Saturday 29 September 2012

स्त्री-आकर्षण का केन्द्र : अनुभूति, ताकत नहीं - सारदा बनर्जी


         
                                            
         आम तौर पर पुरुषों में यह धारणा प्रचलित रही है कि स्त्रियां पुरुषों के मर्दानगी वाले एटीट्यूड, बलिष्ठ भुजाओं वाले ताकतवर शरीर से ही आकर्षित होती हैं लेकिन यह धारणा सरासर गलत है। यहां हमें अपनी परंपरागत मानसिकता में थोड़ा फेर-बदल करना होगा। स्त्री –हृदय की पड़ताल के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि स्त्री-मनोविज्ञान की सही रीडिंग की जाए, स्त्री-मन को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाए। स्त्री न तो  पुंस-रुप के प्रति आकर्षित होती है, और नहीं पुंस-रंग के प्रति, नहीं उसकी दौलत के प्रति, ना पुंस-ज्ञान के प्रति और ना ही पुंस-ताकत के प्रति। बल्कि स्त्रियों को पुरुषों में व्याप्त स्त्री-मन को समझने की गहन अनुभूति-क्षमता आकर्षित करती है। पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं। 
दिलचस्प है कि टी.वी. में भी इसी गलत समझ के आधार पर विज्ञापन प्रायोजित किए जा रहे हैं जिसके नमूने अक्सर देखने को आते हैं।मसलन् पुरुषों के गोरेपन की क्रीम, बॉडी स्प्रे या बाइक के विज्ञापनों में बलिष्ठ ‘मसेल’(muscle) संपन्न युवकों को विज्ञापन प्रमोट करते दिखाया जाता है और उसके आस-पास सुंदर अल्पवस्त्र पहनी स्त्री या स्त्रियां उसके बदन पर विभिन्न पॉस्चर में हाथ फेरती नज़र आती हैं। साफ़ है कि इसके ज़रिए दर्शकों को यह संदेश दिया जाता है कि स्त्रियां बलिष्ठ और शक्तिशाली युवक के प्रति ही ज़्यादा आकर्षित होती हैं। इसलिए स्त्रियों को आकर्षित करने का फॉर्मूला है ताकतवर होना।
   फ़िल्मों को भी इस तरह के अप-प्रचार का खास श्रेय जाता है। मसलन् सलमान खान, ऋत्विक रोशन, शाहरुख खान, आमिर खान, सैफ-अली खान जैसे बॉलीवुड के हीरो, विलेन को मसेल-पावर के ज़रिए पटकते और हीरोइन और दूसरे कमज़ोर लोगों की सम्मान व मर्यादा-रक्षा करते दिखाया जाता है, तो दूसरी ओर ‘सिक्स-पैकस्’ द्वारा हीरोइन को प्रभावित करते भी दिखाया जाता है। हीरोइन कभी हीरो के बाहुबलि शरीर पर फ़िदा होकर उसे मदहोश नज़रों से देखती हुई गाना गाने लगती हैं तो कभी उसे छूकर आनंद लेती दिखाई जाती है।
