Sunday 4 July 2021

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की अवस्थिति और सीमाएं

 



भाषा का संस्कृति, सभ्यता और विचार से गहरा संबंध है। हिन्दी भाषा तभी विकसित होगी जब साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रियतावादी विचारधारा से उसका वास्ता टूटे। क्षेत्रियतावाद के आधार पर साहित्य-पाठ या जीवनदर्शन निर्मित करने का अर्थ है भारत की मिश्रित संस्कृति और मिश्रित मूल्यबोध की ऐतिहासिक वास्तविकता को नकारना। यह कैसे संभव है कि साम्प्रदायिक सोच का विस्तार करते हुए हिन्दी फल-फूल रही हो? केवल हिन्दी में बोलने से हिन्दी की उन्नति नहीं होगी। कोई भी भाषा पठन-पाठन, लेखन और आचरण से जीवित रहती है। भाषा का संबंध केवल शब्दभर से नहीं होता। भाषा की आत्मा है उससे जुड़ा विचार। अगर भाषा का वैचारिक पक्ष कमज़ोर हो तो वह भाषा भी स्वतः कमज़ोर बन जाती है। विचार और भाषा का संबंध अन्योन्याश्रित है।

उपग्रह क्रान्ति के बाद संचार क्रान्ति की शुरुआत होती है। संचार क्रान्ति के कारण सबसे बड़ी घटना यह घटी कि भाषा की केन्द्रीकृत संरचना की विदाई हुई। अब राज्यस्तर की भाषाओं को भी समान मूल्य मिल पाया। हर भारतीय भाषा का सॉफ्टवैर अलग से बनाया गया, मुफ्त में फॉन्ट मुहैया कराया गया। इस काम के लिए भारत सरकार को तकरीबन 1300 करोड़ रूपए खर्च करने पड़े। डिजिटल माध्यम में हिन्दी-लेखन तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में यूनिकोड फॉन्ट(मंगल) की महती भूमिका है। यूनिकोड फ़ाण्ट कम्प्यूटर की मानक भाषा है। इस फ़ॉण्ट के ज़रिये एक ही दस्तावेज़ में अनेक भाषाएं लिखी जा सकती है। वहीं यूनिकोड में लिखित किसी भी लेख को दूसरी भाषाओं में अनुवाद करना संभव है। हिन्दी में वेबसाइट तथा ब्लॉग बनाने, ई-मेल आदि की सुविधा यूनिकोड प्रदान करता है। पहले किसी भी हिन्दी वेबसाइट को पढ़ने के लिए कम्प्यूटर में उसके फ़ॉण्ट को डाउनलोड करना पड़ता था लेकिन यूनिकोड में इसकी ज़रूरत नहीं होती। यही वजह है कि सभी सरकारी कार्यालयों में प्रशासनिक कार्यों के लिए यूनिकोड को अनिवार्य कर दिया गया है। इसके कारण लिखित भाषा का महत्व बढ़ा है।

आजकल हर मोबाइल में यूनिकोड फ़ॉण्ट की सुविधा उपलब्ध है। पहले केवल ब्लैकबेरी के मोबाइल में तथा ऐपेल के आइपैड में यूनिकोड की सुविधा होती थी। अन्य कंपनी के मोबाइल में उपलब्ध फ़ॉण्ट के ज़रिए इंटरनेट में सोश्यल मीडिया तथा अन्य स्थानों पर लिखना संभव नहीं था। यूनिकोड में भारत की हर क्षेत्रीय भाषा को जोड़ा गया जिससे लोग अपनी मातृभाषा या अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान आसानी से कर सके, आपसी संवाद कर पाएं। इसने भाषा की स्थानीयता की समस्या को खत्म किया तथा हर भाषा को वैश्विक स्वीकृति प्रदान की। इसमें केवल हिन्दी ही नहीं, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, गुजराती, मराठी, पंजाबी, कन्नड़ समेत बाईस राजकाज की भाषाएं वैश्विक दर्जा पा चुकी है। इस वैश्विक स्वीकृति के कारण ही कई विदेशी कम्पनियों को भारतीय बाज़ार में अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए हिन्दी भाषा की मदद लेनी पड़ी।

