अवस्था में किसानों के बच्चे
दूर-दराज के शहरों में शिक्षार्थ जाते हैं लेकिन समस्या यहीं से शुरू होती है। बच्चों
की सवारी का खर्च उठाना किसानों पर भारी पड़ता है जिसके फलस्वरूप वे बच्चों को पढ़ाना
छोड़ देते हैं। फलतः किसानों का भविष्य अंधकायमय हो जाता है। वह बच्चा जो भविष्य
में किसान परिवार में वैकल्पिक आमदनी का बड़ा श्रोत हो सकता था, खर्च के बोझ के
चलते उसकी पढ़ाई बीच में ही रोक दी जाती है। इसीलिए स्कूलों की समस्या और किसानों
के बच्चों की पढ़ाई की ओर सरकार को खास तौर पर ध्यान देना चाहिए।
हमें यह भी ध्यान
रखना होगा कि खेतों के आसपास के इलाकों में पेय पदार्थों का कारखाना न खोला जाए। कारण
इस तरह के कारखानों के लिए बड़े पैमाने पर पानी की ज़रूरत होती है और ये पानी
जाहिरा तौर पर गांव के तालाबों से ही खींचा जाता है। अगर पेय पदार्थों के लिए गांव
में उपलब्ध पानी का भंडार प्रयोग में लाया जाएगा तो खेतों में प्रयोग किए जाने
वाले पानी में स्वाभावतः कमी आएगी। इससे पानी का स्तर नीचे चला जाएगा। हरियाणा और
पंजाब में इस तरह की समस्या से दो-चार होना पड़ा है जहां जलस्तर नीचे चला गया है
और इसकी वजह से वहां ज़मीन दर ज़मीन पानी के अभाव में बिना खेती के पड़ा हुआ है। ताज़ा
आंकड़ों के मुताबिक हरियाणा के राज्यों के अधिकतर जिलों में जलस्तर 7.29 मीटर नीचे
चला गया है, जबकि महेंद्रगढ़ इलाके में यह 19.45 मीटर और फतेहबाद में 15.79 मीटर
नीचे हैं।[5]
इस प्रकार हम देखते
हैं कि किसानों में हो रही आत्महत्याओं के मूल कारण ये हैं— कर्ज का बोझ, नए बीजों
के ऊंचे मूल्यों के कारण उन्हें खरादने में परेशानी और फलस्वरूप कर्जगीर होना, अर्द्ध
शुष्क इलाकों में खेती की समस्या, कृषि से कम आय, खराब फसलों के बिक्री की समस्या,
वैकल्पिक आय के माध्यमों का अभाव, बैंक की सुविधाओं का न होना, अच्छे स्कूलों व
चिकित्सालयों का अभाव।
किसान जो देश का
प्रमुख उत्पादक वर्ग है, उनको आत्महत्या से रोकना और उन्हें हर संभव मदद करना
केंद्र व राज्य सरकार का दायित्व व अहम कर्तव्य बनता है। अगर किसानों की समस्याओं
की ओर से हम आंख फेर लेंगे तो देश का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। देश का पूंजीपति
वर्ग जब पांच सितारा होटलों में बैठकर अच्छा खाना खा रहे होते हैं या फिर महंगे
कपड़े पहनकर बड़ी-बड़ी सभाओं में हिस्सा ले रहे होते हैं, घर में चैन की नींद ले
रहे होते हैं उस समय गरीब किसान दिन-रात कड़ी धूप में अक्लांत परिश्रम करके खद्य
उत्पादन में लगा रहता है, वस्त्र उत्पादन के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है लेकिन अंत
में कष्ट और दुख के अलावा उसे कुछ नसीब नहीं होता। चुनाव के समय सारे दलों के
प्रत्याशी बड़े बड़े प्रलोभनों और वायदों के साथ गांवों में दौरा करते हैं और भोले-भाले
किसान परिवारों को यह आश्वासन देते हैं कि अगर उनकी सरकार बनती है तो किसानों की
अवस्था में आवश्यक सुधार कर देंगे लेकिन चुनाव के बाद कौन किसान और कौन परिवार,
अगले पांच साल तक फिर उन नेताओं को गांव के आसपास फटकते नहीं देखा जाता।
सोचने का विषय ये है
कि इस महनतकश वर्ग को अगर असहाय अवस्था में तकलीफ़ भरी ज़िंदगी जीने के लिए छोड़
दिया जाए और आत्महत्याओं को रोकने के लिए सरकार कोई खास कदम ना उठाए तो वह दिन दूर
नहीं जब हम दाने-दाने के लिए तरस जाएंगे। अगर दिन-व-दिन किसान खुदकुशी का पथ चुन
लेंगे तो फिर किसानों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज होगी और ये सिलसिला शुरु हो
गया है और जाहिरा तौर पर यह देश के लिए बहुत शुभ-संवाद नहीं माना जा सकता। इसलिए
ये बेहद ज़रूरी है कि किसानों की अवस्था में ज़रूरी बदलाव आए और किसान खुश हों। जिन
सुविधाओं के साथ आम जनता जी रही है किसानों को भी उन सारी सुविधाओं का हक बनता है।
ये बदलाव तभी संभव है जब किसानों की बेहतर परिस्थिति की ओर सरकार ध्यान दें। उन्हें
ऋणमुक्त किया जाए, उन तक सारी सुविधाएं पहुंचे। ये बेहद ज़रूरी है कि सरकार देश की
जमा पूंजी में से एक मोटी रकम किसानों पर खर्च करें, किसान परिवारों को खुशहाल
रखने की ओर नज़र डालें।
[1] . http://agrariancrisis.in/2011/12/20/ncrb-all-india-figure-1995-2010-256913-farm-suicides/
[2]
. http://en.wikipedia.org/wiki/Farmers'_suicides_in_India
[3]
. http://agrariancrisis.in/2011/12/20/ncrb-all-india-figure-1995-2010-256913-farm-suicides/
[4]
. http://archive.indianexpress.com/news/2.90-lakh-farmers-committed-suicide-during-19952011-govt/995981/
[5]. http://timesofindia.indiatimes.com/india/Groundwater-levels-depleting-fast-in-Haryana/articleshow/15611030.cms