Sunday 30 October 2022

आलोचक की सामाजिक भूमिका

 



कई सुधी जनमानस की राय है कि समाज की समस्याओं या बुराइयों को दृष्टिगत करके भी पूरी शिद्दत से उन्हें नज़रअंदाज़ करना चाहिए। अच्छी, मधुर और सुंदर-सुंदर चीज़ों को सहेजकर उन पर बातें की जानी चाहिए। रचनात्मक कार्यों में अपनी दक्षता को प्रमाणित करना चाहिए। बुरी बातों की आलोचना असल में समय का अपव्यय है। एक वाक्य में कहें तो समस्याओं से अवगत होकर भी आँख मूँदकर रहें, समाज की चिंता त्याग दें और अपना सृजनशील पेशेवर कर्म करें। सवाल यह है कि क्या इंसान सामाजिक प्राणी नहीं है? क्या समाज की समस्याओं का प्रभाव व्यक्ति की सृजनशीलता पर नहीं पड़ता? क्या व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता? क्या समाज की समस्याओं पर विचारशील लेखिकाओं का चुप रहना माकूल है?

इसे समझने की आवश्यकता है कि आलोचना अगर बुराई को लक्ष्य कर लिखा गया हो तथा उस बुरे के सुधार की गुंजाइश में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा हो, तब वह जनकल्याणमूलक होता है। हालांकि यह भी सत्य है कि गलत की आलोचना को समाज नज़रअंदाज़ कर दे और इसकी शत-प्रतिशत संभावना है! तब भी आलोचना का काम विवेकशील एवं जागरुक लेखिकाओं को मुसलसल करते रहना चाहिए। कारण यह वक़्त की माँग है और एक दायित्वशील नागरिक का कर्तव्यबोध भी।

इस संदर्भ में मुक्तिबोध याद आते हैं जिन्होंने अपने समय की तमाम समस्याओं पर कई निबंधों एवं कविताओं के माध्यम से बेबाक व्यंग्यात्मक चोट किया है। चाहे वह प्रोफेसर वर्ग पर हो, चाहे अवसरवादियों पर हो, चाहे मध्यवर्ग की कमज़ोरियों पर हो या फिर हिन्दी के विद्वानों या साहित्यिकों पर। मुक्तिबोध के इस चोट का लक्ष्य जाहिरा तौर पर किसी समुदाय, वर्गविशेष या व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्रोश प्रदर्शित करना नहीं था। इस संदर्भ में ‘आपने समाज को सुधारने का ठेका लिया है क्या?’, ‘क्या आपके लेखन से समाज सुधर जाएगा?’, ‘आपको कैसे पता क्या सही है और क्या गलत!’ इत्यादि वाक्य भी अर्थहीन है। प्रतिवाद एवं उसके फलस्वरूप बदलाव की उम्मीद ही है जो विवेकशील लेखिकाओं एवं लेखकों को प्रेरित करती हैं कि वे जनविरोधी, अन्याय, गलत और अर्थहीन विषयों या करतूतों के खिलाफ़ प्रतिवाद की आवाज़ उठाएं। यह आख्यान(fiction) के ज़रिये भी संभव है तथा आलोचना(non-fiction) के ज़रिये भी। मुक्तिबोध के हवाले से कहें तो इसे ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’ कहते हैं।

मुक्तिबोध ने लिखा है, “व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ यह है कि लेखक अभिनय न करे, आडम्बर से बाज़ आये, अतिशयोक्ति न करे, वरन् जिस अनुपात में, जितनी तीव्रता के साथ, जो भाव जिस ढंग से, उदित हुआ है, उस अनुपात में, उतनी तीव्रता के साथ, उस भाव को उसी ढंग से प्रकट करे।”

अभिव्यक्ति की यह प्रकिया ही लेखकीय ईमानदारी है। अनुभूतिप्रवण एवं चेतन लेखिकाओं की दृष्टि किसी वायवीय घटना पर नहीं जाती अपितु अपने आसपास के परिवेश यथा अपने कर्मस्थल, अपने परिचितों से जुड़ी समस्याओं तथा उलझनों की ओर ही जाती है। जिस परिवेश में लेखिका रह रही होती हैं, जहाँ की समस्याओं से वह दो-चार हो रही होती हैं, उन समस्याओं को वह बेहतर जानती हैं। फलतः यह उसका दायित्व है कि उसे सही ढंग से पहचानें, पाठकों के समक्ष निरावृत करें तथा उससे निकलने का पथ भी सुझाए।

इस प्रसंग में मुक्तिबोध की चंद पंक्तियों का उल्लेख मौजूँ होगा—

                       “भावना के कर्तव्य...त्याग दिये,

                        हृदय के मन्तव्य...मार डाले!

                        बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,

                        तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

                        जम गये, जाम हुए, फँस गये,

                        अपने ही कीचड़ में धँस गये!!

                        विवेक बघाड़ डाला स्वार्थों के तेल में

                        आदर्श खा गये।”

 

 इंसान जीवित तो रहेगा लेकिन किस तरह? एक विचारशील एवं बुद्धियुक्त नागरिक और लेखिका का फ़र्ज़ है कि वह अपने विवेक को मरने न दे। अंतरात्मा की पुकार पर मनन करें तथा उसे उसकी गत्यात्मकता में सम्प्रेषित करे। इसे सीधे तौर पर करें या प्रतीकों के रूप में यह लेखिका के व्यक्तिगत चयन पर निर्धारित होगा।

प्रसंगतः लू शुन की बेहद जनप्रिय कहानी ‘डायरी ऑफ़ ए मैडमैन’(Diary of a Madman) की चर्चा की जा सकती है। यह कहानी राजनीतिक रूपक-कथा के ज़रिये चीन की तद्युगीन सामंती संस्कृति तथा समाज पर प्रहार करती है। ‘Cannibalism या मानवमांस-भक्षण की कथा के ज़रिये इस बात की आलोचना हुई है कि उस दौर में चीन के लोग एक-दूसरे के प्रति किस तरह का मनोभाव रखते थे। मानवमांस-भक्षण असल में प्रतीकात्मक है। यह समाज द्वारा व्यक्तित्व के क्षरण को प्रतीकात्मक तौर पर पेश करता है। सरकार की अनैतिकता, भ्रष्टवृत्ति, अधिकार पाने के लिए जबरन नागरिकों पर सख़्त कानून लागू करना इत्यादि घटनाओं को प्रतीक के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। वहीं स्वतंत्र विवेकशील लोग पागल करार दिए जाते हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए योजनाएं बनाई जाती है। यह कहानी दरअसल सरकार तथा उसकी गुलाम प्रतिनिधियों की तीखी आलोचना में लिखी गई है।

