Thursday 9 May 2013

देश और दुनिया की तमाम खबरों से आख़िर स्त्रियां इतनी अनजान क्यों है? – सारदा बनर्जी


                      

स्त्रियों की एक भयानक नकारात्मकता ये है कि वे देश और दुनिया की तमाम खबरों से एकदम अनजान रहती हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घट रही विभिन्न घटनाओं से वे बिल्कुल बेखबर हैं। उन्हें इन सबसे कोई लेना-देना नहीं। वैसे इस अज्ञता की वजह से उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता। वे अपनी तरह मस्त रहा करती हैं। जब टी.वी. चैनलों में रुचि लेने लगती हैं तो फिल्मी गाने सुनती हैं, फ़िल्म देखती हैं, कोई सीरियल, कोई प्रोग्राम देख हंस-हंसकर लोट-पोट होती हैं, दुखी भी होती हैं। और भी कई प्रतिक्रियाएं करती हैं। लेकिन खबरों में स्त्रियों की दिलचस्पी एकदम शून्य के बराबर है। यह बहुत कम देखा गया है कि स्त्रियां न्यूज़ में रुचि ले रही हैं, उसे नियमित रुप से सुन रही हैं, विभिन्न सोश्यल साइट्स पर इन खबरों को लेकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही हैं। यही वो जगह है जहां पुरुष स्त्रियों को मात दे जाते हैं।

देखा गया है कि पुरुष तुलनात्मक तौर पर खबरों में खास दिलचस्पी लेते हैं। इसे जीवन का ज़रुरी हिस्सा मानकर चलते हैं और देश-विदेश की खबरों के संबंध में अपनी राय भी रखते हैं, उसे इज़हार भी करते हैं। जब दोस्तों के साथ बैठे होते हैं तो उद्देश्यहीन वार्तालाप के साथ-साथ इन मामलों में भी रुचि लेते हैं। आलोचना-प्रत्यालोचना का एक ज़बरदस्त माहौल बनता है। लेकिन स्त्रियों के वार्तालाप के विषय घर से ही शुरु होकर घर पर ही खत्म हो जाता है। यही है चिंता की बात। स्त्रियों की बातचीत का विषय बहुत सीमित होता है। इसकी वजह है कि स्त्रियां अपने आप को घर की चारदीवारी में कैद करके रखती है। ये सोचने वाली बात है कि स्त्रियां आज बाहर निकल रही हैं, लिख-पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं, घर की ज़िम्मेदारियां भी बखूबी संभाल रही हैं फिर क्यों वे देश-विदेश की हकीकतों से अनजान बनी रहती हैं? क्यों उनकी मानसिकता घर के बाहर नहीं निकलता? ऐसा भी नहीं है कि घर में उन्हें समाचार देखने से रोका जाता है या पुरुष सदस्य द्वारा किसी समाचार चैनल को घूमाकर दूसरे चैनल में देने को कहा जाता है चूंकि पुरुष खुद समाचार में रुचि रखते हैं। अपितु ये देखा गया है कि स्त्रियां खुद समाचार से भाग रही हैं। जैसे ही घर के पुरुष सदस्यों का समाचार सुनना बंद होता है स्त्रियां तुरंत अपना प्रिय सीरियल लगा लेती हैं। आख़िर स्त्रियों का समाचार सुनने से भागने वाला रवैया क्यों है?  

नौकरी करने वाली स्त्रियां मजबूर होकर दुनिया का हाल-ओ-हकीकत जान तो लेती हैं लेकिन जब बात छेड़ी जाती है तो वे किसी विषय पर परिचर्चा या विचार-विमर्श करना पसंद नहीं करतीं। राजनीति पर बात होगी तो रवैया यही कि ‘ये सब तो फालतू चीज़ें हैं, नेता खराब है, राजनीति ही खराब है, दुनिया खराब है’ लेकिन इससे आगे क्या? देखा गया है कि अधिकतर स्त्रियां राजनीतिक पेंचिदगियों में रुचि नहीं लेतीं, राजनीति पर बात होती है तो पसंद नहीं करती, तुरंत विषय बदलने के लिए कहती हैं। अगर समाचार बलात्कार पर है तो पुरुष समुदाय को दस गाली देने के बाद फिर अपने पुराने पुंसवादी रवैये में आ जाती हैं। ‘क्यों रात को निकली थी, छोटे कपड़े पहनेगी तो तेरे साथ होगा या मेरे साथ’ या कहेंगी ‘आजकल लड़कियां भी कम नहीं, छोटे कपड़े पहनकर पुरुषों को आकर्षित करती हैं अपनी तरफ़, फिर रेप-रेप करती हैं।’ इस तरह की टिप्पणी कर ये स्त्रियां अपनी संकीर्ण मनोदशा का परिचय दे देती हैं। अगर समाचार किसानों, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों की बदहाली पर है तो प्रतिक्रिया दकियानूसी बातों द्वारा होती है, ‘देखो समाज में क्या क्या हो रहा है...अब ये ज़्यादा दिन नहीं चलेगा...पृथ्वी का ध्वंस करीब है।’

