Sunday 23 December 2012

तेजाब-पीड़िता सोनाली मुखर्जी और स्त्री-हिंसा – सारदा बनर्जी


                          


ऐसी वारदातें जो स्त्री के देह से होकर उसके मन तक को नारकीय यंत्रणा का नृशंस शिकार बना दे, देश के लिए शर्म हैं और ऐसे लोग जो इस तरह की गुनाहों के गुनहगार होते हैं , वे देश और समाज से बहिष्कृत किए जाने के योग्य हैं। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है तेजाब हमले की शिकार झारखंड के धनबाद की सत्रह साल की सोनाली मुखर्जी के साथ हुआ वारदात। झारखंड की इस युवती को उसके पड़ोस के तीन लड़के परेशान कर रहे थे। जब उसने इन तीनों के गलत व्यवहार का विरोध किया, तो उन तीनों युवकों ने रात में जब सोनाली छत पर अपने परिवारवालों के साथ सोई थी, उसके चेहरे पर तेजाब फेंक कर उसे जला दिया। इस हमले के बाद सोनाली की सुनने, देखने और बोलने की क्षमता खत्म हो गई, चेहरा बिगड़ गया। इस घाव के भरने के लिए पुश्तैनी जमीन से लेकर मां के जेवरात तक बेचा गया फिर भी इलाज में पैसे कम पड़ गए। अब तक कुल 22  छोटी-बड़ी शल्यचिकित्साएं हो चुकी हैं, पर ज़ख्म अब तक पूरा नहीं भरा।
चौंकाने वाली बात है कि सोनाली के इन तीनों गुनहगारों तापस मित्र, संजय पासवान और ब्रह्मदेव हाजरा को अदालत ने नौ साल की सज़ा तो सुनाई लेकिन तीन साल सज़ा काटने के बाद वे जेल से ज़मानत में रिहा होकर आज सरे आम समाज में घूम रहे हैं। दोषियों को दण्ड देने के लिए मंत्रियों के दरवाज़े खटखटाकर सोनाली थक चुकी हैं लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। यह घटना सार्वजनिक तौर पर तब सामने आया जब सोनाली ने सरकार से यूथेनेशिया यानि इच्छामृत्यु की मांग की। नैशनल कैडेट कोर की वर्दी पहनकर देश की सेवा के सपने देखने वाली सोनाली के सपनों को चकनाचूर करने वाले इन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा होनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता कुछ और है। स्वाभाविक तौर पर यहां सवालिया निशान लगता है कि आज हमारे समाज में स्त्रियां कितनी सुरक्षित हैं? अगर ऐसे अपराधी संगीन अपराध करके भी छुट्टे घूमेंगे तो क्या भविष्य में ऐसे भयानक हादसे दोबारा नहीं घट सकते ? यहां यह सवाल भी उठ खड़ा होता है कि क्या स्त्रियों पर हुए अमानवीय हमले समाज की नज़रों में कोई मायने नहीं रखता कि उनके अपराधी आज भी खुले घूम रहे हैं ?