प्रतिवाद का यह एक विशिष्ट तरीका है जिसमें दिग्भ्रष्ट समाज को चेतनावस्था में लाने के लिए प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है। एक नागरिक का समाज के प्रति प्रतिबद्धता का भाव ही अन्याय या शोषण के खिलाफ़ सवाल खड़े करने के लिए उसे मजबूर करता है। यह सकारात्मक पहल है। नकारात्मक है उत्पीड़न को देखते हुए भी उसे अनदेखा करना। अपने सुरक्षित वलय में रहकर रचनात्मक कर्म करना, गंभीर विषयों को दरकिनार कर हल्के विषयों को बड़ा विषय बनाकर उस पर चर्चा-परिचर्चा का माहौल गर्म बनाना दरअसल ज़िम्मेदारी से भागना कहलाता है।

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जब ‘देवदारु’ निबंध लिखते हैं तब देवदारु की प्रवृत्तियों के साथ महादेव की प्रवृत्तियों को जोड़ने के अतिरिक्त देश की वर्तमान सामाजिक एवं नैतिक समस्याओं की ओर भी पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हैं। बानगी देखें, “इस देश के लोग पीढ़ियों से सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है न परवाह है....अर्थमात्र जाति है, छंदमात्र व्यक्ति है। अर्थ आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि वह धरती पर चलता है, छंद आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह आसमान में उड़ा करता है।”

यह पंक्तियाँ वर्तमान दौर में भी प्रासंगिक है कारण भारतीयों की चेतना में अब भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। आज भी किसी अन्य देश में किसी भारतीय के प्रधानमंत्री बनने पर हमारे देश में उसकी जाति का चीर फाड़कर विश्लेषण होता है। किसी सफल शख़्सियत को उसके कर्मों के कारण नहीं उसकी जाति के आधार पर परखा जाता है। किसी इंसान को उसके मेधा के आधार पर नहीं जाति के आधार पर विवेचित किया जाता है। शायद यही वजह रही होगी कि वादियों में बसे देवदारु का वर्णन करते हुए भी युगीन समस्याओं को द्विवेदी जी दरकिनार नहीं कर पाते।

तथाकथित सभ्य समाज की समकालीन उलझनों की तस्वीर द्विवेदीजी के लेखन में बार-बार आ ही जाती है। ‘कुटज’ निबंध में भी इसका स्पर्श मिल जाता है, “कुटज क्या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्मोन्नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है—काहे वास्ते, किस उद्देश्य से? कोई नहीं जानता।”

‘कुटज’ के स्वभावगत वैचित्र्य से पाठकों को अवगत कराने की प्रक्रिया में द्ववेदीजी ने चाटुकारों, तैलमर्दकों एवं सिफ़ारिशीलालों की अच्छी खबर ली है। अपने कर्मों पर अविश्वास कर ज्योतिष के भरोसे जीवन काटने वालों पर भी तंज कसा गया है। वहीं कुटज में इन अवगुणों का अभाव है। वह आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्रचेता है। लेखक के लिए ये दोनों गुण बेइंतहा ज़रूरी है। अन्य के कंधे पर लता की तरह पनपने से अच्छा है अपनी कद भर ऊँचाई।

अब इस बात पर गौर करें कि भक्तिकाल की कवयित्री मीराबाई ने यदि आलोचनात्मक ढंग से अपने तत्कालीन परिवेश, परिवार, वंश तथा समाज द्वारा दी गई ज़्यादतियों, अपमान-लांछन, पैरों में घुँघरू बाँधकर नाचने, इकतारा बजाकर गाने, साधु-संगति करने के कारण राणा द्वारा हत्या के कुचक्र, कक्ष में कैद करना आदि पर न लिखा होता तब आज के पाठकों को कैसे पता चलता कि मीरा की चुनौती कितनी दुर्बोध थी? वे केवल भक्तिभाव में डूबकर कृष्णप्रेम से सराबोर कविताएं लिखी होतीं तो हम उन्हें भक्तिन कवयित्री तो मान सकते थे लेकिन उनकी समस्याओं की दुरूहता की अनुभूति हमें न मिल पाती! जब मीरा ‘छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई’ कहती है तब पति एवं परिवार सत्ता से मुठभेड़ करती है। समाज की रीतियों को धता बताते हुए समाजनिर्मित संस्कारों एवं नियमों के विपरीत जाकर अकेले समाज से लोहा लेने वाली स्त्री की अस्मिता को साकार करती है।

जब मीरा लिखती हैं, ‘भजन करस्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो घण नामी’ तब अपनी विधवा सत्ता को अस्वीकार करती है। सती होने से मना करना सिसोदिया वंश की सत्ता तथा सत्ता के अहंकार का अस्वीकार है। अपनी मर्ज़ी से गिरधर से प्रेम की घोषणा करके मीरा कुलद्रोही व समाजद्रोही तो बनती है लेकिन समाज के सामने एक ख़ुदमुख़्तार स्त्री की छवि को भी दर्ज करती है।



इस प्रकार अपनी इच्छा को प्राथमिकता देने वाली एक स्वायत्तचेता, रूढ़िमुक्त व आज़ादख्याल स्त्री के रूप में हम मीरा की मनोदशा को पढ़ पाते हैं। संभवतः मीरा भक्तिकाल की एकमात्र कवयित्री हैं जिन्होंने अपने निजी को सार्वजनिक किया। आत्मकथा को जनसमक्ष प्रस्तुत करके व्यक्तिगत को ‘पाठ’ का हिस्सा बनाया। हम मीरा से यह सीखते हैं कि तमाम विपरीत परस्थितियों में भी लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए। प्रतिवाद की आवाज़ कर्म और लेखन दोनों में परिलक्षित हो।

