Tuesday 15 January 2013

मर्दवादी महिषासुर और स्त्रीवादी दुर्गा – सारदा बनर्जी


                          

लोग स्त्री पर जब भी बात करते हैं तो उसे मां, बहन, बीवी, चाची, बुआ, ताई के नज़रिए से देखने पर ज़ोर देते रहते हैं। लेकिन वे स्त्री को एक नागरिक के नज़रिए से नहीं देख पाते। एक स्त्री की सबसे अहम और आधुनिक पहचान नागरिक की पहचान है। वह मां, बहन, बीवी, चाची से पहले एक नागरिक है और बाकि जितने भी पहचान है वो मातहत होते हैं। नागरिक चेतना के अभाव में मनुष्य पशु के समान है। इसलिए यह सरकार, समाज और परिवार का दायित्व है कि वह एक स्त्री को बचपन से नागरिक चेतना से लैस करें। एक स्त्री नागरिक पहले है बाद में मां। नागरिक पहले है, बाद में बहन। नागरिक पहले है, बाद में पत्नी। हो सकता है मां को किसी दिन खाना बनाने का मन न हो तो उसे फ़ोर्स नहीं किया जा सकता। यह उसका नागरिक अधिकार है कि वो अपनी इच्छानुसार काम करे। लेकिन भारत में तो मां की परिभाषा भी खाना बनाने वाली औरत है, स्वतंत्र अस्तित्व-संपन्न स्त्री नहीं।
कुछ मर्दवादी चिंतक हैं तो दिलचस्प टिप्पणी करते हैं, “ आप भी विवाह करेंगी तो आपको भी दुल्हन बनकर किसी पुरुष के घर ही जाना होगा! ” या दुराग्रह आधारित उवाच पढ़ें, “आजकल मैडम जैसी विचारधारा वाली अनेक बहुएँ घरों में आ रही हैं और सास ससुर के साथ पति की और अंतत: परिवार की शांति हमेशा को समाप्त हो रही है!” बेसिकली इन परंपरावादी और मर्दवादी चिंतकों में स्त्रियों को सिर्फ़ दुल्हन बनाने की जो सामंती प्रवृत्ति है यही खतरनाक है। ये पिछड़ी सोच वाले यह नहीं समझते कि एक स्त्री दुल्हन बनने से पहले एक नागरिक बनेगी। सदियां गुज़र गई दुल्हन बनाते-बनाते। शायद नागरिक बनाने में सैंकड़ों साल खर्च करने पड़ेंगे। एक लोकतांत्रिक मनुष्य होने के नाते स्त्री में नागरिक चेतना पैदा करना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है। वह अच्छी दुल्हन भी तब बनेगी जब वह अच्छी नागरिक बनेगी। लेकिन इन मर्दवादियों को स्त्रियों को घर में ही दुल्हन बनाकर सेवा कराने की बात जचती है। दुल्हन बनी स्त्री अच्छी लगती है, नागरिक चेतना संपन्न स्त्री नहीं। ज़रुरी है कि हम स्त्री को पहले नागरिक मानें और उसके नागरिक हकों को परिवार से लेकर बाहर समाज तक लागू करें।
मर्दवादी विश्लेषक कहते हैं, “ हमारे जीवन का उद्देश्य बस अन्धादुंध पैसा कमाना और पैसे की दौड़ में शामिल होना नहीं होना चाहिए..हमारे सामाजिक मूल्यों, संस्कृति, परम्परा को बचाना भी हमारा कर्त्तव्य है ” सवाल ये है कि औरत को घर में बंद कर आप परंपरा कैसे बचा सकते हैं? परंपरा, संस्कृति आदि औरत से पहले है या बाद में? औरत ज़िंदा रहे इसके लिए ज़रुरी है कि वह बाहर निकले, समाज में शिरकत करे, रोटी कमाए। वह शिक्षित हो और उससे भी बढ़कर समाज का हिस्सा हो। लेकिन परंपरावादी मर्द स्त्री को परंपरा, संस्कृति की घेरेबंदी में कैद कर उसे इज्ज़त से नवाज़ने की फ़ेक बातें करते रहते हैं। स्त्री वही अच्छी लगती है जो घर की चहारदिवारी में कैद रहे। मर्द की हां में हां मिलाए। मर्द के अनुकूल काम करे। मर्दवादी महान उद्गार पढ़ें, “स्त्री