Saturday 26 March 2016

स्त्री- मुक्ति के सवाल और यशपाल —सारदा बैनर्जी


यशपाल ने अपने उपन्यासों में स्त्री-मुक्ति के विषय को प्रमुख स्थान दिया। स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा उसके अस्मिता-बोध के विकास के लिए पितृसत्ताक विचारधारा और मानसिकता से स्त्री की मुक्ति ज़रूरी है, इसे यशपाल भली-भांति समझते थे। यही वजह है कि यशपाल ने अपने उपन्यासों में ऐसे स्त्री-चरित्रों का निर्माण किया है जो पुंसवादी माहौल में पुंसवादी मान्यताओं से घिरे होकर भी अपने परतंत्र अस्तित्व की बाधाओं व परवश अस्मिता की समस्याओं से परिचित होकर पितृसत्ता की श्रृंखलाओं से स्वयं को कुछ हद तक मुक्त करने में सक्षम होते हैं। यशपाल के उपन्यास पितृसत्ताक मानसिकता, मूल्यबोध, विचारधारा तथा दृष्टिकोण के लिए बहुत बड़ी चुनौती पेश करते हैं। साथ ही यशपाल ने करुणा की मूर्ति, त्रासदी की अंतर्गाथा तथा रूदन करने वाली नायिका के रूप में स्त्री को चित्रित न करके बुद्धिमती, ज्ञानी, विवेकशील, निर्भीक, स्पष्टवादी व सामाजिक शिरकत करने वाले स्त्री-स्वरूप को सामने रखा है। इससे स्पष्ट होता है कि यशपाल समाजवाद की स्थापना केवल एक समाज-व्यवस्था के तौर पर ही नहीं अपितु स्त्री-पुरुष के आंतरिक संबंधों में भी समानता को प्रतिष्ठित करना चाहते थे।

यशपाल पुरुष की संपत्ति के तौर पर स्त्री की स्वीकृति के सख्त विरोधी थे। स्त्री विवाह से पहले पुरुष की संपत्ति और विवाह के बाद पति की संपत्ति वाले पुंसवादी मॉडेल को यशपाल नापसंद करते थे। यशपाल इसके समर्थक थे कि स्त्रियां अपनी इच्छाओं को प्रमुखता दे तथा पुरुषाश्रय से मुक्त होकर आत्मनिर्भर बन सकें। ‘दादा कॉमरेड’ उपन्यास की नायिका शैल स्वतंत्र विचारों से लैस है। वह पुरुषाश्रित नहीं है, अपनी इच्छाओं को महत्व देती है तथा उसे यथासंभव अपने जीवन में लागू भी करती है। अपने आप को पुरुष की संपत्ति के रूप में देखना उसे नागवार लगता है। क्रांतिकारी हरीश से बातचीत के दौरान हरीश के मत को जानने के उत्साह से वह सवाल करती है, “तुम्हारा भी खयाल है न, स्त्री को किसी न किसी व्यक्ति की सम्पत्ति बन ही जाना चाहिये और पुरुष उदारता से एक दूसरे को अपनी-अपनी सम्पत्ति की स्त्री पर पूर्ण अधिकार भोगने का अवसर देते रहें!”

‘पूँजीवाद की भोग्य महिला और समाजवाद की आत्म-निर्भर नारी!’ शीर्षक निबंध में यशपाल ने पूँजीवादी समाज-व्यवस्था और समाजवादी समाज-व्यवस्था में स्त्री के प्रति दृष्टिकोण के फ़र्क को सामने रखा है। इस निबंध में बड़े ही व्यंग्यात्मक लहज़े में कथोपकथन की शैली में स्त्रियों की वर्तमान अवस्था तथा उससे बेहतर अवस्था बनाने के उपायों की चर्चा हुई है। यशपाल ने लिखा है, “समाजवादी विचारधारा के अनुसार स्त्री को सम्पत्ति नहीं समझा जा सकता। उसका दान नहीं किया जा सकता। उसे खरीदा और बेचा नहीं जा सकता। वह किसी भी प्रकार की सम्पत्ति नहीं, स्वतंत्र आत्म-निर्भर व्यक्ति है।”

