Tuesday 27 November 2012

पितृसत्ताक समाज में पुंसवादी पर्वों के चंगुल में फँसीं स्त्रियां – सारदा बनर्जी


                  
भारत का पितृसत्ताक ढांचे में बना समाज अपने उत्सवों में भी बेहद पुंसवादी है। देखा जाए तो त्योहारों का अपना एक आनंद होता है। लेकिन आनंद के उद्देश्य से जितने भी त्योहारों या व्रतों की सृष्टि की गई है वे सारे आयोजन कायदे से पितृसत्ताक मानसिकता का ज़बरदस्त परिचय देता है। यह एक आम बात है कि ‘व्रत’ शब्द से स्त्रियों का घनिष्ठ संपर्क एवं संबंध बन गया है और शायद व्रत आदि उपचार पितृसत्ताक समाज द्वारा स्त्रियों के लिए ही बनाया गया है। चूंकि स्त्रियां ही व्रत आदि करती दिखाई देती हैं, इसलिए यह माना जाने लगा है कि यह स्त्रियां का ही काम है। कोई भी पर्व हो नियम के अनुसार परिवार की सुख-समृद्धि, कल्याण और श्री-वृद्धि के आयोजन के रुप में स्त्रियों के जीवन में व्रत एक अनिवार्य हिस्सा बन गया है। सवाल यह है कि जहां हर त्योहार एक नई खुशी का सौगात लेकर आती है वहां पुरुषों के जिम्मे उपवास जैसे महाकर्म को ना सौंपकर स्त्रियों पर ही यह गुरु-दायित्व का भार देकर यानि इस तरह के नियम बनाकर उन्हें क्यों शारीरिक यातना मिश्रित खुशी दी जाती है? वैसे यह भी सही है कि इस पुंस-मानसिकता के षड्यंत्र को समझ पाने में असमर्थ स्त्रियां भी इन व्रतों में लगी रहती हैं और परिवार के अमंगल को दूर करने की हर तरह से कोशिश करती रहती हैं।
भाई दूज का पर्व भाई-बहन के संपर्क को नए उल्लास और प्यार से बांधने का पर्व है।बंगाल में इसे ‘भाईफोटा’ के नाम से जाना जाता है जिसमें भाई के जीवन में हर एक मंगल को स्वागत करने हेतु चंदन का ‘फोटा’ यानि माथे पर चंदन का तिलक लगाया जाता है। लेकिन यहां भी भाई यानि पुरुष की मंगलकामना मायने रखता है। बहने भूखी रहकर फोटा देती हैं, भाई को मिठाई से लेकर विभिन्न सुंदर एवं स्वादिष्ट पकवानें खिलाई जाती है। भाई खाता है, भूखे बहनों को बाद में खाने का अवसर मिलता है। राखी के पर्व में भी भाई या भैया की कलाई में राखी बांधना कायदे से पुरुष कल्याण का ही प्रतीक है। उसका भी उद्देश्य बहन के प्रेम-बंधन द्वारा भाई के जीवन में आने वाले खतरे से भाई को बचाना यानि पुरुष जीवन को बेहतर बनाना होता है। लेकिन सोचने की बात यह है कि बहनों की मंगलकामना के लिए कोई त्योहार क्यों नहीं बनाया गया जिसमें भाई या भैया व्रत करें और बहन की लंबी आयु और सुख-समृद्ध के लिए भगवान से याचना करें, बहन की कलाई में राखी बांधें या मंगल रुपी चंदन का तिलक लगाएं।