रवीन्द्रनाथ ने भी ‘मृणालेर पॉत्रो’ कहानी के माध्यम से तत्कालीन बंग-समाज की पितृसत्ताक मनोदशा तथा मानसिक दरिद्रता को चिह्नित किया है। बिन्दु की मृत्यु की घटना के उपरांत इस वारदात पर बात करते हुए बंग-समाज के पुरुषों ने कहा, ‘लड़कियों का कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब एक फैशन हो गया है।’

स्त्रियों के संदर्भ में यह व्यंग्योक्ति भी है और हल्की उक्ति भी। आत्महत्या का फैसला एक लड़की तब लेती है जब जीवन जीने की अंतिम अभिलाषा भी लुप्तप्राय हो। अनेक तकलीफ़ें संचित करके ही कोई स्त्री आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाती है। इसी तथ्य के आलोक में रवीन्द्रनाथ पुरुष समाज की निर्ममता को परिलक्षित करते हुए व्यंग्यात्मक प्रत्युत्तर देते हैं। वे मृणाल से लिखवाते हैं, ‘....लेकिन नाटक का तमाशा सिर्फ बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों होता है, बंगाली वीर पुरुषों की धोती की चुन्नटों पर क्यों नहीं होता, यह भी तो सोचकर देखना चाहिए।’

आत्महत्या की धाराप्रवाहता को ‘फ़ैशन’ आदि कहकर उसके कारणों की खोज न करना, उसके निराकरण की चिंता न कर उसे लड़कियों की गलती बताना तथा हँसी-मज़ाक में टाल देना समस्या के प्रति अगंभीर रवैया था। यह रुख सामाजिक नागरिक का सामाजिक दायित्व से पलायन भी था। यह पलायन का भाव तत्कालीन बंग-समाज का अंग बन गया था जिसकी आलोचना वक्त की माँग थी। इसी समस्या को संबोधित करते हुए रवीन्द्रनाथ ने लिखा, “ऐसा ही था बिंदु का दुर्भाग्य। जितने दिन जीवित रही, तनिक भी यश नहीं मिल सका। न रूप का, न गुण का – मरते वक्त भी यह नहीं हुआ कि सोच-समझकर कुछ ऐसे नए ढंग से मरती कि दुनिया-भर के लोग खुशी से ताली बजा उठते। मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया।”

आलोचनात्मक दृष्टि ही है जो ‘जो होना चाहिए’ और ‘जो नहीं है’ के बीच की खाई को पाटने का काम करती है। आलोचनात्मक विवेक ‘जो हो रहा है वह गलत हो रहा है’ के विवेचन की क्षमता प्रदान करता है। यह वास्तविकता है कि दुनिया में सुंदर चीज़ें हैं लेकिन सवाल यह भी है कि इस दुनिया को और सुंदर क्यों न बनाया जाए। और यह तब संभव है जब असुंदर पर भी नज़र दौड़ाई जाए! उसे आलोचना के दायरे में लाकर उसमें परिवर्तन की गुंजाइश बनाई जाए। अन्याय से पलायन करके हम समाज को बेहतर नहीं बना सकते, अन्याय का प्रतिवाद करके समाज में अत्यल्प सुधार लाने की कोशिश ज़रूर कर सकते हैं।


Monday 10 October 2022

शिक्षण-कला एवं विद्यार्थी के गुण



जहां पाठ्यक्रम पूरा करने का गुरुभार शिक्षिकाओं पर हावी हो वहां स्वतः यह घटित होता है कि आप किसी भी कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, साहित्येतिहास  या विचार-साहित्य में सम्पूर्ण डूबकर पूरी भावप्रवणता और एकाकार चित्त से सराबोर हो नहीं पढ़ा पाती हैं। किसी भी विषय से विद्यार्थियों को संबद्ध करने तथा स्वयं संबद्ध होने के लिए यह ज़रूरी है कि संबंधित विषय पर कई कक्षाओं में सारगर्भित चर्चाएं हो तथा संबधित विषय के साथ आत्मीयता स्थापित हो। यांत्रिक भाव से पढ़ाना या पाठ्यक्रम समाप्त करने के उद्देश्य से अध्यापन में रत होना असल में अध्यापन का अवमूल्यन है। यह अवमूल्यन ही फ़िलवक्त घोर यथार्थ है।

इस अवमूल्यन में अहम भूमिका निभाती है नोट्स आधारित शिक्षण की पद्धति। अधिकांश शिक्षकों को नये विचारों से परहेज़ है। वे नये विचारों से किनाराकश़ी करते हैं तो वहीं परिश्रम से कतराते हैं। वे सालों पुराने लिखे हुए पीले-पीले नोट्स तब तक लिखाते रहते हैं जब तक कि पाठ्यक्रम न बदले। विद्यार्थी भी इसी प्रथा में प्रशिक्षित हो जाते हैं। वे शोध करके पढ़ाने वाले या मौलिक व्याख्या करने वाले शिक्षकों को वैमनस्य के भाव से निहारते हैं। भाव यह होता है कि फिर आ गईं ज्ञान बघारने! वे नोट्स लेना पसंद करते हैं और ऐसा करते हुए स्वतंत्र चिंतन तथा विचार-मंथन से दूर होते जाते हैं। किसी भी विषय पर नए सिरे से सोचना उन्हें हास्यास्पद मालूम होता है। एक विचार पर कई कोणों से विश्लेषण संभव है इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं! उनकी मानसिकता यह है कि जो भी सही है उसे लिखा दिया जाए कारण फलां-फलां शिक्षक और शिक्षिका लिखाती हैं! अब कौन समझाए कि साहित्य में सार्विक सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती।

एक बार किसी एक बैच के विद्यार्थियों ने महादेवी की कविता पढ़ाते समय मुझसे दिलचस्प सवाल पूछा था कि जिस प्रकार आप समझा रही हैं वह कविता की पंक्तियों के साथ अर्थपूर्ण लग रहा है लेकिन क्या इसे लिखने पर नंबर मिलेंगे कारण व्याख्या की किताबों में तो ऐसी व्याख्या कहीं नहीं है। नंबर के लिए चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि विद्यार्थियों को भी यह पता है कि शिक्षक व्याख्या की किताबों का अनुसरण करते हैं। यह चिंताजनक परिस्थिति है।