हिन्दी भाषी दर्शकों को ध्यान में रखकर ही रूपर्ट मारडॉक ने भारत में आकर हिन्दी में ‘स्टार न्यूज़’ चैनल का प्रसारण किया। हालांकि उसने दुनियाभर में अंग्रेज़ी के ही समाचार चैनल खोले थे लेकिन भारत में व्यवसाय शुरु करने आए तो उन्हें जनता की माँग के समक्ष अपने विचार बदल देने पड़े। केवल हिन्दी ही नहीं, विभिन्न राज्यस्तर की भाषाओं में भी ‘स्टार न्यूज़’ ने चैनल खोले। यही हाल एम टी.वी., सोनी, सी.एन.एन. आदि का भी हुआ। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने भी एम.एस.एन. तथा हॉटमेल के हिन्दी संस्करण की शुरुआत की। एम.एस.एन. का कहना था कि अस्सी प्रतिशत भारतीय चूंकि अँग्रेज़ी नहीं समझते इसलिए भारत में प्रवेश करने के लिए हिन्दी संस्करण लाना ज़रूरी है।

विदेशी कंपनियाँ जिस गति से भारतीय जनमाध्यमों और बाज़ार में पूँजी निवेश कर रही है, इससे पता चलता है कि भारत की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं की अहमियत को वह समझने लगी है। मेक्सिको की कम्पनी ‘सिनेपोलिस’, चीन की ‘मॉबविस्टा’, ब्रिटेन की ‘कार्निवल फ़िल्म्स प्राइवेट लिमिटेड’ आदि अतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर भारत में पूँजीनिवेश कर रही है। वहीं सी.एन.बी.सी. आवाज़, ज़ी बिसनेस जैसे व्यापारिक समाचार चैनल भी हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं।  

सवाल यह है कि जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की अवस्था कैसी है? ऐसा न हो कि हिन्दी केवल बोलने के लिए बोली जाए, लिखने के लिए लिखी जाए! समाचार पत्रों एवं दूसरे जनमाध्यमों को चाहिए कि वह उसकी समृद्धि की योजना भी बनाए।

भारत में सबसे ज़्यादा पठनीय अखबार दैनिक जागरण के समाचारों के शीर्षक एकदम अपठनीय होते हैं। शीर्षकों के प्रस्तुतीकरण, शब्दों के चुनाव तथा वाक्य-संरचना पर ध्यान शून्य के बराबर होता है। समाचारों के शीर्षक बस रखने के लिए रख दिए जाते हैं। उनके चारित्रिक गठन एवं भाषाई उत्कर्ष की योजना न संपादक के पास है, न समाचार-लेखक के पास। यदि हिन्दी के अखबारों की तुलना अंग्रेज़ी के अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ या ‘द हिन्दू’ से करें तो स्वतः गुणवत्ता का भेद समझ में आ जाता है। वहीं हिन्दी के अखबारों में अंगेज़ी शब्दों का बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है जो बंद होना चाहिए। अंग्रेज़ी के जो नये शब्द प्रचलन में आ रहे हैं, उनके लिए हिन्दी में नये शब्द गढ़े जाने चाहिए। मसलन् बांग्ला दैनिक अखबार ‘आनन्दबाज़ार पत्रिका’ में अग्रेज़ी के शब्दों का न्यूनतम प्रयोग होता है। गुणवत्ता के लिहाज़ से यह पत्रिका बेहतरीन स्थिति में है। इस अखबार की खासियत यह है कि अंग्रेज़ी के हाल में प्रचलित शब्दों के लिए बांग्ला में नए शब्द गढ़े जाते हैं। धीरे धीरे ये शब्द जनसाधारण में प्रचलित हो जाते हैं। जैसे ‘फ्लॉईओवर’ के लिए ‘उड़ालपुल’, स्काईवाक के लिए ‘उड़ालपथ’ आदि।