    वास्तविकता की सही पड़ताल की जाए तो यह देखा जाएगा कि अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों के फुले हुए भुजाओं का शरीर आकर्षित ही नहीं करता। वे तो संबंधित नायक का नायिका के प्रति कहे गए अनुभूति-प्रवण वाक्यों से, सहृदयपूर्ण व्यवहार से द्रवित होती हैं। स्त्रियों पर किए गए इस अप-प्रचार में पुंसवाद और पुंस-मानसिकता की अहम भूमिका है। इस गलत मीडिया प्रोपेगेंडा से कुछ स्त्रियां तब तक प्रभावित होती हैं जब तक वास्तविकता से परिचित नहीं होतीं। वास्तविकता का सामना करते ही स्त्रियों के सामने इस फ़ेक प्रचार का वि-रहस्यीकरण हो जाता है और स्त्रियां हकीकत को पढ़ लेती हैं। इसलिए यथार्थ जीवन में वह इस फ़ेकनेस को फ़ोलो नहीं करतीं। वह पुरुषों से कोई सुझाव नहीं चाहती, बस अपने मन को खोलने का स्पेस चाहती है। जहां उसे यह स्पेस मिलता है वहां वो सार्थक फ़ील करती है।
कॉलेज या विश्वविद्यालय में पुरुष विद्यार्थियों द्वारा भी स्त्रियों के बारे में यही मिसरीडिंग देखी जाती है।मसलन् अगर किसी लड़की से उसके फ़ेबरेट हीरो का नाम पूछा गया और उसने मशहूर हीरो ‘सलमान खान’ का नाम नहीं लिया तो अधिकतर लड़के अवाक् रह जाते हैं या उस लड़की पर अविश्वास करने लगते हैं चूंकि उनके अनुसार स्त्रियां ‘मसेल’ और ताकत-संपन्न पुरुषों से ही प्रभावित होती हैं, इसलिए अगर किसी को सलमान पसंद है तो वह ‘मसेल’ की ही वजह से और अगर नहीं है तो वह लड़की ठीक नहीं कह रहीं। यानी ताकतवर पुरुषों को ही स्त्रियों का आदर्श पुरुष होना है, अन्यथा नहीं। यह कायदे से स्त्री-मनोविज्ञान की मिसरीडिंग है। 
लेकिन हकीकत बताते हैं कि स्त्रियां उन्हीं पुरुषों के साथ रहना या खुलकर अपनी बात कहना पसंद करती हैं जो उनकी अनुभूति को समझे चाहे वो ताकतवर हो चाहे न हो। यह भी संभव है कि वह पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले, अपने मन की परतों को खोलकर रख सके। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री वहां होती है जहां वो मुक्त हो और अनुभूति महसूस करे।  पुरुषों का बलिष्ठ शरीर कभी भी स्त्रियों को अपील नहीं करता। ना ही स्त्री ताकतवर पुरुषों को देखकर आकर्षित और सम्मोहित होती हैं। स्त्री को यदि आकर्षित करना है तो उसके मन में स्थान पाना होगा और मन में स्थान पाना तभी संभव है जब पुरुष उसकी अनुभूति को स्पर्श करे, स्त्री-हृदय को समझे। 

