लोग स्त्री पर जब भी
बात करते हैं तो उसे मां, बहन, बीवी, चाची, बुआ, ताई के नज़रिए से देखने पर ज़ोर
देते रहते हैं। लेकिन वे स्त्री को एक नागरिक के नज़रिए से नहीं देख पाते। एक स्त्री
की सबसे अहम और आधुनिक पहचान नागरिक की पहचान है। वह मां, बहन, बीवी, चाची से पहले
एक नागरिक है और बाकि जितने भी पहचान है वो मातहत होते हैं। नागरिक चेतना के अभाव
में मनुष्य पशु के समान है। इसलिए यह सरकार, समाज और परिवार का दायित्व है कि वह एक
स्त्री को बचपन से नागरिक चेतना से लैस करें। एक स्त्री नागरिक पहले है बाद में
मां। नागरिक पहले है, बाद में बहन। नागरिक पहले है, बाद में पत्नी। हो सकता है मां
को किसी दिन खाना बनाने का मन न हो तो उसे फ़ोर्स नहीं किया जा सकता। यह उसका
नागरिक अधिकार है कि वो अपनी इच्छानुसार काम करे। लेकिन भारत में तो मां की
परिभाषा भी खाना बनाने वाली औरत है, स्वतंत्र अस्तित्व-संपन्न स्त्री नहीं।
कुछ मर्दवादी चिंतक
हैं तो दिलचस्प टिप्पणी करते हैं, “ आप भी विवाह करेंगी तो आपको भी दुल्हन बनकर किसी पुरुष के घर ही
जाना होगा! ” या दुराग्रह आधारित
उवाच पढ़ें, “आजकल मैडम जैसी विचारधारा वाली अनेक
बहुएँ घरों में आ रही हैं और सास ससुर के साथ पति की और अंतत: परिवार की शांति
हमेशा को समाप्त हो रही है!”
बेसिकली इन परंपरावादी और मर्दवादी चिंतकों में स्त्रियों को सिर्फ़ दुल्हन बनाने
की जो सामंती प्रवृत्ति है यही खतरनाक है। ये पिछड़ी सोच वाले यह नहीं समझते कि एक
स्त्री दुल्हन बनने से पहले एक नागरिक बनेगी। सदियां गुज़र गई दुल्हन बनाते-बनाते।
शायद नागरिक बनाने में सैंकड़ों साल खर्च करने पड़ेंगे। एक लोकतांत्रिक मनुष्य होने
के नाते स्त्री में नागरिक चेतना पैदा करना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है। वह अच्छी
दुल्हन भी तब बनेगी जब वह अच्छी नागरिक बनेगी। लेकिन इन मर्दवादियों को स्त्रियों
को घर में ही दुल्हन बनाकर सेवा कराने की बात जचती है। दुल्हन बनी स्त्री अच्छी
लगती है, नागरिक चेतना संपन्न स्त्री नहीं। ज़रुरी है कि हम
स्त्री को पहले नागरिक मानें और उसके नागरिक हकों को परिवार से लेकर बाहर समाज तक
लागू करें।
मर्दवादी विश्लेषक
कहते हैं, “ हमारे जीवन का उद्देश्य बस अन्धादुंध
पैसा कमाना और पैसे की दौड़ में शामिल होना नहीं होना चाहिए..हमारे सामाजिक
मूल्यों, संस्कृति, परम्परा को बचाना
भी हमारा कर्त्तव्य है। ” सवाल ये है कि औरत को घर में बंद कर आप परंपरा
कैसे बचा सकते हैं? परंपरा, संस्कृति आदि औरत से पहले है या बाद में? औरत ज़िंदा
रहे इसके लिए ज़रुरी है कि वह बाहर निकले, समाज में शिरकत करे, रोटी कमाए। वह
शिक्षित हो और उससे भी बढ़कर समाज का हिस्सा हो। लेकिन परंपरावादी मर्द स्त्री को
परंपरा, संस्कृति की घेरेबंदी में कैद कर उसे इज्ज़त से नवाज़ने की फ़ेक बातें
करते रहते हैं। स्त्री वही अच्छी लगती है जो घर की चहारदिवारी में कैद रहे। मर्द
की हां में हां मिलाए। मर्द के अनुकूल काम करे। मर्दवादी महान उद्गार पढ़ें, “स्त्री में जो स्त्रेण गुण या सामर्थ्य है, वही उसे अद्वितीय
और अनुपम बनाती है! ” यही वह मर्दवादी सोच है जो स्त्रियों को
ज़िंदगी भर ‘अनुपम’ और ‘अद्वितीय’ कह-कहकर उसका मानसिक शोषण करता आया है। उसे