इंसान स्वयं कर्म करके ही अन्य को उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकता है। कामयाब मनीषियों की वाणियाँ हम इसलिए पढ़ते-सुनते हैं कि वे तकलीफ़देह परिस्थितियों से गुज़रकर एक निश्चित ऊँचाई को छू सके हैं। अतः वे हमें प्रेरित करते हैं तथा मार्गदर्शक की भूमिका में आसीन होते हैं। ध्यान रहे शिक्षिका या शिक्षक भी अपने दैनन्दिन अध्यापन के कर्म के माध्यम से विद्यार्थियों के मानस-पटल को आन्दोलित करती या करते हैं। उनमें शिक्षण तथा शिक्षकीय दायित्वबोध का बीजवपन करती हैं। अपने गहन विचारों से अपने ज्ञान एवं अभिरुचि का परिचय देती हैं तथा इसी क्रम में विद्यार्थियों को पुस्तक पढ़ने की प्रेरणा भी मिलती हैं। अर्थात् शिक्षिका का कर्मजीवन एवं आचरण ही उनके ज्ञान का मूलभूत संदेश है। सनद रहे कि विद्यार्थी किन्तु शिक्षकों से ही सीखते हैं। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा क प्रिय प्रतीक ‘दीपक’ की जिजीविषा तथा उसके कर्म को देखें। महादेवी ने लिखा हैं,

                            “सौरभ फैला विपुल धूप बन

                             मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु तन

                             दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,

                             तेरे जीवन का अणु गल-गल

                             पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!”

 

जिस प्रकार ‘दीपक’ अपने कोमल तन को गलाकर तमिस्र परिवेश को प्रदीप्त करती है उसी प्रकार एक परिवार में स्त्री की भूमिका होती है। एक गृहिणी भी अव्यवस्थित को सँवारकर घर को स्वच्छ एवं द्युतिमान बनाती है। शिक्षिका की भी यही चित्तवृत्ति होनी चाहिए यानि अध्ययन की प्रक्रिया से गुज़रकर जो ज्ञान अर्जित होता है उसका सारतत्व विद्यार्थियों को सौंपना तथा उनका जीवनमार्ग प्रशस्त करना। स्वयं ज्ञान की अग्नि में तपकर दुर्बोध्य विषयों को तरल जल सदृश सहजता से उद्घाटित करना।

गुरु के संदर्भ में सहजोबाई की निम्न पंक्तियाँ बहुत मायने रखती हैं जिनमें वे मानती हैं कि गुरु चार प्रकार के होते हैं जो अपनी-अपनी विशिष्टता के अनुसार शिष्य का पथ-प्रशस्त करते हैं। एक गुरु पारस पत्थर की तरह होता है जो लोहे को भी परिशुद्ध सोने में बदलने की क्षमता रखते हैं अर्थात् शिष्य को सोने की तरह उज्जवल एवं दिव्य कांति से संपन्न बनाता है। दूसरा गुरु दीपक की तरह शिष्य के ज्ञान एवं बोध के मार्ग को प्रज्वलित करता है। तीसरा गुरु मलयाचल यानि मलय पर्वत की ओर से आने वाली सुंगधित पवन की भांति शिष्य को सुंगधित करता है अर्थात् गुण एवं ज्ञान से दीप्त करता है। चौथा गुरु भँवरे की तरह होता है। जिस प्रकार भँवरे केवल फूलों का ही रसपान करते हैं उसी प्रकार गुरु ईश्वर के अनुराग को ही सही गंतव्य बताकर शिष्य को अमोघ ज्ञान प्रदान करते हैं। 

                      “गुरुहैं चारि प्रकार के, अपने अपने अंग।

                                             गुरुपारस दीपक गुरु, मलयगिरिगुरुभृंग।।”

 

 विद्यार्थियों को संवारने में शिक्षागुरु की भी विशेष भूमिका होती है। सही दिशा तो विद्यार्थी ढूँढ़ ही लेते हैं लेकिन बेहतरीन पुस्तकों को पढ़ने की सलाह, भाषा में पकड़, बात करने की तहज़ीब, जीवन के प्रति नज़रिया, समस्याओं के बीच में भी सकारात्मक होकर जीना, वक्त का पालन, सत्य और ईमानदारी को मूलधन बनाना आदि गुरु से ही सीखते हैं। विद्यार्थियों में निहित अंदरूनी प्रतिभाओं को आविष्कृत करने, संकोची स्वभाव वालों को अभिप्रेरित करने में भी शिक्षकों की भूमिका होती है।

 

किसी साहित्यकार के विषय में एक मूर्त धारणा तभी बन पाती है जब आप उन्हें वक्त देते हैं। उनमें सम्मोहन पैदा करने के लिए उन पर गहन शोधपरक पठन की ज़रूरत होती है तब उस सारतत्व को विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। स्वयं प्रबुद्ध होना पड़ता है तभी शिक्षक विद्यार्थियों को प्रबुद्ध कर पाएंग। चलताऊ ढंग से पढ़ाना, कक्षाएं लेनी है तो कुछ भी इधर-उधर का कहकर आ जाना है, गप्प सुनाकर आ जाना है, एक घंटे की कक्षा को पंद्रह मिनट में समेटकर आ जाना है वाला भाव, शिक्षकीय दायित्व से पलायन का भाव है।

कायदे से शिक्षक को हर दिन की कक्षा के लिए तैयारी करके जाना चाहिए। कक्षा के प्रति हल्केपन का भाव न होकर संजीदगी का भाव हो। संजीदगी का अर्थ गंभीर मुखड़े के साथ कक्षा में प्रवेश करना या मुसलसल गंभीर बने रहना या हर समय विद्यार्थियों को डाँट बताना नहीं होता बल्कि निर्दिष्ट विषय को विचारशीलता एवं रोचक भाव से पढ़ाना होता है कि संबंधित विषय में आकर्षण एवं रुचि जागृत हो। विद्यार्थियों को सवाल पूछने के लिए प्रेरित करना, दोस्ती का व्यवहार रखना लेकिन ज़रूरत पड़ने पर सख़्ती से पेश आना तथा नयी दृष्टि से किसी विषय पर मनन करने को प्रोत्साहित करना भी शिक्षकीय कर्तव्य में शामिल है।