आज भी अधिकतर ब्रांड के विज्ञापन अंग्रेज़ी में ही लिखे जाते हैं जो बाद में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होते हैं। देखा गया है कि भारत में विज्ञान की पढ़ाई कर चुके युवा तथा अभिजनवर्ग अंग्रेज़ी में पढ़ने, बोलने-लिखने को ही प्राथमिकता देते हैं। चाहे वैज्ञानिक हों, डॉक्टर हों, उच्च पदस्थ पदाधिकारी हों; सभी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा अंग्रेज़ी में ही शोध-लेख लिखते हैं। लेकिन विज्ञान पढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी भाषा में बोलना-लिखना बंद कर दें। हिन्दी जनप्रिय तो है लेकिन उसके जानकार घट रहे हैं। हिन्दी में बोलने वाली जनता तो है लेकिन वे मातृभाषा में लिखने से बचती रहती है। अपनी भाषा में लिखने पर वह भी समृद्ध होता है, अपनी भाषा का विकास होता है। अन्य की भाषा में लिखने से अन्य की भाषा का विकास होता है लेकिन अपने यहाँ भाषा-दरिद्रता पैदा होती है।

भाषा का विचारों से आन्तरिक संबंध होता है। किसी भी समाज की मनोदशा एवं विचारधारा उसकी भाषा से स्पष्ट हो जाती है। जब लगातार कुकथ्य का बोलबाला हो तो जान लीजिए कि समाज भी कुसंस्कृति एवं कुविचार से आच्छन्न है।

अमुमन लोगों में यह धारणा व्याप्त है कि तमाम दुनिया की खबरों का एकमात्र श्रोत टेलीविज़न ही है। टेलीविज़न भी दर्शकों में यह भ्रांत धारणा पैदा करता है कि वह सूचनासमृद्ध बनाता है जबकि यह धारणा सिरे से गलत है। टेलीविज़न, दर्शकों का यथार्थ से संपर्क छिन्न कर देता है। यथार्थ का बोध ही खत्म कर देता है। आप ज्योंहि किसी माध्यम पर आँख मूंदकर विश्वास करने लगते हैं; आप उसके अधिकार-क्षेत्र में आ जाते हैं। टी.वी. की खूबी है कि उसने बिना किसी सेंसरशिप के दर्शकों को अपनी विचारधारा में कैद कर रखा है। उसने यह विभ्रम बनाया है कि उसमें दिखाई जाने वाली घटनाएं ही परमसत्य है। वास्तविकता यह है कि टेलीविज़न हमें सूचनादरिद्र बनाता है। वह जनसरोकार के मुद्दों मसलन् बेरोज़गारी, बिजली-पानी की समस्या, कृषि-योजना, गाँव की समस्याओं आदि पर कभी चर्चा नहीं करती। अपितु तयशुदा विषयों या गैर-ज़रूरी विषयों को सनसनीखेज़ समाचार के रूप में पेश करता है और घंटों उस पर वाद-विवाद या उसका सीधा प्रसारण करता रहता है।