पति की मंगलकामना के लिए किए जाने वाले तमाम व्रतों का तो कहना ही क्या? करवा चौथ से लेकर शिवरात्री तक जितने निर्जला उपवास पतियों की दीर्घायु और सुंदर स्वास्थ्य कामना के लिए पत्नियों यानि स्त्रियों द्वारा किए जाते हैं उनमें भी पुरुष जीवन को विशेष प्राधान्य दिया जाता है। जहां पत्नियां भूखी रहकर पतियों के लिए त्याग करने में लगी होती हैं वहां पतियां मज़े में खा रहे होते हैं। अंत में भगवान के या पति नामक भगवान के दर्शन कर या पति के हाथों पानी पीकर व्रत भंग होता है। व्रत के पीछे स्त्री-शोषण की जो मानसिकता छिपी है उससे अधिकतर स्त्रियां अनजान हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि वे कोई महान त्याग या महान कर्म अपने पति के लिए कर रहीं है और यह सब करते समय शायद उनके मन में पति-परायण पत्नी या परम सती जैसी कोई फ़ीलींग होती होगी। यह पितृसत्ताक मानसिकता इतने बुरे तरीके से स्त्रियों के दिलो-दिमाग़ में घर कर गया है कि आज व्रत ने लगभग फ़ैशन का रुप ले लिया है। देखा जा रहा है कि आधुनिक स्त्रियां बड़े गर्व से इस सामंती आचार को अपने जीवन में स्वीकार करती जा रही हैं।
लेकिन ये भी सच है कि व्रत के इस फ़ेकनेस को पुरुष अच्छी तरह जानते हैं लेकिन वे कभी अपने परिवार की स्त्रियों के व्रत करने पर आपत्ति नहीं करते बल्कि पुरुषों के आधिपत्य-विस्तार के इन अवसरों को वे खूब एंजॉय करते हैं। ऐसे अनेक पुरुष हैं जो स्त्रीवादी सोच-संपन्न होने या वैज्ञानिक चिंतन को प्रधानता देने का बड़ा दावा करते हैं लेकिन उनके घर की स्त्रियों के साथ उनके व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि वे मानसिक रुप से कितने अवैज्ञानिक और पिछड़े हैं। इस तरह के पुरुष भी उपवासों को बड़ी प्राथमिकता देते हैं। गज़ब है ये देश जहां स्त्री-मूर्तियां तो बड़े धूम-धाम से पूजी जाती हैं लेकिन स्त्रियों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिया जाता। उनके जीवन की मंगलकामना के लिए कोई उपचार या पर्व नहीं मनाया जाता। यहां तक कि मां जिसकी हर एक व्यक्ति के जीवन में खास भूमिका होती है उसके लिए भी भारत में कोई खास दिन नहीं बनाया गया जिस दिन वह सम्मान से नवाज़ी जाए, उसे अपने कष्टों से कुछ राहत मिले।
स्त्रियों के प्रति पुरुषों का यह जो डॉमिनेटिंग रुख है यह केवल एक संप्रदाय की बात नहीं है, हर संप्रदाय में यह बात देखा जाता है।हर संप्रदाय में स्त्रियां ईश्वर के नाम पर हर तरह से शोषित एवं पीड़ित होती रही हैं और इसे अपना भाग्य समझकर स्वीकार करती रही हैं।
हर छोटे-बड़े त्योहारों, पर्वों को मनाने का उद्देश्य केवल जीवन में आनंद को स्वागत करना होता है। आनंद के बीच व्रत ,उपवास आदि को घुसेड़कर स्त्री जीवन को कष्टकर बनाने का कोई कारण नज़र नहीं आता। इसलिए सबसे पहले तो स्त्रियों को व्रत आदि से अपने आप को मुक्त करना होगा। व्रत आदि के पीछे जो पुंसवादी मानसिकता सक्रिय है उसकी सही पहचान स्त्रियों को करनी होगी। यह समझना होगा कि व्रत से पति के मंगल या अमंगल का कोई संपर्क नहीं। ना इसमें किसी तरह का आनंद है। कोई भी त्योहार हो, उसे स्वस्थ शरीर और मन से मनाना चाहिए और त्योहार के आनंद को जमकर उपभोग करना चाहिए। चूंकि स्त्रियों का भी हक बनता है कि वे भी जीवन में आनंद करें, जीवन को बेहतर बनाएं।