यशपाल के अनुसार समाजवादी समाज चूंकि स्त्री को संपत्ति के रूप में नहीं देखता इसलिए वहां स्त्री के चारित्रिक विकास की पूरी संभावनाएं मौजूद होती हैं। लेकिन पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में स्त्री की स्वतंत्रता भी अंततः गुलामी का ही पर्याय है। जब तक स्त्रियों के प्रति समाज में वस्तुकेंद्रित मानसिकता बनी रहेगी तब तक पुंसवादी बंधन से स्त्रियों की मुक्ति संभव नहीं। लेकिन अधिकतर स्त्रियां अपने इस गुलाम अस्तित्व की अवस्थिति से अनभिज्ञ रहती हैं। ‘दादा-कॉमरेड’ की शैल स्त्री-पुरुष के समतावादी सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाली स्त्री है, पूंजीवादी समाज में स्त्री की अवस्था का अवलोकन करते हुए वह हरीश से सवाल करती है, “यदि स्त्री को किसी न किसी की बन कर ही रहना है तो उसकी स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ? स्वतंत्रता शायद इसी बात की है कि स्त्री एक बार अपना मालिक चुन ले परन्तु गुलाम उसे ज़रूर बनना है।”
‘दिव्या’ उपन्यास में यशपाल ने समाज में स्त्री की भोग्या की इमेज को बार-बार पाठकों के सामने रखा और इसके ज़रिए पुंसवादी मानसिकता की हकीकत को बेपर्दा किया है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के अनुभव से दिव्या को यह ज्ञान होता है कि पुरुषों की दृष्टि में स्त्री का अस्तित्व केवलमात्र भोग्या का है। अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए दिव्या कभी ‘दारा’ बनती है कभी ‘अंशुमाला’। पितृसत्ताक सामाजिक संरचना में स्त्री की परतंत्र दशा पर अंशुमाला बनी दिव्या सोचती है, “गत संध्या वह अपने मन का दुख प्रकट करने के लिये स्वतन्त्र थी। इस समय वह विनोद का साधन बनने के लिये विवश है। रसिक समाज अपने नेत्रों से उसका लावण्य भोग रहा है। वह परवश होकर भोग के लिये उपस्थित है।”

यशपाल इस बात के विरोधी थे कि स्त्री की पहचान पुरुष की पहचान के आधार पर तय हो। स्त्री की स्वतंत्रता उसकी आर्थिक मुक्ति में है, पुंस-सत्ता से पृथक सत्ता निर्मित करने में है। ‘दिव्या’ उपन्यास में मारिश जब अंशुमाला को विवाह का प्रस्ताव देता है तो अंशुमाला उसे तुरंत अस्वीकार कर देती है। मारिश के यह कहने पर कि नारी के जीवन की सार्थकता के लिए पुरुष का आश्रय आवश्यक है और नारी पुरुष का आश्रय भी है तो अंशुमाला मारिश को दो टुक जवाब देती है, “आर्य, इस प्रश्रय में नारी के जीवन की सार्थकता क्या है पुरुष द्वारा उसका भोग और उपयोग! जैसे पान की इच्छा होने पर पानपात्र की सार्थकता है। आर्य, उस प्रश्रय की इच्छा न करने पर ही नारी स्वतंत्र है।”

यशपाल स्त्रियों की मानसिक गुलामी और उनके शारीरिक दासत्व से उनकी मुक्ति के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि स्त्रियां अपने सशक्त व्यक्तित्व का निर्माण करें लेकिन यह तभी संभव होगा जब स्त्रियां आर्थिक रूप से मज़बूत हों। संवैधानिक तौर पर स्त्री के पास समानता का अधिकार होने के बावजूद व्यवहार में स्त्रियां असमान पारिवारिक व सामाजिक संरचना में जी रही हैं। समतावादी समाज के निर्माण के लिए यह ज़रूरी है कि स्त्रियां स्वावलंबी बनें। यशपाल ने उपरोक्त निबंध में लिखा है, “यदि स्त्री आर्थिक रूप से पुरुष के अधीन और आश्रित रहेगी तो समाज में उसकी स्थिति पुरुष के समान कभी नहीं हो सकेगी। समाज में पुरुष के समान अधिकार और स्थिति पाने के लिये स्त्री का आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होना आवश्यक है।”