ध्यान रहे टेलीविज़न केवल यथार्थ पर ही हमले नहीं करता, वह जन-संस्कृति और जन-भाषा को भी छीनता है। जब सनसनीखेज़ खबरें आएंगी तो उसकी भाषा भी सनसनीखेज़ ही होगी, जातीय भाषा तो नहीं होगी। टेलीविज़न कभी भी अपनी प्रकृति के बाहर नहीं जाता। वह जो दिखाता है उसी रूपरेखा के तहत दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। मसलन् अगर समाचार चैनलों ने किसी इंसान को अपराधी घोषित कर दिया तो जनता भी आज्ञाकारी भक्त की तरह आँख मूंदकर उसे मान लेती है और तुरंत उस व्यक्ति के उद्देश्य में गाली-गलौच शुरू कर देती है। देखा जाए तो अपराधी घोषित करने का काम समाचार-माध्यमों का नहीं न्यायपालिका का है। जैसे वे कहते हैं - ‘अभी-अभी फलाँ कांड का अपराधी पकड़ा गया है’ तो वे स्वतः अपराधी को चिह्नित कर फैसला भी सुना देते हैं। जबकि वह व्यक्ति अपराधी है या नहीं, यह जाँच का मसला होता है। जब तक न्यायपालिका प्रमाणों के मद्देनजर उस व्यक्ति को अपराधी नहीं घोषित करतीं, तब तक हम उसे अपराधी नहीं कह सकते। ऐसी कई घटनाएं हमारे सामने हैं जब किसी को कथित अपराधी के तौर पर पकड़ा गया, अपराधी के तौर पर मीडिया ने उसके खिलाफ़ खूब प्रचार किया लेकिन न्यायिक-प्रक्रिया के दौरान अपराध प्रमाणित न होने पर उसे चंद सालों बाद रिहा कर दिया गया।

यह भाषिक खेल टेलीविज़न की प्रकृति है। दर्शक इस भाषाई खेल को समझने में अक्षम है सो टेलीविज़न द्वारा दी गई हर सूचना को नतमस्तक होकर मान लेता है। टेलीविज़न के प्रति यह जो पूजा-भाव है, यह स्वतंत्र विचारबुद्धि एवं स्वतंत्र विवेक को हर लेता है। ऐसे ही अगर किसी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाना होता है तो उसके नाम की पुनरावृत्ति करते हुए उसे नायक बना दिया जाता है। टेलीविज़न के माध्यम की खूबी यह है कि वह जिसको नायक बनाता है उसे ही प्रतिनायक में भी रूपान्तरित कर सकता है।

जनसंचार-माध्यम के रूप में अखबार की विशेषता यह है कि वह सोचने का समय देता है लेकिन टी.वी. सोचने का मौका नहीं देता। पढ़ने में यह सुविधा है कि हम सोचते हैं, विचार करते हैं और विवेक के आधार पर निर्णय कर सकते हैं। टीवी में खबरों का लगातार प्रवाह है जो दिमाग पर कब्ज़ा कर लेता है और स्वतंत्र विवेक को जागृत होने ही नहीं देता। आप ज्योंहि सोचने लगते हैं तुरंत एक नई खबर आपके जेहन को घेर लेती है। अगर पाँच मिनट में बीस खबरें दिखाई जाएंगी तो सिर्फ़ खबरें होंगी, अनुभूति नहीं। अभी हमने खबरों को महसूस करना बंद कर दिया है। खबरें सुनने तक सिकुड़ गई है, वह संवेदना का हिस्सा नहीं बनती।

इस प्रसंग में बच्चों के कार्टून कार्यक्रमों का उदाहरण देना समीचीन है। बच्चे लगातार एक के बाद एक कार्टून के कार्यक्रम देखते रहते हैं। उनका मनोरंजन तो होता रहता है लेकिन सोचने की शक्ति क्षीण होती जाती है कारण वहाँ अवकाश नहीं होता। वहीं अगर हम बच्चों को बाल पत्रिका पढ़ने दें तो उन्हें मनन का मौका मिलता है। उनकी हिन्दी भी सुधरती है साथ ही कल्पनाशक्ति में इज़ाफा होता है। ‘शिनचैन’ से लेकर ‘छोटा-भीम’ तक जितने भी कार्टून आते हैं उन्हें देखकर बच्चों की हिन्दी तो कम से कम नहीं सुधरती कारण भाषा-ज्ञान के लिए व्यवहार-ज्ञान और अक्षर-ज्ञान ज़रूरी है। भाषा सचेत प्रयास से सीखी जाती है, स्वतः नहीं सीखी जाती।