लोकतांत्रिक हकों से वंचित करता आया है, उसे हाशिए पर डालता आया है। जब तक
स्त्रियों में अपने अधिकारों के प्रति सचेतनता नहीं होगी, इन मर्दवादी शब्दों के
प्रति जागरुकता नहीं होगी तब तक उनमें नागरिक चेतना नहीं आएगी। जब नागरिक चेतना होगी
तब परिवार भी अच्छे होंगे।
मर्दवादी स्त्री पर व्यंग्यात्मक
टिप्पणी करते हैं, “आप अपने चश्मे का नंबर या कलर बदल कर
देखे… दुनिया अलग नज़र
आयेगी.. ” इन्हें कोई समझाए कि स्त्री को किसी चश्मे की
ज़रुरत नहीं है। लोकतंत्र में एक ही चश्मा है वह है संविधान का चश्मा। नागरिक की
आंखें यानि नज़रिया उस चश्मे को मज़बूती देती है। दरअसल ये परंपरावादी स्त्री को
लोकतंत्र के बाहर देख रहे हैं। ज़रा स्त्री को भी लोकतांत्रिक नज़रिए से देखें ये
मर्दवादी।
ओल्ड फ्रेमवर्क में
सोचने के कारण ये मर्दवादी विवाह-विच्छेद के लिए भी स्त्रीवादी सोच-संपन्न
स्त्रियों को कसूरवार साबित करते हैं। लिखते हैं, “आज क्या कारण है की घर टूटने और विवाह-विच्छेदन की घटनाये आम
हो गयी हैं…(क्योंकि, बराबरी के हक़ की लडाई,
अब अहंकार में बदल गयी है) ?” इनकी समस्या यह है
कि ये किसी भी विषय पर रैशनली नहीं सोचते, परंपरागत घिसी मानसिकता से विचार करते
हैं। स्त्री-अस्मिता को अहंकार-अस्मिता का नाम देते हैं। दुर्भाग्य से ये मर्दवादी
हर लेख के नीचे ‘जय भारतीय नारी’ का नारा देते हुए स्त्री के प्रति अपनी सामंती सोच
और मानसिकता को ज़ाहिर कर देते हैं क्योंकि ये तीन शब्द अपने लहज़े के साथ किसी
तरह स्त्री-सम्मानसूचक नहीं लगते।
स्त्रीवाद पर लेख लिखिए
मर्दवादी झेल नहीं पाते और धड़ल्ले से अपशब्दों का इस्तेमाल करने लगते हैं मसलन्
‘स्त्रीवादी झंडा लेकर खड़ी भीड़’ आदि। कमाल है जनाब! ना आप स्त्रियों के हित के लिए लेख लिखेंगे ना
हमें लिखने देंगे। ये परंपरावादी प्रकृति की दुहाई देते हुए स्त्री को कोमलांगी,
सौम्य, लावण्यमयी, तन्वी और पुरुष को कठोर, बहादूर, सख्त़ आदि अलंकारों से विभूषित
करते हैं। कायदे से ये पुरुष इन्हीं उपमाओं की आड़ में स्त्रियों का मानसिक शोषण
सदियों से करते आए हैं। देखा जाए तो इसी मानसिकता ने स्त्री को अधिकारहीन बनाया और
हाशिए पर रखा। स्त्री-भाषा संबंधी लेखों की दिशा इन महाशयों को अनिश्चित और
दिग्भ्रमित नज़र आती है और स्त्री-पुरुष समानता की बातें इन्हें तत्परता दिखती है।
वस्तुत पश्चिम में
जैसे मेल-शोवेनिज़्म है वैसे ही भारत में मर्दवाद का प्रतीक महिषासुर है। दुर्गा
का जो मिथ महिषासुर के बहाने रचा गया है वह इन मर्दवादी सोच रखने वाले पुरुषों को ध्यान
में रखकर ही तय हुआ है। आधुनिक और स्त्रीवादी सोच संपन्न दुर्गा इन परंपरावादी,
जड़तावादी, रुढ़िवादी, मर्दवादी विचारों से लैस महिषासुर रुपी पुरुषों के निधन के
लिए विवेक रुपी अस्त्र का प्रयोग करती है। इसी तरह स्त्रियों को भी इन मर्दवादी
विचारों से लैस पुरुषों का सामना करने के लिए और इनसे छुटकारा पाने के लिए नागरिक
चेतना रुपी दुर्गा यानि स्त्री की ज़रुरत है। जब स्त्री नागरिक चेतना से संपन्न
होगी तभी मेल-शोवेनिज़्म को दूर कर पाएगी। आज गली हुई मानसिकता और मर्दवादी अहंकार
बोध ही स्त्रियों का बड़ा शत्रु है। इससे निजात पाने के लिए नागरिक-चेतना अहम है।