Monday 17 September 2012

स्त्री के वस्तुकरण में विज्ञापन की भूमिका –



स्त्री के वस्तुकरण में जितनी मदद विज्ञापन ने की है उतना किसी और माध्यम ने नहीं।विज्ञापन ने स्त्री के इमेज को वस्तु में तब्दील करके उसे लोकप्रिय बनाने में गहरी भूमिका अदा की है।यही वजह है कि आज स्त्री घर में प्रयोग होने वाली सामान्य वस्तुओं से लेकर खास किस्म के प्रोडक्ट को भी विज्ञापनों के ज़रिए प्रोमोट करती हुई नज़र आती है। स्त्री साबुन, शैम्पु, हैंडवाश, बर्तन, फ़िनाइल, डीओ, तेल, विभिन्न तरह के लोशन, क्रीम, टॉयलेट क्लीनर से लेकर पुरुषों के दैनंन्दिन प्रयोग की चीज़ों के विज्ञापनों में भी दिखाई देती हैं। पुरुषों के अंर्तवस्त्रों या डीओड्रेंट्स के विज्ञापनों में तो अधनंगी स्त्रियां पुरुषों के साथ एक खास किस्म के कामुक जेस्चर में प्रेज़ेंट की जाती हैं। इसका उद्देश्य होता है, स्त्रियों के कामोत्तेक हाव-भाव और सम्मोहक अंदाज़ के ज़रिए पुरुष दर्शकों को टारगेटेड विज्ञापन के प्रति आकर्षित करना और उस निश्चित ब्रांड के प्रति दर्शकों के रुझान को बढ़ाना जिससे वे उसे जल्द खरीदें।
                    यह देखा गया है कि खास किस्म के विज्ञापनों में भी स्त्री-शरीर के ज़रिए विज्ञापनों को प्रमोट किया जाता है।मसलन् मोटापा कम करने या कहें स्लिम-फिटहोने के विज्ञापन मुख्यतः स्त्री-केंद्रित होते हैं।चाहे यह विज्ञापन मशीनों द्वारा वज़न कम करने का हो या रस और फल-सेवन के उपाय सुझाने वाला लेकिन हमेशा स्त्री-शरीर ही निशाने पर रहता है। इसमें एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली अधनंगी (बिकिनी पहनी) स्त्री पेश की जाती है तो दूसरी तरफ स्लिम-अधनंगी स्त्री। एक तरफ ज़्यादा वज़न वाली के खाने का चार्ट दिखाया जाता है तो दूसरी तरफ कम वज़न वाली का। फिर दोनों की तुलना की जाती है कि किस तरह कम वज़न वाली स्त्री मशीन के प्रयोग से या कम सेवन कर आकर्षक, कामुक और सुंदर लग रही है, दूसरी तरफ अधिक वज़न वाली स्त्री वीभत्स, अकामुक और कुत्सित लग रही है।इसलिए फलां फलां चीज़ सेवन करें या फलां मशीन उपयोग में लाएं ताकि आप भी आकर्षक और कामुक दिख सकें।
                  आजकल फेसबुक जैसे सोशल मीडिया साइट्स में भी इस तरह के विज्ञापनों का खूब सर्कुलेशन हो रहा है। इस तरह के विज्ञापनों का स्त्री को अपमानित करने और वस्तु में रुपांतरित करने में बड़ी भूमिका है। मध्यवर्ग की कुछ स्त्रियां इन विज्ञापनों से प्रभावित भी होती हैं।वे या तो मशीन का उपयोग करने लगती हैं या फिर डाइटिंग के नुस्खे अपनाती हैं।इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञापन केवल स्त्री-शरीर ही नहीं स्त्री-विचार पर भी हमला बोलता है। वह तयशुदा विचारों को लोगों के दिमाग में थोपता है और इसमें खासकर स्त्रियां निशाने पर होती हैं।
                 यह विज्ञापनों का स्त्री-विरोधी या पुंसवादी रवैया है जो स्त्री की व्यक्तिगत इच्छाओं और आकांक्षाओं पर हमला करता है।स्त्री के शरीर को केंद्र में रखकर स्त्री को स्लिम होने के लिए प्रोवोक करना कायदे से उसे पुंस- भोग का शिकार बनाना है। स्त्री के ज़ेहन में यह बात बैठाया जाता है कि अगर वह स्लिम होगी तो वह मर्दों को आकर्षित कर पाएगी। स्त्रियों में विज्ञापनों के ज़रिए यह जागरुकता पैदा किया जाता है कि वो अपने फ़िगर को लेकर सचेतन हो, उसे सही शक्ल दें। जायज़ है कि स्त्रियां अपनी इच्छाओं को महत्व न देकर दूसरों की या कहें कि पुरुषों की इच्छानुसार अपने को ढालने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती है।वह अपने को आकर्षक और कामुक लुक देने के लिए अपार मेहनत करती रहती है। धीरे-धीरे स्त्री अपनी स्वायत्त इच्छाओं के साथ-साथ अपना स्वायत्त व्यक्तित्व तक खो देती है और हर क्षण पुरुषों की इच्छानुसार परिचालित होती रहती है। अंततः स्त्री व्यक्तिकी बजाय पुरुषों के लिए एक मनोरंजक वस्तुया भोग्याबनकर रह जाती है।

