स्त्रियों के
व्यक्तित्व के सही विकास के लिए श्रेष्ठ किताबें पढ़ना और लगातार पढ़ना व पठन से
प्राप्त श्रेष्ठ मूल्यों को जीवन में लागू करना बिना शर्त ज़रूरी है। निश्चित तौर
पर जब स्त्रियां पढ़ने का अभ्यास विकसित करेंगी तो उन्हें इसके सकारात्मक फ़ायदे
होंगे, वे व्यापक समाज से जुड़ पाएंगी और अपनी इच्छाओं के प्रति जागरूक बनेंगी तथा
उसे एक नया मोड़ दे पाएंगी। स्त्रियों को खासकर साहित्य से अपना संबंध जोड़ना चाहिए।
साहित्य किसी भी इंसान की सोच को विस्तार देता है, मानसिकता को उदार बनाता है, विभिन्न
संकीर्णताओं से मुक्त कर स्वस्थ और सुंदर दृष्टिकोण प्रदान करता है और सबसे बढ़कर
साहित्य हर एक इंसान को मानवीय बनाता है। साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति है,
साधारणीकरण करने की क्षमता। साहित्य के पठन के दौरान कविता, कहानी, नाटक या
उपन्यास के किसी पात्र की पीड़ा पाठक की पीड़ा बन जाता है, किसी पात्र का
हर्षोल्लास पाठक के सुख में रूपांतरित हो जाता है। पाठक रचना से इस प्रकार एकमेक
हो जाता है कि वह पाठ में खो जाता है, पाठ उसे आंदोलित करता है, उद्वेलित करता है
और इस प्रकार पाठ से पाठक का एक गहन और आंतरिक संबंध बन जाता है। पाठ का पाठक पर यह
प्रभाव बहुत गहरा व दूरगामी पड़ता है।
साहित्य के इस
बहुआयामी प्रभाव से स्त्रियों का परिचित होना भी विशेष आवश्यक है। वे स्त्रियां जो
साहित्य का अध्ययन नहीं करतीं, उनके लिए महान साहित्य से रुबरू होना इसलिए मायने
रखता है ताकि वे अपनी सोच और सोच की परिधि को विस्तार दे पाएं, एक दैनन्दिन
साहित्यिक रूचि-बोध विकसित कर पाएं। भारत में जिस चारदीवारी में कैद होकर अधिकांश स्त्रियां
ज़िंदगी गुज़ारती हैं, उससे निकलने के लिए साहित्य जैसा विकल्प दूसरा नहीं है।
इसका अर्थ कतई ये नहीं है कि स्त्रियां चारदीवारी के बाहर की दुनिया को बिल्कुल नहीं
जानतीं या संबंधों की जटिलताओं को नहीं समझतीं, स्त्रियां बेशक समझती हैं और
पुरुषों से बेहतर समझती हैं, लेकिन साहित्य का पठन उन्हें जीवन में एक दिशा दे
सकता है, सदियों से स्त्रियां मुक्ति के जिस मार्ग की प्रतिक्षा कर रही हैं,
साहित्य उस मुक्ति का पथ है। अनेक स्त्रियां आज नौकरी के सिलसिले में बाहर निकल
रही हैं लेकिन क्या वे अपने लिए एक अलग अस्मिता और अस्तित्व का निर्माण कर पाई हैं?
