Friday 20 November 2015

आत्मनिर्णय से वंचित स्त्री की मानसिक गुलामी




वर्तमान समय में यह देखा जा रहा है कि आज़ादी से पहले स्त्रियों की स्थिति समाज में जैसी थी, आज़ादी के अड़सठ साल बाद भी उसमें बहुत गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। स्त्रियां स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, शिक्षित होकर उच्च पदों पर नियुक्त हो रही हैं लेकिन ज़्यादातर स्त्रियों के व्यक्तित्व में अभी भी आत्मविश्वास का अभाव बना हुआ है। अभी तक स्त्रियां पुरुषों के निर्णयों को ही सर्वोपरि मानकर जीवन के समस्त क्षेत्रों के मुख्य फैसले पुरुषों के फैसलों पर निर्भर रहकर ही ले रही हैं। अभी स्त्रियों का जीवन घर की चौहद्दी तक सीमित नहीं हैं; वे उस घेरे से बाहर निकल चुकी हैं। उन्होंने समाज को देखा-समझा है लेकिन अधिकतर स्त्रियां अपना निर्णय स्वयं लेने का अधिकार व क्षमता अब तक हासिल नहीं कर पाई हैं। उनके पहनावे से लेकर खान-पान तथा नौकरी में भी प्रेमी या पति के राय तथा इच्छा-अनिच्छा की बड़ी भूमिका होती है। स्त्रियां जीन्स पहने या साड़ी, कुर्ती पहने या सलवर-कमीज़, रंगीले-भड़कीले कपड़े पहने या सादा कपड़े, ज़्यादा सजकर घर से निकले या कम सजकर, चावल खाए या रोटी, वेज खाए या नॉन-वेज आदि-आदि निर्णय प्रेमियों/पतियों की हिदायतों के मुताबिक ही प्रेमिकाओं/पत्नियों के नित्यकर्म में शामिल हो रहा है।
 
ऐसी भी स्त्रियां हैं जो केवल संसार(घर) बसाने के उद्देश्य से ही नौकरी छोड़ रही हैं या पुरुष(पति) जिस तरह की नौकरी पसंद करता है या करने की अनुमति देता है, वैसी नौकरी ही स्वीकार कर लेती हैं। पति जिस –जिस तरह से अपनी और अपने पत्नी के संसार और जीवन को सजाना चाहता है उसी अनुरूप स्त्रियां भी परिचालित हो रही हैं और पुरुषों की हां में हां कर रही हैं। स्पष्ट है कि स्त्रियों के पास स्वायत्त निर्णय और अस्मिता-बोध का भयानक अभाव सामने आया है। सवाल उठता है कि क्या स्त्री-शिक्षा का उद्देश्य स्त्रियों को जीती-जागती गुड़िया में रूपांतरित करना है? क्या स्त्री-शिक्षा का अर्थ शिक्षित किंतु पति की आज्ञाकारी पत्नी बनाना है? क्या स्त्री-शिक्षा का अभिप्राय बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षित पत्नी का निर्माण करना लेकिन उसे पुरुषों के हिसाब से परिचालित कराना है?
ये चिंता की बात है कि शिक्षित होकर भी आधुनिकाएं आज्ञाकारी बेटी और पत्नी और प्रेमिका बन रही है यानी शारीरिक तौर पर आज़ाद होकर भी मानसिक गुलामी की शिकार हैं। हालांकि इस आज्ञाकारिता को हमारे प्राचीन पितृसत्ताक परिवार-व्यवस्था में बहुत सम्मान दिया जाता रहा है और आज भी आज्ञाकारी होना सबसे बड़ा गुण माना जाता है। लेकिन इस आज्ञाकारी मनोवृत्ति ने स्त्रियों की कितनी क्षति की है; उसका जितना भी बखान किया जाए वह कम है। इस आज्ञाकारिता ने स्त्री के व्यक्तित्व में कोई भी मूलभूत परिवर्तन नहीं होने दिया। वह हर बात में ‘हां’ कहनेवाली तथा अपनी बुद्धि का एक-तृतीयांश भी खर्च न करने वाली आज्ञाकारी गुलाम बनती जा रही है।

किसी भी प्रकार का निर्णय लेने के लिए बुद्धि, विवेक और अनुभव महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन जब स्त्रियां गुलाम मानसिकता में जीएगी तब इनके उपयोग की ज़रूरत ही महसूस नहीं होगी कारण सारे निर्णय पुरुष लेंगे और स्त्रियां उसे अनुसरण करने वाली आज्ञाकारी पत्नी बनी रहेगी। जाहिर है फिर स्त्रियां एक ऐसी गुलाम मानसिकता को समृद्ध कर रही है जो बुद्धि रहते हुए भी बुद्धिहीन, विवेक रहते हुए भी विवेकहीन और आत्ममर्यादा रहते हुए भी आत्ममर्यादाहीन है। वह चलती-फिरती गुड़िया में रूपांतरित हो रही है जो हंसती है, बोलती है, खाती है, कमाती है लेकिन ‘ना’ नहीं कहतीं। कारण ‘ना’ प्रतिवाद है और प्रतिवाद आज्ञाकारिता का विलोम रचता है। स्त्रीवादी ‘ना’ पुरुषवाद के लिए खतरा है। आज्ञाकारी स्वभाव पुरुषों को विशेष प्रिय होता है लेकिन स्त्रियों के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह नुकसानदेह है। इस आज्ञाकारिता के कारण ही स्त्रियां अब तक पुरुषवाद के वैचारिक व दैहिक गुलामी का शिकार बनती आई है तथा अपने अधिकार व स्वायत्ता को समझने में असमर्थ रही है।

स्त्रियों के संदर्भ में शिक्षा का पहला अर्थ है अज्ञान से मुक्त होकर ज्ञान से रूबरू होना, दूसरा अर्थ है पुंसवादी गुलामी से मुक्त होना। यह मुक्ति केवल पुरानी श्रृंखलाओं से ही नहीं है जो अनादि काल से स्त्रियों के ईर्द-गिर्द बना हुआ है बल्कि उन मानसिकताओं से भी है जो स्त्रियों को परवश बनाती आई है। उन विचारधाराओं से भी है जो स्त्रियों को गुलाम बनाती आई है और उस दृष्टिकोण से भी है जो स्त्री-अस्मिता की पहचान और उसके विकास में लगातार बाधा बनती रही है। शिक्षा का सही कार्यान्वयन तब होगा जब पुरुषों की अधीनता वाली मानसिकता से स्त्रियां अपने आप को मुक्त करके जीवन में सही निर्णय ले सके व हर बात पर पुरुषों पर निर्भरशील ना हो। अपनी स्वतंत्र अस्मिता व अस्तित्व का स्वायत्त ढंग से विकास करें तथा अपने जीवन के फैसले स्वयं लें।

पुस्तक और अवसरवाद

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