Saturday 23 February 2013

स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ ‘फ़ास्ट ट्रैक कोर्टस्’ की तेज़ पहलकदमी - सारदा बनर्जी




स्त्रियों के खिलाफ़ यौन-अपराध के मुकदमों को लेकर दिल्ली में छह फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित हुए। 4 जनवरी को छह न्यायिक पदाधिकारियों ने इन अदालतों की ज़िम्मेदारी ली। हालिया शोध के मुताबिक कुल 1031 मुकदमें जो छह ज़िला-अदालतों में लंबित थे, उनमें से 500 मुकदमों को फ़ास्ट ट्रैक अदालत में स्थानांतरण किया गया। इन 500 में 27 मुकदमों का अब तक मिली खबर के मुताबिक निपटारा हो चुका है। 27 मामलों में 12 मामलों के दोषियों को सज़ा सुनाया गया, एक को मौत की सज़ा हुई बाकि 15 मामलों में आरोपी निर्दोष साबित हुए, उन्हें रिहा कर दिया गया। यानी ये फ़स्ट ट्रैक कोर्ट कारगर रुप में काम कर रहे हैं। लेकिन बलात्कार और स्त्री-उत्पीड़न के मामलों को लेकर इस तरह के अदालत हर एक राज्य में होना ज़रुरी है जिससे निलंबित पड़े मुकादमों का निपटारा जल्द हो सके। पीड़िता को जल्द न्याय उपलब्ध हो सके। जनवरी में ममता सरकार ने पश्चिम बंगाल में न्याय प्रक्रिया में तेज़ी के लिए 88 फास्ट ट्रैक अदालत बनाने का प्रस्ताव रखा है जो बिना शक एक सराहनीय कदम है। इस तरह के अदालत पश्चिम बंगाल के हर ज़िले में होने चाहिए जिससे कि पीड़ितों को जल्द फैसलें मिले। इसकी कार्यशीलता के लिए ज़रुरी है कि ऐसे प्रस्ताव जल्द पास हो और ऐसे अदालत तुरंत शक्ल में आए।
लेकिन यहां मूल समस्या फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने का नहीं है। कई बार देखा जाता है कि मुकदमें फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में तो सुलझ जाते हैं लेकिन हाइकोर्ट में कई साल तक लंबित पड़े रहते हैं। पीड़ित लोग कोर्ट का चक्कर लगाते लगाते थक जाते हैं, वकीलों की मोटी रकम भरते भरते पैसा बर्बाद होता है लेकिन मुकदमा नहीं निपटता। इसलिए फास्ट ट्रैक कोर्ट सक्रिय हो इसके लिए बेहद ज़रुरी है ज़मीनी स्तर पर सुधार। पुलिस कारगर भूमिका निभाए, अपना काम ठीक से करें, आरोपपत्र पेश करने में देर न करें, उसे वक्त पर दें। पुलिस थाने प्रगतिशील भूमिका अदा करें। साथ ही हर थाने में पुलिस बलों की संख्या बढ़ाई जाए क्योंकि आबादी के लिहाज़ से मौज़ूदा समय में पुलिस बल काफ़ी कम है। व्यवस्था की मज़बूती के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि पुलिस थाने सक्रिय हो। पुलिस को सुविधाएं मुहैया कराई जाए। उनके पास कम्प्यूटर की व्यवस्था उपलब्ध हो। इसके अतिरिक्त स्थानीय गुंडों और बदमाशों की सूची पुलिस के पास हो जिससे काम करते समय अपराधियों को ढूंढ़ने में मदद मिल सके। मूलतः ज़मीनी स्तर पर सुधार के अदालती कामकाज बेहतर ढंग से नहीं चल सकता।
इसके अलावा पश्चिम बंगाल के हर ज़िले में स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ केंद्रीकृत स्त्री-कक्ष या निगरानी-कक्ष बनाया जाए जिससे किसी भी मामले में जल्द कदम उठा सके। कॉलेज और विश्वविद्यालयों में भी स्त्री-उत्पीड़न के खिलाफ़ ‘वोमेन-सेल’ बनाया जाए, कमिटियां गठित की जाए जिससे स्त्रियों के साथ यदि गलत बर्ताव हो रहा है या छेड़खानी की घटना हो रही है तो उसकी शिकायत तुरंत दर्ज हो सके। यानी कि स्त्रियों के पास सुविधा हो कि वे उचित समय पर गलत कदम को रोक सकें या सटीक फैसले ले पाएं।
दिल्ली में स्त्रियों की सुविधा के लिए सीधे फ़ोन कर शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हुई है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार पीड़िता के साथ हुए नृसंश वारदात के बाद से ये सीधे फ़ोन की सुविधा स्त्रियों को दी गई है। इसके तहत 181 नंबर लगाकर  स्त्रियां अपने साथ होने वाले छेड़छाड़, उत्पीड़न को रोकने के लिए मदद मांग सकती हैं। इस हेल्पलाइन का संबंध दिल्ली में मुख्यमंत्री के कार्यालय से लेकर विभिन्न 185 पुलिस थानों तक किया गया है। कायदे से पश्चिम बंगाल में भी स्त्रियों के लिए इस तरह का कोई वोमेन हेल्पलाइन नंबर उपलब्ध होना चाहिए जिसमें ज़ुल्मी के खिलाफ़ थानों में सीधे त्वरित गति से शिकायत दर्ज हो। इस नंबर का संबंध मुख्यमंत्री के दफ़्तर से लेकर विभिन्न स्थानीय थानों से भी हो। इससे भी ज़रुरी है कि ये नंबर सही रुप में कार्य करे जिससे स्त्रियों को त्वरित सुविधा मिल सके। देखा जाए तो यह सुविधा हर एक राज्य में होना ज़रुरी है। पूरे भारत में राज्य के स्तर पर स्त्रियों के लिए वोमेन हेल्पलाइन नंबर की व्यवस्था स्त्री-सुरक्षा में एक बढ़िया कदम होगा।
फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट अभी तक जहां जहां गठित हुए हैं वहां उसकी संख्या में बढ़ोतरी की जाए और देश के हर राज्य और हर ज़िलें में इसकी अवस्थिति हो। केवल स्त्री संबंधी केसेस ही नहीं ऐसे केसेस जो काफ़ी साल से लंबित पड़ा हुआ है और अग्रिम न्याय की मांग करता है उन्हें भी इन अदालतों में स्थानांतरित किया जाए। न्यायिक स्तर पर स्त्री-सुरक्षा में बढ़ोतरी के लिए ये कुछ खास उपाय करना देश के लिए बेशक ज़रुरी है।