इस घटना को केंद्र में रखकर 25 नवंबर, रात 8.30 बजे सोनी टी.वी. पर कौन बनेगा करोड़पति 6’ (केबीसी)  की विशेष कड़ी में सोनाली को अमिताभ बच्चन के साथ हॉट सीट के लिए बुलाया गया जिनके साथ अभिनेत्री लारा दत्ता ने सहयोग दिया। इस शो में सोनाली के ऑपरेशन के लिए उसे मदद करने के उद्देश्य से खेल के ज़रिए उसे एक 25 लाख की राशी भेंट की गई जो एक ज़िम्मेदार कदम था। इसे एक प्रगतिशील प्रसारण कहा जा सकता है। साथ ही सोनाली के साथ हुए इस वारदात से अनजान लोगों को भी ज्ञात हुआ कि किस तरह समाज में असामाजिक तत्व सिर उठाया हुआ है और स्त्रियों के लिए एक भयानक अभिशाप बना हुआ है। अमिताभ बच्चन ने सोनाली से यह सवाल पूछा कि इन सबको सहन करने की शक्ति सोनाली को कहां से मिली और सोनाली के पिता से पूछा कि जब यह हादसा उनकी बेटी के साथ हुआ तो उन पर क्या गुज़री या उन्हें क्या फ़ील हुआ। कायदे से जब हम किसी पीड़िता और यंत्रणा-भोगती महिला और उसके परिवारवालों से बात करें या सवाल पूछें तो हमें इन सवालों से बचना चाहिए। वजह यह है कि जब विपत्ति आती है तो उसे सहने और डटकर सामना करने के अलावा इंसान के पास कोई चारा नहीं होता और दूसरी बात अपनी बेटी के खूबसूरत चेहरे को पल भर में बिगड़ते देख किसी भी पिता को दर्द और तकलीफ़ के अलावा कुछ हो नहीं सकता। जायज़ है इन सवालों को पूछने का अर्थ पुराने दर्द को कुरेदकर जनसमक्ष उसे नए रुप में उभारना है।
चेहरा हर एक इंसान की प्राथमिक पहचान है। हमारी और खासकर एक स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व का पहला परिचय उसका चेहरा है। सोचा जा सकता है कि कितना कठिन और कष्टकर है वो जीवन जो पल भर में एक खूबसूरत चेहरे को बदसूरत चेहरे में तब्दील होते झेल रहा हो, उसके दर्द और पीड़ा को महसूस कर रहा हो। आँखों से देखने वाली दुनिया को आज छूकर फ़ील करना पड़ रहा हो। कहने के लिए इस हादसे ने केवल स्त्री-चेहरे को जलाया है लेकिन इसने स्त्री-तन के साथ-साथ स्त्री-मन और स्त्री आत्मा तक को जला दिया है। साथ ही उस परिवार को भी जलाया जो दिन-रात जोड़कर पैसे जुगाड़ करने की अथाह कोशिश में जुटा है, अपनी बेटी के खोए हुए चेहरे को फिर से सुधारने में लगा है। यह जलन पूरे समाज के दिल को जलाता है और समाज के सामने यह सवाल फेंकता है कि क्या स्त्री वजूद आज वाकई खतरे में है? स्त्रियों के साथ अत्याचार तो आम है जो सदियों से भोगा हुआ एक ज्वलंत सच है। लेकिन सवाल यह है कि क्या स्त्रियों के लिए अपनी अस्मिता के साथ सड़क चलना भी जोख़िम भरा है? क्या अपने अपमान का विरोध करना, अपने साथ होते छेड़छाड़ का विरोध करना अपने जीवन में ज़ख्म को न्यौता देना है? जीवित-मौत को बुलावा देना है?
सोनाली के साथ हुए इस वारदात की जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है। यहां सवाल यह भी उठता है कि भारत सरकार ने अभी तक तेजाब पीड़ितों के लिए कोई सशक्त कानून क्यों नहीं बनाया है जिसके तहत ऐसे पीड़ितों को मुफ़्त इलाज की सुविधा मुहैया कराई जाए और इसके अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए ? साथ ही इस तरह के अपराध ‘नॉन-बेलेबेल’ होने चाहिए। स्त्रियों के खिलाफ़ चल रही इन हिंसाओं को रोकने के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि समाज और देश सक्रिय हो। हमारी न्याय-व्यवस्था सक्रिय भूमिका निभाए। हम यह अपेक्षा ही कर सकते हैं कि सोनाली के गुनहगारों को जल्द से जल्द कड़ी सज़ा मिले। नौ साल की जद्दोजहद से सोनाली और उसके परिवारवालों को जल्द मुक्ति मिले। साथ ही स्त्री आज़ादी में हस्तक्षेप और स्त्री-ज़िंदगी में दखलंदाज़ी करने वाले इन असामाजिक पुंसवादी तत्वों को समाज बहिष्कृत करें, इन्हें सज़ा दें।

पुसंवाद को कितना डिस्टर्ब करता है स्त्रीवादी सोच - सारदा बनर्जी


                     

क्या वजह है कि कोई स्त्री लेखिका जब पितृसत्ताक समाज के पुंसवादी रवैये की आलोचना करती हैं तो उन्हें पुरुषों की कटुक्ति का सामना करना पड़ता है? हमारा समाज अपने रवैये में बेहद पुंसवादी है और इस पुंसवाद के प्रभाव को स्त्रियां हर पल झेल रहीं हैं। लेकिन जब कोई स्त्री इन विषयों पर रौशनी डालती है या पुंसवाद की आलोचना पर लेख लिखती है तो उस पर इस तरह के कमेंट आते हैं, “लेख आपकी छोटी व कुंठित मानसिकता का परिचय देता है...” या फिर यह कहते हैं, “और एक ऐसी महिला का लेख लग रहा है... जो हर बुरी बात का श्रेय पुरुषों को देना चाहती हैं...।” यहां सवाल यह उठता है कि पुंसवादी समाज के डंक को तो स्त्रियां सदियों से झेल रही हैं और पितृसत्ताक मानसिकता की चक्की में वर्षों से पिस रही है लेकिन पुंसवाद की एक सामान्य सी जायज़ आलोचना पुरुष या कहें पुंसवादी मानसिकता के पुरुष क्यों नहीं ले पाते?