स्त्री-आधुनिकता विचारों में है या ‘जीन्स’ में – सारदा बनर्जी


                        


आज अधिकतर भारतीय स्त्रियां प्रचलित भारतीय वस्त्रों की जगह जीन्स को वरीयता दे रही हैं। इसकी वजह है मार्केट में जीन्स का व्यापक तौर पर उपलब्ध होना और जीन्स का कम्फर्ट-लेबल । इसके अतिरिक्त जीन्स स्टाइलिश ड्रेस के रुप में भी माना जाता है। साथ ही यह आधुनिकता का भी परिचायक है। यही वजह है कि आज धड़ल्ले से जीन्स मार्केट में बिक भी रहे हैं और आधुनिक पीढ़ी की स्त्रियां इसे खूब पहन भी रही हैं। किंतु सोचने और विचारने की बात है कि क्या आधुनिक कपड़ों से ही आधुनिकता की पहचान होती है ? क्या स्त्रियों के लिए आधुनिक कपड़ों के साथ-साथ आधुनिक विचार भी ज़रुरी नहीं ? देखा जाए तो आधुनिक कपड़ों और आधुनिक विचारों के साथ-साथ आधुनिक व्यवहार और आधुनिक आचरण भी आज की आधुनिकाओं के लिए बेहद ज़रुरी है। अगर हकीकत की पड़ताल की जाए तो ज़्यादातर मामलों में आज की आधुनिक लड़कियां केवल कपड़ों से ही आधुनिक होती हैं। आज कॉलेज या विश्वविद्यालय की लड़कियां जीन्स-टॉप जैसे आधुनिक वस्त्रों में दिखती तो हैं लेकिन उनकी मानसिकता में ट्रैडिशनल मानसिकता से कोई ज़रुरी फेर-बदल दिखाई नहीं देता। यानि उदार या ओपेन विचारों का उनमें सर्वथा अभाव दिखाई देता है। दूसरी ओर उनसे बात करते ही उनके दिमाग में पैठी पिछड़ी मानसिकता या पुंसवादी मानसिकता का ज़बरदस्त एफ़ेक्ट दिखाई देता है। यही वह मुद्दा है जिस पर विचार करने की ज़रुरत है कि आख़िर क्या कारण है आधुनिक कपड़ों ने तो हम स्त्रियों पर हमला बोल दिया लेकिन आधुनिक विचारों ने नहीं।
देखा जाए तो पुंस समाज ने स्त्रियों पर आधुनिक वस्त्रों का लबादा ओढ़कर उनमें आधुनिक होने का विभ्रम पैदा किया है। लेकिन आधुनिक सोच को बढ़ावा देने में पुंस-समाज की भूमिका प्राय: ज़ीरो है। भारतीय समाज में आज भी स्त्री अधिकारहीन है, उसे किसी भी मामले में स्व-निर्णय का हक नहीं है। परिवार में चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री सबके जीवन का निर्णयक-कर्ता वही पुरुष है। कारण यह कि स्त्रियों को फैसले लेने या अपने विचार को रखने का स्पेस ही नहीं दिया जाता। जीन्स-टॉप में फ़िट आज की अधिकतर स्त्रियां यह सोचती हैं कि वे तो आधुनिका हैं लेकिन उनकी यह सोच दरअसल गलत है। आज की अधिकतर(सभी नहीं) स्त्रियां आधुनिक कपड़ों में लिपटी पिछड़ी विचारों से लैस स्त्रियां है जिन्हें अपने साथ घट रही हर एक पल की सूचना अपने परिवारवालों को देनी पड़ती है, पुरुष घरवालों की मर्ज़ी के अनुसार चलना पड़ता है। वे अपने पसंदीदा फील्ड में नहीं पढ़ सकतीं, पसंदीदा लड़के से शादी नहीं कर सकतीं, पसंदीदा जिंदगी नहीं जी सकतीं। तो आखिरकार उनके जीवन में आधुनिकता है कहां ?
मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि स्त्रियां जीन्स पहनना छोड़ दें और भारतीय वस्त्र पहनकर ही आधुनिक विचारों से संपृक्त हों। बल्कि यह कि स्त्रियों की यह मौलिक अभिरुचि हो कि वह क्या पहने क्या नहीं। साथ ही उनके विचार भी मौलिक और आधुनिक हो, ना कि पराए या पुराने। सर्वप्रथम तो स्त्री विचारों पर पुंस आधिपत्य बिल्कुल न हो तो दूसरी ओर स्त्रियां खुद अपने विचारों में आधुनिकता का स्वयं समावेश करें। वे अपनी अस्मिता के प्रति सचेत हों, अपनी दृष्टि से अपने सौंदर्य को परखें और अपनी रुचिबोध से परिचालित हों ना कि पुरुषों के। पुरुषों की इच्छानुसार स्वयं को ढालने की कोशिश न करें। अपने लिए अपने आप को ब्यूटीफाई करें ना कि पुरुषों की नज़रों में पर्फ़ेक्ट होने के लिए। अपनी प्रतिभाओं को पहचानकर जीवन में सही कदम बढ़ाएं ना कि पुंस घरवालों के चुने हुए रास्ते पर चलें। जब तक इन आधुनिक मुद्दों में हेर-फेर नहीं होगा तब तक स्त्री जीन्स पहनकर भी आधुनिका नहीं हो सकती यानि स्त्री मेंटली पुरुष आधिपत्य में ही सिमटी रह जाएगी और उन्हीं के द्वारा परिचालित होती रहेंगी।
इक्कीसवीं सदी की स्त्रियों के लिए यह ज़रुरी हो गया है कि कपड़ों के साथ-साथ उनके विचारों में भी आवश्यक बदलाव आए क्योंकि जब तक वे आधुनिक विचारों से लैस नहीं होंगी तब तक अपने संवैधानिक अधिकारों और समाज व परिवार में व्याप्त पुंसवादी रवैये के प्रति जागरुक नहीं होंगी। पितृसत्ताक मानसिकता से मुक्ति के लिए स्त्रियों को सचेत होना पड़ेगा। स्त्री-सचेतनता के लिए आधुनिक विचारों को दिल खोल कर स्वागत करना होगा। उदार मानसिकता को अपनाना होगा जिससे वे स्वच्छंद हो सकें, मुक्त हो सकें। मॉडर्न एटीट्यूड का विकास कर उसे अपने जीवन में लागू करना होगा। 