टेलीविज़न में आने वाले तमाम धारावाहिक उपभोक्तावाद के पूरे पैकेज को लेकर आते हैं। एक खास किस्म की जीवन-शैली के प्रचार के लिए ही धारावाहिक बनाए जाते हैं। मसलन् जो धारावाहिक उन्नीसवीं सदी की विधवा-समस्या पर बनाई जाती हैं, उनमें सारी विधवाएँ महँगी सफ़ेद साड़ी पहनती हैं, नकली सँवरे हुए बाल तथा तमाम तरह के फ़ेस-मेकअप के आवरण से लदी होती हैं। असल में विधवा भी प्रसाधन-सामग्री उद्योग का सम्पूर्ण पैकेज लेकर आती है। इस पूरी प्रक्रिया में उपभोक्तावाद की दृश्यात्मक भाषा से दर्शकों को रूबरू करवाया जाता है जो सतह पर दिखाई नहीं देता। सतह पर धारावाहिक की कहानी रहती है और सतह के नीचे प्रसाधन-सामग्री के विज्ञापन।

जबकि वास्तविकता यह है कि विधवा के साथ आज भी समाज क्रूरतम रूप में पेश आता है। उसे एक अच्छी साड़ी तक मयस्सर नहीं होता। यह मासकल्चर या लोकवादी संस्कृति है जो नकलीपन का लगातार विस्तार कर रही है और लोक-संस्कृति को नष्ट कर रही है। धारावाहिकों में गहनों से लदी-फँदी सुन्दर गृहिणियाँ तो दिख जाती हैं लेकिन मजाल है कि नौकरीशुदा विचारशील स्त्रियाँ दिख जाए! धारावाहिक देखकर आप हिन्दी-भाषी क्षेत्रों की स्त्रियों तथा उनके जीवन के बारे में कुछ नहीं जान सकते। उसके लिए यथार्थ सम्पर्क और यथार्थ का ज्ञान आवश्यक है। वहीं धारावाहिक देखने वाली स्त्रियों के पास हिन्दी भाषा का ज्ञान न्यूनतम होता है। यह ज़रूरी नहीं है कि वह घरेलू स्त्री जो हर दिन पांच-छह हिन्दी धारावाहिक देख रही है, उसका हिन्दी भाषा का ज्ञान भी बेहतरीन हो।

बाल-विवाह गैर-कानूनी और अपराध है लेकिन ‘बालिका वधू’ धारावाहिक दर्शकों में ज़बरदस्त सफल रहा। आज भी दहेज न लाने के कारण स्त्रियाँ जलाई जाती हैं लेकिन टी.वी. और फिल्मों में बहू की एक आकर्षक छवि बनाई गई है। इसी तरह शिक्षक की छवि माँगपूर्ति वाली बना दी गई है। रामायण सीरियल के नए-नए संस्करण इसलिए नहीं बन रहे हैं कि सीरियलकर्ता भारतीय संस्कृति परोसकर दर्शकों को समृद्ध करना चाहते हैं। उत्तर-आधुनिक ‘राम’ का इमेज ईश्वर से अधिक मैचोमैन का है और ‘सीता’, मैय्या से ज़्यादा मेकअप और साड़ी उद्योग की मॉडेल नज़र आती हैं।

दूसरी बात यह कि जब आप भोगवादी जीवन को महत्व देंगे तो ज्ञान आपके लिए महत्वहीन बन जाएगा। वस्तुप्रेम की मनोदशा ने मनुष्य के गुणों को गौण बना दिया। अब बाज़ार में उपलब्ध अत्याधुनिक ब्रांड की नए-नए फीचर से युक्त वस्तुएं एवं उसका कृत्रिम प्रदर्शन ही आपके व्यक्तित्व एवं अस्तित्व को निर्मित करता है। अब एक इंसान का मूल्य उसकी शिक्षा, उसके ज्ञान, उसकी भाषा, उसके आचरण से तय नहीं होता बल्कि अत्याधुनिक वस्तुओं, अत्याधुनिक कपड़ों जैसी सतही एवं तुच्छ चीजों से तय होता है। उसकी भाषा कैसी होगी यह भी बाज़ार ही तय करता है। मोबाइल में सारे नंबर रहते हैं, सारे तथ्य रहते हैं लेकिन इसमें जो चीज़ छूटती है, वह है स्मृति। मोबाइल के आने के बाद हमारी स्मृति कमज़ोर हुई है। वहीं कई मोबाइल में एक फीचर के तहत बोल-बोलकर लिखने की सुविधा है जिसने युवावर्ग के लिखने की मेहनत को भी कम कर दिया है।





