ऐसे किरदार स्त्री-जीवन
में खास मायने रखते हैं जो स्त्री की बहुमुखी प्रतिभा को सामने लाए और एक ऐसे
व्यक्तित्व से हमें रुबरु कराए जो हम सब स्त्रियों में होना चाहिए या होना संभव है।
अदिती राय की बांग्ला फ़िल्म ‘ओबोशेषे’ कई दृष्टियों से एक जानदार फ़िल्म है। इस
फ़िल्म में मां-बेटे की केमेस्ट्री को देखा जाए तो यह लाजवाब है। इसमें
अत्याधुनिकता और कल्चर का अद्भूत ब्लेंड है। जीवन की आपाधापी है, जीवन से वितराग
है। लेकिन इन सबमें गौर करने लायक या हाइलाइटेड किरदार है ‘सुचिस्मिता’ का। इस
किरदार का अभिनय रुपा गांगुली करती हैं जिन्होंने इस किरदार के साथ पूर्ण न्याय
किया है। तभी यह किरदार इस ऊँचाई को प्राप्त हुआ है। स्त्री-अस्मिता और
स्त्री-स्वायत्तता का जबरदस्त परिचय है ये रोल। प्रतिकूलताओं और विपरीत
परिस्थितियों के बीच भी स्त्री-आज़ादी कितना प्राथमिक है, इसे जानने के लिए यह
फ़िल्म अव्वल है।
आम तौर पर स्त्रियों
को एक सुखी जीवन एवं संसार के लिए अनेक कुर्बानियां देनी पड़ती है। अपने अनेक
खुशियों का गला घोंटना पड़ता है। लेकिन अपने मूल्यों को जीवन से बिना हटाए, अपने
शर्तों पर जीवन को परिचालित करना एक चुनौती है। सुचिस्मिता एक ऐसी चुनौती लेती है
हालांकि इस चुनौती के दौरान सुचिस्मिता को अनेक दुख भी झेलना पड़ता है। उसकी
ज़िंदगी अकेलेपन के कगार पर आ पहुँचती है। लेकिन फिर भी वह टस से मस नहीं होती। इस
अकेलेपन में भी वो अपनी असंख्य प्रतिभाओं को पुनर्जीवित करती हुई जीवन में नित-नूतन
रंग घोलती है। जीवन को वैविध्यमय और कलरफूल बनाती है। उसे अपने निर्णयों पर कभी
पछतावा नहीं होता। ना उसे ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत है। वह अपने आप से खुश है,
ज़िंदगी से मिलने वाले दुखों से नाखुश। अपने आप में यह रोल बेहद आकर्षक और
प्रेरणादायक है।
सुचिस्मिता अपने
सुंदर और मनमोहक कंठस्वर के साथ रवीन्द्रसंगीत गाती है, वह पेंटिंग में सिद्धहस्त
है, दोस्तों के साथ गप्पे हांकते हुए बीयर पीना उसे पसंद है, छोटों के साथ ‘कितकित’
खेलती है, अपनी बेटी समान लड़की ‘मोनि’ (जो कि उसी का दिया हुआ नाम है) के साथ
बेझिझक दोस्ती करती है, उससे सुख-दुख बांटती है। दुर्गा-प्रतिमा की कच्ची मूर्ति
में अपने हाथों से मिट्टी पोतती है, अपनी सहेली के हाथों की पूरी और खीर(पायेस)
खाना बेहद पसंद करती है बावजूद इसके कि किसी विचार में मतांतर की वजह से दोनों में
बातचीत बंद है। ये है ओवरऑल सुचि का केरेकटर। बिंदास लेकिन उद्दंड नहीं। मिलनसार
लेकिन व्यक्तित्वमयी। बेहद स्वच्छंद। किसी काम से परहेज़ नहीं, हर एक कला में
दिलचस्पी, हर एक व्यक्ति से आत्मीयता का संबंध और खूब बुद्धिमती। उसने ज़िंदगी में
एक बड़ा फैसला लिया जिसकी वजह से वह अकेली हो गई। फिर भी स्वतंत्र फैसले को ज़िदगी
में वो अहमियत देती है, उसे स्वागत करती है और अपने किरदार के द्वारा स्त्री-अस्मिता
की प्रतिष्ठा करती है।
सुचिस्मिता का पति
विदेश में नौकरी करने के उद्देश्य से देशी नौकरी छोड़कर बाहर जाना चाहता है
हालांकि सुचि ऐसा नहीं चाहती। सो वह विरोध करती है लेकिन जब उसका विरोध काम नहीं
करता जब वह फैसला लेती है देश में ही रहने का। क्योंकि वह भारत छोड़ना नहीं
चाहती। उसका पति उसके बेटे को लेकर विदेश चला जाता है, वहां एक साल बाद दूसरी शादी
तक करता है। सुचि सब जानती है फिर भी उसने अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं किया। वह
अकेले रही सारी ज़ंदगी, अपनी मृत्यु तक। इस किरदार से सीखने लायक बात यह है कि
कैसे अकेलेपन के साथ भी ज़िंदगी हसीन बनाई जा सकती है। निभृत रहते हुए भी ज़िंदगी
कितने खूबसूरत लम्हों से भरा जा सकता है। अपनी प्रतिभाओं को कैसे पल्लवित किया जा
सकता है। कैसे हकीकत का सामना करते हुए भी उससे असंपृक्त रहा जा सकता है। ये
किरदार कहीं न कहीं हर स्त्री के लिए प्रेरणापद है। इस चरित्र से बहुत कुछ सीखा जा
सकता है। खासकर स्त्री-अस्मिता के मुद्दे को इसने जैसे रुपायित किया है वैसा
दुर्लभ है।
सुचिस्मिता का बेटा
तब देश लौटता है जब वह मर चुकी है। वह अपनी मां को रि-इंवेंट करना चाहता है। वह उन
चिट्ठियों के माध्यम से मां को जानने-समझने की अथाह कोशिश करता रहता है जो मां
लिखकर छोड़ गई थी। मां से संपर्क रखने वाले हर एक व्यक्ति को खोजकर उससे मिलकर मां
की बातें जानना चाहता है। देखा जाए तो मां को खोजने की बेटे की ये छटपटाहट विरल
है। मां को जानने के बाद मां के प्रति स्नेह, प्रेम और विश्वास भी दुप्राप्य चीज़ है जो
खासकर आजकल की फ़िल्मों में कम दिखता है।
स्त्री-अस्मिता और
स्त्री-अस्तित्व को अपने पूरी शारीरिक मौजूदगी के साथ अपने समग्र व्यक्तित्व और
कृतित्व के ज़रिए सुचिस्मिता का किरदार प्रस्तुत करता है। यह स्त्री-जीवन को बेहतर
और आनंदमय बनाने की तरकीब सिखाता है। इसलिए हम सब स्त्रियों को इस किरदार की सकारात्मकता को अपने जीवन में अनुसरण करना है।
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