                   सवाल यह है कि अधिकांश विज्ञापन स्त्री-शरीर केंद्रित ही क्यों होते हैं ? क्या स्त्री के अधोवस्त्र या निर्वस्त्र शरीर के ज़रिए विज्ञापन प्रोमोट करने पर वस्तु की मार्केटिंग में इज़ाफा होता है? क्या इससे विज्ञापन कंपनी को फायदे होते हैं? ध्यान देने की बात है कि विज्ञापनों ने स्त्री के परंपरागत रुप को तवज्जो दी है लेकिन स्त्री का आधुनिक रुप विज्ञापनों में एक सिरे से गायब है। टी.वी. विज्ञापनों में स्त्री हमेशा अच्छी खरीददार के रुप में नज़र आती हैं लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका शून्य के बराबर होता है। वह विज्ञापनों में धड़ल्ले से विभिन्न वस्तुओं को खरीदती, प्रयोग करती नज़र आती हैं, पुरुष के फैसले पर अमल करती दिखाई जाती है जो उसका ट्रैडिशनल रुप है। किंतु उसके आधुनिक रुप को सामने नहीं लाया जाता जिसमें वह खुद फैसले लेती हो और उसे भी पुरुषों के समान अधिकार उपलब्ध हों। स्त्री के ट्रैडिशनल रुप को तवज्जो देने वाले विज्ञापन स्त्री को फिर से सामंती मानसिकता और सामंती विचारों से जोड़ने लगता है। उसे मुक्त सोच और मुक्त कार्य की आज़ादी से वंचित करता है। स्त्री के दूसरे दर्जे की पुरानी इमेज को कायम रखने में मददगार होता है।
                    बुद्धि और मेधा पर ज़ोर देने वाले विज्ञापनों में स्त्रियों की भूमिका केवल मां तक सीमित रहता है। मसलन् टी.वी. पर आने वाले विभिन्न हेल्थड्रींक्स (कॉमप्लैन, हॉरलिक्स से लेकर पीडिया-स्योर तक)के विज्ञापनों में मुख्यतः लड़कों को ही हेल्थड्रींक पीकर लंबाई बढ़ाते और मेधा का विकास कराते दिखाया जाता है। सिर्फ मां के किरदार में एक औरत अपने बेटे को हेल्थड्रींक पिलाती हुई दिखाई देती हैं। लेकिन लड़कियों को केंद्र में रखकर कभी इस तरह के विज्ञापन नहीं बनाए जाते। इन हेल्थड्रींक्स के प्रयोग से मेधा में इज़ाफा होता है या नहीं यह दीगर बात है लेकिन इस बात की पुष्टि ज़रुर होती है कि विज्ञापन स्त्रियों के उन्हीं रुपों को प्रधानता देता है जो शरीर के प्रदर्शन से संबंध रखता है, उसकी बुद्धि और मेधा के विकास से नहीं, उसकी पढ़ाई से नहीं, उसकी सर्जनात्मकता से नहीं, उसकी अस्मिता से नहीं।

                  कायदे से उन विज्ञापनों पर सख्त़ पाबंदी लगनी चाहिए जो स्त्री-अस्मिता के बजाय स्त्री शरीर को प्राथमिकता दे और स्त्री को माल में तब्दील होने में भरपूर मदद करें।यह बेहद ज़रुरी है कि ऐसे विज्ञापन लौंच किए जाएं जो स्त्री के आधुनिक रुपों को सामने लाए। स्त्री हमें मौलिक फैसले लेते हुए दिखाई दे। ऑब्जेक्टके बजाय व्यक्तिके रुप में स्त्री सामने आए।