किसी भी विषय के मंथन से ही उसका सारतत्व निकलता है। यह मंथन तभी संभवपर है जब अनुकूल कक्षा व विद्यार्थी मिले। जिस कक्षा में आप पढ़ा रही हैं वहां के विद्यार्थी अगर मानसिक तौर पर अपरिपक्व, अपढ़ और अशांत हों तब भी शिक्षिकाओं का ध्यान भटकता है। आप कक्षा में बैठे चंद दुष्ट विद्यार्थियों को शांत करें, कविता में आए तत्सम शब्दों के अर्थ बताएं या अपने हृदय में उमड़-घुमड़ रहे मौलिक एवं गूढ़ विचारों को रूपायित करने की ओर बढ़ें।

कई बार विद्यार्थी ‘मोरल ऑफ़ द पोएम’ ही जानना चाहते हैं यानि कविता का मूल भाव बता दें। पूरी कविता के शब्दशः अर्थ से हमें संबंध नहीं; बस कविता किस भाव पर लिखी गई है बता दें। फिर वही यांत्रिक भाव! जैसे कविता न हो बच्चों की कहानियाँ हो! हक़ीक़त यह है कि कविता का एक ही भाव या अर्थ नहीं होता। साहित्य कोई गणित नहीं है जो तयशुदा मानदंडों पर फलित होगा। साहित्य में अनेक भावों और विचारों के लिए संभावनाएं एवं जगह होती है। व्याख्या पर लिखित संदर्शिका पुस्तकें चूंकि एक ही भाव के ईर्द-गिर्द घूर्णन करती हैं सो वे मानकर चलते हैं कि कविता का एक ही भावार्थ होता है। इस तरह के अनचाहे सवालों एवं प्रतिक्रियाओं के कारण जिस आंतरिक और निविड़ भाव के साथ एक शिक्षिका पढ़ाने जाती हैं वह मझधार में ही काल-कवलित हो जाती है।

गौरतलब है कि विचार एकाएक नहीं पैदा होते, वह बोलने के क्रम में ही रूप, रंग और आकृति लेते हैं। बोलना या समझाना कोई मशीनकृत तकनीक नहीं, एक सहजात प्रक्रिया है। शिक्षण विचारशीलता, चिंतन एवं मनन की प्रक्रिया है। इसमें बाधा पड़ने पर अध्यापन का स्वतःस्फूर्त प्रवाह क्षतिग्रस्त होता है।

वर्तमान पीढ़ी को सामाजिक व्यवस्था ने इस रूप में प्रशिक्षित किया है कि यंत्रचालित ढंग से विद्यार्थी कक्षा में बैठते हैं, सुनते हैं और चले जाते हैं। सवाल करना, तर्क करना या संबंधित विषयों की आलोचना को पढ़कर कक्षा में आना आदि बातें अमूमन कपोलकल्पना है। अधिकांश विद्यार्थी बिना कहानी या कविता पढ़े कक्षा में दाखिल होते हैं। भाव यह कि मैम तो पढ़ाएंगी, बाकि ट्यूशन या संदर्शिका(गाइड) पुस्तकों के सहारे परीक्षा उत्तीर्ण कर लेंगे। स्पष्ट है कि बिना पढ़ाई के केवल डिग्रीधारी होने का गौरव भी समाज में कम मायने नहीं रखता है। वहीं डिग्री से नौकरी का भी गहरा सम्पर्क है।

विद्यार्थी का संधिविच्छेद होता है-- विद्या + अर्थी अर्थात् विद्या को अर्जित करने का आकांक्षी या विद्या को ग्रहण करने की स्पृहा से संबद्ध। विद्या के प्रति चाह ही एक विद्यार्थी को निर्मित करता है। विद्या से सान्द्रता आती है तो विनयशीलता का भी व्यक्तित्व में संचार होता है। संस्कृत सुभाषितों में विद्यार्थियों के पाँच लक्षण बताए गए हैं--

                       “काकचेष्टा बकोध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।

                       अल्पहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।”

 

कौए की तरह सदैव जानने की व्याकुलता यानि विद्या का लगातार अभ्यास करते रहना, बगुले की तरह एकाग्रता यानि विषय एवं लक्ष्य के प्रति सान्द्रता, स्वान की तरह अल्पनिद्रा यानि सदैव चौकन्ना रवैया, आवश्यकतानुसार आहार करने वाला(न कम न ज़्यादा) अर्थात् लालच का संवरण तथा गृहत्यागी अर्थात् घर के भौतिक आकर्षणों से मोहमुक्त होना। इसी प्रकार वे विद्यार्थी जो केवल अन्य के लिखे पुराने नोट्स पढ़कर परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते हैं, जो पुस्तकालयों से संबंध नहीं जोड़ते, जो स्वयं पुस्तकीय यात्रा से गुज़रकर अपना नोट्स नहीं बनाते वे परीक्षा में नंबर भले ही पा ले या नौकरी की प्रतियोगिता में भले उत्तीर्ण हो ले किन्तु ज्ञान एवं विद्या के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। विषय की गहराई में प्रवेश करने की चेष्टा न होने के कारण, विद्यार्जन की एकाग्रता न होने के कारण वे केवल नोटार्थी बनकर रह जाते हैं, विद्यार्थी नहीं।

संस्कृत में एक अन्य सुभाषित की मानें तो सुख की चाह रखने वाले या सुख को ही परम अर्थ मानने वाले विद्या त्याग दें और विद्या की याचना करने वाले सुखों को त्याग दें। जो सुख की कामना करते हैं उनके लिए विद्या कहाँ है और जो विद्या का अभिलाषी हो उसके लिए सुख कहाँ?