यह भी सर्वज्ञात है कि भले ही भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार की घोषणा करता हो लेकिन स्त्री आज भी पुरुषों के समकक्ष नहीं है। वे सभी अधिकार जो एक पुरुष को जीवन के प्रथम क्षण से मिलता है स्त्रियों को नहीं मिलता। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर उसे यह अहसास करा दिया जाता है कि वह स्त्री है। जैसा कि सीमोन द बोउवार ‘द सेकेंड सेक्स’ में कहती हैं, “One is not born, but rather becomes, a woman.”  आज इक्कीसवी सदी में भी स्त्रियों को स्त्री-पुरुष समानता की बातें हवाई लगती है क्योंकि वे जानती हैं कि हकीकत क्या है। उल्लेखनीय है कि यदि स्त्री-पुरुष समानता की हिमायत में कोई स्त्री लेख लिखती है तो उसे इस तरह के कमेंट्स को फ़ेस करना पड़ता है, “आम और नारंगी दोनों फल है, पर आम=नारंगी नहीं, न हो सकती है। नर=नारी नहीं है।” साथ ही इस तरह के पुंसवादी विचारों से लैस पुरुषों को स्त्री-पुरुष सामनता की बात पश्चिम से उधार ली गई लगती है। लिखते हैं, “ इन्हें समानता के लिए लड़वाने वाला पश्चिम आपस में वैर भाव जागृत कर कर, जन-मानस को ऐसा कलुषित कर चुका है, कि समानता की लड़ाई में परस्पर प्रेम का अंत हो रहा है, और कुटुंब संस्था नष्ट हो रही है।”  ध्यानतलब है कि परस्पर प्रेम के अंत का दोष भी ठीक स्त्रियों के सिर ही मढ़ा जा रहा है हालांकि वे समानता यानि अपने हक के लिए लड़ रही होती हैं। स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी टिप्पणी है, “स्त्री स्वतंत्रता के इन पश्चिम प्रेरित आन्दोलनों के प्रभाव से भारत की स्त्रियों का सम्मान बढना तो क्या था, उसे हर मंच पर निर्वस्त्र करने का काम बोल्डनैसके नाम पर हो रहा है। लीव इन रिलेशनशिप को बढावा देकर उसकी दशा वेश्याओं जैसी बनाने में कोई कसर नहीं रखी जा रही और यह सब हो रहा है, स्त्री की स्वतंत्रता व समानता के नाम पर।”
स्पष्ट होता है कि ‘स्त्री’ आज भी पुरुषों के लिए मूल्यहीन और चलताऊ है। स्त्रियों की समानता की बात पुरुषों को कितना परेशान करता है। यदि कोई प्रगतिशील या स्त्री-मुक्ति के विचार जनसमक्ष रखे जाते हैं तो उसमें ये पुंसवादी मानसिकता के पुरुष पश्चिम का प्रभाव ढूँढ़ने लगते हैं। उससे भी बड़ी बात यह कि किसी स्त्री द्वारा लिखे गए सच को स्वीकार करना पुरुषों के लिए कितना कठिन है। यही कायदे से यह प्रमाणित कर देता है कि भारतीय समाज मानसिकता और व्यवहार में घोर पुंसवादी है।
स्त्री अस्मिता की बात करते ही इन्हें पश्चिम दिखाई देता है। वकतव्य पढ़ें, “लेखिका में लेखन की प्रतिभा तो है पर वे मैकालियन शिक्षा के प्रभाव में आकर भारतीय समाज की अच्छाईयों, स्त्रियों के गुणों में भी दोष ही दोष देखने की नकारात्मक मानसिकता की शिकार हो गयी हैं।”  