आधुनिकता के दौर में छापे की मशीन आई। छापे की मशीन ने वाचिक को लिखित में रूपान्तरित किया। लिखित प्रारूप ने जातीय भाषा के रूप-गठन एवं उसकी अग्रगति में मदद की। जातीय भाषा की महत्ता प्रतिष्ठित हुई तथा इसने आगे की पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इसी दौर में रेडियो, कैमरा तथा सिनेमा भी आया। बाद में दूरदर्शन दाखिल होता है। रेडियो ने जातीय के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रीय तथा आंचलिक भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। शुरु में सिनेमा के ज़रिए भारतीय संस्कृति और कलारूपों का प्रस्तुतिकरण किया गया। कई हद तक इसमें सफलता भी मिली। लेकिन आगे चलकर सत्तर के दशक से सिनेमा में अंतर्वस्तु और भाषा दोनों क्षेत्रों में गिरावट देखी गई। फ़िल्मों की पटकथा शहरी मध्यवर्ग केन्द्रित होती चली गई। ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश, ग्रामीण संस्कृति व जीवन-शैली का चित्रण कम होता गया तो दूसरी ओर भाषा का क्षय भी लक्षित हुआ। जिसे हम ‘फिल्मी डायॉलॉग’ कहते हैं, वह इसी दौर में जन्म लेता है जिसका वास्तविकता से संबंध कम और वायवीयता से संबंध ज़्यादा है। आगे चलकर केबल टेलीविज़न के आने के बाद भाषा के क्षय में और अधिक इज़ाफा होता है।

आजकल कई फ़िल्मों में जिस टपोरी भाषा, अधकचरी भाषा का चलन हुआ है दरअसल वह पूरे भारत में कहीं नहीं मिलेगा। टपोरी भाषा का टपोरी अस्मिता और संस्कृति से गहरा ताल्लुकात है।

सन् 1990 के बाद उत्तर-आधुनिकता का भारत में आगमन हुआ। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का डिजिटलीकरण सन् 1995 के बाद होता है। डिजिटलीकरण और इंटरनेट एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते। इंटरनेट के आने के बाद चिप तकनीकी ने डिजिटल मीडिया की शुरुआत की। इसने स्थान की समस्या को खत्म कर दिया एवं दबाव की तकनीक को महत्व दिया। एक छोटे चिप में दबाव के ज़रिये अनेक तथ्य, लेख, संगीत, वीडियो, ऑडियो आदि रखे जा सकते हैं।

उत्तर-आधुनिकता के दौर की खासियत है कि जो चीज़ें हाशिए पर थी वह केन्द्र में आई और जो चीज़ें केन्द्र में थी, वह हाशिए पर चली गईं। उत्तर-आधुनिकता ने आधुनिकता की सभी उपलब्धियों एवं कसौटियों को एक सिरे से खारिज किया। आधुनिकतावादी भाषा-विमर्श में भाषा का अब तक ज्ञात पारंपरिक अर्थ या मूल अर्थ मूल्यवान था लेकिन उत्तर-आधुनिकतावाद के दौर में त्वरित या तात्क्षणिक अर्थ मूल्यवान है। आज के दौर में हर चीज़ तात्क्षणिक है। फ़ास्ट फ़ुड संस्कृति की तरह तात्कालिक जीवनशैली, तात्कालिक भाषा, तात्कालिक रवैया तथा तात्कालिक विचार ने जनजीवन में अपनी जगह बनाई है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के शब्दों में कहें, “शब्दों के नए अर्थों की सृष्टि, उन्हें वस्तुओं के बहाने अर्थ देने, समूह या व्यक्तियों के बहाने नए अर्थ देने की कोशिशें उत्तर-आधुनिक भाषाई खेल का मुख्य लक्ष्य है।” (मीडिया समग्र)

