Monday 7 September 2020

रूपक-कथा, न्याय और जनतंत्रः कितने पाकिस्तान

 

       


 

कमलेश्वर ने अपने उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में रूपक-कथा की पद्धति के ज़रिये न्याय और अन्याय के प्रश्न पर गहराई से विवेचन किया है। इतिहास में हो चुके तथा वर्तमान दौर में लगातार हो रहे सत्य और नैतिकता के उल्लंघन की धाराप्रवाहता को संबोधित करते हुए कमलेश्वर ने उपन्यास की कथा-वस्तु को विकसित किया है। इस संदर्भ में लेखक ने दुनियाभर में हो चुके तमाम उत्पीड़न, अनाचार तथा अन्याय के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को सविस्तार खोलकर पाठकों के सामने रखा है तथा इतिहास की पुनर्व्याख्या के माध्यम से जनतांत्रिक विचारधारा को प्रतिष्ठित करने की आंतरिक कोशिश की है। भारत-विभाजन के दौरान व बाद में हुए सांप्रदायिक कत्लेआम व जातिसंहार के मूल में सांप्रदायिक भेदभाव की मनोवृत्ति को उत्तरदायी मानते हुए लेखक का उद्देश्य है धर्मनिरपेक्षता, प्रेम व मैत्रीभाव के ज़रिए मानवतावाद की स्थापना करना।

कमलेश्वर यह उपन्यास उस दौर में लिख रहे थे जब देश में पृथकतावादी, सांप्रदायिक, जातिवादी, भाषावादी नस्लवाद व धार्मिक ताकतें अपने पूरे जोशो-ख़रोश पर थीं। कट्टरपंथी शक्तियां जनता के मन में धीरे-धीरे अपना प्रभाव विस्तार कर रही थीं। इतिहास की तोड़-मरोड़ तथा तथ्यों की गलत व्याख्या के ज़रिये मज़हबी ताकतें हिन्दुत्ववाद एवं सांप्रदायिकता का प्रचार-प्रसार कर रही थीं। यह समस्या आपात्काल के खात्मे के समय से लगातार बनी हुई थी। सन् 1977-1979 तक अलिगढ़, बनारस तथा जमशेदपुर में, सन् 1981 में बिहारशरीफ़ में, सन् 1980 के मुरादाबाद दंगों, सन् 1982 में बड़ौदा तथा मेरठ में, सन् 1983 में असम में, सन् 1984 के सिख-विरोधी दंगे, सन् 1985 में अहमदाबाद में, सन् 1987 में मेरठ में, सन् 1989 में भागलपुर में तथा सन् 1990 में रामजन्मभूमि आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक देश का माहौल लगातार अतिसंवेदनशील बना हुआ था। विध्वंश के बाद मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, कानपुर, भोपाल, दिल्ली आदि जगहों में साम्प्रदायिक दंगों की भयंकर घटनाएं हुईं। मुंबई में 1000 लोगों का कत्ल किया गया, सूरत में मुस्लिम स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।1 (Dr.Asghar Ali Engineer, Sowing Hate and Reaping Violence, pp-10-16)

भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद से ही धार्मिक तत्वों ने लगातार हिन्दू और मुस्लिम जनसमुदाय के बीच नफ़रत का बीजवपन किया और ऐसा करने के लिए इतिहास की मनगढंत व्याख्या की गई जिससे हिन्दू-मुस्लिम दो संप्रदायों में नफ़रत पुख्ता हो और उनके धार्मिक बंटाधार में मदद मिले। सांप्रदायिक विद्वेष को जागृत करने के लिए उन्मादी तत्वों द्वारा किस प्रकार मिथ्या का सहारा लिया गया इस पर रोशनी डालते हुए प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है, “बाबरी मस्जिद प्रकरण में उपजी सांप्रदायिक विचारधारा ने जहां एक ओर कानून एवं संविधान को अस्वीकार किया, दूसरी ओर, इतिहास का विद्रूपीकरण किया। इतिहास के तथ्यों की अवैज्ञानिक एवं सांप्रदायिक व्याख्या की गई, इतिहास के चुने हुए अंशों एवं तथ्यों का इस्तेमाल किया। और यह सब किया गया विद्वेष एवं घृणा पैदा करने के लिए व समाज में विभेद पैदा करने के लिए।”2 (प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी, मीडिया समग्र, पृ.-218)

गंभीर अध्येताओं, प्रगतिशील चिंतकों तथा जनवादी साहित्यकारों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय था कि किस प्रकार देश में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण एवं विचारधारा को विकसित किया जाए तथा देश के इतिहास एवं वर्तमान को आधारहीन धार्मिक व्याख्या से मुक्त किया जाए।

कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में रूपक कथा के आवरण में ‘बाबरनामा’, बाबर की बेटी गुलबदन बेगम द्वारा लिखित ‘हुमायूँनामा’, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया में ए. फ्यूहरर द्वारा बाबर के शिलालेख को देखकर किए गए अनुवाद तथा सरकारी तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि राममंदिर को गिराने में बाबर की कोई भूमिका नहीं थी और ना ही बाबर कभी अयोध्या गया था। अदीब के अदालत में बाबर, उसकी बेटी गुलबदन बेगम, ए. फ्यूहरर ने अपना-अपना पक्ष रखा और यह प्रमाणित किया कि अंग्रेज़ों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए किस प्रकार बाबरनामा के बीस पन्ने गायब कर दिए। बाबरनामा के उन पन्नों में इस बात का ज़िक्र था कि बाबर अफ़गान विद्रोहियों का पीछा करते हुए घाघरा नदी के पश्चिमी कछारों तक तो गया था लेकिन जैसे ही काबुल से उनकी बेगम और बिटिया के हिन्दुस्तान आने की खबर मिली; फौरन अलीगढ़ वापस लौट पड़ा था। वह घाघरा नदी के पूर्वी किनारे के पार अयोद्ध्या कभी गया ही नहीं था।

धार्मिक तत्वों ने सालों से यह भी प्रचारित किया था कि मोहम्मद-बिन-कासिम चूंकि मुसलमान था इसलिए उसने मंदिरें तोड़ी थीं जो कि हिन्दू-विरोधी कदम था। जबकि वास्तविकता यह थी कि कासिम का मूल इरादा हिन्दुस्तान पर हुकूमत कायम करना और यहां की धन-संपदा को लूटना था ना कि हिन्दुओं पर हमले करना। उस दौरान खज़ाने चूंकि मंदिरों के नीचे ज़मींदोज़ रहते थे, इसलिए यह स्वाभाविक था कि खज़ानों की प्राप्ति के लिए मंदिरों पर हमले हुए जिस घटना पर बाद में धार्मिक रंग चढ़ाया गया और घृणा के प्रचार के लिए इतिहास की मज़हबी व्याख्या पेश की गई। प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक असग़र अली इंजीनियर का मानना है कि भारत के राजनेताओं के लिए इतिहास एक बेहद शक्तिशाली राजनैतिक औज़ार बन चुका है। मानवीय भावावेश को जागृत करने में धर्म की तरह इतिहास भी एक प्रभावशाली माध्यम है।3 (Puniyani Ram(Ed.), Ayodhya: Mandir-Masjid Dispute (Towards Peaceful Solution)

इन घटनाओं को उद्घाटित करके कमलेश्वर वस्तुतः इतिहास की पुनर्व्याख्या करते हैं, इतिहास का पुनरुद्धार करते हैं और इसके ज़रिए जनतंत्र को प्रतिष्ठित करते हैं। इसी क्रम में कमलेश्वर इतिहास के पन्नों को पलटते हुए पाठकों को नई जानकारियों से लबरेज़ करते हुए उदारवादी दृष्टिकोण को भी प्रतिष्ठित करते हैं। लोकतंत्र के आने के बाद यह ज़रूरी बन जाता है कि इतिहास की पुनर्व्याख्या की जाए और उन पहलुओं को सही ढंग से खोला जाए जिनका देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर गहरा प्रभाव रहा हो। यह उपन्यास इतिहास के विकृतिकरण को संबोधित करता है। इस प्रकार इतिहास की सही व्याख्या प्रस्तुत करके पाठकों का विरेचन(catharsis) भी करता है।

औरंगज़ेब ने तख्त प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया तथा अपने भाईयों दाराशिकोह, शुजा तथा मुराद के बीच धार्मिक भेदभाव निर्मित करने की कोशिश की। औरंगज़ेब और दाराशिकोह का मूल मतभेद इस बात में था कि औरंगज़ेब कट्टर इस्लामी साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और इसके लिए वह हर तरह की नृशंसता के लिए राज़ी था। इसीलिए औरंगज़ेब के ज़माने में ना केवल हिन्दुओं पर बल्कि मुसलमानों पर भी हमले हुए थे। जो निधर्मी थे या ईस्लाम के अनुयायी नहीं थे उन मुसलमानों को खूब सताया गया। जबकि दाराशिकोह एकत्व का रास्ता चाहता था जिसमें हर धर्म के मनुष्य को शामिल किया जाए। वह इस्लाम को केवल मुसलमानों के धर्म के रूप में ही नहीं बल्कि एक विराट मानव धर्म के रूप में फैलाना चाहता था।

शिबली नोमानी जैसे इतिहासकारों ने औरंगज़ेब और दाराशिकोह के वैचारिक मतभेद को काफिर बनाम नमाज़ी के युद्ध के रूप में पेश करके मामले को मज़हबी जामा पहनाया तथा औरंगज़ेब के पक्ष में झूठी कहानियां गढ़ी गई। औरंगज़ेब द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के पीछे मंदिर के पंडों द्वारा तहखाने में रानी के बलात्कार की मनगढ़ंत कहानी का इतिहासकार पट्टाभि सीतारमैया ने सहारा लिया जिससे मंदिर तोड़ना अन्याय के प्रतिवाद में की गई न्यायपूर्ण घोषणा जान पड़े। कमलेश्वर ने दाराशिकोह के साथ विश्वासघात करके झूठ का सहारा लेकर औरंगज़ेब का साथ देने वाले राजाओं की भी मुखालफ़त की है। इनमें जोधपुर के राजा जसवंत सिंह, जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह, जम्मू का राजा राजरूप, मलिक जीवन आदि अवसरवादी राजा थे जिन्होंने राज्य और सत्ता के खोने के डर से अहम वक्त पर औरंगज़ेब का साथ देकर दाराशिकोह को हार के लिए विवश किया। इस प्रकार हिन्दुस्तान की बनती एक सहिष्णु और एक नई तहज़ीब का अंत हो गया।