‘मनुष्य के रूप’ उपन्यास में यशपाल ने सोमा और मनोरमा को परनिर्भरता से मुक्त होकर क्रमशः आत्मनिर्भर बनते दिखाया है। अशिक्षित व असहाय सोमा को कभी प्रेम के लिए तो कभी आश्रय(आवास) के लिए पुरुषों पर आश्रित होना पड़ता है; केवल आश्रयदाता बदल जाता है। बदले में वह पुरुष को अपना शरीर और श्रम देती है। सोमा के परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों की इस पराश्रित अवस्थिति पर मनोरमा सोचती है, “..सभी स्त्रियां आश्रय का मूल्य, प्रेम का मूल्य अपने शरीर से चुकाती हैं। आत्म-तुष्ट प्रेम तो वही है जो मूल्य में आश्रय न मांगे....प्रेम करने का अधिकारी वही है जो आश्रय न मांगे, जो अपने पांव पर खड़ा हो।”

लेकिन स्त्री को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में देखने वाले पितृसत्ताक समाज में आधुनिक सोच से संपन्न स्त्रियों के लिए भी हर कदम पर बाधाएं हैं। उनके मुक्त अस्तित्व को समाज स्वीकार नहीं कर पाता। ‘दादा कॉमरेड’ की शैल आधुनिक ढंग से जीना चाहती है लेकिन समाज में व्याप्त सामंती मानसिकता का बंधन कहीं न कहीं उसकी आधुनिकता में बाधा बनती है। उसका प्रेमी खन्ना उसे व्यक्तिगत संपत्ति मानते हुए उसके शरीर पर पूर्णाधिकार चाहता है। जब उसे यह पता चलता है कि अपने पूर्वप्रेमी के साथ शैल का केवल आत्मिक प्रेम ही नहीं शारीरिक संबंध भी था तब वह शैल से अपना रिश्ता तोड़ देता है। शैल अपने मित्र हरीश से कहती है, “मन की अपवित्रता क्षमा हो सकती है शरीर की नहीं......और यही खन्ना कहते थे कि वे मुझे आत्मा से प्रेम करते थे परन्तु शरीर पर एकाधिकार चाहते थे।”

यशपाल का मानना था कि प्रेम, स्त्री के शरीर और मानव-संबंधों को सिर्फ नैतिकता की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। विवेकपूर्ण नैतिकता और आरोपित नैतिकता में भेद होता है। यशपाल ने आरोपित नैतिकता को इंसान के लिए खतरनाक माना है जो इंसान को शारीरिक और मानसिक नैतिकता की जकरबंदी में कैद रखता है। वे विवेकपूर्ण नैतिकता को सही मानते थे। समाज में प्रेम के साथ नैतिकता को नत्थी करके देखा जाता रहा है। पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है तो वह उस स्त्री के शरीर पर एकाधिकार चाहता है। इसके अतिरिक्त पुरुष स्त्री को यौन-शुचिता की दृष्टि से भी संपूर्ण चाहता है। यानि पुरुष का प्रेम केवल स्त्री की आत्मा व उसके शरीर से ही नहीं उसकी योनी जनित नैतिकता से भी तय होता है।