‘ओबोशेषे’ फ़िल्म और स्त्री-अस्मिता


                            
ऐसे किरदार स्त्री-जीवन में खास मायने रखते हैं जो स्त्री की बहुमुखी प्रतिभा को सामने लाए और एक ऐसे व्यक्तित्व से हमें रुबरु कराए जो हम सब स्त्रियों में होना चाहिए या होना संभव है। अदिती राय की बांग्ला फ़िल्म ‘ओबोशेषे’ कई दृष्टियों से एक जानदार फ़िल्म है। इस फ़िल्म में मां-बेटे की केमेस्ट्री को देखा जाए तो यह लाजवाब है। इसमें अत्याधुनिकता और कल्चर का अद्भूत ब्लेंड है। जीवन की आपाधापी है, जीवन से वितराग है। लेकिन इन सबमें गौर करने लायक या हाइलाइटेड किरदार है ‘सुचिस्मिता’ का। इस किरदार का अभिनय रुपा गांगुली करती हैं जिन्होंने इस किरदार के साथ पूर्ण न्याय किया है। तभी यह किरदार इस ऊँचाई को प्राप्त हुआ है। स्त्री-अस्मिता और स्त्री-स्वायत्तता का जबरदस्त परिचय है ये रोल। प्रतिकूलताओं और विपरीत परिस्थितियों के बीच भी स्त्री-आज़ादी कितना प्राथमिक है, इसे जानने के लिए यह फ़िल्म अव्वल है।
आम तौर पर स्त्रियों को एक सुखी जीवन एवं संसार के लिए अनेक कुर्बानियां देनी पड़ती है। अपने अनेक खुशियों का गला घोंटना पड़ता है। लेकिन अपने मूल्यों को जीवन से बिना हटाए, अपने शर्तों पर जीवन को परिचालित करना एक चुनौती है। सुचिस्मिता एक ऐसी चुनौती लेती है हालांकि इस चुनौती के दौरान सुचिस्मिता को अनेक दुख भी झेलना पड़ता है। उसकी ज़िंदगी अकेलेपन के कगार पर आ पहुँचती है। लेकिन फिर भी वह टस से मस नहीं होती। इस अकेलेपन में भी वो अपनी असंख्य प्रतिभाओं को पुनर्जीवित करती हुई जीवन में नित-नूतन रंग घोलती है। जीवन को वैविध्यमय और कलरफूल बनाती है। उसे अपने निर्णयों पर कभी पछतावा नहीं होता। ना उसे ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत है। वह अपने आप से खुश है, ज़िंदगी से मिलने वाले दुखों से नाखुश। अपने आप में यह रोल बेहद आकर्षक और प्रेरणादायक है।