स्त्रियों का समाचारों से पलायन करने की इस मानसिकता के लिए ज़िम्मेदार वस्तुतः स्त्रियां खुद हैं। उन्हें अपने विज़न को बढ़ाना होगा, बड़े फ़लक पर जीवन को देखना होगा। समाचार को जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मानना होगा अन्यथा इसमें रुचि नहीं बढ़ेगी और जब रुचि नहीं होगी तो जायज़ है समाचार सुना-समझा नहीं जाएगा। समाचार के प्रति उदासीन भाव बरकरार रहेगा। स्पष्ट होता है कि स्त्रियां सामाजिक माहौल से अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रही हैं। वे भले ही बाहर निकले, स्वच्छंद जीवन जिएं पर कहीं न कहीं मानसिक तौर पर समाज, देश और दुनिया की तमाम वास्तविकताओं से कटी हुई रहती हैं और घर की गुलाम मानसिकता से छुटकारा नहीं पाती। ये ज़रुर है कि अल्पसंख्यक स्त्रियां न्यूज़ में रुचि लेती भी हैं, वे राजनीतिक कार्यों में शिरकत भी करती हैं लेकिन अधिसंख्यक स्त्रियों नहीं लेतीं।

इसलिए हर एक स्त्री को समाचार में दिलचस्पी पैदा करनी होगी। अपने ज्ञान के संकुचित दायरे को फैलाना होगा। विश्वपटल में घट रही विभिन्न घटनाओं से अवगत होना कोई खराब काम नहीं है, ये स्त्रियों को समझना है। जायज़ है जब ये बात समझ में आएगी तो फिर धीरे-धीरे समाचारों के प्रति अभिरुचि भी बढ़ती जाएगी। 

क्या घर में स्त्रियों के पास अपना एक स्वतंत्र कमरा उपलब्ध है? – सारदा बनर्जी


                   

स्त्री-विमर्श पर बात करते समय सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या स्त्री मुक्त है या नहीं है? ये मुक्ति वैचारिक और कायिक दोनों स्तरों पर होना चाहिए। ये मुक्ति व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी। निजी भी है और सार्वजनिक भी। स्त्री-मुक्ति के लिए ज़रुरी सवाल ये है कि स्त्री के पास अपना स्वतंत्र स्पेस है कि नहीं? स्वतंत्र स्पेस से मतलब है कि क्या घर में स्त्री के पास अपना एक अलग कमरा उपलब्ध है जहां वो अपनी पढ़ाई कर सके, अपने विचारों को सही दिशा दे सके, अपनी प्रतिभा को सर्जनात्मक रुप दे सके और सबसे बढ़कर अपने आप को वक्त दे सके। भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए सबसे ज़रुरी शर्त है कि स्त्रियों के लिए घर में एक अलग कमरा हो जैसा कि आम तौर पर पुरुषों को उपलब्ध होता आया है। ‘अ रुम ऑफ वनस् ओन’ में वर्जीनिया वुल्फ़ लिखती हैं कि कल्पना पर लिखने के लिए स्त्री के पास अपने कमरे और पैसे का होना ज़रुरी शर्त है। स्त्री का अपना कमरा हो जो केवल उसी का हो, उसमें स्त्री का अपना पुस्तकालय हो और साथ ही वे सारी चीज़े प्राप्त हो जिससे उसे लगाव है। इससे विचारों को समृद्ध होने में मदद मिलती है दूसरी ओर कल्पना को भी फैलने का मौका मिलता है।