यशपाल प्रेम के मामले में शारीरिक और मानसिक हर तरह की वर्जनाओं को, हर प्रकार की कुंठाओं को तोड़ना  चाहते थे। यशपाल ने वायवीय प्रेम को सारहीन माना है और आध्यात्मिक प्रेम में विश्वास रखने वालों का मखौल उड़ाया है। साथ ही पार्थिव प्रेम को महत्व दिया है। ‘साहित्य, कला और प्रेम’ शीर्षक निबंध में लिखा है, “साहब, आध्यात्मिक प्रेम नपुंसक प्रेम है। वासना को पूरा करने की जब सामर्थ्य न हो तो मन को बहलाने का तरीका है। स्वयं जो कुछ कर सकने का अवसर नहीं, भगवान के नाम से उसकी कल्पना कर मन को बहला दिया।” ‘देशद्रोही’ उपन्यास की चंदा, भगवानदास खन्ना से प्रेम करते हुए भी विवाहित स्त्री का विवाह के बाद गैर-पुरुष से शारीरिक संबंध अनैतिक मानती है। जब खन्ना उसके हाथ को स्पर्श करता है तो चंदा दूर हट जाती है। इस पर डॉ. खन्ना अपनी राय रखता है, “शरीर तो केवल साधन मात्र है। उससे तो अच्छे-बुरे सभी स्पर्श होते हैं। प्रश्न तो है, किसी बात को बुरा समझ कर करना अवश्य उचित नहीं है परन्तु प्रत्येक स्पर्श में मनोविकार भी अवश्य हो, यह मैं विश्वास नहीं करता।”

समाज में विवाहेतर प्रेम को आम तौर पर उच्छृंखलता का पर्याय मान लिया जाता है। प्रेम और उच्छृंखलता की परिभाषा देते हुए ‘पूँजीवाद की भोग्य महिला और समाजवाद की आत्म-निर्भर नारी!’ शीर्षक निबंध में यशपाल ने लिखा है, “उच्छृंखलता तो तब होती है, जब प्रेम दिल बहलाव के लिये होता है और कला के लिये कला होती है।...हम तो प्रेम को जीवन के विकास और रक्षा का साधन मानते हैं। वह केवल व्यक्तिगत वस्तु नहीं, सामाजिक कर्तव्य के आधार पर दो व्यक्तियों का संबंध है।”

पुरुषों में स्त्रियों पर अधिकार स्थापित करने की पुंसवादी अधिकार-भावना पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए यशपाल ने उसे गलत और निस्सार बताया है। ‘देशद्रोही’ उपन्यास के डॉ. खन्ना दस साल बाद जब भारत लौटते हैं तब यमुना से उन्हें पता चलता है कि उसकी पत्नी राज का इस गलतफ़हमी में कि खन्ना की मौत हो चुकी है, खन्ना के दोस्त बद्री बाबू से विवाह हो चुका है। पहले तो वह बहुत निराश होता है लेकिन बाद में उसे अपनी निराशा का कारण राज पर उसकी पुंसवादी अधिकार-भावना नज़र आती है। अपने मन को समझाते हुए खन्ना सोचता है, “स्त्री पति को खोकर उसकी स्मृति के प्रति वफ़ादार बनी रहे, यह पुरुष का गरूर है। मर जाने के बाद पुरुष को गरूर से संतोष भी नहीं मिलता परन्तु स्त्री का जीवन और सर्वस्व भस्म हो जाता है। स्त्री के जीवन और सर्वस्व का मूल्य पुरुष के निरर्थक गरूर से भी गया बीता है? राज ने ऐसा कौन काम किया जो मैं नहीं कर आया? नर्गिस और गुलशां क्या मेरे जीवन में नहीं आईं?”

ससुराल में पति के जीवन के उत्थान-पतन को पत्नी के भाग्य के साथ नत्थी करके देखा जाता है। बहू का ससुराल में आने के साथ-साथ ससुराल के संदर्भ में बहू के कदमों के शुभ-अशुभ फलों की चर्चा शुरू हो जाती है। ‘देशद्रोही’ में यशपाल ने इसी मानसिकता पर प्रहार किया है। जब राज ने पहली बार ससुराल में कदम रखा तो ससुरालवालों का रूख अलग था लेकिन जब खन्ना की मृत्यु की खबर आई तब उसी राज के लक्षण खराब माने गए, “नये ढंग की पढ़ी-लिखी बहू के घर आने से बुआ और जेठानी ने परेशानी अनुभव की थी परन्तु डाक्टर के ऊंची नौकरी पा जाने के उत्साह में वह भुला दी गई थी। घर में बहू के आने पर लक्ष्मी के चरण पड़ने के कारण वह लाला ईश्वरदास की दृष्टि में सुलक्षणा लक्ष्मी और लाड़ली बन गई थी। सास के आसन की अधिकारी बुआ और जेठानी उसे कुछ न कह सकती थीं। परन्तु कुलक्षणा विधवा बन जाने पर वही बहू बोझ बन गई।”