सुचिस्मिता अपने सुंदर और मनमोहक कंठस्वर के साथ रवीन्द्रसंगीत गाती है, वह पेंटिंग में सिद्धहस्त है, दोस्तों के साथ गप्पे हांकते हुए बीयर पीना उसे पसंद है, छोटों के साथ ‘कितकित’ खेलती है, अपनी बेटी समान लड़की ‘मोनि’ (जो कि उसी का दिया हुआ नाम है) के साथ बेझिझक दोस्ती करती है, उससे सुख-दुख बांटती है। दुर्गा-प्रतिमा की कच्ची मूर्ति में अपने हाथों से मिट्टी पोतती है, अपनी सहेली के हाथों की पूरी और खीर(पायेस) खाना बेहद पसंद करती है बावजूद इसके कि किसी विचार में मतांतर की वजह से दोनों में बातचीत बंद है। ये है ओवरऑल सुचि का केरेकटर। बिंदास लेकिन उद्दंड नहीं। मिलनसार लेकिन व्यक्तित्वमयी। बेहद स्वच्छंद। किसी काम से परहेज़ नहीं, हर एक कला में दिलचस्पी, हर एक व्यक्ति से आत्मीयता का संबंध और खूब बुद्धिमती। उसने ज़िंदगी में एक बड़ा फैसला लिया जिसकी वजह से वह अकेली हो गई। फिर भी स्वतंत्र फैसले को ज़िदगी में वो अहमियत देती है, उसे स्वागत करती है और अपने किरदार के द्वारा स्त्री-अस्मिता की प्रतिष्ठा करती है।
सुचिस्मिता का पति विदेश में नौकरी करने के उद्देश्य से देशी नौकरी छोड़कर बाहर जाना चाहता है हालांकि सुचि ऐसा नहीं चाहती। सो वह विरोध करती है लेकिन जब उसका विरोध काम नहीं करता जब वह फैसला लेती है देश में ही रहने का। क्योंकि वह भारत छोड़ना नहीं चाहती। उसका पति उसके बेटे को लेकर विदेश चला जाता है, वहां एक साल बाद दूसरी शादी तक करता है। सुचि सब जानती है फिर भी उसने अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं किया। वह अकेले रही सारी ज़ंदगी, अपनी मृत्यु तक। इस किरदार से सीखने लायक बात यह है कि कैसे अकेलेपन के साथ भी ज़िंदगी हसीन बनाई जा सकती है। निभृत रहते हुए भी ज़िंदगी कितने खूबसूरत लम्हों से भरा जा सकता है। अपनी प्रतिभाओं को कैसे पल्लवित किया जा सकता है। कैसे हकीकत का सामना करते हुए भी उससे असंपृक्त रहा जा सकता है। ये किरदार कहीं न कहीं हर स्त्री के लिए प्रेरणापद है। इस चरित्र से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। खासकर स्त्री-अस्मिता के मुद्दे को इसने जैसे रुपायित किया है वैसा दुर्लभ है।