इसका सबसे बढ़िया उदाहरण विज्ञापन है। विज्ञापन का सबसे बड़ा कार्य विज्ञापित वस्तुओं पर दर्शकों का विश्वास दिलाना होता है ताकि वे आदर्श क्रेता में तब्दील हो पाए। विज्ञापन बिना झूठ के बन नहीं सकता। विज्ञापनों के प्रचार-वाक्य भी क्षणिक या त्वरित अर्थों के आधार पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मसलन् ‘डेटॉल’ के विज्ञापन का प्रचार-वाक्य है, ‘मम्मी माने डेटॉल का धुला।’ डेटॉल कंपनी मूल संदेश देना चाहती है स्वच्छता और वायरस मुक्ति का। हालांकि इस स्लोगन से और वायरस-मुक्ति से डेटॉल का कोई संबंध नहीं है। इसी तरह ‘कोलगेट मैक्स फ़्रेश’ के विज्ञापन का प्रचार-वाक्य है— ‘ताज़गी का धमाका’। मूल संदेश है वस्तु के प्रयोग के बाद ताज़गी की अनुभूति का लेकिन ताज़गी के साथ धमाके का तथा इस धमाके का कोलगेट से कोई संबंध नहीं। यहाँ संदेश और भाषा में अंतर है। भाषा संकेतार्थी है और इसका सच से वास्ता नहीं है। असल में सामाजिक संदर्भविहिन भाषा का प्रयोग उत्तर-आधुनिक भाषा की खासियत है। इसने भाषा और अर्थ का संबंध-विच्छेद किया है। विज्ञापनों में उत्तेजनापूर्ण शब्दों, उसके स्मार्ट उच्चारण एवं बोलने की उत्तर-आधुनिक शैली पर ज़ोर होता है। उत्तर-आधुनिक दौर की पूँजी है अर्थहीन भाषा में जीना और इस सिलसिले को मुसलसल बनाए रखना।

उत्तर-आधुनिक भाषा का एक अन्य पक्ष जनसंचार माध्यमों की दृश्यात्मक भाषा है। जब जनसंचार माध्यमों से हिंसाचार का सीधा प्रसारण होता है तो दहशत एवं आक्रामक सोच की बढ़ोतरी होती है। वैचारिक एवं कार्यात्मक हिंसाचार में वृद्धि होती है। बिना शब्दव्यय के किसी हिंसाचार के दृश्य को दर्शकों के सामने हूबहू रख देने से साम्प्रदायिक विद्वेष जल्दी फैलता है।

सोश्यल मीडिया में पढ़े-लिखे पेशेवर लोग अंग्रेज़ी में लिखना पसंद करते हैं। दर्शन, चिकित्सा, विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, पर्यावरण, इतिहास के क्षेत्र में आज भी हिन्दी, संचार की भाषा नहीं बन पाई है। जब सामान्य बोलचाल में गुलाब ‘रोज़’ में बदल जाए, सूरजमुखी ‘सनफ्लावर’ में, दिन ‘डे’ में, रात ‘नाइट’ में तो हिन्दी की दुर्दशा सहज ही अनुमेय है। देशभर के डॉक्टर प्रेसक्रिप्शन अंग्रेज़ी में लिखते हैं। दुकान की रसीदें अंग्रेज़ी में दी जाती हैं।