स्त्रियों ने पुंसवादी फ्रेमवर्क में अपने आप को इस तरह ढाल लिया है कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं होता कि उनकी अपनी स्वतंत्र इच्छाएं व स्वतंत्र व्यक्तित्व भी होना चाहिए। पुंसवादी समाज की आंतरिक संरचना में कैद स्त्री इतनी बंधनयुक्त होती है कि प्रेम के मामले में भी उसे मुक्त निर्णय का अधिकार नहीं होता। ‘देशद्रोही’ में यशपाल ने इसी निर्धारित प्रेम की सीमा पर सवालिया निशान लगाया है। विवाह संस्थान में तयशुदा या गुलाम प्रेम के चरित्र को उजागर किया है। राज इस कदर परतंत्र है कि अपने पूर्व-पति को भी आश्रय देने में असमर्थ है। हालांकि उसी राज ने अपने पति(डॉ. खन्ना) की मृत्यु की खबर सुनकर अफीम खाकर प्राण त्यागने की कोशिश की थी। यानि विवाह-संस्थान के नियमों में बंधी स्त्री मानवीयता दिखाने के लिए या अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है; उसका प्रेम भी बंधनयुक्त होता है, तयशुदा होता है। स्त्री के जीवन में इंसानियत के लिए भी कोई स्थान नहीं है कारण समाज स्त्री के इंसानियत को भी संदेह की नज़र से देखता है। इसलिए स्त्री इंसानियत को जाहिर करने से भी डरती है, मन की इच्छाओं को अभिव्यक्ति करने से भी डरती है कि कहीं उसका संसार उजड़ न जाए। उपन्यास के अंत में राज पहले तो अपना संसार उजड़ने के डर से बहन चंदा और घायल खन्ना को शरण देने से इनकार कर देती है, बाद में रात भर बिताने के बाद चले जाने को कहती है। खन्ना इस निर्णय से बेहद आहत होता है और कहता है, “मैं राज के लिए शत्रु हो गया? वह दीवार की ओट पड़ी है? मुझे देखने भी नहीं आ सकती? वह तो मेरे प्रेम में प्राण न्योछावर कर रही थी! ...आज क्या हो गया? हाय रे स्त्री! तेरा प्रेम भी मजबूरी का है, गुलामी का है...।”

इन पंक्तियों में इस बात को भी सामने रखा गया है कि गरीब मज़दूरों के हक की बात करने वालों(बद्री बाबू और राज) के अंदर जनसेवा का भाव कितना खोखला होता है कि राज किसी पीड़ित इंसान की मदद इसलिए नहीं कर सकती कि उसकी सांसारिक प्रतिष्ठा को ठेस न पहुँचे, उसके सुसरालवाले उस पर संदेह न करें।
यह दुखद है कि यशपाल के उपन्यासों के स्त्री-मुक्ति के पक्ष पर आलोचकों की दृष्टि नहीं गई। अपितु यशपाल के उपन्यासों के स्त्री–पुरुष पात्रों को अश्लील, अनैतिक और अस्वस्थ कहा गया तथा परंपरागत पात्रों से हटकर नए ढंग के पात्रों को निर्मित करने के कारण उनकी जमकर आलोचना भी हुई। ‘यशपालजी और अश्लीलता’ शीर्षक निबंध में रामविलास शर्मा ने लिखा है, “खन्ना की प्रेम कहानी एक अनैतिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ आदमी की प्रेम कहानी है। यहाँ प्रश्न अश्लीलता का नहीं वरन् उसके कमज़ोर अनैतिक आचरण का है।”
 समस्या यह है कि उपन्यास के स्त्री-पुरुष चरित्र जब तयशुदा पुंसवादी नियमों के तहत आचरण करते हैं तब वे नैतिक, संस्कारी व निष्ठावान माने जाते हैं लेकिन जब वे उस फ्रेमवर्क से तोड़कर पुरुषसत्ता विरोधी, परंपरा-विरोधी और स्वच्छंद आचरण करते हैं तब वे मर्यादाहीन-चरित्रहीन तथा अनैतिक घोषित किए जाते हैं। यशपाल इसी संकीर्ण मनोवृत्ति पर चोट करना चाहते थे। इसीलिए वे शैल के ज़रिए आधुनिक, अपनी अस्मिता के प्रति सचेत, आत्ममर्यादा संपन्न स्त्री को सामने रखते हैं। डा. खन्ना, डॉ. प्राणनाथ, भूषण और हरीश के ज़रिए यशपाल ऐसे पुरुष-चरित्रों को पेश करते हैं जो स्त्रियों का सम्मान करते हैं, स्त्री-इच्छा को प्रधानता देते हैं; स्त्रियों पर पुंसवादी दबाव नहीं पैदा करते।