सुचिस्मिता का बेटा तब देश लौटता है जब वह मर चुकी है। वह अपनी मां को रि-इंवेंट करना चाहता है। वह उन चिट्ठियों के माध्यम से मां को जानने-समझने की अथाह कोशिश करता रहता है जो मां लिखकर छोड़ गई थी। मां से संपर्क रखने वाले हर एक व्यक्ति को खोजकर उससे मिलकर मां की बातें जानना चाहता है। देखा जाए तो मां को खोजने की बेटे की ये छटपटाहट विरल है। मां को जानने के बाद मां के प्रति स्नेह, प्रेम और विश्वास भी दुप्राप्य चीज़ है जो खासकर आजकल की फ़िल्मों में कम दिखता है।
स्त्री-अस्मिता और स्त्री-अस्तित्व को अपने पूरी शारीरिक मौजूदगी के साथ अपने समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के ज़रिए सुचिस्मिता का किरदार प्रस्तुत करता है। यह स्त्री-जीवन को बेहतर और आनंदमय बनाने की तरकीब सिखाता है। इसलिए हम सब स्त्रियों को इस किरदार की सकारात्मकता को अपने जीवन में अनुसरण करना है।  

Tuesday 5 February 2013

धार्मिक पाखंडों और रुढ़ियों पर चोट करती फ़िल्म ‘ओ माइ गॉड’


स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग है जिनका धार्मिक रुढ़ियों और आडम्बरों से बहुत आत्मीयता का संबंध है। खासकर बुज़ुर्ग महिलाओं का विभिन्न तरह के धार्मिक पाखंडों से रागात्मक संबंध आज भी बना हुआ है। इन धार्मिक छल-कपटों में बेइंतिहा भरोसा रखने वाली स्त्रियों को ज़रुर ‘ओ माइ गॉड’ फ़िल्म देखनी चाहिए। ‘ओ माइ गॉड’ विभिन्न किस्म के धार्मिक पाखंडों पर चोट करने वाली एक दिलचस्प फ़िल्म है। ये मठों, गिरजाघरों, मस्जिदों में संतो, गुरुओं, बाबाओं, मैय्याओं, मुल्लाओं, पादरियों द्वारा धर्म के नाम पर किए जाने वाले ठगई और धोखाधड़ी का पर्दाफाश करनी वाली एक बढ़िया फ़िल्म है। बिज़नेस के लिए कहे जाने वाले तरह-तरह के झूठ और तमाम किस्म की फरेबबाज़ियों का खुलासा यह फ़िल्म है। हर एक स्त्री को चाहिए कि वे इस फ़िल्म से रुबरु हो और धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करने वाली इसकी स्पिरिट को पकड़े।

इस फिल्म में एक जगह दिखाया जाता है कि किस तरह मूर्ति बेचने के लिए दुकारदारों के द्वारा मनगढ़ंत मिथ्या का सहारा लिया जा रहा है। गोकुल, मथुरा आदि से प्राप्त मूर्तियां कहकर लोगों को अधिकाधिक दरों में बेचा जा रहा है। यानी एक शब्द में ठगई की जा रही है। इसी तरह धार्मिक प्रवचन सुनाने वाले ढोंगी बाबाओं का धर्म के नाम पर पैसा कमाने और ऐश करने की वास्तविकता को उजागर किया गया है। मज़ेदार है कि धर्म के नाम पर एक बुराई वे सुन नहीं सकते लेकिन धर्म के नाम पर निरीह जनता को ठगते हैं। खुद को ईश्वर का दूत कहकर आम जनता के पैसे लूटने में उन्हें कोई शर्म नहीं। असल में इन धार्मिक ढकोसलों का शिकार खासकर स्त्रियां होती हैं, इसलिए उन्हें यह मूवी ज़रुर देखनी चाहिए और धर्म के नाम पर फैलाए जा रहे पाखंडों से मुक्त होना चाहिए।