क्या स्त्रियां अपने व्यक्तिगत फैसले स्वयं ले रही हैं, क्या समानता के संवैधानिक
घोषणा के बावजूद समाज ने स्त्री को उसका दर्जा और सही हक प्रदान किया है? अपवादों
को छोड़ दें तो इन सवालों के उत्तर नकारात्मक हैं। कारण ये कि स्त्रियां भले ही
बाहर निकलें, उच्च पदों पर काम करें लेकिन अपना संविधान-प्रदत्त हक अर्जित करना वे
अब तक नहीं जानतीं। अपने विचारों को रखने के लिए जिस दृढ़ व्यक्तित्व की ज़रूरत है
उसे स्त्रियां अब तक अर्जित नहीं कर पाईं। यानि स्त्रियां अपनी अस्मिता के प्रति आज
भी सचेत नहीं हैं। इस सचेतनता की वृद्धि में साहित्य मदद करता है।
आज भी अनेक घरों में
स्त्रियों को बोलने या फैसले सुनाने का अधिकार नहीं के बराबर है। साहित्य में यह
गुण निहित है कि वह इंसान को अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति जागरूक बनाता है और
गलत विचारों को दृढ़तापूर्वक खंडित करने व अपनी बात दूसरों के सामने रखने का नैतिक
साहस भी प्रदान करता है जो इस तरह की परिस्थिति में रहने वाली स्त्रियों के लिए
बेहद ज़रूरी है। दूसरी ओर स्त्रियां यदि कविता या किसी दूसरी विधा के ज़रिए अपनी
अनुभूतियों को सम्प्रेषित करें और उसे एक सार्थक रूप दे पाएं तो यह निश्चित तौर पर
एक अच्छा कदम ही माना जाएगा।
अक्सर भारतीय
परिवारों में रह रही स्त्रियों में अनेक रूढ़िवादी ढकोसलों और आडम्बरों का वास भी देखा
जाता है। स्त्रियां अनेक ऐसी प्रथाओं और नियमों में आबद्ध रहती हैं या परिवार
द्वारा आबद्ध कर दी जाती हैं जिनका कोई वैज्ञानिक अर्थवत्ता व स्वस्थ मूल्य नहीं
होता। इन विभिन्न रूढ़ियों से मुक्त होने में भी साहित्य बड़ी भूमिका अदा करता है।
सिर्फ एक नहीं विभिन्न भाषाओं के साहित्य का ज्ञान और उसका प्रसार होने पर
स्त्रियां एक रूढ़िविहीन जीवन-शैली और वैज्ञानिक चेतना से सहज ही संपृक्त हो
पाएंगी। उन्हें देश के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी मिलेगी। स्त्री अपने
मन में जिस सीमित दुनिया को बसाई हुई है, उससे बाहर निकलेगी और व्यापक यथार्थ को
ठीक-ठीक समझकर अपनी समस्याओं का हल करने में सक्षम होगी, सही मूल्यों की परख कर सकेगी।
जिन रिवाज़ों को सही कहकर बरसों से स्त्रियों पर थोपा जाता रहा है उसकी सटीक पहचान
कर उसे अपने जीवन से त्याग पाएंगी। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के
अनुसार, “साहित्य तत्कालीन सामाजिक जीवन में भाग लेने, उसकी समस्याएँ हल करने आदि
की प्रेरणा देता है; साथ ही उसका व्यापक प्रभाव मनुष्य के संस्कारों के निर्माण
में देखा जा सकता है।”
वर्तमान दौर में
बहुसंख्यक स्त्रियां साहित्य के प्रति आग्रह नहीं रखतीं, ये सच है। ये भी सच है कि
यदि श्रेष्ठ साहित्य को वे अपने जीवन की कसौटी और प्रेरणा मान लें तो उनके जीवन में
एक बड़ा बदलाव दिखाई दे। क्षमा, त्याग, संवेदनशीलता, दया, सहानुभूति, सहृदयता आदि
गुण साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है लेकिन हकीकत ये है कि उपरोक्त सारे गुण
अधिकतर स्त्रियों में स्वाभाविक तौर पर विद्यमान रहता है, स्त्रियों को जिन चीज़ों
की ज़रूरत है, वे हैं अपनी अस्मिता का बोध, अपने अस्तित्व का ज्ञान तथा अपने संवैधानिक
अधिकारों को अर्जित करने की इच्छा तथा मांग। इसे केवल साहित्य ही दे सकता है। साहित्य
न केवल स्वस्थ मूल्यों वरन् प्रगतिशील मूल्यों से इंसान को जोड़ता है। सही और गलत
का फैसला लेने में मददगार होता है। रूढ़िबद्ध सामंती विचारों से मुक्त होकर
प्रगतिशील मनोदशा व विचारों को विकसित करने के लिए प्रगतिशील व आधुनिक दृष्टिकोण
से लैस साहित्य का अध्ययन बेहद ज़रूरी है। साथ ही दुनिया की तमाम श्रेष्ठ
स्त्रीवादी रचनाओं को पढ़ने से स्त्रियां अपनी अस्मिता के प्रति स्वयं सचेत होंगी
और ये सचेतना ही है जो स्त्री-मुक्ति का मार्ग है।