अब इन जनाबों को कोई समझाए कि स्त्री मुक्ति की बात भारत में स्त्री मुक्ति के पक्षधर वर्षों से करते आएं हैं लेकिन इन पक्षधरों की बात पुंसवादी कानों तक कभी नहीं पहुंची। इसलिए इन्हें स्त्री-मुक्ति की बातों में मैकालियन शिक्षा का प्रभाव दिख रहा है। साथ ही जिन क्षेत्रों में व्रतों के नाम पर स्त्रियों का शोषण होता आया है उस पर लिखना भी इनके हिसाब से स्त्रियों को दोष देना है। यानि इनके अनुसार चुपचाप पुरुषों की मंगलकामना के लिए व्रत करना स्त्रियोचित गुण है। इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लिखते हैं, “आपको किसने कहा की स्त्रियों को व्रत आदि रखने की लिए विवश किया या उकसाया जाता है…?… यह सब वे अपने मर्ज़ी और ख़ुशी से करती हैं।”
अगर आप स्त्रियों के आधुनिक आचरण और आधुनिक व्यवहार की बात करें तो उनका सवाल होता है, “आधुनिक व्यवहार और आधुनिक आचरण से आप क्या अर्थ करती है? उदाहरण दे, तो सही समझ पाए| इसके लिए, कोई पुस्तक पढ़नी होगी क्या?” या फिर “स्वच्छंदता और मुक्तता का अर्थ आप क्या करती है? इन दोनों में कोई अंतर है क्या ? हो, तो, उस अंतर को स्पष्ट करें|तो महाशय इसका उत्तर पाना हो तो भारतीय संविधान को गौर से पढ़िए जहां इसकी बातें कही गई हैं। जायज़ है यह स्त्री-विरोधी मनोदशा है जो किसी तरह से स्त्री-मुक्ति का पक्षधर नहीं है। और सवाल करना भी बाकायदा पुंसवादी मनोदशा को दर्शाता है। आपको पुरुषों की स्वच्छंदता और मुक्तता अच्छी लगती है लेकिन जब स्त्रियों की बात की जाती है तो ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं। स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष समानता की बात इनकी समझ से परे है क्योंकि ये आदतन मजबूर हैं स्त्रियों को पिछड़ा हुआ देखने और बनाए रखने में। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, “स्त्री और पुरुष में समानता हासिल करना तब तक संभव नहीं है जब तक गैर-लिंगीय रुप में सोचते रहेंगे। दायित्वों एवं अधिकारों का प्रत्येक लिंग के लिए अलग-अलग विभाजन जब तक बना रहेगा वे भिन्न बने रहेंगे।” मूल बात हमारे दृष्टिकोण की है। इसलिए बदलाव हमारे सोच में लाना होगा। स्त्री के प्रति आधुनिक नज़रिया विकसित नहीं करेंगे तो रुढिवादी बातें ही करते जाएंगे। समानता के सिद्धांत को समझने के लिए लिंगीय रुप में सोचना होगा तभी स्त्री अस्मिता, स्त्री-स्वच्छंदता, स्त्री-मुक्तता, स्त्री-अस्तित्व की बात पुंसवादी समझ पाएंगे।

Sunday 9 December 2012

मेरी दृष्टि में ‘शांतिनिकेतन’ – सारदा बनर्जी


                                  
