समकालीन भारतीय समाज की भारतीय संविधान पर भरपूर आस्था है। केन्द्र और राज्य की सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे संविधान प्रदत्त सुरक्षाओं के अनुपालन को सुनिश्चित करें। लेकिन उनकी ढीलेढाले रवैय्ये के कारण बार-बार संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों के अनुपालन को लेकर सवाल उठते रहे हैं।  इसमें कोई दो राय नहीं है कि समाज के कमज़ोर और असुरक्षित वर्गों जैसे स्त्रियों और खासकर बालिका-शिशुओं के अधिकारों का एक बड़ी तादाद में उल्लंघन हो रहा है।मसलन् कन्या-भ्रूण हत्या के सवाल को ही लें तो पाएंगे कि ज्यादातर सरकारें इस मामले में उदासीनता से काम ले रही हैं। हालांकि 1977 से ही विभिन्न सरकारी परिपत्रों के द्वारा लिंग-निर्धारित परीक्षणों पर रोक लगी है। इसके बावजूद धड़ल्ले से सरकारी नियमों का उल्लंघन करके ये परीक्षण हो रहे हैं।

               संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में हर वर्ष साढ़े सात लाख कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 20 सालों में भारत में तकरीबन एक करोड़ लड़कियों की भ्रूण हत्या की गई है और नए-नए तकनीक आने के बाद से भ्रूण हत्या की संख्या में और भी इजाफा हुआ है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2011 में एक हजार लड़कों की तुलना में कुल 914.23 बालिकाओं का जन्म हुआ जबकि 2001 में जन्मसंख्या 927.31 थी।                         
                 
           भारत में एक खास वर्ग ऐसा है जिसके सोच पर पुंसवादी रुढ़िवाद हावी है।जिसके कारण बेटे के जन्म को वरीयता दी जाती है।उनकी धारणानुसार परिवार का नाम रौशन करने , वंश-वृद्धि  और अंतिम संस्कार का दायित्व निबाहने में बेटे की महत्वपूर्ण भूमिका है।अतः समाजार्थिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से बेटे का जन्म लाभदायक माना गया। दूसरी ओर बेटियों को आर्थिक और सामाजिक बोझ माना जाता है। लड़की की जन्म के साथ ही दहेज की चिंता रहती है। भारतीय समाज में स्त्री को जन्म का अधिकार नहीं, साथ ही मुक्त-निर्णय, मुक्त-सोच और मुक्त-कार्य का अधिकार नहीं है।स्त्री का खान-पान, उसकी पढ़ाई, उसका पहनावा आदि सब कुछ पुंस समाज द्वारा निर्धारित होता है।        
                 
                   गौरतलब है कि कन्या भ्रूण-हत्या जैसी आपराधिक प्रवृति अशिक्षितों की अपेक्षा मूलतः शिक्षित समाज में देखी जा रही है । और कन्या भ्रूण-हत्या की अधिकांश घटनाएं धनी परिवारों में घटित हो रही हैं।  खास तौर पर उत्तर भारत के राज्यों जैसे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात आदि में इस तरह की घटनाएं ज्यादा सामने आ रही है।चौंकाने वाली बात है ये सभी राज्य समृद्ध हैं और मूलतः राजधानी दिल्ली जैसे विकसित राज्य में कन्या भ्रूण-हत्या दर काफी ज्यादा है।अतः स्पष्ट है कि कन्या भ्रूण-हत्या का गरीबी और अशिक्षा से कम पुंस मानसिकता और विचारधारा से गहरा संबंध है।  
                 