Monday 10 September 2012

नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क




 नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क- सारदा बनर्जी



हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी दैनिक 'वाल स्ट्रीट जर्नल' को दिए साक्षात्कार में स्त्री-कुपोषण पर बयान दिया कि गुजराती मध्यवर्गीय औरतें स्वास्थ्य की तुलना में सुंदरता के प्रति ज़्यादा जागरुक है। उन्होंने कहा कि यदि मां अपनी बेटी से कहती है कि दूध पीओ तो वह लड़ती है और कहती है कि वह नहीं पीएगी चूंकि इससे वह मोटी हो जाएगी। यहां सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या स्त्री-कुपोषण की समस्या महज सुंदरता की समस्या है? यदि ऐसा है तो बच्चों में कुपोषण क्यों है ? आदिवासी स्त्री मध्यवर्ग में नहीं आती उनमें कुपोषण की मात्रा सबसे अधिक पाई गई है ।  इसलिए सिर्फ मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर कुपोषण को देखना गलत है।
               आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति बदतर है जबकि गुजरात भारत का तेज़ी से विकास करने वाला राज्य है। 2005-2006 के दौरान हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक गुजरात में 5 साल के नीचे 45 प्रतिशत बच्चों का वज़न कम पाया गया ।  पूरे देश के स्तर पर आंकड़े के हिसाब से 52 प्रतिशत कमवज़न वाले बच्चे गुजरात से है बाकि 48 प्रतिशत पूरे देश से। जहां राष्ट्रीय औसत के हिसाब से स्त्रियों में खून की कमी का प्रतिशत 1.8 है ,वहां गुजरात में यह प्रतिशत बढ़कर 2.6 है। भारत की  मानव विकास रिपोर्ट- 2011 ,के मुताबिक गुजरात भुखमरी में 13 वें नंबर पर है यानी उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम से भी नीचे है।
               ध्यान देने की बात है कि भारत में स्त्रियों में व्याप्त कुपोषण एक गंभीर चुनौती है जिस पर चर्चा नहीं होती।इस मसले पर कभी राजनीति में चुनाव नहीं लड़ा जाता।मसलन् यदि गुजरात की समस्या पर बात करनी है तो सांप्रदायिकता की समस्या पर बहस होती है,स्त्री के कुपोषण पर नहीं। हमारे यहां स्त्री के सवाल अभी तक राजनीति के सवाल नहीं बन पाए हैं।इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में राजनीति पुंस अधिकार-क्षेत्र तक ही सीमित है।चूंकि इस बार बयान नरेंद्र मोदी का था और निकट भविष्य में विधानसभा का चुनाव होने जा रहा है, इसलिए लोगों की नज़र स्त्री-कुपोषण के आंकड़ों की ओर गई।
             नरेंद्र मोदी का बयान पुंसवादी विचारधारा को व्यक्त करने वाला बयान है। कुपोषण का यह अजीब तर्क कम से कम एक मुख्यमंत्री का नहीं होना चाहिए।देखा जाए तो कुपोषण के लिए मुख्यमंत्री और प्रशासन की नीतियां ही ज़िम्मेदार हैं।  भारतीय ज़ेहन में बैठी पुंसवादी मानसिकता ज़िम्मेदार है। कायदे से हमें स्त्री-कुपोषण की समस्या को राजनीतिक और पुंसवादी दृष्टिकोण से परे जाकर देखना चाहिए।                    
             भारत में स्त्री कुपोषण का मुख्य कारण है स्त्री का हाशिए पर रहना, पुरुष के अधीन रहना और उसका अधिकारहीन होना। भारतीय परिवार का पूरा ढांचा पुंसवादी है। परिवारवाले जन्म के बाद से ही लड़का और लड़की में अनेक तरह के भेदभाव करने लगते हैं।लड़के को स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है,उसका खास ख्याल रखाजाता है।इसकी तुलना में लड़की पर कम ध्यान दिया जाता है। लड़की को गृहकार्य में निपुण और लड़के को पढ़ाई में तेज़ बनाने की कोशिश रहती है।लड़कियों की पढ़ाई को महत्व नहीं दिया जाता।उन्हें चलताऊ ढंग से पढ़ाया जाता है।इससे अनेक तरह की सुविधाओं से वे वंचित रह जाती हैं।उन्हें केवल अपनी सुंदरता पर ध्यान देने की बात सिखाई जाती है जिससे बड़े होने पर लड़की की विदाई में कोई परेशानी न हो, वह लड़केवालों को तुरंत पसंद आ जाए। स्वाभाविक तौर पर लड़की खाने और पढ़ने को छोड़कर विभिन्न तरह के लेप लगाने में और रुप-निखारने में लगी रहती है। धीरे-धीरे लड़कियों के जीवन में यह भेदभाव एक अंतरंग हिस्सा बन जाता है और वह इसकी अभ्यस्त हो जाती है।