Sunday 11 November 2012

स्त्री और कृष्ण-चरित्र – सारदा बनर्जी


             


क्या कारण है कि स्त्रियों में मिथकीय नायकों में राम की अपेक्षा कृष्ण ज़्यादा पॉप्यूलर हैं ? कृष्ण को लेकर स्त्रियों में जितनी फैंटेसी, प्रेम और उत्सुकता दिखाई देती है उतनी उत्सुकता राम को लेकर नहीं। कृष्ण को लेकर सुंदर कल्पनाएं करने, कथाएं रचने और चर्चा करने में स्त्रियां जितनी रुचि लेती हैं उतनी राम-कथा में नहीं। वजह यह है कि स्त्रियां लिबरल चरित्र को ज़्यादा पसंद करती हैं और उसे अपने निजी जीवन में अहमियत भी देती हैं।कृष्ण चरित्र में स्त्रियों को स्त्री-मुक्ति की भावना दिखाई देती है, इस चरित्र में उन्हें स्त्री-अस्मिता का बोध होता है। कृष्ण का चरित्र मुक्त विचार, मुक्त सोच, मुक्त क्रिया और मुक्त जीवन को प्रधानता देता है। यही कारण है कि कृष्ण और कृष्ण-कथा स्त्रियों को ज़्यादा अपील करता है।
आज स्त्रियां जीवन और समाज में अपनी आइडेंटिटी को लेकर काफ़ी सचेत हैं। साथ ही वे समाज से स्व-मर्यादा और स्व-सम्मान भी चाहती हैं और यह सम्मान का बोध उन्हें समाज रुपी कृष्ण-चरित्र में महसूस होता है।कृष्ण के चरित्र की ख़ासियत यह है कि वह स्त्री-मुक्ति का पक्षधर है। वह स्त्रियों के अस्तित्व को चलताऊ ढंग से नहीं देखता बल्कि उसे विशेष मर्यादा देता है, हर एक स्त्री की व्यक्तिगत इच्छाओं और मनोदशाओं को खास सम्मान करता है। यह चरित्र संपर्क में रहने वाली हर स्त्री की प्राय हर एक इच्छा को पूर्ण करता है। हर छोटी बात को अनुभूति के धरातल पर समझता है। स्त्रियां इस उदार चरित्र से स्वभावत: आकर्षित होती हैं और कृष्ण में अपने आदर्श पुरुष को देख पाती हैं। यही वजह है कि कृष्ण-राधा की कथाओं की विभिन्न कल्पनाओं में स्त्रियों को जितना आनंद मिलता है उतना राम-सीता की कहानियों में नहीं। फैंटेसिकल चिंतन में भी कृष्ण एक उदार चरित्र के रुप में स्त्री-हृदय में व्याप्त है।
कृष्ण के चरित्र की दूसरी विशेषता उसका हंसमुख स्वभाव है।चाहे सीरियल हो चाहे फिल्म हर जगह कृष्ण का चरित्र एक सुंदर हंसी के साथ सामने आता है। स्त्रियों को इस हंसमुख स्वभाव से बेहद प्यार है।सदियों से अपने हक के लिए लड़ रही स्त्रियां पुरुषों से केवल अच्छा व्यवहार और एक स्वस्थ हंसी ही चाहती हैं और वह भी उन्हें नहीं मिलता। कृष्ण का मनमोहक रुप और उससे झर-झर निसृत सुंदर हंसी कहीं न कहीं स्त्री-हदय को मुग्ध करता है।