यदि रवीन्द्रनाथ को जानना, समझना और अनुभव करना हो तो ‘शांतिनिकेतन’ सबसे उत्तम स्थान है। रवीन्द्रनाथ जिस विश्व-शांति का उद्घोष शांतिनिकेतन की प्रतिष्ठा द्वारा करना चाहते थे, उस ‘शांति’ को शांतिनिकेतन या बीरभुम की भूमि में, वहां के रम्य वातावरण में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। कोलाहल-मुक्त प्रकृति का आस्वाद अभी भी इस भूमि में पाया जा सकता है जिसे कविगुरु ने ‘शांतिनिकेतन’ नाम दिया था और आधिकारिक तौर पर जिसे ‘विश्वभारती’ कहा जाता है। यह सही है कि रवीन्द्रनाथ मूलतः प्रकृति के कवि रहे हैं और यही कारण है कि यदि रवि ठाकुर को महसूस करना है, उनकी प्राकृतिक कविताओं के वास्तविक मर्म को आत्मसात करना है तो बीरभुम की उस प्रकृति में जाना होगा जहां कभी कविगुरु रहा करते थे, जिसके सुरम्य सौंदर्य को भोगा करते थे और जहां घंटों विभोर होकर समय बिताया करते थे। वैसे तो प्रकृति से प्यार करने वालों को प्रकृति के किसी भी रुप में कविगुरु मिल जाते हैं लेकिन जिस प्रकृति को देखकर वे एक सुंदर गाना ही लिख डाले, उस प्रकृति का सौंदर्य कुछ और ही है। बीरभूम का यह मनो-मुग्धकारी स्थान है ‘खोआई’। अभी यह गांव से जुड़ा हुआ है और यहां संथालियों या गांव-वासियों की छोटी-छोटी झोपड़ियां देखने को मिल जाती हैं लेकिन कविगुरु के लिखे गाने से पता चलता है कि जिस समय रवीन्द्रनाथ मौजूद थे शायद उस दौरान यह गांव से अलग एक वीरान जगह थी। गांव को छोड़कर लाल माटी के बने हुए सुंदर पथ से मोहित होकर ही कविगुरु लिख बैठे होंगे , “ग्राम छाड़ा ओई राँगा मांटीर पथ, आमार मोन भुलाए रे..........।”
हां...कविगुरु मोहित हुए थे इसी लाल माटी के बने हुए पथ को शायद घंटो निहारकर। इस पथ से गुज़रते हुए एक तरफ नहर का शांत और सौम्य जल है जो काफ़ी आकर्षित करता है। नहर का यह जल एक आवाज़ करते ‘झोरा’ (छोटी झरना) से बहता हुआ आता है। पथ के दोनों ओर पंक्तिबद्ध लेकिन अपने मिज़ाज में खड़े सोनाझुरी पेड़ दिखाई देते हैं। सुबह की पहली किरण जब इन पेड़ों पर पड़ती है तब लगता है मानो समस्त पेड़ सोने के रंग में रंगकर सोना ही हो उठा हो। लाल पथ के दूसरे तरफ वनस्पतियों का फैला समूचा संसार है। वनस्पतियों के बीच ही एक छोटी थरथराती-कांपती नदी को पार करते हुए कुछ दूरी में ‘खोआई’ दिखाई दे जाता है।‘खोआई’ बांग्ला शब्द है जिसका अर्थ है – ‘ घिसकर कम हो जाना।’ दरअसल दूसरी तरफ से बहने वाला नहर का पानी भीतर से बहता हुआ उल्टे तरफ आता है और मिट्टी घिस-घिसकर अलग-अलग जगहों से बह जाती है और इसके कारण एक असाधारण भास्कर्य की सृष्टि होता आया है। एक विशाल क्षेत्र को लेकर बना यह प्राकृतिक भास्कर्य अपूर्व व अद्वितीय सौंदर्य-संपन्न है। ऐसा लगता है जैसे मिट्टी ने परत-दर-परत घिसते-घिसते अलग-अलग आकार व आकृति में अपना सौंदर्य खोलकर हमारे सामने बिखेर दिया हो। उसी सौंदर्य में वनस्पतियां उगकर अपना अलग स्थान बनाकर मिट्टी की सुंदरता को और अधिक निखार रहा हो। बड़े खोआई के पास फैले अनेकों छोटे-छोटे खोआई भी दूर तक दिखाई देंगे। खोआई के पास ही दूर-दूर तक यूकलेप्टस के अनगिनत पेड़ दिखाई देते हैं।