Sunday 3 March 2019

धर्मनिरपेक्षता और रामविलास शर्मा





राजनीतिक तौर पर सांप्रदायिकता एक संवेदनशील मुद्दा है। सांप्रदायिकता अनेकरुपा है, बावजूद इसके उसका लक्ष्य एक है— वह है सामाजिक विभाजन पैदा करना तथा राष्ट्रीय एकता को खंडित करना। रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता के आर्थिक आधार, सामाजिक आधार और अंतर्राष्ट्रीय सहजिया संप्रदाय का गंभीरता से उद्घाटन किया है। यह ध्यान देने की बात है कि रामविलास शर्मा ने आज़ादी के बाद इस मसले पर सबसे अधिक बारीकी से विश्लेषण प्रस्तुत किया है। आम तौर पर हिन्दी के लेखक सांप्रदायिकता के सवाल पर तदर्थ रुख अपनाते रहें हैं। हिन्दी लेखकों में एक वर्ग सीधे हिन्दू सांप्रदायिकता की हिमायत करता रहा हैं। दूसरी कोटि ऐसे लेखकों की है जो राजनातिक अवसरवाद के शिकार रहें हैं।

          रामविलास शर्मा के सांप्रदायिकता विरोधी लेखन का महत्व इस संदर्भ में भी है कि उन्होंने आधुनिक साहित्य, जातीय साहित्य, जातीय संस्कृति और भारतीय साहित्य की अवधारणाओं के साथ सांप्रदायिकता विरोधी साहित्य दृष्टि का विकास किया। रामविलास शर्मा के लिए सांप्रदायिक समस्या महज राजनीतिक समस्या नहीं हैं बल्कि वे इसे साहित्य के धर्मनिरपेक्ष परिप्रेक्ष्य के विकास के पथ की प्रमुख समस्या मानतें हैं।

 रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता को पूंजीवादी संवृत्ति माना। एक साक्षात्कार के दौरान सांप्रदायिकता के विकास के कारणों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे खयाल से दो कारण हैं। एक कांग्रेस ने जो गलत नीतियां अपनाईं उससे जनता में असंतोष बढ़ा। इसका लाभ सांप्रदायिक ताकतों ने उठाया। यह तो मुख्य कारण है। दूसरा कारण यह है कि आम जनता में जो असंतोष बढ़ा उसे लेकर वामपंथी दलों को जो काम करना चाहिए था—जैसे जनता को इकट्ठा करना, गरीबों को संगठित करना और गलत नीतियों के खिलाफ जनमत तैयार करना—वह नहीं हुआ। इस वजह से भी सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ने का मौका मिला।”

