Thursday 9 May 2013

क्या घर में स्त्रियों के पास अपना एक स्वतंत्र कमरा उपलब्ध है? – सारदा बनर्जी


                   

स्त्री-विमर्श पर बात करते समय सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या स्त्री मुक्त है या नहीं है? ये मुक्ति वैचारिक और कायिक दोनों स्तरों पर होना चाहिए। ये मुक्ति व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी। निजी भी है और सार्वजनिक भी। स्त्री-मुक्ति के लिए ज़रुरी सवाल ये है कि स्त्री के पास अपना स्वतंत्र स्पेस है कि नहीं? स्वतंत्र स्पेस से मतलब है कि क्या घर में स्त्री के पास अपना एक अलग कमरा उपलब्ध है जहां वो अपनी पढ़ाई कर सके, अपने विचारों को सही दिशा दे सके, अपनी प्रतिभा को सर्जनात्मक रुप दे सके और सबसे बढ़कर अपने आप को वक्त दे सके। भारत में स्त्रियों के उत्थान के लिए सबसे ज़रुरी शर्त है कि स्त्रियों के लिए घर में एक अलग कमरा हो जैसा कि आम तौर पर पुरुषों को उपलब्ध होता आया है। ‘अ रुम ऑफ वनस् ओन’ में वर्जीनिया वुल्फ़ लिखती हैं कि कल्पना पर लिखने के लिए स्त्री के पास अपने कमरे और पैसे का होना ज़रुरी शर्त है। स्त्री का अपना कमरा हो जो केवल उसी का हो, उसमें स्त्री का अपना पुस्तकालय हो और साथ ही वे सारी चीज़े प्राप्त हो जिससे उसे लगाव है। इससे विचारों को समृद्ध होने में मदद मिलती है दूसरी ओर कल्पना को भी फैलने का मौका मिलता है।

स्त्री का स्वतंत्र स्पेस जहां अपने कमरे के भीतर हो, वहीं वह स्पेस कमरे के बाहर भी होनी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि जब कोई बहस या तर्क-वितर्क घर में छिड़ जाता है तो ज़्यादातर मामलों में उसमें पुरुष शामिल होते हैं। गरमागरम बहस होने लगती है, घर की स्त्रियां चुपचाप टुकुर-टुकुर पुरुषों का मुंह निहारती हैं। समझने की कोशिश करती है कि क्या कहा जाए और बाद में स्त्रियां शिरकत करने की भी अथाह कोशिश करती हैं। अपने लिए स्पेस ढूंढ़ने की कोशिश करती है। अगर एक-आध स्त्री उस बहस में शामिल होने की कोशिश करती है तो जैसा कि अधिकतर घरों में होता है कि उसे चुप करा दिया जाता है। स्त्रियों को ये एहसास दिलाया जाता है ये बहस बुद्धिजीवियों के लिए है, बेवकूफ़ों के लिए नहीं। और बुद्धि तो केवल जन्मजात रुप से पुरुषों को ही प्राप्त हुआ करता है। सो स्त्रियां चुप हो जाए, अपना काम करें(रसोई संभाले) वजह ये कि उसके द्वारा कहा गया पॉएंट किसी काम का नहीं है। अगर पुरुष किसी पुरानी पुंसवादी घिसी-पिटी थ्योरी पर भी बहस कर रहे हों तो स्त्रियों का फ़र्ज़ है कि वे उनकी हिमायत करें। यही आदर्श स्त्री-लक्षण है। लेकिन अगर वह स्त्री उसे काटने की कोशिश करती है तो पुरुष कई बार अपनी आवाज़ को ऊंची करके बोलने लगते हैं ताकि स्त्रियां खुद-व-खुद ‘शट अप’ हो जाएं। जायज़ है ज़्यादातर मामलों में घर की स्त्रियां चुप्पी साध लेती हैं। और अगर कोई स्त्री चुप नहीं होती या अपने मुद्दों पर अड़ी रहती है तो वह स्त्री आवारा, बदचलन, ज़िद्दी, अकड़ू, अहंकारी, शैतान, घमंडी, असभ्य जैसे कई कई सुंदर उपाधियों से अलंकृत होती है। 

सवाल यहीं से शुरु होता है कि आखिर क्यों? क्यों स्त्रियां अपनी बात को कमतर या कम वज़न संपन्न बात समझकर चुप्पी साध लें? क्यों उसे बहस करने के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित होना पड़े और वह भी उसके अपनों से जो स्त्री को रसोई संभालने वाली तो मान सकते हैं लेकिन नागरिक नहीं? आखिर कब स्त्रियों को नागरिक मानकर उनकी बातों को मूल्य दिया जाएगा और उनकी अवहेलना नहीं होगी?

यही वह जगह है जिसे स्त्रियों को अपने लिए बनाना है। यानि अपना स्थान बनाना है। सोचने का, बोलने का, शिरकत का, पढ़ने का, हंसने का, रोने का, अपनी निजता का, अपनी मुक्ति का स्पेस बनाना है। स्त्रियों के लिए बेहद ज़रुरी है कि वे अपनी अभिरुचियों को समझे और जाने। जब तक वे खुलकर अपने आप को समय नहीं देगी, जब तक उन्हें घर के छोटे-छोटे कामों से फुरसत नहीं मिलेगी तब तक वे नहीं समझ सकतीं कि उनकी रुचि किन विषयों में है। जब स्त्री फ्री होगी तब वह निर्धारित कर पाएगी कि वह क्या चाहती है, कौन सी ज़िंदगी चाहती है, ज़िदगी में क्या-क्या चाहती है और क्या नहीं चाहती।



ज़ायज़ है जब स्त्री सिर्फ़ खाना नहीं पकाएगी, जब स्त्री सिर्फ़ बच्चे 
नहीं जनेगी तब वह अन्य सर्जनात्मक कार्यों के प्रति भी रुचि रखेगी। देश और दुनिया की तमाम हकीकतों पर नज़र रखेगी, उससे परिचित होगी और खुद को कामयाबी के मकाम पर भी देखना चाहेगी। ये होगा स्त्री-मुक्ति का पहला आयाम। दूसरा आयाम तब तय होगा जब स्त्री कामयाबी हासिल कर लेगी। युग-युग से स्त्री की ‘घरबंदी’ इमेज को तोड़ने में सक्षम होगी। जब स्त्री घर से बाहर निकलेगी, अपने वैचारिक रुढ़ियों से मुक्त होगी तभी अपने इच्छित कार्यों में सफलता हासिल कर पाएगी।

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