इन यूकलेप्टस के पेड़ों के बीच अनेकों अद्भूत व शहरों में लुप्तप्राय पक्षियों को देख-देखकर मन उमंग से भर उठता है। इस परिवेश को निहारते हुए, महसूस करते हुए केवल कविगुरु के लिखे गाने ही होठों पर आ रुकते हैं।मन होता है कि सोचूं....यह वही जगह है जिसे विश्व-कवि कभी उपभोग किया करते थे,जिसका आनंद हृदय में अनुभव कर उनकी असंख्य कविताएं निसृत हुआ करती थीं। खोआई को देखते-देखते कब कहां किस बांक में कौन-सा विचित्र सौंदर्य देखने को मिल जाए यह कहना मुश्किल है। तभी खोआई पर लिखी कविगुरु की ये पंक्तियां सार्थक लगती है, ‘ओ कोन बांके कि धन देखाबे, कोनखाने कि दाय ठेकाबे, कोथाय गिये शेष मेले जे, भेबेइ ना कुलाय रे आमार मोन भुलाए रे।’
रानी चंद(चोंदो) जो शांतिनिकेतन में शुरु के दिनों की कला-भवन की छात्रा और नंदलाल बसू और रवीन्द्रनाथ की शिष्या थीं, के अनुसार नंदलाल बसू समेत शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं हर साल खोआई में पिकनिक करने जाया करते थे।इसी से समझा जा सकता है कि खोआई का अपना एक आकर्षण है। रानी चोंदो के अनुसार एक समय नंदलाल बसू के परामर्श से ही विश्वभारती के कला भवन के विद्यार्थी खोआई से मिट्टी जुगाड़ कर ले जाते थे।अंकन के लिए विभिन्न रंगों की मिट्टी से रंग बनाया करते थे, जैसे काली मिट्टी से काला रंग, लाल मिट्टी से लाल रंग आदि। वस्तुतः अवनींद्रनाथ ठाकुर के कहने से ही घर में यानि शांतिनिकेतन में रंग बनाने का सिलसिला शुरु हुआ जिससे कि रंगों के लिए विदेशों पर आश्रित न रहना पड़े।
खोआई में चलते-चलते हल्की धूप मेरे चेहरे पर आ ठहरती है।लाल माटी के पथ से गुज़रने वाले यात्री कभी पैदल सिर पर बोझ लेकर, कभी साइकिल में, कभी गाड़ी या ट्रैक्टर में चकित भाव से हमें देख-देखकर गुज़रने लगते हैं।उनकी आंखों में कौतूहल स्पष्ट दिखाई देता है लेकिन कोई अशालीन भाव-भंगिमा नहीं। ग्रामीण या आदिवासी पुरुषों द्वारा शहरी स्त्रियों को देखकर किया गया कोई अभद्र आचरण या इंगित तो बिलकुल ही नहीं। शायद इसीलिए शांतिनिकेतन दूसरे जगहों से अलग है। ये आदिवासी लोग कर्मरत हैं लेकिन ये शहरी व्यस्तता से कोसों दूर हैं।इन्हें नहीं पता थकान किसे कहते हैं, व्यग्रता किसे कहते हैं, ये काम करते रहते हैं लेकिन व्यस्त होने का शहरी दिखावा नहीं करते।
यूकलेप्टस वन से आगे जाकर शाल-वन मिल जाएंगे। फिर आदिवासियों (संथालियों) का गांव।‘खोआई’ शीर्षक कविता में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं, ‘एई शालबोन, एई एकला स्वभाबेर तालगाछ/ ओई सोबुज माठेर संगे रांगा माटिर मिताली..।’ नहर में धीर गति से बहने वाले पानी को निहारते हुए जब मैंने रवीन्द्रसंगीत छेड़ा तो जाने क्यों ऐसा लगा कि रवीन्द्रनाथ मेरे आस-पास ही कहीं है।सच है कि यहीं आकर विश्वकवि को अनुभव किया जा सकता है। यहां की शांत प्रकृति हृदय को आंदोलित करने की क्षमता रखती है।
