Thursday 22 September 2022

भाषा-प्रेम के मायने

 

 





हिन्दी दिवस 'इवेंट' में रूपान्तरित हो गया है। जब भाषा इवेंट का रूप धारण करता है तब भाषा में सहज ही क्षय के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। भाषा का कार्यक्रम बनना या कार्यक्रम तक सीमित हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है; यह भाषा-प्रेम के अवमूल्यन के चिह्न है। जब भाषा के प्रति प्यार और सम्मान कम हो जाता है तब प्रदर्शन की भावना बलवती होती है। फलतः भाषा कामचलाऊ चीज़ बन जाती है और भाषा दिवस, उत्सव दिवस में बदल जाता है।

भाषा-प्रेम से उत्सव का कोई संबंध नहीं है। भाषा तो बहती धारा है जो प्रेम के बलबूते पर ही ज़िन्दा रहती है। इस प्रेम के कई रूप हैं - पाठकों का प्रेम, लेखकों का प्रेम तथा संबंधित भाषा को बोलने वालों का प्रेम। भाषा दो रूपों में जनसमाज में बहता है— पहला साहित्यिक भाषा के रूप में तथा दूसरा लोक-भाषा रूपी प्रवाहमयी नीर के रूप में।

उत्सव दिवस में तब्दील होते ही भाषा-पर्व, खानापूर्ति पर्व में बदल जाता है। वर्तमान समय में दिवस का परिपालन बेहद ज़रूरी बन गया है ठीक जैसे माँ दिवस का पालनोत्सव। जो बच्चे कभी भी माँ के दुखों को जानने की कोशिश नहीं करते, जिनके पास माँ से बात करने का भी अवकाश नहीं होता, वे भी माँ दिवस के दिन फेसबुक में माँ पर एक पोस्ट डाल आते हैं। यानि माँ भी इवेंट में बदल चुकी है। हाड़-मांस की माँ जो रसोईघर में मेहनत करती है, घर को सुंदर व स्वच्छ रखती हैं, बच्चों के जीवन की हर छोटी चीज़ का ध्यान रखती हैं, बच्चों के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करती हैं, की तकलीफ़ समझने के लिए बच्चों के पास भले ही वक्त न हो लेकिन उत्सवी परिवेश का हिस्सा वे ज़रूर बन आते हैं। वजह यही है कि आज संवेदनाएं भी ‘इवेंट’ में बदल गई हैं। हर सुंदर अनुभूति तथा भावना के लिए एक ‘दिवस’ निर्धारित कर दिया गया है। वह अनुभूति चाहे मनुष्य के लिए हो चाहे ईश्वर के लिए।

आज भक्ति भी दिवस है। बाज़ारवाद किसी ख़ास दिन को ही आराधना का विशिष्ट दिन बताकर आम जन में उसका प्रचार-प्रसार करता है। अमुक नक्षत्र, अमुक योग, तमुक तिथि की ख़ासगी समझाकर लोगों को विभ्रमित किया जाता है। जबकि भक्तिकाल के कवियों ने कभी भी दिन पर नहीं भक्ति, प्रेम और त्याग पर ज़ोर दिया था। भक्ति नित्य के आचरण का हिस्सा होना चाहिए। माँ से तथा ईश्वर से प्रेम करना दैनन्दिन आदत का हिस्सा हो, उसे दिवस में लघुकृत करना उसके मूल्य को कमतर करना है। दरअसल बाज़ारवाद का यही उद्देश्य है— हर चीज़ को घटना में रूपान्तरित करो तथा उसे व्यावसायिकृत करो। आज धर्म भी व्यवसाय है। भगवान भी माल है, उसका क्रय-विक्रय होता है। हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदाय नहीं, मनुष्य नहीं, संवेदना नहीं दो लड़ाकू गुटों में रूपान्तरित हो चुके हैं। दलित तथा आदिवासी वोटबैंक है। स्त्रीवाद पर कविता लिखना वक्त की मांग के स्वरूप जनप्रिय कवि बनने का पैमाना है, ना कि स्त्री की समस्याओं के प्रति ज़िम्मेदाराना लेखन!