                     कन्या भ्रूण-हत्या का संस्कृति से भी गहरा संबंध है। जो राज्य सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध हैं वहां इस तरह की घटनाएं अनुपात में कम हो रही है।जैसे पश्चिम बंगाल, केरल इत्यादि राज्य सांस्कृतिक दृष्टि से विकसित होने की वजह से स्त्री संबंधी अनेक विषयों पर ये तुलनात्मक तौर पर सचेत राज्य हैं।स्वभावतः यहां स्त्री से संबंधित अनेक तरह के उत्पीड़न एवं शोषण भी कम देखने में आता है। हालांकि इक्का-दुक्का स्त्री भ्रूण-हत्या की घटनाएं इन राज्यों में भी देखी जाती हैं किंतु इन राज्यों में अधिकांशतः कन्या जन्म को अपराध की नज़र से नहीं देखा जाता।बालक और बालिका के प्रति जन्म के बाद से समान रुख होता है और स्त्रियों को उसकी वांछित और संवैधानिक सामनता के अवसर भी मिलते हैं।
                 हालांकि सरकार द्वारा लिंगाधारित परिक्षाओं को रोकने के लिए अनेक सकारात्मक कदम उठाए गए हैं ।सन् 2003 में इसे रोकने के लिए पी.सी.पी.एन.डी.टी.(प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नैटल डायगनॉस्टिक टेकनिक्स एक्ट )अधिनियम 1994 जारी हुआ।इसके बावजूद मई,2006 के तथ्य के मुताबिक दिल्ली में सबसे ज़्यादा नियम उल्लंघन की घटनाएं हुई। 76 में से 69 जन्म गैर-पंजीकृत ढंग से कराए गए।पंजाब में कुल 67 तथा गुजरात में 57 घटनाएं हुई।बाद में मुंबई उच्च-न्यायालय ने इस अधिनियम में संशोधन किया और लिंग-चयन पर प्रतिबंध लगा दिया और उसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। किंतु इसके बावजूद भी नेशनल क्राइम्स रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन् 2009 में पूरे देश में कुल 123 मामले पंजीकृत हुए।

                 यह बेहद ज़रुरी है कि कन्या-भ्रूण हत्या जैसे कृत्यों पर रोक लगाई जाए अन्यथा देश में स्त्री-जनसंख्या में कमी आ जाएगी।  फलतः भविष्य में भी अनेक गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।स्त्री जनसंख्या में कमी के फलस्वरुप स्त्री-हिंसा, बलात्कार, अपहरण, अवैध व्यापार तथा अनेक असामाजिक कार्य जैसे बहुपतित्व आदि घटनाएं भी आगे हो सकती हैं।हरियाणा जैसे राज्य में तो स्त्री संख्या इतनी कम है कि बाकायदा अन्य राज्यों से दुलहन के नाम पर लड़कियां खरीदी जा रही हैं। ऐसे भी अनेक गांव हैं जहां स्त्रियों की कमी के कारण एक ही पत्नी को दूसरे भाई बांट लेते हैं किंतु यदि स्त्री इसका विरोध करती है तो उसे यंत्रणा दी जाती है। शिशु लिंग अनुपात में कमी के कारण पर्यावरण असंतुलन में भी वृद्धि हो रही है।                      

                      यह भी देखा गया है कि अनेक मामलों में स्त्री को न चाहते हुए भी परिवारवालों की वजह से कन्या-भ्रूण हत्या में भागीदार होना पड़ता है।अतः यह बेहद ज़रुरी है कि परिवार में स्त्री की राय को विशेष ध्यान  दिया जाय। स्त्रियों में वैज्ञानिक चेतना पैदा की जाय। हर क्षेत्र में स्त्री-इच्छा का सम्मान किया जाए।वैचारिक, शारीरिक और मानसिक तौर पर स्त्री स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हो। स्त्री-सशक्तिकरण और स्त्री-शिक्षा का होना भी बहुत ज़रुरी है। यदि स्त्री शिक्षित होगी तो लड़कियों के प्रति उसकी सचेतनता बढ़ेगी। मृत्युदर में कमी होगी ,लड़कियों को पौष्टिक खाना मिलेगा,उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाएगा।किंतु इन प्रयत्नों के लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार को भी आगे आना होगा।अनेक चिकित्सकों द्वारा पैसे के लिए किए जा रहे इन अनैतिक कार्यों पर रोक लगाना होगा।  केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से  स्त्री के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार किया जाए। उसे एक परंपरागत स्त्री से भिन्न वैज्ञानिक चेतना संपन्न स्त्री के रूप में पेश किया जाय।जब तक स्त्री में बदलाव नहीं आएगा तब तक वह दूसरे दर्जे की नागरिक बनी रहेगी।