दरअसल कमलेश्वर इस उपन्यास के ज़रिए स्मृतियों को पुनर्जीवित करते हैं और स्मृतियों मे ले जाकर इतिहास के कारणों की जांच करते हैं। स्मृतियां ही हैं जिनके ज़रिए धार्मिक तत्व इतिहास की विकृत व्याख्या करके हिंसामूलक गतिविधियों को अंजाम देती आई है। इसलिए स्मृतियों को पुनर्जीवित करके उनकी पुनर्व्याख्या करना और पाठकों के ज़ेहन में सत्य को पुनर्प्रतिष्ठित करना कमलेश्वर का उद्देश्य है। कमलेश्वर ने लिखा है, “नफ़रत एक ऐसा स्कूल है जिसमें पहले खुद को प्रताड़ित, अपमानित और दंशित किया जाता है...उसे घृणा की खाद से सींचा जाता है और तब उसकी स्मृति को एकात्म करके प्रतिशोध के नुकीले हल से जोत कर हमवार किया जाता है। इसीलिए घृणावादियों के तर्क इकहरे और एक से होते हैं....उनके पास अधिक बातें नहीं होतीं। वे हजारों-लाखों मुखों से एक ही स्वर में बोलते हैं, एक से प्रश्न उठाते हैं, एक सी दलीलें देते हैं....यही उनकी एकता की पहचान बन जाती है।”4 (कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान, पृ.-93-94)

मानव-मन की शाश्वत अदालत खोलकर अदीब बैठे हैं। यह अदालत अप्राकृतिक मृत्यु वरण कर चुके लोगों के लिए खुली है जो कुदरती मौत से पहले मर चुके। कमलेश्वर के शब्दों में, “यह मजलिस नहीं, वक्त की अदालत है...तमाम सदियों के उस वक्त की अदालत, जो इंसान की रूह पर भारी पड़ता है...सदियों की इसी तहक़ीकात के मुकदमे इस अदालत में चल रहे हैं ताकि अपने मन की अदालत में सच के फ़ैसलों को हासिल करके, दुनिया की हर रूह, खुद को विस्थापित होने से बचा सके और दुनिया की इस सराय में भयमुक्त होकर सुकून से अपना वक्त गुज़ार सके।”5 (पृ.-259-260)

वस्तुतः कमलेश्वर एक लेखक के ज़रिए इतिहास को चुनौती देते हैं, न्याय के सवाल पर बहस करते हैं। वक्त की अदालत वक्त को पीछे ले जाती है, घटनाओं की तहकीकात करती है, उन गुत्थियों को खोलती है जिन पर गांठ पड़ी हुई थी तथा बहस, गवाहों और तथ्यों के मद्देनज़र सत्य का पुनरूत्थान करते हुए न्यायशीलता के पक्ष में फैसले सुनाती है। यह अदालत विभिन्न चरित्रों, गंगा, यमुना, चंबल, सतलुज, नर्मदा, व्यास, सिन्ध आदि नदियों, कई इतिहासकारों के ज़रिये इतिहास की पुनर्व्याख्या करती है और इसके ज़रिए सही तथ्यों एवं वास्तविक घटनाओं को पाठकों के समक्ष लाती है। दुनिया के तमाम अन्यायों को बेनकाब कर सत्य की खोज करना और न्याय की प्रतिष्ठा ही रचनाकार का उद्देश्य है।

अलग-अलग देशों में बन रहे छोटे-छोटे पाकिस्तान की घटनाओं से भी कमलेश्वर व्यथित और चिंतित हैं। युगोस्लाविया, अफ़गानिस्तान, मिश्र, ईरान, ट्यूनिशिया, तुर्की, सोमालिया, अल्जीरिया, लेबनान में धर्म के नाम पर अपने-अपने ढंग का गैर-कुदरती पाकिस्तान बना। नफ़रत और त्रासदी की प्रक्रिया से गुज़रते हुए जब इंसान गुटों में बंट जाता है तब वह अपने इतिहास से ही नहीं बिछुड़ता, अपनी उदार संस्कृति को भी अपमृत्यु की ओर ले जाता है। कमलेश्वर के शब्दों में, “.......कोई भी संस्कृति पाकिस्तानों के निर्माण के लिए जगह नहीं देती। संस्कृति अनुदार नहीं, उदार होती है......वह मरण का उत्सव नहीं मनाती, वह जीवन के उत्सव की अनवरत श्रृंखला है...इसी सामासिक संस्कृति की ज़रूरत हमें है क्योंकि वह जीवन का सम्मान करती है।”6 (पृ.- 182)