            लड़कों की तुलना में लड़कियों का खाना मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होता है।प्रायः समस्त भारतीय परिवारों में यह नियम है कि स्त्री पुरुष के बाद भोजन करती है, इसका असर यह होता है कि स्त्री अंत में बचा-खुचा खाना खाती है । अपने पति, बेटे ,बुज़ुर्ग और परिवारवालों को खिलाने के बाद उसके पास खाने को सारवान खाना कम बचता है।इसका दूरगामी असर यह होता है कि घर में परिश्रम करने वाली औरतें आगे चलकर बेहद कमज़ोर हो जाती है। आगे चलकर उनमें आयरन और कैलशियम की कमी दिखाई देती है। फलतः खून और कैलशियम की कमी के कारण हड्डियां कमज़ोर हो जाती हैं और वे अनेक किस्म की तकलीफों को भोगती हैं। यहां तक कि गर्भवती औरतें और दूध पिलाने वाली माताएं भी लापरवाही की ही शिकार बनी रहती हैं।न पति देखभाल करता है न ससुराल वाले।उन्हें न हीं फल खिलाया जाता है न हीं पौष्टिक खाना जिसका असर आने वाले बच्चे पर पड़ता है। यही कारण है कि भारत में कुपोषण की मात्रा बच्चों और औरतों में सबसे अधिक है।यही हाल आदिवासियों का है।                                                
         यह सही है कि मध्यवर्गीय लड़कियों का एक छोटा सा भाग है जो सुंदरता और शरीर के रख-रखाव को लेकर बेहद सचेतन है।लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात है कि सुंदरता का जो मायाजाल मोदी ने गुजराता माता के बहाने बुना है वह पुंसवादी विचारधारा ने बनाया है।पुंसवाद से जितने प्रभावित पुरुष हैं उतनी ही स्त्रियां भी। असल में स्त्री की सुंदरता का तर्क पुरुष का तर्क है, ना कि स्त्री का। स्त्री स्वभावतः सुंदर होती है। स्त्रियों के दिलो-दिमाग में यह शुरु से बिठाया जाता है कि उसे कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, तन्वी होना है ,उसके ज़ेहन में बिठाया गया है कि यही स्त्री-जनित गुण है और पुरुष इसी से आकर्षित होंगे। इस बात को और पुष्ट करने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका है।स्त्रियों का एक छोटा भाग इसे मान लेता है और इससे आकर्षित भी होता है और कोमलांगी और सुंदर दिखने के चक्कर में वह अपने सेहत और स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देतीं।इसके दो तरह के असर हुए हैं, एक तो कम खाने की वजह से लड़कियां दुर्बल हो रही हैं। शारीरिक तौर पर दुर्बल होने के कारण वह बौद्धिक रुप से भी कमज़ोर हो जाती हैं।आए दिन उन पर हमले होते रहते हैं। दूसरी ओर उनका सामाजिक अस्तित्व भी खतरे में है।                                                
    स्त्री के कुपोषण की समस्या केवल सुंदरता की समस्या नहीं है।यह किसी एक मुख्यमंत्री की भी समस्या नहीं है क्योंकि पूरा देश कुपोषण से ग्रस्त है।प्रत्येक राज्य कुपोषण का शिकार है।यह समस्या पूरे देश में व्याप्त पुंसवादी दृष्टिकोण की देन है। इसलिए स्त्री कुपोषण की समस्या को हल करने के लिए पुंसवादी पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को बदलना पड़ेगा।पुंसवादी मानसिकता को त्यागना होगा।



पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...