देखा जाए तो राम का चरित्र भी स्त्री को पर्याप्त सम्मान करता है और वह एकपत्नी-व्रत चरित्र भी है फिर भी क्या वजह है कि स्त्री-हृदय में राम की अपेक्षा कृष्ण-चरित्र ही ज़्यादा छाया हुआ है। हो सकता है सीता की अग्निपरिक्षा जैसी मार्मिक घटनाओं से स्त्रियां कहीं न कहीं आहत होती हैं और राम के चरित्र को नापसंद करती हैं या राम के चरित्र से उन्हें घोर शिकायत है। ध्यानतलब है कि स्त्रियां उस चरित्र को ज़्यादा पसंद करती हैं जो समाज की परवाह न करें, जो केवल अपने हृदय की बात मानें, स्त्री-हृदय को पढ़ें, उसे सम्मान करें और ये सारे गुण प्रकटत: कृष्ण-चरित्र में है।
कृष्ण के चरित्र की तीसरी विशेषता है उसका सखा-भाव या कहें उसका फ्रेंडली एटीट्यूड। स्त्रियां आम तौर पर अपने संपर्क के हर एक पुरुष में फ्रेंडली एटीट्यूड को चाहती है, पुंसवादी रवैया और दमनात्मक व्यवहार बिल्कुल नहीं चाहती। कृष्ण–चरित्र में मेल शोवेनिस्टिक एटीट्यूड एक सिरे से गायब है। वहां स्त्री-पुरुष में मित्रता का संपर्क है चाहे उम्र में कितना भी फर्क हो। कृष्ण-कथा में कृष्ण जिन स्त्रियों के संपर्क में रहते हैं, बात करते हैं सबसे उनका फ्रेंडली रिलेशन दिखाई देता है। स्त्रियां भी अपनी व्यक्तिगत पीड़ाएं और आंतरिक अभिलाषाएं कृष्ण से शेयर करती हैं। वैसे देखा जाए तो स्त्रियों की व्यक्तिगत बातों और पीड़ाओं को राम के चरित्र ने भी सुना और समझा है लेकिन राम के चरित्र में फ्रेंडली एटीट्यूड का अभाव दिखाई देता है। यही वो जगह है जहां कृष्ण स्त्री-मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पॉज़िटिव रुप में सामने आते हैं।
राम और कृष्ण दोनों ही चरित्रों में दुष्ट-दलन की शक्ति, शत्रु-निधन-क्षमता इत्यादि गुण देखे जाते हैं। लेकिन दिलचस्प है कि स्त्रियों को इन गुणों से कोई लगाव नहीं है। कारण यह है कि शक्ति, शौर्य आदि से स्त्री आकर्षित नहीं होती। स्त्री सर्वप्रथम विनम्र व्यवहार से मुग्ध होती है जो कृष्ण और राम दोनों चरित्रों में मौजूद है। साथ ही स्त्री सम्मान व मर्यादा की आकांक्षी होती है। वह पुंसवादी रवैया तो बिलकुल नापसंद करती है। पुंस-व्यवहार में वह हमेशा अपने लिए रेस्पेक्ट को खोजती है। सबसे अहम है वह अपने लिए स्पेस चाहती है और कृष्ण के चरित्र की यह खासियत है कि वह स्त्रियों को पर्याप्त स्पेस देता है। स्त्री-अनुभूति को महत्व देता है। फलत स्त्रियों के लिए कृष्ण का चरित्र जितना आत्मीय है उतना राम का नहीं है। कृष्ण के चरित्र से स्त्रियों की जितनी रागात्मकता है उतनी राम के चरित्र से नहीं। इसलिए स्त्रियों में कृष्ण जितने पॉप्यूलर हैं उतने राम नहीं।   


पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...