                            “सुखार्थी त्यजते विद्यां

                             विद्यार्थी त्यजते सुखम्।

                             सुखार्थिनः कुतो विद्या

                             कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।।”

 

अर्थात सुख और विद्या परस्पर साथ नहीं रह सकते। विद्या एक साधना है, ज्ञानार्जन एक तप है जिसे प्राप्त करने के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। कक्षा में बैठकर मानसिक तौर पर कक्षा में न होना, तदर्थ भाव से शिक्षिका को सुनना, अटेंडेंस के लिए कक्षा में आना, बिना पढ़े कक्षा में आना, कक्षा में कोई सवाल न करना आदि बताते हैं कि शिक्षा के प्रति निष्क्रिय भाव ने बसेरा किया है। इस प्रक्रिया से गुज़रकर नौकरी मिलती है तभी पढ़ना है अन्यथा इससे कोई लगाव नहीं वाला भाव पढ़ाई एवं जीवन के प्रति निश्चेष्ट भाव है। कुछ भी नया जानने-सुनने की इच्छा नहीं वाला भाव अज्ञान-प्रेम को दर्शाता है। जबकि विद्यार्थियों के जीवन का उद्देश्य अज्ञान से ज्ञान की ओर परिवर्धन है। इसके लिए सुख और मोह का विसर्जन ज़रूरी है। जीवन का नवनिर्माण हमारा उद्देश्य है जो परिश्रम के द्वारा ही संभव है।

 

 




Thursday 22 September 2022

भाषा-प्रेम के मायने

 

 





हिन्दी दिवस 'इवेंट' में रूपान्तरित हो गया है। जब भाषा इवेंट का रूप धारण करता है तब भाषा में सहज ही क्षय के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। भाषा का कार्यक्रम बनना या कार्यक्रम तक सीमित हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है; यह भाषा-प्रेम के अवमूल्यन के चिह्न है। जब भाषा के प्रति प्यार और सम्मान कम हो जाता है तब प्रदर्शन की भावना बलवती होती है। फलतः भाषा कामचलाऊ चीज़ बन जाती है और भाषा दिवस, उत्सव दिवस में बदल जाता है।

भाषा-प्रेम से उत्सव का कोई संबंध नहीं है। भाषा तो बहती धारा है जो प्रेम के बलबूते पर ही ज़िन्दा रहती है। इस प्रेम के कई रूप हैं - पाठकों का प्रेम, लेखकों का प्रेम तथा संबंधित भाषा को बोलने वालों का प्रेम। भाषा दो रूपों में जनसमाज में बहता है— पहला साहित्यिक भाषा के रूप में तथा दूसरा लोक-भाषा रूपी प्रवाहमयी नीर के रूप में।

उत्सव दिवस में तब्दील होते ही भाषा-पर्व, खानापूर्ति पर्व में बदल जाता है। वर्तमान समय में दिवस का परिपालन बेहद ज़रूरी बन गया है ठीक जैसे माँ दिवस का पालनोत्सव। जो बच्चे कभी भी माँ के दुखों को जानने की कोशिश नहीं करते, जिनके पास माँ से बात करने का भी अवकाश नहीं होता, वे भी माँ दिवस के दिन फेसबुक में माँ पर एक पोस्ट डाल आते हैं। यानि माँ भी इवेंट में बदल चुकी है। हाड़-मांस की माँ जो रसोईघर में मेहनत करती है, घर को सुंदर व स्वच्छ रखती हैं, बच्चों के जीवन की हर छोटी चीज़ का ध्यान रखती हैं, बच्चों के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करती हैं, की तकलीफ़ समझने के लिए बच्चों के पास भले ही वक्त न हो लेकिन उत्सवी परिवेश का हिस्सा वे ज़रूर बन आते हैं। वजह यही है कि आज संवेदनाएं भी ‘इवेंट’ में बदल गई हैं। हर सुंदर अनुभूति तथा भावना के लिए एक ‘दिवस’ निर्धारित कर दिया गया है। वह अनुभूति चाहे मनुष्य के लिए हो चाहे ईश्वर के लिए।

आज भक्ति भी दिवस है। बाज़ारवाद किसी ख़ास दिन को ही आराधना का विशिष्ट दिन बताकर आम जन में उसका प्रचार-प्रसार करता है। अमुक नक्षत्र, अमुक योग, तमुक तिथि की ख़ासगी समझाकर लोगों को विभ्रमित किया जाता है। जबकि भक्तिकाल के कवियों ने कभी भी दिन पर नहीं भक्ति, प्रेम और त्याग पर ज़ोर दिया था। भक्ति नित्य के आचरण का हिस्सा होना चाहिए। माँ से तथा ईश्वर से प्रेम करना दैनन्दिन आदत का हिस्सा हो, उसे दिवस में लघुकृत करना उसके मूल्य को कमतर करना है। दरअसल बाज़ारवाद का यही उद्देश्य है— हर चीज़ को घटना में रूपान्तरित करो तथा उसे व्यावसायिकृत करो। आज धर्म भी व्यवसाय है। भगवान भी माल है, उसका क्रय-विक्रय होता है। हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदाय नहीं, मनुष्य नहीं, संवेदना नहीं दो लड़ाकू गुटों में रूपान्तरित हो चुके हैं। दलित तथा आदिवासी वोटबैंक है। स्त्रीवाद पर कविता लिखना वक्त की मांग के स्वरूप जनप्रिय कवि बनने का पैमाना है, ना कि स्त्री की समस्याओं के प्रति ज़िम्मेदाराना लेखन!

हिन्दी दिवस के दिन भाषा फुलों के गुच्छों, शिल्ड, तोहफों, फ़ुड-पैकेटों, चाय-बिस्किट, भाषणों आदि में बदल जाती है। भाषणों में बदलती भाषा ज़ायकेदार लफ़्ज़ों, श्रुतिमधुर वाक्यों और प्रशस्ति गान के भँवर में अठखेलियाँ करती हैं। भाषणों में वक्ताओं की हिंग्रेजी, भोजपुरी तथा अंग्रेज़ी मिश्रित खड़ी बोली के उच्चारण से खड़ी बोली हिंदी और अधिक निखर-संवर उठती है। जैसे हिंदी दिवस न हो हिन्दी-उद्धार दिवस हो!