इस फ़िल्म में एक और दिलचस्प बात यह है कि ये मूवी हमें अवतारिज़्म की कपोलकल्पना से मुक्त होकर सोचने पर मजबूर करती है। इन जेनरल अवतार के कंसेप्ट के साथ धोती और लंबे बाल गुँथे हुए हैं। लेकिन इस फ़िल्म में अक्षय कुमार पैंट-शर्ट और छोटे बाल वाले अवतार के रुप में सामने आए हैं। इस माडर्न अवतार का नया ड्रेस और नया लहज़ा है। ये नया अवतार सुदर्शन चक्र की जगह की-रिंग घूमाते हैं। वैसे अपनी प्यारी बांसुरी और मक्खन को छोड़ नहीं पाए हैं। लेकिन देखा जाए तो कृष्ण का ये नया अंदाज़ और नया फ़ॉर्म अपने आप में जुदा है। वैसे ये फ़ॉर्म उन लोगों को अपील नहीं करेगा जो परंपरागत और पुराने फ्रेमवर्क में ही अवतार को कैद कर कृष्ण को बंधे-बंधाए पैटर्न में ही एक्सेप्ट करना चाहते हैं। लेकिन धर्म को रुढ़िमुक्त करने के लिए और प्रकृत धर्म की पहचान के लिए ये नया रुप कारगर हथियार है।

धर्म की गलत और रुढ़ समझ पर यह फ़िल्म करारा व्यंग्य करती है। आज धर्म कुसंस्कार और अंधविश्वास का रुप ले चुका है। वह मुक्तता और उदारता का पर्याय नहीं रह गया है। धर्म हमें मानवीयता की ओर ले जाता है, सहिष्णुता की ओर ले जाता है। मन को लिबरल और उच्च चिंतन संपन्न बनाता है। धर्म हमें सह-बंधुत्व, सह-भातृत्व, धर्म-निरपेक्ष विचारों से लैस करता है। लेकिन धर्म की सही संकल्पना आज गायब हो गई है और सामंती मानसिकता उस पर हावी हो गई है। यह बहुत ज़रुरी है कि धर्म का सही रुप हमारे सामने आए और गलत विचार दूर हों। तमाम तरह की दकियानूसी विचारों से घिरे धर्म को अपनी सही शक्ल लेना होगा।

स्त्रियों में बड़ी मात्रा में धार्मिक रुढ़ियां घर कर गई हैं। कायदे से स्त्रियों को इन पाखंडों से और पाखंडी बाबाओं से निजात पाना होगा। वास्तविक धर्म की पहचान करनी होगी जिससे उनमें वैज्ञानिक सचेतनता डेवलप हों। वे धर्म के मूल कंसेप्ट्स को पकड़ पाएं और अपने जीवन में उसे लागू करें। साथ ही अवतार को पुराने फ्रेमवर्क से निकालकर नए फ़ॉर्म में ग्रहण करना होगा। गीता, कुरान, बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथों के मूल मेसेज को आत्मसात करना होगा। उसे रुढ़ियों में घेरकर उससे लटकने से कोई फ़ायदा नहीं। धार्मिक फंडामेंटालिज़्म केवल सामाजिक विभाजन करता है। इसलिए धर्म और धार्मिकता के भेद को समझना होगा।

‘ओ माइ गॉड’ एक विचारवान और रुढ़िमुक्त फ़िल्म है। आज जब चारों ओर धार्मिक पाखंडों का दुर्धष खेल चल रहा है जब इन पाखंडों का पर्दाफाश कर उनकी धज्जियां उड़ाने वाली एक फ़िल्म का आना सराहनीय कदम है। बेशक सभी स्त्रियों को यह फ़िल्म देखनी चाहिए क्योंकि ये मसला स्त्री-मुक्ति से भी जुड़ा हुआ है। 