‘झूठ-सच’ उपन्यास के डा. प्राणनाथ के माध्यम से यशपाल एक ऐसे पुरुष-चरित्र को चित्रित करते हैं जो अपने व्यवहार में बेहद मानवीय है। प्राणनाथ तारा से प्रेम करता है। यह जानते हुए भी कि तारा बलात्कृत हो चुकी है प्राणनाथ तारा को विवाह का प्रस्ताव देता है। तारा की चिकित्सा के लिए भी राज़ी होता है और अंततः दोनों विवाह-सूत्र में बंधते हैं। स्पष्ट होता है कि यशपाल तारा के माध्यम से आत्मनिर्भर, जीवटसंपन्न, व्यक्तित्वशालिनी व मेधावी स्त्री-चरित्र को सामने रखते हैं वहीं प्राणनाथ के माध्यम से एक ऐसे पुरुष-चरित्र को पेश करते हैं तो स्त्री को उसकी यौन-शुचिता तथा नैतिकता से पृथक करके देखता हो। प्राणनाथ इस टैबू से मुक्त है कि स्त्री केवल शरीर है और उस पर अधिकार स्थापित करना है। वह स्त्री को इंसान के तौर पर देखता है और एक इंसान के रूप में ही तारा से प्रेम करता है। जब हम स्त्री को एक इंसान के तौर पर देखेंगे तो स्त्री की समस्याएं भी नज़र आएंगी। स्त्री के नागरिक अधिकार भी दिखाई देंगे। प्राणनाथ तारा तथा दूसरी स्त्रियों के साथ बेहद आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करता है। इससे स्पष्ट होता है कि यशपाल किस तरह के पुरुषों को समाज में देखना चाहते थे।

हालांकि यशपाल के चित्रण की यह सीमा थी कि उन्होंने स्त्रियों को मुक्त होते तो दिखाया लेकिन दोबारा बंधनयुक्त होने के लिए। उनकी स्त्रियां समाज में समान अधिकार चाहती हैं, वस्तुकेंद्रित मानसिकता से संघर्ष भी करती हैं लेकिन वापस पुरुषों की शरण में जाने के लिए; वापस तयशुदा विचारों में बंधने के लिए। उनके उपन्यासों के आधुनिक स्त्री-चरित्र वैचारिक आत्मनिर्भरता को समझते-पहचानते हैं लेकिन मानसिक और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते। ‘झूठा-सच’ की तारा को अपवादस्वरूप छोड़ दिया जाए तो उनके उपन्यासों की नायिकाएं अंततः पुरुष को ही अपने त्राणकर्ता के रूप में वरण करती हैं। ‘दिव्या’ उपन्यास में दिव्या मारिश के व्यवहार से अवगत होते हुए भी शेष में मारिश को ही जीवनसंगी के रूप में अपनाती है। ‘देशद्रोही’ की चंदा उपन्यास के अंत तक मर्यादा, उचित-अनुचित, भय आदि रूढ़िबद्ध भावनाओं से मुक्त हो जाती है और यह निर्णय लेती है कि वह स्वयं अपने जीवन के फैसले लेगी लेकिन अंत तक इसकी रक्षा नहीं कर पाती। ‘दादा कॉमरेड’ की शैल जो सुशिक्षित आधुनिक विचारों की युवती है, वह भी अंततः बिना आत्मनिर्भर बने(नौकरी किए) दादा को शरण में लेने के लिए कहती है। ‘मनुष्य के रूप’ की मनोरमा मानसिक रूप से सर्वदा भूषण पर आश्रित रहती है और उसके आत्मनिर्भर बनने में भी भूषण का ही योगदान रहता है। ‘मनुष्य के रूप’ की सोमा भी फ़िल्मों की प्रतिष्ठित नायिका बन जाने के बाद भी सर्वदा बनवारी पर अपने निर्णयों के लिए आश्रित बनी रहती है। हालांकि यशपाल स्त्रियों के आर्थिक और मानसिक स्वावलंबन के पक्षधर थे और यह भी जानते थे कि स्त्री की मुक्ति में इनकी बड़ी भूमिका है, तब भी अपने उपन्यासों में पूर्णतः आत्मनिर्भर स्त्री-चरित्र नहीं प्रस्तुत कर पाए।