हिन्दी दिवस के भाषणों में देश की अन्य भाषाओं से हिन्दी के साम्य को बैठाने की कोशिश भी की जाती है। मसलन् भारत की समस्त भाषाएं आपस में सगी बहनें हैं और बाकि सारी भाषाएं सौतेली या शरारती बहनें। ख़ासकर विदेशी भाषा अंग्रेज़ी के प्रति खूब वैमनस्य का भाव प्रकट किया जाता है, उसे लक्ष्य करके दुर्वचन भी उच्चरित होते हैं। विदेशी भाषा शत्रु भाषा तथा स्वदेशी भाषाएं मित्र भाषाएं आदि धारणा के फलस्वरूप हिंदी दिवस की पूरी कार्य-प्रणाली आगे बढ़ती है। भाषाओं के प्रति यह दृष्टि अत्यंत संकुचित एवं अनुदार है।

अगर आप किसी भाषा को खारिज करते हैं तो उस भाषा के साहित्य को भी स्वतः खारिज करते हैं। गौरतलब है कि साहित्य से साम्राज्यवादी दमन का कोई संबंध नहीं है कारण उत्तम या श्रेष्ठ साहित्य साधारण जनता की सृजनशील प्रतिभा की उपज होता है। साम्राज्यशाही देशों द्वारा पराधीन बनाए जाने के कारण यदि उनके देश में विकसित साहित्य को भी हम दमनकारी, त्याज्य या व्रात्य घोषित करें तो यह दृष्टिकोण की अनुदारता ही कही जाएगी।

साहित्य का संबंध मूलतः जनधारा तथा समाज की परिस्थितियों से होता है। समाज और जीवन की अंतःबाह्य परिस्थितियाँ साहित्य की उत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। अंतर्देशीय साहित्य का पठन हमारी दृष्टि, हमारी सोच एवं हमारे चिंतन के आयाम को प्रभावित तथा व्यापित करता है। जैसे सुरों की कोई भाषा नहीं होती, वह हर भाषा से परे अतीन्द्रिय है उसी तरह भावों की भी कोई भाषा नहीं होती। कोई भी भाव या अनुभूति जब भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है तब वह साहित्य कहलाती है।

मातृभाषा के प्रति प्रेम की भावना को बढ़ावा देने के लिए विदेशी भाषा पर अपशब्दों के तीर चलाना ज़रूरी नहीं। अंग्रेज़ी के प्रति नफ़रत के भाव बोने से क्या बोलचाल की भाषा में हिन्दी सुधार संभव है? हमारे नित्य की बोली में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों के अधिकाधिक व्यवहार के लिए सचेत प्रयत्न की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम अपनी-अपनी मातृभाषा को अंग्रेज़ी से हीन, कमतर, कम सुरूप न मानें। समस्या भाषा में नहीं हमारी मानसिकता में है। हम अंग्रेज़ी को ज़्यादा स्टाइलिश और स्मार्ट भाषा मानकर चलते हैं। यही वजह है कि शब्दों के इस्तेमाल के समय भी स्वयं वैभवपूर्ण लगने की चाह में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रचुरतम प्रयोग करते हैं। ऐसी भावना हीनग्रंथि से जन्म लेती है। अतः सुधार सोच व मनोदशा में ज़रूरी है। विदेशी भाषा को अपशब्दों से छलनी करने से न विदेशी भाषा को क्षति पहुँचती है और ना ही मातृभाषा समृद्ध एवं महिमामंडित होती है। मातृभाषा तब फलती-फूलती है जब हम अधिक से अधिक उस भाषा का प्रयोग अपनी आम बोलचाल, जीवनचर्या, लेखन में करें। जब बोलचाल की भाषा लेखन की भाषा बनती है तब वह समृद्ध होती है तथा उसका दायरा बढ़ता है।

हिन्दी दिवस की संगोष्ठियों की एक और ख़ास बात है भाषणों के मध्य 'मेरी भाषा महान' की हुंकार ध्वनि का सम्पूर्ण ओजस्विता से निकलना। यह भाषा का क्षेत्रियतावादी जयकारा है जो हिन्दी-हिन्दी करते-करते हिन्दू में रूपांतरित होने लगती है। जाहिरा तौर पर भाषा दिवस का तब्दीलीकरण हिन्दू दिवस में होने लगता है। यह हिन्दी को और अधिक संकुचित घेरे में आबद्ध करने वाली मानसिकता है जो सर्वथा त्याज्य है।

भाषा तब दीर्घजीवी बनती है जब हम संबंधित भाषा की पुस्तकों से प्रेम करें, उन्हें पढ़ें और उन्हें परिसंचारित करें। भाषा लिखने से बचती है, केवल बोलने से नहीं। अगर बोलने से बचती तो दुनिया की कई भाषाएं आज जीवित रह जातीं। पूरी दुनिया में लगभग तीन हज़ार भाषाएं संकटग्रस्त अवस्था में है। यूनेस्को के 2018 की शोध के अनुसार भारत में कुल बयालीस भाषाएं विलुप्ति की ओर अग्रसर है। यह बयालीस भाषाएं दस हज़ार से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती हैं। यूनेस्कों के अनुसार कोई भी भाषा जो दस हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाती हो, वह संकटापन्न स्थिति में है। भाषाविज्ञान विशेषज्ञ प्रोफेसर गणेश एन. देवी के अनुसार जहाँ कई भारतीय भाषाएं विलुप्ति के संकट से गुज़र रही है वहीं गोंडी, भीली, मिज़ो, गारो, खासी, कोकबोरोक आदि भाषाएं आगे बढ़ रही है। इन समुदायों के शिक्षित लोग इन भाषाओं में कविता, नाटक आदि लिख रहे हैं। नाटकों को खेला जा रहा है। गोंडी भाषा में फिल्में भी बनाई जा रही है। भोजपुरी फ़िल्मी उद्योग का प्रसार भी ऊर्ध्वमुखी है। हालांकि बोडो तथा संथाली भाषाओं के प्रसार में ह्रास दिखाई दे रहा है।

भाषा के क्षय का मूल कारण है संबंधित भाषाओं में साहित्य का अभाव। अन्य कारण हैं संबंधित भाषा की लिपि को पढ़ने तथा समझने वालों का अभाव। अगर सामान्य कुछ लिखा भी गया हो तो उसकी लिपि से परिचित न होने के कारण भी कई बार भाषाएं नहीं बचतीं। कई भाषाओं की तो लिपि ही नहीं होती जो एक अन्य कारण है। कोई भी भाषा सम्पन्न भाषा तभी बन सकती है जब हम भाषा को बोलचाल से आगे कविता, आलेख, निबंध, नाटक, उपन्यास को सम्प्रेषित करने का माध्यम बनाते हैं। तब भाषा की गतिशीलता भी स्वतः बढ़ जाती है। लोगों में उस भाषा की ग्रहणात्मकता एवं उसकी पहुँच का विस्तार होता जाता है। साथ ही भाषा की रूपरेखा में भी विपुल परिवर्तन आता है।