बलात्कार का स्त्री-जीवन में पड़ता प्रभाव -- सारदा बनर्जी


बलात्कार के बढ़ते वारदातों या कहें कि मीडिया-प्रचार के कारण हाइलाइट होकर सामने आते बलात्कार की वारदातों का स्त्री-जीवन पर क्या एफ़ेक्ट हो रहा है? क्या इन खबरों के सामने आने पर स्त्री-सुरक्षा में बढ़ोतरी हो रही है, स्त्री-अस्मिता पर बातें हो रही है या ये खबरें स्त्री-आज़ादी में हस्तक्षेप करने का एक नया औज़ार बन गया है? कायदे से इन वारदातों को लेकर समाज का पॉज़िटिव रुख होना चाहिए यानि स्त्रियों को लेकर सामाजिक सचेतनता में इज़ाफ़ा होना चाहिए। स्त्री-अस्तित्व में आने वाले खतरों से स्त्रियों की सुरक्षा की पूरी गारंटी केंद्र और राज्य सरकार और समाज को लेनी चाहिए। स्त्री-सुरक्षा की मांग होनी चाहिए और स्त्री-अस्मिता के औचित्य पर बहस होनी चाहिए। लेकिन अफ़सोस यह है कि ये वारदातें प्रत्येक स्त्री के लिए कहीं न कहीं एक बुरी खबर लाया हुआ है। यह बुरी खबर यह है कि प्रत्येक घर में स्त्री-आज़ादी पर किस्म-किस्म के हस्तक्षेप हो रहे हैं। परिवारवाले स्त्रियों को ज़्यादातर घर में ही रहने की हिदायतें दे रहे हैं। उनके पहनावे पर भी तरह-तरह की पाबंदियां लगाई जा रही है।
इससे भी ताज्जुब की बात है कि स्त्री होने के नेगेटिव एफ़ेक्टस पर ज़बरदस्त बयानबाज़ी हो रही है और इन पर महान उद्गार आए दिन विभिन्न न्यूज़ चैनेलों में देखने को आते हैं। पॉलिटिकल नेताओं, धर्मगुरुओं, संतो द्वारा दकियानूसी और बेतुके बयानों की झड़ी लगी हुई है। किसी धर्मगुरु की गुरुमंत्र माने तो सरस्वती मंत्र जप करने से स्त्रियां बलात्कार जैसे आपराधिक कृत्यों से बच जाएंगी या दरिंदगी करने वाले बलात्कारियों का भाई कहकर हाथ-पैर पकड़ने पर बलात्कार का खतरा टल जाएगा। पॉलिटिकल नेताओं के वचन सुने तो खाना, पीना, सोना और मैथून व्यक्ति की सामान्य ज़रुरतें हैं, इसलिए बलात्कार कोई अपराध नहीं वरन् स्वाभाविक क्रिया है। किसी नेता की माने तो स्त्रियों के चावमिन खाने या छोटे कपड़े पहनने की वजह से बलात्कार हो रहे हैं या स्त्रियों को पूजापाठ करनी चाहिए जिससे कि नक्षत्र ठीक रहें और इससे बलात्कार नहीं हो सकता। गौर करने पर मिलेगा कि ये सारे गैर-ज़िम्मेदाराना, भड़काऊ और आपराधिक बयान कायदे से बलात्कार के लिए भी स्त्रियों पर ही पलट-वार करता है। बलात्कार जैसे जघन्य वारदात को हल्के रुप में लेता है और स्त्रियों के सम्मान के प्रति अपनी नाफ़िक्री को जगजाहिर करता है। इन बयानों के मद्देनज़र भारतीय ज़ेहन में पैठी घोर पुंसवादी, रुढ़िवादी और स्त्री-विरोधी मानसिकता का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। मीडिया को छोड़ भी दिया जाए तो भी घर-घर में आज स्त्री होना एक नेगेटिविटी बन गई है। विभिन्न परिवारों में मौजूद दकियानूसी चितकों को मौका मिल गया है कि वे अपनी पिछड़ी सोच का परिचय वक्तानुसार दे दें और वे बखूबी ऐसा कर रहे हैं। इसका नमूना है स्त्रियों के रहन-सहन, आवाजाही पर पल-पल कसी जा रही पाबंदी।
इन वारदातों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि जहां इक्कीसवीं सदी के माता-पिता कहीं न कहीं अपनी बेटी की नौकरी के लिए तत्पर थे, वे भी अब नौकरी की आस छोड़ शादी कराने की मनोदशा में हैं गोया लड़की की शादी हो जाने पर भविष्य में बलात्कार जैसे अपराध टल जाएंगे। सबसे अहम नेगेटिव प्रभाव यह है कि स्त्रियों के दिलो-दिमाग में एक डर का माहौल बनाया जा रहा है। ‘ज़रा सावधान रहना, आजकल जो हो रहा है चारों ओर’ जैसे वाक्य आज चारों ओर स्त्रियों पर फ़ेंके जा रहे हैं। जायज़ है स्त्रियां चिंतित है, डरी हैं। लेकिन स्त्रियों में ये डर का माहौल क्रिएट करना बिल्कुल गलत है क्योंकि डरना तो बलात्कारियों को चाहिए ना कि आत्मसम्मान के साथ जीने वाली स्त्रियों को। इस माहौल के निर्माण में मीडिया अहम भूमिका निभा रही है।