हिन्दी दिवस के दिन भाषा फुलों के गुच्छों, शिल्ड, तोहफों, फ़ुड-पैकेटों, चाय-बिस्किट, भाषणों आदि में बदल जाती है। भाषणों में बदलती भाषा ज़ायकेदार लफ़्ज़ों, श्रुतिमधुर वाक्यों और प्रशस्ति गान के भँवर में अठखेलियाँ करती हैं। भाषणों में वक्ताओं की हिंग्रेजी, भोजपुरी तथा अंग्रेज़ी मिश्रित खड़ी बोली के उच्चारण से खड़ी बोली हिंदी और अधिक निखर-संवर उठती है। जैसे हिंदी दिवस न हो हिन्दी-उद्धार दिवस हो!

हिन्दी दिवस के भाषणों में देश की अन्य भाषाओं से हिन्दी के साम्य को बैठाने की कोशिश भी की जाती है। मसलन् भारत की समस्त भाषाएं आपस में सगी बहनें हैं और बाकि सारी भाषाएं सौतेली या शरारती बहनें। ख़ासकर विदेशी भाषा अंग्रेज़ी के प्रति खूब वैमनस्य का भाव प्रकट किया जाता है, उसे लक्ष्य करके दुर्वचन भी उच्चरित होते हैं। विदेशी भाषा शत्रु भाषा तथा स्वदेशी भाषाएं मित्र भाषाएं आदि धारणा के फलस्वरूप हिंदी दिवस की पूरी कार्य-प्रणाली आगे बढ़ती है। भाषाओं के प्रति यह दृष्टि अत्यंत संकुचित एवं अनुदार है।

अगर आप किसी भाषा को खारिज करते हैं तो उस भाषा के साहित्य को भी स्वतः खारिज करते हैं। गौरतलब है कि साहित्य से साम्राज्यवादी दमन का कोई संबंध नहीं है कारण उत्तम या श्रेष्ठ साहित्य साधारण जनता की सृजनशील प्रतिभा की उपज होता है। साम्राज्यशाही देशों द्वारा पराधीन बनाए जाने के कारण यदि उनके देश में विकसित साहित्य को भी हम दमनकारी, त्याज्य या व्रात्य घोषित करें तो यह दृष्टिकोण की अनुदारता ही कही जाएगी।

साहित्य का संबंध मूलतः जनधारा तथा समाज की परिस्थितियों से होता है। समाज और जीवन की अंतःबाह्य परिस्थितियाँ साहित्य की उत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। अंतर्देशीय साहित्य का पठन हमारी दृष्टि, हमारी सोच एवं हमारे चिंतन के आयाम को प्रभावित तथा व्यापित करता है। जैसे सुरों की कोई भाषा नहीं होती, वह हर भाषा से परे अतीन्द्रिय है उसी तरह भावों की भी कोई भाषा नहीं होती। कोई भी भाव या अनुभूति जब भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है तब वह साहित्य कहलाती है।

मातृभाषा के प्रति प्रेम की भावना को बढ़ावा देने के लिए विदेशी भाषा पर अपशब्दों के तीर चलाना ज़रूरी नहीं। अंग्रेज़ी के प्रति नफ़रत के भाव बोने से क्या बोलचाल की भाषा में हिन्दी सुधार संभव है? हमारे नित्य की बोली में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों के अधिकाधिक व्यवहार के लिए सचेत प्रयत्न की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम अपनी-अपनी मातृभाषा को अंग्रेज़ी से हीन, कमतर, कम सुरूप न मानें। समस्या भाषा में नहीं हमारी मानसिकता में है। हम अंग्रेज़ी को ज़्यादा स्टाइलिश और स्मार्ट भाषा मानकर चलते हैं। यही वजह है कि शब्दों के इस्तेमाल के समय भी स्वयं वैभवपूर्ण लगने की चाह में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रचुरतम प्रयोग करते हैं। ऐसी भावना हीनग्रंथि से जन्म लेती है। अतः सुधार सोच व मनोदशा में ज़रूरी है। विदेशी भाषा को अपशब्दों से छलनी करने से न विदेशी भाषा को क्षति पहुँचती है और ना ही मातृभाषा समृद्ध एवं महिमामंडित होती है। मातृभाषा तब फलती-फूलती है जब हम अधिक से अधिक उस भाषा का प्रयोग अपनी आम बोलचाल, जीवनचर्या, लेखन में करें। जब बोलचाल की भाषा लेखन की भाषा बनती है तब वह समृद्ध होती है तथा उसका दायरा बढ़ता है।