भाषा के साथ प्रदर्शन का कोई संबंध नहीं है जबकि भाषा के साथ ज्ञान का अंतरंग संबंध है। भाषा का विस्तार होता है पुस्तक प्रेम से। ‘मेरी मातृभाषा महान’ के नारे गूंजित करके आप उसे महानता के उच्चासन पर नहीं बैठा सकते। क्या कारण है कि आज भी अधिकांश लोग टेक्नालॉजी का प्रयोग करते समय रोमन में ही हिन्दी लिखते हैं? वे क्यों मोबाइल तथा लैपटॉप में लिखते समय यूनिकोड फ़ान्ट के रहते हए भी उसका प्रयोग नहीं करते? देवनागरी को अभ्यास का हिस्सा नहीं बनाते? अपनी भाषा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता ही आपके भाषा-प्रेम का सूचक है। भाषा के प्रति निष्ठा की भावना ही उसे जीवित रखने का एकमात्र ज़रिया है। भाषा का निरंतर एवं दैनन्दिन प्रयोग ही उसके रूप में सकारात्मक निखार लाता है। साहित्य उसे सौष्ठव एवं सुघरता से समृद्ध करता है। लेकिन कोरे नारेबाज़ी से भाषा-प्रेम का कोई संबंध नहीं होता।

 

Monday 9 May 2022

रवीन्द्रनाथ और शांतिनिकेतन

 


वैशाख के महीने का पच्चीस तारीख कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्मतिथि है। आज का दिन बंगाल के लिए विशेष महत्व रखता है। इस दिन शांतिनिकेतन, जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी(रवीन्द्रनाथ का घर), रवीन्द्रसदन समेत समस्त बंगाल के छोटे-बड़े हिस्सों में  उत्सवी मिज़ाज़ रहता है। आज बंगाल के कोने-कोने में रवीन्द्रनाथ को उनके गानों, उनकी कविताओं, उनके नाटकों, उनके नृत्यनाट्यों, कहानियों, उपन्यासों के ज़रिए याद किया जाता है। अपने जन्मदिन को केंद्र में रखकर स्वयं रवि ठाकुर ने एक कविता और गाने की रचना की थी--

'हे, नूताॅन देखा दीक बार-बार जन्मेरो प्रोथोमो शुभोक्खाॅन।'

अपने जीवनकाल में रवीन्द्रनाथ को अल्पसंख्यक बंगाली जनसमुदाय द्वारा असम्मान, कड़ी निन्दा एवं कटुक्ति का सामना करना पड़ा था। उनकी कहानियों और कविताओं को अश्लील, अनैतिक और असामाजिक तक कहा गया था। 

नोबेल पुरस्कार मिलने की खुशी भी ऐसे निन्दा-रसिकों के कारण वे मना नहीं पाए और उन्होंने आनन्दोत्सव में मग्न बंगालियों से कहा था,"आज आप लोगों ने सम्मान का जो सुरापात्र मेरे मुख के सम्मुख रखा है उसे मैं होठों से छू तो सकता हूं लेकिन इसे मैं अंतर से ग्रहण नहीं कर सकता। इसकी महत्ता से मेरे चित्त को दूर रखना चाहता हूं।"

रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि जिन्होंने सबसे ज़्यादा मेरा अपमान किया है, मेरी मृत्यु के पश्चात वे ही स्मरण-सभा में जाकर मेरी प्रशंसा करेंगे और खूब तालियां बजाएंगे। लेकिन मेरे सच्चे अनुरागी तमाम प्रचार से दूर रहकर मुझे मन ही मन स्मरण करेंगे, प्यार करेंगे।

अपनी आत्मकथा में रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती के निर्माण की व्यथा-कथा का वर्णन किया है-

"विश्वभारती के निर्माण में कितना परिश्रम करना पड़ा, क्या मेरे बाद इसे कोई मूल्य देगा? जब चारों ओर से ऋण का बोझ बढ़ रहा था तो छोटी बहू के गहने बेचने पड़े। स्कूल के लिए कोई लड़का देने को राज़ी नहीं था, अपने घर में खिलाकर-पहनाकर बाहर से लड़के खोजने पड़े और कुछ लोग भाड़े की गाड़ी से उनके घर जाकर स्कूल आने को मना कर आते थे। देशवासियों से मुझे ऐसी मदद भी मिली! उस समय मेरे जीवन में एक के बाद एक मृत्युशोक का कहर हावी था। उस दुख का इतिहास अब लुप्तप्राय है। लोगों को लगता है मैं वैभवपूर्ण अमीर हूं लेकिन उस समय मैं पूरी तरह से निस्सहाय हो चुका था।"

 रवीन्द्रनाथ की कविताओं में स्वच्छंद प्रेम का व्यापक रूप से चित्रण हुआ है। उस समय के बंगाल के परंपरावादी, स्वच्छंद प्रेम के ज़िक्र भर से बहुत नाराज़ होते थे। उनका मानना था प्रेम हो, लेकिन वह स्वच्छंद न हो, यानी प्रेम बंधनयुक्त हो। लेकिन प्रेम बंधनयुक्त नहीं होता, प्रेम है ही स्वच्छंद। जहां प्रेम है वहां स्वच्छंदता है। 

रवीन्द्रनाथ की निरावरण प्रेम की कविताएं इन्हीं परंपरावादियों को संबोधित करते हुए उनकी आलोचना में लिखी गई है। आज भी ऐसे परंपरावादी हैं जिनके लिए स्वच्छंद वर्णन, खुले रूप से प्रेम का चित्रण करना, प्रेमिका के शारीरिक अंगों पर कविता लिखना आदि असभ्यता है। आज इन्हें समझाने के लिए रवीन्द्रनाथ नहीं है लेकिन उनकी कविताएं हैं। 'चुंबन', 'बाहु' और 'स्तन' इस दृष्टि से लिखी गई असाधारण कविताएं हैं।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...