 

कमलेश्वर ने मानव-सभ्यता को संवेदनशील, नैतिक, मैत्रीपूर्ण और मानवीयता से परिपूर्ण माना है जबकि देव-सभ्यता में मौजूद आचारहीनता, नियमहीनता, अनैतिकता और भोगवादिता की सख्त़ आलोचना की है। ऐसा करते हुए उन्होंने मिथकीय चरित्रों की आचार-संहिता पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाया है। दुनिया की तमाम धार्मिक लड़ाईयों, साम्प्रदायिक हत्याकांडों के बीज में मौजूद देव-सभ्यता के प्रति आस्था और भक्ति के नकलीपन को बेनकाब करते हुए कमलेश्वर ने देव-सभ्यता की पतनशील मानसिकता को चुनौती दी है। ऐसा करते हुए कमलेश्वर ने देव-सभ्यता के विमर्श को तैयार किया है। देव-सभ्यता में मौजूद जितनी भी नियमहीनता है, आचार-संहिता के उल्लंघन की प्रवृत्ति है वही धरती पर विराजमान उनके कट्टरपंथी भक्तों में भी मौजूद है। राम द्वारा शंबूक की हत्या, इंद्र द्वारा अहिल्या का बलात्कार, चंद्र द्वारा गुरू-पत्नी तारा का अपहरण और बलात्कार आदि घटनाओं का उल्लेख करके देवताओं की दलित-विरोधी तथा स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति को ऊजागर किया गया है।

इसी देव-परंपरा का अनुसरण करते हुए धर्मांध कट्टरतापंथी ताकतों ने राममंदिर बनवाने के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराई, सदियों तक स्त्रियों और दलितों को उनके अधिकारों से वंचित रखा तथा उनका शोषण किया, दलितों को गुलाम तथा स्त्रियों को भोग्या माना। किसी भी संस्कृति की पहचान उस संस्कृति में स्त्री की अवस्था, उसके सम्मान, उसकी मर्यादा और सामाजिक हैसियत से स्वीकृत होती है। कमलेश्वर का मानना है, “औरत की आबरू ही संस्कृति के मयारों को तय करती है...जो तहज़ीब अपनी औरत की आबरू को इज्ज़त नहीं दे सकी, वह रोम, यूनान और मिश्र की तरह मिट गई।”7 (पृ.-219)

ग्रीकदेवता पॉसायडन और एज़ैक्स जब महायुद्ध के बाद लौट रहे थे तो एज़ैक्स ने एथीनी की प्रतिमा से लिपटी चिरकुमारी कज़ैण्ड्रा को घसीटकर उसके साथ बलात्कार किया, साथ ही एथीनी के साथ भी किया। अपोलो भी कज़ैण्ड्रा के साथ बलात्कार करना चाहते थे जिसका उसे अवसर नहीं मिल पाया। भोगवाद की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके देवताओं को धिक्कारते हुए देवी तानिया समग्र देवी-देवताओं से कहती हैं, “तुम समस्त देवता लोग प्रेमविहीन और एकांगी व्यक्ति हो। तुम सब स्त्री पर आसक्त होकर उसका शीलभंग कर सकते हो...अवैध संतानें पैदा कर सकते हो, क्योंकि तुम अहंमन्य हो। तुम नितान्त व्यक्तिवादी हो। तुम्हारे पास मित्रता का मूल्य नहीं है....तुम्हारे पास केवल वासना है, प्रेम नहीं है। केवल वैयक्तिक श्रेष्ठता का द्वेष है इसलिए मित्रता नहीं।”8 (पृ.-29)

देवसभ्यता से विरासत में मिली बलात्कार की इस परंपरा को धरती पर रह रहे उनके कट्टरपंथी भक्तों ने संभाला हुआ है। युद्धों के दौरान सैनिकों, हमलावरों तथा धार्मिक कठमुल्लों द्वारा सामूहिक बलात्कार और लूटपाट पूरी दुनिया में अब तक बरकरार है। इस उपन्यास में दंगों के दौरान विद्या के साथ दो लड़के दो बार बलात्कार करते हैं। चाहे किसी भी मुल्क का सैनिक हो, स्त्री उसके लिए भोग्या है, कामतृप्ति की वस्तु है। यही वजह है कि ‘बीवी’ के साथ दुश्मन फ़ौज के वर्दीवाले फौजियों ने जितनी बेरहमी से बलात्कार किया, उसके अपने मुल्क के फौजियों ने भी उतनी ही बेरहमी से किया। दोनों बार बलात्कार के बाद समाचारपत्रों में सैनिकों की जांबाज़ी को लेकर तारीफ़ों की पुल बांधी गई। लेकिन कमलेश्वर के शब्दों में, “वह रौंदी हुई औरत बार-बार सोच रही थी—आख़िर हमलावर था कौन?”9 (पृ.-340)  भोगवादी मानसिकता स्त्री को जिस्म से आगे नहीं देख और सोच पाती, इसी मनोदशा पर प्रहार करते हुए कमलेश्वर ने पुरुषों की दृष्टि में स्त्री की उपादेयता के प्रश्न को रेखांकित किया है।