हिन्दी दिवस की संगोष्ठियों की एक और ख़ास बात है भाषणों के मध्य 'मेरी भाषा महान' की हुंकार ध्वनि का सम्पूर्ण ओजस्विता से निकलना। यह भाषा का क्षेत्रियतावादी जयकारा है जो हिन्दी-हिन्दी करते-करते हिन्दू में रूपांतरित होने लगती है। जाहिरा तौर पर भाषा दिवस का तब्दीलीकरण हिन्दू दिवस में होने लगता है। यह हिन्दी को और अधिक संकुचित घेरे में आबद्ध करने वाली मानसिकता है जो सर्वथा त्याज्य है।

भाषा तब दीर्घजीवी बनती है जब हम संबंधित भाषा की पुस्तकों से प्रेम करें, उन्हें पढ़ें और उन्हें परिसंचारित करें। भाषा लिखने से बचती है, केवल बोलने से नहीं। अगर बोलने से बचती तो दुनिया की कई भाषाएं आज जीवित रह जातीं। पूरी दुनिया में लगभग तीन हज़ार भाषाएं संकटग्रस्त अवस्था में है। यूनेस्को के 2018 की शोध के अनुसार भारत में कुल बयालीस भाषाएं विलुप्ति की ओर अग्रसर है। यह बयालीस भाषाएं दस हज़ार से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती हैं। यूनेस्कों के अनुसार कोई भी भाषा जो दस हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाती हो, वह संकटापन्न स्थिति में है। भाषाविज्ञान विशेषज्ञ प्रोफेसर गणेश एन. देवी के अनुसार जहाँ कई भारतीय भाषाएं विलुप्ति के संकट से गुज़र रही है वहीं गोंडी, भीली, मिज़ो, गारो, खासी, कोकबोरोक आदि भाषाएं आगे बढ़ रही है। इन समुदायों के शिक्षित लोग इन भाषाओं में कविता, नाटक आदि लिख रहे हैं। नाटकों को खेला जा रहा है। गोंडी भाषा में फिल्में भी बनाई जा रही है। भोजपुरी फ़िल्मी उद्योग का प्रसार भी ऊर्ध्वमुखी है। हालांकि बोडो तथा संथाली भाषाओं के प्रसार में ह्रास दिखाई दे रहा है।

भाषा के क्षय का मूल कारण है संबंधित भाषाओं में साहित्य का अभाव। अन्य कारण हैं संबंधित भाषा की लिपि को पढ़ने तथा समझने वालों का अभाव। अगर सामान्य कुछ लिखा भी गया हो तो उसकी लिपि से परिचित न होने के कारण भी कई बार भाषाएं नहीं बचतीं। कई भाषाओं की तो लिपि ही नहीं होती जो एक अन्य कारण है। कोई भी भाषा सम्पन्न भाषा तभी बन सकती है जब हम भाषा को बोलचाल से आगे कविता, आलेख, निबंध, नाटक, उपन्यास को सम्प्रेषित करने का माध्यम बनाते हैं। तब भाषा की गतिशीलता भी स्वतः बढ़ जाती है। लोगों में उस भाषा की ग्रहणात्मकता एवं उसकी पहुँच का विस्तार होता जाता है। साथ ही भाषा की रूपरेखा में भी विपुल परिवर्तन आता है।

भाषा के साथ प्रदर्शन का कोई संबंध नहीं है जबकि भाषा के साथ ज्ञान का अंतरंग संबंध है। भाषा का विस्तार होता है पुस्तक प्रेम से। ‘मेरी मातृभाषा महान’ के नारे गूंजित करके आप उसे महानता के उच्चासन पर नहीं बैठा सकते। क्या कारण है कि आज भी अधिकांश लोग टेक्नालॉजी का प्रयोग करते समय रोमन में ही हिन्दी लिखते हैं? वे क्यों मोबाइल तथा लैपटॉप में लिखते समय यूनिकोड फ़ान्ट के रहते हए भी उसका प्रयोग नहीं करते? देवनागरी को अभ्यास का हिस्सा नहीं बनाते? अपनी भाषा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता ही आपके भाषा-प्रेम का सूचक है। भाषा के प्रति निष्ठा की भावना ही उसे जीवित रखने का एकमात्र ज़रिया है। भाषा का निरंतर एवं दैनन्दिन प्रयोग ही उसके रूप में सकारात्मक निखार लाता है। साहित्य उसे सौष्ठव एवं सुघरता से समृद्ध करता है। लेकिन कोरे नारेबाज़ी से भाषा-प्रेम का कोई संबंध नहीं होता।

 

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...