एक और ज़रूरी मसला। हिन्दी भाषा अकेले खड़ी बोली से नहीं बनती। उसमें तमाम क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाएं भी शामिल हैं। हमें यह सोचना पड़ेगा कि भाषा से बोली में बदल चुकी भाषाओं का भविष्य क्या है? क्या एक भाषा के वर्चस्व तले बाकि भाषाओं का अस्तित्व खत्म तो नहीं हो रहा? क्या कारण है कि युवाओं को खड़ीबोली तो आती है लेकिन अपनी मातृभाषा में दो मिनट भी बोल नहीं पाते? यह केवल विस्मरण है या अपनी मातृभाषा के प्रति हेय या पिछड़ा होने का भाव? क्या कारण है कि भोजपुरी भाषी या मगही भाषी लड़की भोजपुरी या मगही का गीत गाने में संकोच करती है? उसे यह बोध होता है कि वह खड़ी बोली की तुलना में कमतर भाषा है इसलिए लोग सुनकर हँसेंगे!   

आज जब अधिकतर अभिभावक बच्चों को अँग्रेज़ी माध्यम के स्कूल से पढ़ा रहे हैं तो सहज ही यह सवाल उठता है कि क्या हम वास्तव में चाहते हैं कि हिन्दी प्रगति करे या बस चर्चा करने के लिए कि हिन्दी महान है और उसकी अग्रगति ज़रूरी है हम बहस किए जा रहे हैं? मातृभाषा दिवस या हिन्दी दिवस में हिन्दी का जयकारा लगाने से हिन्दी यकायक समृद्ध नहीं हो जाएगी। ज़रूरी नहीं कि ‘मैं मैथिली भाषी हूँ’ कहकर गर्व करने वाले को मैथिली भाषा बोलनी आती भी हो। आज हम केवल गर्व करते हैं, कर्म नहीं करते।

अपनी मातृभाषा के प्रति हेय दृष्टि की भावना से हिन्दी भाषी अभिजनों को निकलना चाहिए और लेखन के क्षेत्र में ज़्यादा से ज़्यादा हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। मसलन् लोग ह्वट्सऐप और मेसेन्जर में सामान्य चर्चा में हिन्दी को रोमन में लिखते हैं। आज हर मोबाइल में देवनागरी लिपि के रहते हुए भी उसे आदत का हिस्सा न बनाना और रोमन में ही हिन्दी लिखना आलस्य को दर्शाता है। हिन्दी भाषा आलस्य से प्रगति नहीं करेगी उसके लिए सचेत प्रयत्न करने होंगे। मेहनत से भाषा बचती है।

गौरतलब है कि जिस भाषा में प्रेमचंद लिख रहे थे, यशपाल और भीष्म साहनी लिख रहे थे वह भाषा एक सिरे से मीडिया से गायब है। दूसरी ओर जनता जिस भाषा में बात करती है वह भी मीडिया में है नहीं! सिनेमा की हिन्दी अलग, टेलीविज़न की हिन्दी अलग, धारावाहिकों की हिन्दी अलग, अखबारों की हिन्दी अलग, सोश्यल मीडिया की हिन्दी अलग और जनता के बोलचाल की हिन्दी अलग।

आज हम प्रायोजित भाषा के दौर में जी रहे हैं। समाचार-चैनलों से लेकर समाचार-पत्रों तक भाषिक पदबंधों के ज़रिये नई-नई कथाएँ बुनी और परोसी जा रही हैं। ऐसे में विचारधारा की समझ ज़रूरी शर्त है। जनमाध्यमों की विचारधारा को भाषा संचालित करती है। इसलिए सिर्फ़ भाषा-ज्ञान ही नहीं ई-साक्षरता भी ज़रूरी है। इसके लिए संचार क्रांन्ति से जुड़ना होगा। सोश्यल मीडिया में हिन्दी में पढ़ना तथा लिखना होगा। हर दिन हिन्दी में लिखने से, विचारों एवं भावनाओं के आदान-प्रदान से, हिन्दी में तर्क-वितर्क से, सामान्य आचरण में हिन्दी की आदत बनाने से हिन्दी सशक्त होती है।

 

 


 

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...