नहर के उल्टे तरफ छोटे पत्थर हैं जहां बैठ कर आराम किया जा सकता है।कविगुरु को प्रकृति में किसी तरह का बंधन पसंद नहीं था,शायद इसीलिए बाद में खोआई में तीन-चार मुक्त भास्कर्य(पक्षियों के) स्थापित किया गया।दर्शकों के लिए बने इस जगह से कुछ आगे बढ़कर एक शांत छोटी नदी देखने को मिलेगी जो अपनी खूबसूरती में बेजोड़ है।आसपास छोटे खोआई और बीच में लाजवाब मीठी-सी नदी। खोआई में ही एक जगह ‘सुप्रीयो ठाकुर’ का आश्रम मिल जाता है। गांव के लोग इन्हें काफ़ी मानते हैं। खोआई में हर शाम चार बजे से ‘बाउल गान’ होता रहता है।
खोआई से आगे बढ़कर जहां रास्ता खत्म होता है वहां से दाहिने मुड़कर ‘आमार कुठी’ की तरफ जाया जा सकता है।यहां भी स्थानीय लोगों के बाउल गानों के मज़े लिए जा सकते हैं ।पंक्तिबद्ध सफेद सुंदर हंस देखे जा सकते हैं और कोपाई नदी के पास फैले मनमोहक शरदकालीन काश-फूल तो जैसे अपने पास खींचती है। खोआई से लौटते समय बाईं तरफ का रास्ता सीधे ‘कोपाई’ नदी की ओर जा रहा है।विभिन्न वनस्पतियों से भरा यह जगह अपने आप में असामान्य है।यह एक सुंदर नदी है जहां कविगुरु घंटो समय बिताया करते थे।गांववाले इस नदी का भरपूर उपयोग करते हैं। नदी के आस पास विभिन्न तरह के पेड़ दिखाई देते हैं। यह नदी अनेक दूर तक यात्रा करती है और इसका दूसरा छोड़ ‘आमार कुठी’ की तरफ देखा जा सकता है।
शांतिनिकेतन में कविगुरु के घर काफ़ी आकर्षित करते हैं। सुरेन कर (रवीन्द्रनाथ का इंजीनियर) के हाथों बने विभिन्न असाधारण मॉडेल के घर जो रवीन्द्रनाथ के निर्देशन में ही बनाए गए हैं, अपने मौलिक सौंदर्य से भरपूर है। मज़ेदार है सोचना कि रवीन्द्रनाथ तीन महीने से ज़्यादा किसी घर में रहना पसंद नहीं करते थे। वे घर परिवर्तित करते रहते थे और घर बनाने वाला सुरेन था।विभिन्न ऋतुओं के हिसाब से कविगुरु अपने घर का खुद मॉडेल बनाया करते थे। उनके सबसे पहले घर का नाम है ‘कोनार्क’। कोनार्क बेहद सुंदर घर है। कोनार्क से बाहर निकल कर एक शिमुल का पेड़ है जिसके पास कभी ‘माधवी-लता’ उग आया था और कविगुरु इसे ही देखकर एक असाधारण कविता लिखे थे।वो माधवी-लता अभी भी मौजूद है। इसी तरह ‘उदयन’, ‘उदीची’, ‘विचित्रा’, ‘पुनश्च’, ‘श्यामली’ नाम से घर हैं। सबसे अंतिम घर है ‘उदीची’। ‘पुनश्च’ की बनावट बौद्ध स्थापत्य पर आधारित है। सफेद रंग का यह घर आधे खुले आधे बंद तरीके से बना है।यह अद्भूत घर बेहद खींचता है।हर एक घर अपनी मौलिक विशेषता लिए दिखाई देता है।
घरों को देखने के बाद रिक्शा लेकर गेस्ट हाउस लौटते समय एक रिक्शेवाले को सुमधुर बांसुरी बजाते देख और सुन लिया। सुना था कि बीरभुम की भूमि में जगह-जगह प्रतिभाएं फैली हुई है, उस समय वह साक्षात हो गया। यहां लोगों का साधारण स्वभाव है लेकिन आसाधारण प्रतिभा। काश यह साधारण स्वभाव शहरी लोगों के पास भी हुआ होता।