जिन परमपवित्र देवताओं के मंदिर-निर्माण के लिए धरती पर मनुष्य नियम तोड़ रहा है, एक-दूसरे की आस्थाओं पर हमले कर रहा है, दंगे करवा रहा है, कत्लेआम करवा रहा है, विश्रृंखलता पैदा कर रहा है, वे देवता आचरण और व्यवहार की दृष्टि से कितने अनैतिक, भ्रष्ट, पातकी व सवर्णवादी हैं यही दिखाना कमलेश्वर का उद्देश्य है। हर एक धर्म की अपनी सभ्यता होती है लेकिन जब उस सभ्यता का आधार ही अनैतिकता पर आधारित हो फिर उस धर्म का क्या मूल्य? कमलेश्वर इस बात को स्थापित करना चाहते हैं कि जो धर्म शांति और सौहार्द की जगह दंगे करवाता हो, मनुष्य-मनुष्य में भेद की सृष्टि करता हो उसका परित्याग की श्रेयस्कर है। मानवीयता और प्रेम ही एकमात्र धर्म है जहां कोई अनिष्ट नहीं होता।

इसी मानवीयता की भावना को बूटा सिंह के ज़रिये कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में चित्रित किया है। विभाजन के बाद जब कुछ लोग जेनिब की अस्मत लूटने की कोशिश कर रहे थे तब बूटा सिंह अपनी सारी जमा पूँजी उन्हें देकर जेनिब को बचा लेता है। मित्रता और विश्वास के मानवीय संपर्क को सुमेरी सभ्यता के सम्राट गिलगमेश और एकिंदू के मैत्री के माध्यम से वर्णित किया गया है और ऐसा करके यह प्रमाणित किया है धरती पर विराजमान मनुष्य स्वर्ग के देवताओं की तुलना में कहीं अधिक विश्वसनीय, विवेकशील, संवेदनशील, आवेगप्रवण और नैतिकतावादी हैं। जहां गिलगमेश और एकिंदू की मैत्री को तोड़ने के लिए दुष्ट देवता षड्यंत्र करके एकिंदू को मार देते हैं वहीं साम्प्रदायिक ताकतों की वजह से जेनिब और बूटा सिंह की प्रेमकहानी अधूरी रह जाती है।

कभी दारा के बहाने, कभी तहज़ीब, कभी सलमा तो कभी अदीब के बहाने कमलेश्वर ने आंसुओं का ज़िक्र किया है जो पवित्र है, जो इंसानियत पर हुए हमलों के दौरान ग़मगीन वक्त पर दाखिल होता है, जो संस्कृति को ज़िंदा रखने की नाकामयाबी पर ज़ार-ज़ार बहता है। आँसुओं के माध्यम से लेखक ने मानवीयता को ज़िंदा रखने की ओर कदम बढ़ाया है जो हर देशकाल में हर साधारण इंसान की आंतरिक तकलीफ़ पर बहता है। वह आंसू न सांप्रदायिक होता है न लिंगीय, वह वर्ण, रंग, नस्ल, संप्रदाय, लिंग से परे होता है और इसीलिए एक मानवीय प्रस्फुटन होता है।

कमलेश्वर ने इस पूरे उपन्यास में रूपक-कथा का सहारा लिया है और उसके माध्यम से वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं को संबोधित किया है। उपन्यास की घटनाएं, उसका वातावरण, उसका परिदृश्य, उसके चरित्रों का गठन रूपक-कथा के आवरण में किया गया है जिसके ज़रिये लेखक कई प्रतीकात्मक विचारों को सामने रखना चाहते हैं। सन् 1945 में लिखा गया जॉर्ज ऑरवेल का बहुचर्चित उपन्यास ‘ऐनिमल फ़ार्म’ भी रूपक-कथा पर आधारित है। इसमें पशु-जगत से जुड़े हुए चरित्रों, उनके वक्तव्यों तथा उनकी गतिविधियों के अंतराल में रूसी-क्रांति तथा सोवियत संघ में स्तालिन के अधिनायकवादी समयकाल पर व्यंग्यात्मक लेखन हुआ है।

कमलेश्वर के अनुसार दाराशिकोह की हत्या धर्मनिरपेक्ष और मानवीय विचारों की हत्या है। इस हत्या ने एक विचारशून्य और विवेकहीन पीढ़ी को जन्म दिया है। कमलेश्वर के शब्दों में, “हिन्दुस्तान नाम का एक ऐसा मुल्क उसके सामने था, जिसके बाशिंदों की गर्दनों पर सिर नहीं थे। हर तरफ़ रुण्ड की रुण्ड दिखाई दे रहे थे। बाजार खुले थे, मंदिरों-मस्जिदों के दरवाजे भी खुले थे। चाँदनी चौक की दुकानें भी खुली थीं और बिना सिर वाले रुण्ड जगह-जगह आ जा रहे थे। वे केवल धड़ ही धड़ थे। वे बात करते थे, मोल-भाव करते, चीज़ें खरीदते, मंदिर-मस्जिदों में पूजा-इबारत के लिए जाते भी दिखाई देते थे। उनकी आवाज़ भी सुनाई पड़ती थी पर धड़ पर सिर न होने के कारण उनके बोलते हुए ओंठ नहीं दिखाई देते थे। झपकती हुई आँखें नज़र नहीं आती थीं।”10 (पृ.-246)