स्त्री का स्वतंत्र स्पेस जहां अपने कमरे के भीतर हो, वहीं वह स्पेस कमरे के बाहर भी होनी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि जब कोई बहस या तर्क-वितर्क घर में छिड़ जाता है तो ज़्यादातर मामलों में उसमें पुरुष शामिल होते हैं। गरमागरम बहस होने लगती है, घर की स्त्रियां चुपचाप टुकुर-टुकुर पुरुषों का मुंह निहारती हैं। समझने की कोशिश करती है कि क्या कहा जाए और बाद में स्त्रियां शिरकत करने की भी अथाह कोशिश करती हैं। अपने लिए स्पेस ढूंढ़ने की कोशिश करती है। अगर एक-आध स्त्री उस बहस में शामिल होने की कोशिश करती है तो जैसा कि अधिकतर घरों में होता है कि उसे चुप करा दिया जाता है। स्त्रियों को ये एहसास दिलाया जाता है ये बहस बुद्धिजीवियों के लिए है, बेवकूफ़ों के लिए नहीं। और बुद्धि तो केवल जन्मजात रुप से पुरुषों को ही प्राप्त हुआ करता है। सो स्त्रियां चुप हो जाए, अपना काम करें(रसोई संभाले) वजह ये कि उसके द्वारा कहा गया पॉएंट किसी काम का नहीं है। अगर पुरुष किसी पुरानी पुंसवादी घिसी-पिटी थ्योरी पर भी बहस कर रहे हों तो स्त्रियों का फ़र्ज़ है कि वे उनकी हिमायत करें। यही आदर्श स्त्री-लक्षण है। लेकिन अगर वह स्त्री उसे काटने की कोशिश करती है तो पुरुष कई बार अपनी आवाज़ को ऊंची करके बोलने लगते हैं ताकि स्त्रियां खुद-व-खुद ‘शट अप’ हो जाएं। जायज़ है ज़्यादातर मामलों में घर की स्त्रियां चुप्पी साध लेती हैं। और अगर कोई स्त्री चुप नहीं होती या अपने मुद्दों पर अड़ी रहती है तो वह स्त्री आवारा, बदचलन, ज़िद्दी, अकड़ू, अहंकारी, शैतान, घमंडी, असभ्य जैसे कई कई सुंदर उपाधियों से अलंकृत होती है। 

सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर क्यों? क्यों स्त्रियां अपनी बात को कमतर या कम वज़न संपन्न बात समझकर चुप्पी साध लें? क्यों उसे बहस करने के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित होना पड़े और वह भी उसके अपनों से जो स्त्री को रसोई संभालने वाली तो मान सकते हैं लेकिन नागरिक नहीं? आखिर कब स्त्रियों को नागरिक मानकर उनकी बातों को मूल्य दिया जाएगा और उनकी अवहेलना नहीं होगी?

यही वह जगह है जिसे स्त्रियों को अपने लिए बनाना है। यानि अपना स्थान बनाना है। सोचने का, बोलने का, शिरकत का, पढ़ने का, हंसने का, रोने का, अपनी निजता का, अपनी मुक्ति का स्पेस बनाना है। स्त्रियों के लिए बेहद ज़रुरी है कि वे अपनी अभिरुचियों को समझे और जाने। जब तक वे खुलकर अपने आप को समय नहीं देगी, जब तक उन्हें घर के छोटे-छोटे कामों से फुरसत नहीं मिलेगी तब तक वे नहीं समझ सकतीं कि उनकी रुचि किन विषयों में है। जब स्त्री फ्री होगी तब वह निर्धारित कर पाएगी कि वह क्या चाहती है, कौन सी ज़िंदगी चाहती है, ज़िदगी में क्या-क्या चाहती है और क्या नहीं चाहती।



ज़ायज़ है जब स्त्री सिर्फ़ खाना नहीं पकाएगी, जब स्त्री सिर्फ़ बच्चे 
नहीं जनेगी तब वह अन्य सर्जनात्मक कार्यों के प्रति भी रुचि रखेगी। देश और दुनिया की तमाम हकीकतों पर नज़र रखेगी, उससे परिचित होगी और खुद को कामयाबी के मकाम पर भी देखना चाहेगी। ये होगा स्त्री-मुक्ति का पहला आयाम। दूसरा आयाम तब तय होगा जब स्त्री कामयाबी हासिल कर लेगी। युग-युग से स्त्री की ‘घरबंदी’ इमेज को तोड़ने में सक्षम होगी। जब स्त्री घर से बाहर निकलेगी, अपने वैचारिक रुढ़ियों से मुक्त होगी तभी अपने इच्छित कार्यों में सफलता हासिल कर पाएगी।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...