                            रामविलास शर्मा ने कांग्रेस की सांप्रदायिकता-विरोधी दृष्टिकोण की आलोचना की और कांग्रेस की नीतियों में निहित प्रतिक्रियावादी रवैये में इसकी जड़ें तलाश कीं। उनके अनुसार कांग्रेस का सन् बीस, तीस और छियालिस के क्रांतिकारी उभार को रोकने, सन् पैंतीस के काले-कानून को लागू करने का परिणाम हुआ भीषण दंगे। भारत का विभाजन और विभाजन के बाद और भी भीषण दंगे। जैसे-जैसे दंगे हुए वैसे-वैसे सांप्रदायिक संगठन और भी मजबूत हुए।
रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता  के साथ साम्राज्यवाद के अंतस्संबंध की खोज की है। उनके अनुसार सांप्रदायिकता के खिलाफ़ संघर्ष का आधारभूत कार्यक्रम साम्राज्यवाद के खिलाफ़ सुसंगत संघर्ष से जुड़ा है। उनके अनुसार, “भारत में फासिस्टवाद का खतरा वास्तविक है। यह फासिस्टवाद जर्मनी की तरह एकाधिकारी पूंजीवाद का प्रतिनिधि नहीं है। वास्तव में वह साम्राज्यवाद का सहयोगी है और उसका मुख्य आधार सामंती अवशेष अथवा अनुत्पादक पूंजीपति वर्ग है। राष्ट्रवाद की विचारधारा को तोड़-मरोड़कर और जातीय संस्कृति को साम्प्रदायिक जामा पहनाकर वह अपनी शक्ति बढ़ाता है।”                                                                    
                उनके अनुसार फासीवाद विरोधी संघर्ष में प्रत्येक जाति के इतिहास की उपलब्धियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसका जनता पर गहरा असर पड़ता है। रामविलास शर्मा का मानना था कि सांप्रदायिकता और बुनियादपरस्ती एक ही चीज़ है। इन दोनों का धर्म से कोई संबंध नही है।बल्कि धर्म के मूल सिद्धांतों को तोड़-मरोड़ कर वर्तमान पूंजीवादी हितों से जोड़ना उसका लक्ष्य रहता है। सांप्रदायिकता के तर्कजाल को विश्लेषित करते हुए उन्होंने लिखा कि सांप्रदायिक दल राष्ट्रीय एकता पर बल देतें हैं, किंतु बहुजातीय राष्ट्रीयता की उपेक्षा करतें हैं। वे धर्म आधारित जातीयता की वकालत करते हैं। वे कहतें हैं कि हिन्दुत्ववादी भारत में अनेक भाषाओं का अस्तित्व स्वीकारतें हैं किन्तु इन भाषाओं के बोलने वाली जातियों का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। ऐसे अनेक प्रगतिशील समीक्षक हैं जो रामविलास शर्मा को संघ के दृष्टिकोण का प्रतिपादक कहतें रहें हैं। इन राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी इतिहासकारों को ध्यान में रखकर उन्होंने कहा ,“जितने भी सम्प्रदायवादी इतिहासकार हैं,उनका मूल उद्देश्य यह दिखाना है कि हिन्दुओं के वास्तविक शत्रु मुसलमान हैं और मुसलमानों के हिन्दू हैं,और दोनों के सबसे बड़े हितैषी अंग्रेज हैं।”

     रामविलास शर्मा ने सांप्रदायिकता की प्रकृति में निहित दंगे की संस्कृति का विस्तार से विश्लेषण किया है।दंगे क्यों होतें हैं? दंगों की प्रकृति क्या एक जैसी रही है?उनका मानना है कि ये दंगे नही ,जनता का कत्लेआम है। पुलिस और फौज के बड़े अफसरों,नवाबों,राजाओं और बड़े-बड़े ज़मींदारों और पूंजीपति नेताओं, मुनाफाखोरों और चोर-बाजार के आढ़तियों की साजिश से ये संगठित किए गए हैं।उनके अनुसार सांप्रदायिकता का हमला जनता पर ही नही बल्कि संस्कृति और इन्सानियत पर किया गया हमला है।यह हमारे स्वाधीनता संग्राम की धर्मनिरपेक्ष विरासत के खिलाफ खुली जंग है। यह चुनौती है समूची जनता को और खास तौर पर लेखकों के लिए कि वे अगला कदम ज़िंदगी की तरफ उठातें है या मौत की तरफ। यह चुनौती हमारी मनुष्यता और देशभक्ति के लिए भी है।
                           रामविलास शर्मा के अनुसार सांप्रदायिकता वस्तुत: प्रतिक्रियावाद है जो वर्ग-संगठनों को तोड़ता है और वर्गीय-शक्तियों को क्षीण करता है। किसानों और मजदूरों की एकता में भी संप्रदायवाद बहुत बड़ा बाधक है। इतने स्पष्ट रुप में अपने विचारों को रखने के बावजूद रामविलास शर्मा को सांप्रदायिक कहा गया और उनके सांप्रदायिकता विरोधी दृष्टिकोण को नजरअंदाज किया गया। उन्होंने कहीं भी संघ के समर्थन में बात नहीं कही।कभी भी उन्होंने सांप्रदायिक शक्तियों का साथ नहीं दिया। इसके विपरीत उन्होंने बराबर सांप्रदायिकता के विपक्ष में लिखा है। संप्रदायवादियों की तीखी आलोचना की है।उनका मानना था “यदि हम धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दे सकें,सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष कर सकें और इतिहास और संस्कृति का सही ज्ञान दे सकें तो यह हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।”






पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...