असल में कमलेश्वर ने यह दिखाने की कोशिश की है कि हिन्दुस्तान और सुदूर मध्य एशिया से लेकर तुर्की तक जब धर्म के आधार पर कत्लेआम और हिंसाचार का माहौल गर्म हो रहा है तब किस तरह सोचने, समझने, विचार करने, सत्य की खोज करने की मनुष्य की क्षमता विलुप्त हो जाती है। इंसान मज़हबी दृष्टि से हर चीज़ को परिभाषित करने लगता है और अपना निजी विवेक खो बैठता है। वह धारा के साथ बहने लगता है, भेड़चाल चलने लगता है। मनुष्य का दृष्टिकोण उसकी बुद्धि तथा विवेक के आधार पर बनता है। सिर पर धड़ का नहीं होना वस्तुतः बुद्धि और विवेक की ह्रासशीलता की ओर इशारा है। 

जिस मज़हब के नाम पर दारा की हत्या हुई थी उसी मज़हबी कट्टरता ने सन् 1984 के दंगों, बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोधरा कांड जैसे वारदातों को भी अंजाम दिया। इक्कीसवीं सदी में भी यही मज़हबवादी विचारधारा तमाम दंगों और हत्याकांड के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। मज़हब सीमाएं तय करता है और हत्या की राजनीति को वैधता प्रदान बनाता है। इस मज़हबवादी नज़रिए के प्रतिवाद में लिखा गया यह उपन्यास इंसानियत के नज़रिया को ही आदर्श मानता है। 

कमलेश्वर ने रूपक-कथा की आड़ में परमाणु परिक्षण और मानव-बमों के उत्पादन और प्रयोग का भी घोर विरोध किया है। सुमेरी सभ्यता का सम्राट गिलगमेश जीवनौषधि लाने समुद्र की अतल गहराईयों में पाताल-लोक गया हुआ है। धन्वंतरि शुरुप्पक का जियसुद्दु जिनके पास यह औषधि है, वही मनुष्य को मृत्यु से मुक्ति दिला सकता है। वैज्ञानिक तकनीकी का सहारा लेते हुए मानव-हत्या को कमलेश्वर ने भयानक अपराध माना है। इसी तरह जो धर्मांधता में कत्लेआम करते हैं उनके प्रतिवादस्वरूप प्रगतिशील कवि कबीर बोधिवृक्ष लगाना चाहते हैं। बोधिवृक्ष नीलकंठ की तरह सारा विष पी लेता है। दरअसल यह मानवीयता का बोधिवृक्ष है, धर्मनिरपेक्षता और प्रेम का बोधिवृक्ष है जो मानव-मानव के बीच हिंसा को खत्म करके एक संवेदनशील मानव-जाति के निर्माण में मदद करे।

कमलेश्वर ने देश के बंटवारे को सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में देखा है जिसके लिए अंग्रेज़ ज़िम्मेदार थे। अंग्रेज़ों से भी पहले औरंगज़ेब ने इसकी भूमिका तैयार की थी जिसे अंजाम अंग्रेज़ों ने दिया। कमलेश्वर के शब्दों में, “दिल्ली के तख़्त को पाने के लिए औरंगज़ेब ने धर्म को तलवार बनाया था। दाराशिकोह को मारने के बाद वह कुंठाग्रस्त हो गया था....इसकी इसी कुंठा का नतीजा था कि उसने भारत में रच-बस गए मुसलमानों को मानसिक रूप से विस्थापित बना दिया था। वही मानसिक विस्थापन लगभग दो सदियों के बाद विभाजन का कारण बना।”11 (पृ.- 260)

सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की व्यापक क्रांति से भयग्रस्त अंग्रेज़ों ने भारत में अपने शासन और अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए हिन्दु-मुस्लिम दो संप्रदायों में धार्मिक हिंसा व भेदभाव को तेज़ किया और आज़ादी के समय भी इसी भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण का सहारा लेते हुए देश को भारत-पाकिस्तान में विभाजित किया गया। विभाजन की इस मंशा को साकार करने के लिए साम्राज्यवादियों ने मोहम्मद अली जिन्ना को राजनीतिक सत्ता का आश्रय देकर अपना मोहरा बनाया। इसी तरह इंडोनेशिया को विभाजित करने के लिए उपनिवेशवादियों द्वारा मुसलमान और ईसाई में धार्मिक विभेद की सृष्टि की गई। कमलेश्वर ने भारत-विभाजन के लिए जिन्ना को ज़िम्मेदार ना मानकर माउन्टबेटन, रेडक्लिफ़, चर्चिल, सर कोनराड कोरफ़िल्ड के दिमागी षड्यंत्र को माना है। लेकिन इससे भी पहले सन् 1905 में ही लार्ड कर्ज़न ने बंग-भंग के प्रस्ताव के माध्यम से बंगाल की मनोदशा को हिन्दू-मुस्लिम में विभाजित कर दिया था भले ही बंगाल का विभाजन तब संभव ना हुआ हो।