में जो स्त्रेण गुण या सामर्थ्य है, वही उसे अद्वितीय और अनुपम बनाती है! ” यही वह मर्दवादी सोच है जो स्त्रियों को ज़िंदगी भर ‘अनुपम’ और ‘अद्वितीय’ कह-कहकर उसका मानसिक शोषण करता आया है। उसे लोकतांत्रिक हकों से वंचित करता आया है, उसे हाशिए पर डालता आया है। जब तक स्त्रियों में अपने अधिकारों के प्रति सचेतनता नहीं होगी, इन मर्दवादी शब्दों के प्रति जागरुकता नहीं होगी तब तक उनमें नागरिक चेतना नहीं आएगी। जब नागरिक चेतना होगी तब परिवार भी अच्छे होंगे।
मर्दवादी स्त्री पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हैं, “आप अपने चश्मे का नंबर या कलर बदल कर देखेदुनिया अलग नज़र आयेगी.. ” इन्हें कोई समझाए कि स्त्री को किसी चश्मे की ज़रुरत नहीं है। लोकतंत्र में एक ही चश्मा है वह है संविधान का चश्मा। नागरिक की आंखें यानि नज़रिया उस चश्मे को मज़बूती देती है। दरअसल ये परंपरावादी स्त्री को लोकतंत्र के बाहर देख रहे हैं। ज़रा स्त्री को भी लोकतांत्रिक नज़रिए से देखें ये मर्दवादी।
ओल्ड फ्रेमवर्क में सोचने के कारण ये मर्दवादी विवाह-विच्छेद के लिए भी स्त्रीवादी सोच-संपन्न स्त्रियों को कसूरवार साबित करते हैं। लिखते हैं, “आज क्या कारण है की घर टूटने और विवाह-विच्छेदन की घटनाये आम हो गयी हैं…(क्योंकि, बराबरी के हक़ की लडाई, अब अहंकार में बदल गयी है) ?” इनकी समस्या यह है कि ये किसी भी विषय पर रैशनली नहीं सोचते, परंपरागत घिसी मानसिकता से विचार करते हैं। स्त्री-अस्मिता को अहंकार-अस्मिता का नाम देते हैं। दुर्भाग्य से ये मर्दवादी हर लेख के नीचे ‘जय भारतीय नारी’ का नारा देते हुए स्त्री के प्रति अपनी सामंती सोच और मानसिकता को ज़ाहिर कर देते हैं क्योंकि ये तीन शब्द अपने लहज़े के साथ किसी तरह स्त्री-सम्मानसूचक नहीं लगते।
स्त्रीवाद पर लेख लिखिए मर्दवादी झेल नहीं पाते और धड़ल्ले से अपशब्दों का इस्तेमाल करने लगते हैं मसलन् ‘स्त्रीवादी झंडा लेकर खड़ी भीड़’ आदि। कमाल है जनाब! ना आप स्त्रियों के हित के लिए लेख लिखेंगे ना हमें लिखने देंगे। ये परंपरावादी प्रकृति की दुहाई देते हुए स्त्री को कोमलांगी, सौम्य, लावण्यमयी, तन्वी और पुरुष को कठोर, बहादूर, सख्त़ आदि अलंकारों से विभूषित करते हैं। कायदे से ये पुरुष इन्हीं उपमाओं की आड़ में स्त्रियों का मानसिक शोषण सदियों से करते आए हैं। देखा जाए तो इसी मानसिकता ने स्त्री को अधिकारहीन बनाया और हाशिए पर रखा। स्त्री-भाषा संबंधी लेखों की दिशा इन महाशयों को अनिश्चित और दिग्भ्रमित नज़र आती है और स्त्री-पुरुष समानता की बातें इन्हें तत्परता दिखती है।
वस्तुत पश्चिम में जैसे मेल-शोवेनिज़्म है वैसे ही भारत में मर्दवाद का प्रतीक महिषासुर है। दुर्गा का जो मिथ महिषासुर के बहाने रचा गया है वह इन मर्दवादी सोच रखने वाले पुरुषों को ध्यान में रखकर ही तय हुआ है। आधुनिक और स्त्रीवादी सोच संपन्न दुर्गा इन परंपरावादी, जड़तावादी, रुढ़िवादी, मर्दवादी विचारों से लैस महिषासुर रुपी पुरुषों के निधन के लिए विवेक रुपी अस्त्र का प्रयोग करती है। इसी तरह स्त्रियों को भी इन मर्दवादी विचारों से लैस पुरुषों का सामना करने के लिए और इनसे छुटकारा पाने के लिए नागरिक चेतना रुपी दुर्गा यानि स्त्री की ज़रुरत है। जब स्त्री नागरिक चेतना से संपन्न होगी तभी मेल-शोवेनिज़्म को दूर कर पाएगी। आज गली हुई मानसिकता और मर्दवादी अहंकार बोध ही स्त्रियों का बड़ा शत्रु है। इससे निजात पाने के लिए नागरिक-चेतना अहम है।