यशपाल के उपन्यासों का मुख्य ज़ोर इस बात पर रहा है कि समाज में स्त्रियों के पराश्रित अस्तित्व की समस्या को पाठकों के सामने रखा जाए तथा स्त्रियों को उनकी मातहत अवस्था और अधीन मानसिकता से मुक्त किया जाए। आधुनिक समाज में पुरुषों को जितने अधिकार प्राप्त हैं वे सारे अधिकार स्त्रियों को भी मिले। इसके अतिरिक्त यशपाल पुरुषों में मानवीय, संवेदनशील तथा स्त्री-मुक्ति के पक्षधर विचारधारा को विकसित करना चाहते थे।

पूंजीवादी समाज में रहते हुए परंपरागत व गुलाम मनोदशा से स्त्रियों की मुक्ति संभव नहीं कारण पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में अन्य वस्तुओं की तरह स्त्री भी एक वस्तु ही है। स्त्रियों का अपने इस वस्तु-बोध से मुक्त होना ज़रूरी है। स्त्रियों में यह सचेतनता होनी चाहिए कि वे अन्य की संपत्ति नहीं हैं। स्त्री एक मनुष्य है और मनुष्य होने के नाते उसका भी वही अधिकार है जो एक पुरुष का है। अधिकार-बोध की यह भावना स्त्री में अस्मिता-बोध को जागृत करता है। स्त्री की स्वंतत्र अस्मिता के निर्माण के लिए उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता ज़रूरी है। आर्थिक आत्मनिर्भरता उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को पुख्ता करता है। इसके साथ ही स्त्री के पास एक वैकल्पिक समाज और सामाजिक संबंध होना ज़रुरी है ताकि वह समय का सदुपयोग कर सके। यशपाल हर तरह से आत्मनिर्भर स्त्रियों को ही समाज में देखना चाहते थे।



संदर्भ-सूची -

1 . यशपाल, दादा-कामरेड, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, 1965, पृ.-28
2.  यशपाल, यशपाल के निबंध(खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.-134
3. यशपाल, दादा-कामरेड, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, 1965, पृ.-28
4. यशपाल, दिव्या, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1987, पृ.-150
5.  वही, पृ.-159
6. यशपाल, यशपाल के निबंध(खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.-131
7. यशपाल, मनुष्य के रूप, लोकभारती प्रकाशन, लखनऊ, 1983, पृ.-189
8. यशपाल, दादा-कामरेड, विप्लव कार्यालय, लखनऊ, 1965, पृ.-36
9. यशपाल, यशपाल के निबंध(खण्ड-2), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.-11
10. यशपाल, देशद्रोही, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1984(नवां संस्करण), पृ.-172
11. यशपाल, यशपाल के निबंध(खण्ड-2),लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1994, पृ.- 132
12. यशपाल, देशद्रोही, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1984(नवां संस्करण), पृ.-138
13. वही, पृ.-34
14. वही, पृ.-246
15. शर्मा, डॉ. रामविलास शर्मा, मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1994, 2008, पृ.-350

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...