उल्लेखनीय है इन वारदातों के लगातार सामने आने से अब कहीं-कहीं स्त्रियों के जीन्स पहनने और मोबाइल यूज़ करने पर रोक लगाई जा रही है। सोलह साल की उम्र में ही लड़कियों की शादी करवाने के असंवैधानिक मंतव्यों की लाइन लगी है। इस तरह की वाचिक हिंसा से स्त्रियों का मुक्त स्पेस बड़े पैमाने पर खत्म हो रहा है। भारतीय लोकतंत्र द्वारा दी गई समानता के हकों की बराबर हत्या हो रही है। यहां गौरतलब है कि कार्य की बात तो दूर सोच में भी स्त्री-पुरुष समानता की बातों के अभाव के फलस्वरुप ऐसे बयान आ रहे हैं। लिबरल सोच और लिबरल कदम को गायब होने के लिए मजबूर किया जा रहा है और बर्बर सोच अपना स्पेस बना रहा है। यह गंभीर चिंता की बात है।

इसलिए हे भारतीय परंपरागत पुरुष और नारी! कृपया अपनी बर्बर सोच और आदिम मानसिकता को बदलें और आधुनिक स्त्रियों पर रहम करें। अपनी बेसिर-पैर की बयानबाज़ी से स्त्रियों के मुक्त जीने के लोकतांत्रिक अधिकार को नष्ट न करें। साथ ही अपनी बुद्धि का वैज्ञानिक विकास करें और उदार भाव से स्त्री-अस्मिता पर विचार करें। बलात्कार जैसे संगीन अपराधों पर हल्की बयानबाज़ी न करें और अपराधियों के कड़ी सज़ा की मांग करें।

स्त्री-स्वच्छंदता के विभिन्न रुप - सारदा बनर्जी


स्वच्छंदता एक ऐसी संपदा है जो स्त्री अस्मिता और स्त्री-आज़ादी के लिए बिना शर्त ज़रुरी है। स्वच्छंदता का अर्थ चरित्रहीन होना नहीं है, स्वच्छंदता का अर्थ है, अपने तन-मन की मालकिन और अपनी पहलकदमी की मालकिन। स्वच्छंद स्त्री गैर-ज़िम्मेदार नहीं होती। किसी भी परिवार में स्त्रियों की उपस्थिति बहुत मूल्यवान होती है। अगर स्त्री स्वच्छंद रुप में परिवार में अपनेे निर्णय लेती है तब तो कहना ही क्या! कितनी खुश रहती है वह स्त्री जो स्वच्छंद हो और कितना खुश रहता है वह परिवार जहां स्त्री खुश रहे। इसका आदर्श नमूना है, राहुल सांकृत्यायान की कृति ‘वोल्गा से गंगा’। ‘वोल्गा से गंगा’ की ‘अमृताश्व’ कहानी इस संदर्भ में ध्यानतलब है। यह कहानी राहुल जी के अनुसार दो सौ पीढ़ी पहले के एक आर्य कबीले की है जब पशु-पालन जनता की जीविका का मुख्य साधन था। इस कहानी में ‘सोमा’ का चरित्र अपने आप में अलग और स्वच्छंद चरित्र है।
कहानीकार की मानें तो यह एक ऐसा ज़िंदादिल युग था जहां स्त्री ने अपने को पुरुष की जंगम संपत्ति होना स्वीकार नहीं किया था और इसीलिए स्त्री को अस्थायी प्रेमी बनाने का पूरा अधिकार था। वजह यही है कि सोमा स्वच्छंदतापूर्वक अपने पति कृच्छास्व के साथ रहते हुए भी अपने पुराने प्रेमी रुपी अतिथी ऋज्रास्व को खुशीखुशी घर आमंत्रित करती है, उससे वार्तालाप करती है, पति के समक्ष ऋज्रास्व को सुरा पान व मांस भक्षण कराती है। उस दिन के लिए ऋज्रास्व के पास बैठकर सोमपूर्ण चषक को पीती और आनंद लेती है। कृच्छास्व भी बहुत दरियादिली से इस हकीकत को मान लेता है क्योंकि यह उस समय का एक सामान्य आचार था। साथ ही यह एक स्त्री की व्यक्तिगत इच्छा का मामला भी था। रात में वह ऋज्रास्व के साथ समूचे गांववालों के सामने नृत्य, गान और सुरापान करती है। स्पष्ट होता है कि उस समाज में स्त्री-सम्मान का कितना प्राबल्य था।