मातृसत्ताक समाज और ‘वोल्गा से गंगा’– सारदा बनर्जी



    
                   
राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ मातृसत्ताक समाज में स्त्री वर्चस्व और स्त्री सम्मान को व्यक्त करने वाली बेजोड़ रचना है। इस रचना में यदि स्त्रियों के ओवरऑल पर्फ़र्मेंस और प्रकृति पर नज़र दौराया जाए तो पता चलता है कि मातृसत्ताक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं। स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी। स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था। आज स्त्री-मुक्ति के लिए चाहे वह कायिक हो चाहे मानसिक अनेक शाब्दिक और कानूनी जद्दोजहद के दौरान हम गुज़रते हैं। फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के संविधान प्रदत्त अधिकार की प्राप्ति के लिए कितनी फजीहत हो रही है, लेख पर लेख लिखे जा रहे हैं लेकिन स्त्रियों की हालत जस की तस है। इस संदर्भ में मातृसत्ताक समाज अपने डिसिशन्स और कार्यों में स्त्री को कितनी आज़ादी देता रहा है, यह सोचने और विचारने की बात है। सिर्फ स्वच्छंदता ही नहीं परिवार के मूल्यवान फैसले भी मां लेती थी और परिवार के सारे पुरुष उस फैसले को बिना इंटरप्शन के फ़ोलो करते थे। है ना अचंभे की बात!
‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है। कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, ईरान और यूरोप की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं। शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी ठीक जैसे आज के पितृसत्ताक समाज में मुसीबतों के समय पुरुषों का बढ़-चढ़कर अपना साहस दिखाना या आगे बढ़ना। इस कहानी के अनुसार मातृसत्ताक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं। बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं। जंगल में रहते हुए जब जंगली पशु आक्रमण करते थे तो जुझारु स्त्रियां ही आगे बढ़कर एक योद्धा की तरह उनका सामना करती थीं। यह सच है कि इस बात को यकीन करने में हमें थोड़ी देर लगेगी क्योंकि हम पितृसत्ताक समाज में दूसरी चीज़ें देखने और सुनने के आदी हो गए हैं।
मातृसत्ताक समाज में दूसरी दिलचस्प बात यह थी कि स्त्री किसी पुरुष की पर्सनल प्रॉपर्टी नहीं थी। वहां संपर्क का दायरा आज की तरह इतना संकुचित और संदेहप्रवण नहीं था। वहां हर एक स्त्री स्वच्छंदतापूर्वक नृत्य के दौरान अपना प्रेमी चुनती और उससे बिंदास प्रेम करती। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह फलां व्यक्ति से जिंदगी भर के लिए बंध गई। अगले दिन वह अपनी मर्ज़ी के अनुसार किसी और पुरुष को अपने पार्टनर के रुप में चुन सकती थी। लेकिन इसके लिए उस पर ‘यूस्ड अप’ होने का धब्बा नहीं लगता था। यही उस समाज का रिवाज़ था। भले ही आज ये बातें हमारी नैतिकता को कचोटे और हम घृणित दृष्टि से इन चीज़ों को देखें लेकिन यह हकीकत है कि वह ज़माना स्त्रियों के पक्ष में था। यानि स्त्री स्वतंत्रता को वरीयता देता था। वहां पुरुष भी स्वच्छंद थे, अस्तित्वहीन नहीं थे। स्त्री-पुरुष में समानता का दृष्टिकोण था। राहुल जी के शब्दों में, ‘माँ का राज्य था, किन्तु वह अन्याय और असमानता का राज्य नहीं था।’ जबकि पितृसत्ताक समाज में स्त्रियों की पूरी लड़ाई ही अस्तित्व के लिए है।