उपनिवेशवादियों ने माया सभ्यता, अज़टेक साम्राज्य को भी जड़ से नष्ट किया। अमेरिका, त्रिनिदाद, कनाडा, मेक्सिको, क्यूबा, पनामा, ब्राज़ील, पेरू आदि के मूल निवासियों पर चढ़ाई करके वहां उपनिवेश स्थापित किया। वहां के कच्चे मालों पर अधिकार करके नए बाज़ारों का निर्माण किया। साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए बाज़ारवाद की आंतरिक रणनीति को स्पष्ट करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “सुनो—बाज़ारों के लिए ही बनते हैं साम्राज्य! और साम्राज्यों को जीवित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं बाज़ार! साम्राज्यों की नाभि बाज़ार से जुड़ी है। साम्राज्यों के रूप बदल सकते हैं..वे प्रजातांत्रिक आर्थिक साम्राज्य का रूप ले सकते हैं परन्तु, इन पूँजीवादी प्रजातन्त्रों को जीने के लिए मुनाफ़े के बाजारों की ज़रूरत है।”12 (पृ.-291)

लेकिन यह बाज़ारवाद संस्कृतियों व सभ्यताओं को किस प्रकार तोड़ती है तथा नियंत्रण के ज़रिए अपना प्रभाव विस्तार करती है इसका ज़िक्र करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “नियंत्रण द्वारा आत्माओं को तोड़ा जाता है....फिर उन्हें विभाजित किया जाता है....उनमें सांस्कृतिक प्रतिरोध की शक्ति विखंडित की जाती है और तब बाज़ारवादी जोंकें उस विभाजित कौम का सारा रक्त चूस लेती हैं।”13 (पृ.-45)

उपन्यास में सलमा एक सशक्त, बुद्धिमती, विवेकशील, आज़ाद-ख्याल और भावनाप्रवण स्त्री-चरित्र के तौर पर सामने आती है। सलमा धर्म के आधार पर इंसान के विभाजन की सर्वथा विरोधी है और इसके लिए विरोधी विचारों से लगातार संघर्ष भी करती है। इस चरित्र के बहाने कमलेश्वर स्त्री से जुड़ी दो परंपरागत धारणाओं से पाठकों को मुक्त करते हैं; पहली, स्त्री बुद्धिमति और संवेदनशील होते हुए भी राजनीति में कम दिलचस्पी लेती है या उससे संबंधित कम जानकारी रखती है और दूसरी, स्त्री मूक प्रतिवाद करती है। पूरे उपन्यास में सलमा राजनीतिक विषयों में गहरी जानकारी और अभिरुचि रखने वाली तथा लगातार मुखर प्रतिवाद करने वाली स्त्री के तौर पर नज़र आती है। कभी धर्मांधता से, कभी पितृसत्ताक मानसिकता से तो कभी साम्प्रदायिक विचारबंदी से लड़ती है। धर्मांध शक्तियों के खिलाफ़ उसके जवाब प्रखर, दो टूक और बुद्धिमत्ता से लैस होते हैं। सलमा के चरित्र की दो विपरीतमुखी खूबियां हैं, अदीब के साथ बातचीत के समय वह बहुत ही आवेगप्रवण व संवेदनशील हो उठती है जबकि कट्टरपंथी शक्तियों के सामने निर्मम और बेबाक। पितृसत्ताक विचारधारा की मुखालफ़त करते हुए सलमा नईम से कहती है, “आपके कुनबे से छिटक कर, अपनी मर्ज़ी का मालिक कोई भी मर्द आज़ाद हो सकता है पर औरत को आप अपने कुनबे की जायदाद समझते हैं ! अगर किसी हादसे के बाद कोई औरत किसी और कुनबे के मर्द को मंज़ूर कर ले तो आप लोग बर्दाश्त नहीं करते...।”14 (पृ.-120)