आज स्त्रियों के साथ सारे अविचार और अनाचार की जड़ है पुंस समाज के सामंतवादी नियम जिसने स्त्रियों को विचारों और शरीर से बंदी बनाया। उसकी स्वाधीनता में हस्तक्षेप किया, उसकी स्वच्छंदता में बाधा डाला और उसे ज़िदगीभर के लिए पुरुष की भोग्या बनाया। स्त्रियों को पुंस समाज के इस बने-बनाए रुढ़िग्रस्त नियम को तोड़कर आगे बढ़ना है और अपनी खोई हुई स्वच्छंदता और आज़ादी को वापस हासिल करना है।

मातृसत्ताक समाज की ‘सोमा’ जितनी स्वच्छंद है अपने निर्णयों में उतनी ही स्वच्छंदता स्त्रियों के जीवन में अपेक्षित है। उपरोक्त कहानी में आगे चलकर एक और सुंदर संपर्क का उद्घाटन होता है। इस संपर्क में दो स्वच्छंद चरित्र है, एक मधुरा और दूसरा अमृताश्व (सोमा का पुत्र)। मधुरा और अमृताश्व का प्रेम आदर्श प्रेम को सामने रखता है जिसमें दोनों ओर से वर्चस्व का कोई भाव नहीं है। इसके अतिरिक्त दोनों का वार्तालाप समाजवादी समाज की भावनाओं को ऊजागर करता है। मसलन् अमृताश्व मधुरा से कहता है, ‘मधुरा! ऐसे भी जनपद हैं, जहां स्त्रियाँ दूसरे की नहीं, अपनी होती हैं।’ इस एक वाक्य में स्त्री का पुरुष की संपत्ति होने का विरोध दर्ज हुआ है। अमृताश्व आगे कहता है, ‘उन्हें कोई लूटता नहीं, उन्हें कोई सदा के लिए अपनी पत्नी नहीं बना पाता। वहाँ स्त्री-पुरुष समान होते हैं।’ यहां स्पष्टत: समाजवादी समाज की आकांँक्षा दिखाई देती है। साथ ही समानता की भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। गौर करने की बात है कि मातृसत्ताक समाज अपने नियमों में कितना उदार था, वहां भले ही स्त्री योद्धा और शिकारी हो, स्वतंत्र हो लेकिन वे पुरुषों पर आधिपत्य कायम कर उनका शोषण नहीं करता था। वहां के नियम समानता के मानदंड पर बने थे।

अमृताश्व द्वारा मधुरा को प्रेम-निवेदन करने का दृश्य भी अमृताश्व की उदार मनोवृत्ति का परिचायक है। उसने मधुरा की इच्छानुसार उससे प्रेम कर साथ रहने का निश्चय किया। मधुरा के शिकार और युद्ध करने पर कोई पाबंदी नहीं लगाया। बाद में अपने शब्दों का पालन भी किया। मधुरा ने कई युद्धों में भाग लिया और रीछ, भेड़िये और बाघ के शिकार किए हालांकि उस समय तक यह कार्य पुरुषों के दायरे में दाखिल हो चुका था।

स्त्री-स्वच्छंदता का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या हो सकता है। 
हमारे समाज को यह बात अपने ज़ेहन में बैठानी होगी कि स्त्री 
पुरुष की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है। उसके व्यक्तित्व को 
स्वाभाविक तौर पर विकसित होने का स्पेस चाहिए। पितृसत्ताक 
समाज स्त्रियों को जिस घेराबंदी में शुरु से जकड़ देता है वह रुढिवादी और सामंती मनोदशा का परिचय देता है। राहुल की कहानियां इस संदर्भ में पढ़ने लायक है। यह स्त्रियों के आधुनिक और उदार रुप को सामने लाता है। 

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...