इस कहानी-संग्रह की ‘दिवा’ कहानी भी स्त्री के नए रुप को उद्घाटित करती है। स्त्रियों के आवरण-मुक्त एपीअरेंस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में वे पहलकदमी करती हैं। इस कहानी के अनुसार पुरुष उस दौरान लज्जाशील होते थे और स्त्री लज्जाहीन। स्त्री बिना किसी झिझक के अपने प्रेम का इज़हार करती थी। चाहे चुंबन हो चाहे आलिंगन या फिर सेक्स उसमें भी वे पहलकदमी करती दिखाई देती थी। साथ ही वे किसी आवरण को ओढ़कर बात नहीं करती थी। संपर्क सहज और स्वाभाविक हुआ करता था, ना कि कृत्रिम। ऐसा भी होता था कि किसी स्त्री को दसियों पुरुष पसंद करते थे और उससे प्रेम करना चाहते थे। लेकिन वे स्त्री की सहमति के लिए वेट करते थे। इसके लिए वे अकेले में पाकर उस स्त्री के साथ गैंगरेप नहीं करते थे। मां के प्रति भी हर एक सदस्य चाहे पुरुष चाहे स्त्री भरपूर श्रद्धा भाव रखते थे। मां की आज्ञा का हर तरह से पालन करते थे। मां के नाम से ही परिवार की पहचान होती थी, मसलन् निशा-जन, दिवा-जन, उषा-जन आदि। जन-नायिका भी एक स्त्री ही होती थी जो बहादुरी से पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी संभालती थी। वह जब वृद्धा हो जाती तो दूसरी युवती पर परिवार का दायित्व आता और वह जन-नायिका का पद संभालती।  
राहुल ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्ताक समाज को पितृसत्ताक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है। वे दिखाते हैं कि स्त्री किस तरह धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता और मुक्तता से वंचित हो रही है, उसे अपहरण किया जा रहा है, वह दासी बनाई जा रही है, उसका मोल हो रहा है, किस तरह एक से अधिक पत्नी रखने का विधान समाज में लागू होता है। स्त्री-तंत्र  पुरुष-तंत्र में बदल जाता है। स्त्रियों का योद्धा रुप गायब हो जाता है और पुरुष असली योद्धा के रुप में शक्ति अर्जित करते हैं। स्त्रियां केवल सौंदर्यवती और कोमलांगी है। हालांकि नायिकाएं प्रतिभाशाली होती हैं। विद्या और बुद्धि में पुरुष के समकक्ष दिखती हैं, महत्वाकांक्षी हैं लेकिन बाकि स्त्रियां केवल सुंदर है। वे बंदिनी की तरह ज़िंदगी बसर करती हैं। कृति के अंत तक आते-आते राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे समाज की छवि सामने लाते हैं जो फ़्यूडल मानसिकता के तहत स्त्री को भोग्या के रुप में देखता है, स्त्री का बलात्कार करता है। अब नायिका का फ़र्क नहीं रह जाता, सभी स्त्रियां अंतत: पुंस-शोषण से पीड़ित रहती हैं और अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही होती हैं।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...