लेकिन कमलेश्वर अपनी नायिका को विचारों से सशक्त दिखाते हुए भी आर्थिक तौर पर मज़बूत नहीं दिखा पाते। शिक्षित, होनहार और बुद्धिमति होने के बावजूद पूरे उपन्यास में सलमा नौकरी करती नहीं दिखाई जाती यानि उसके पास आर्थिक स्वायत्तता का अभाव है। हालांकि स्त्री-अस्मिता की प्रतिष्ठा में आर्थिक स्वावलंबन की अहम भूमिका होती है। दूसरी ओर जब सलमा अदीब के साथ प्रेमसूत्र में बंधती है तब वह विधवा हो चुकी होती है। यानि भारतीय नैतिकता के तराजू पर एकदम सटीक बैठती है। भारतीय मान्यता के मुताबिक एक स्त्री पति के रहते पति के अलावा किसी गैर पुरुष से विवाहेतर संबंध नहीं रख सकती जबकि पुरुष कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। यह उपन्यास इस धारणा का अतिक्रमण नहीं कर पाता बल्कि उसे पुख्ता करता है। अदीब विद्या से प्रेम करता है, अपनी पत्नी शांता के अतिरिक्त सलमा से भी प्रेमसंबंध जारी रखता है लेकिन सलमा अपने पति की गैरहाज़िरी(मृत्यु के उपरांत ही) में ही अदीब के साथ प्रेमसंबंध को बरकरार रखती है और ज़रुरत पड़ने पर उपन्यास के अंत में अपने बेटे के खातिर उसका भी परित्याग कर देती है। स्पष्ट है कि पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के लिए स्त्री को अपना प्रेम भी कुर्बान करना पड़ सकता है। यानि बहुपत्नित्व तो सही है लेकिन बहुपतित्व नहीं। पुरुष एकाधिक प्रेमिकाओं के रहते हुए भी न्याय-अन्याय पर विचार-विमर्श कर सकता है लेकिन स्त्री नहीं कर सकती। यौन-शुचिता की तरह यौन-हदबंदी(एक समय पर एक ही पुरुष के लिए) वाली मानसिकता को कमलेश्वर तोड़ नहीं पाते। कहने का अर्थ यह है कि कमलेश्वर इस उपन्यास में पितृसत्ताक विचारधारा की हदबंदियों को संपूर्णतः तोड़ नहीं पाते।

कमलेश्वर ने इस उपन्यास में पुंसवादी विचारधारा के साथ-साथ ब्राह्मणवादी विचारधारा पर भी कड़ा प्रहार किया है। वैदिक आर्यों की ब्राह्मणवादी परंपरा को कमलेश्वर ने अप्राकृतिक करार दिया है। जिस निराधार पायदान पर खड़े होकर ब्राह्मणगण अपने श्रेष्ठत्व का जयगान करते हैं, वह कितना अर्थहीन, कल्पित और अवैज्ञानिक है इसे साफ़ करते हुए कमलेश्वर ने लिखा है, “...ब्राह्मणों की पत्नियों को भी मासिक धर्म के चक्र से गुज़रना पड़ता है। वे भी गर्भवती होती हैं। वे भी बच्चों को जन्म देती हैं, उन्हें दूध पिलाती और उनका पालन-पोषण करती हैं...इतने पर भी यह आर्य ब्राह्मण, जिनका जन्म स्त्रियों की कोख से होता है, यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं....ब्रह्मा के मुख में गर्भाशय नहीं है...।”15 (पृ.-256-257)

वस्तुतः कमलेश्वर जनतांत्रिक सोच और जनतांत्रिक दृष्टि को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। जनतंत्र में स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा दूसरे पिछड़े तबकों को समानता के अधिकार हासिल हैं लेकिन हकीकत में वे लगातार उत्पीड़ित व लांछित हो रहे हैं। कमलेश्वर सिद्धांत और व्यवहार के इस बड़े अंतराल को संबोधित करते हैं। आज भी ब्राह्मणवाद, वर्णवाद, पुंसवाद का व्यापक कहर समाज व देश पर हावी है। साम्प्रदायिक समस्याएं आज भी सिर उठा रही हैं। कमलेश्वर जनतांत्रिक दृष्टिकोण से ऐतिहासिक घटनाओं को देखते हैं और जनतांत्रिक दृष्टिकोण से ही उनका निदान प्रस्तुत करते हैं। सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा उसका अंग है। कमलेश्वर मनुष्य को धर्म, लिंग, जाति, नस्ल से ऊपर उठकर समानता के दृष्टिकोण से, विशुद्ध जनतांत्रिक दृष्टिकोण से देखने के पक्षधर हैं और इस उपन्यास के माध्यम से जनता में जनतांत्रिक विवेक निर्मित करने की कोशिश करते हैं।

 

 


संदर्भ-सूची --

 

1)Engineer, Dr. Asghar Ali, Dalwai, Shama, Mhatre, Sandhya,  Sowing Hate and Reaping Violence(The Case of Gujarat Communal Violence), New Age Printing Press, Mumbai, 2002, pp.– 10-16

2)चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडियासमग्रः हिंदू सांप्रदायिकता और मीडिया(भाग-5), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.- 218

3) Puniyani Ram(Ed.), Ayodhya: Mandir-Masjid Dispute (Towards Peaceful Solution), Engineer, Dr. Asghar Ali, A Brief Survey of Communal Situation in the Post Babri-Demolition Period, (http:/www.countercurrents.org)

4) कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 2000, 2010(बारहवां संस्करण), पृ. -93-94

5)वही, पृ.- 259-260

6)वही, पृ. 182

7)वही, पृ. -219

8)वही, पृ.-29

9)वही, पृ.-340

10)वही,पृ.-246

11)वही,पृ.-260

12)वही,पृ.-291

13)वही, पृ.-45

14)वही, पृ.-120

15)वही, पृ.-256-257

 

 

 

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