शांतिनिकेतन के पाठ-भवन में पीले पोशाक में घेर कर बैठे छात्र-छात्राएं कितने सुंदर लगते हैं।पेड़ के नीचे सूर्य की स्थिति के अनुसार शिक्षकों की कुर्सियां(पत्थर) बनाई गईं हैं और बिना पंखे के,डेक्स के मिट्टी में बच्चे बैठे हुए हैं। उन्हें कोई शिकायत नहीं, उनमें कोई झल्लाहट नहीं, कोई विरक्ति नहीं। उन्हें शांतिनिकेतन से प्यार है,प्रकृति से आत्मीयता का रागात्मक संबंध है। कितना अच्छा लगता है सोचना कि अभी तक रवीन्द्रनाथ द्वारा बनाए गए नियम यानि मुक्त प्रकृति में पढ़ाई करना, को यहां माना जा रहा है। इसी समय एक दिलचस्प घटना घटी। जब मैं और अनुमिता पेड़ की छांव के नीचे से शांतिनिकेतन को देखते हुए जा रहे थे तो छात्राओं का एक दल जो हमारे साथ ही चल रहा था, अचानक छांव वाला रास्ता छोड़कर हरे मैदान में कड़ी धूप में टहलते हुए चलने लग गए। पहुंचे भी हमारे बाद। मैं हतवाक् देखती रही, समझ नहीं पाई इसका रहस्य कि छांव को छोड़कर कड़ी धूप में कोई टहलते-टहलते कैसे चल सकता है। शायद शांतिनिकेतन की छात्र-छात्राएं प्रकृति को उपभोग करना जानते हैं। 
इसके अतिरिक्त शांतिनिकेतन में रामकिंकर बेज के स्थापत्य देखने लायक है। कला-भवन के भीतर ‘कालोबाड़ी’ है जो पूरा काला है लेकिन खूबसूरत स्थापत्य से भरा है। ‘तालभाज’ नाम से एक घर है जिसके बीच में ताड़ का पेड़ खड़ा है।यह मिट्टी का बना घर है। म्यूज़ियम है जहां रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसू की स्मृतियों का संसार है।विभिन्न देशों से रवि ठाकुर को मिले उपहार संग्रहीत हैं। ‘उपासना गृह’ बेहद सुंदर है लेकिन यह हर समय नहीं खुलता। ‘दोल’(होली), पुस के मेले(पौस-मेला) के समय जब शांतिनिकेतन असाधारण सौंदर्य से भर जाता है और अन्य विशेष अवसरों पर उपासना गृह खुलता है।
ज़्यादातर मामलों में मैंने देखा कि अधिकतर लोग शांतिनिकेतन में आकर म्यूज़ियम और रवीन्द्रनाथ के घर देखकर लौट जाते हैं। लेकिन मेरे अनुसार रवीन्द्रनाथ शांतिनिकेतन और बीरभुम की प्रकृति में रचे-बसे हैं और उसे महसूस करने के लिए रवि ठाकुर के घर के अलावा खोआई ,कोपाई नदी और पूरे इलाके में फैली प्रकृति को देखना ज़रुरी है।बीरभुम की भूमि में फैले वनस्पतियों के संसार से अनुभूत होना ज़रुरी है। बिना प्रकृति के रवीन्द्रनाथ शून्य हैं, इसीलिए रवीन्द्रनाथ को फ़ील करने के लिए प्रकृति में हमें बार-बार लौटना होगा, प्रकृति में जीना होगा। पेड़ों में, लताओं में, नदियों में, बालू में, मिट्टी में, हवा में रवीन्द्रनाथ मिलेंगे। जिस बीरभुम से मोहित होकर वे ज़िंदगी भर के लिए यहां बस गए थे, उसे देखना और देखकर समझना ज़रुरी है। इसलिए मेरे अनुसार प्रकृति के साथ रवीन्द्रनाथ के निविड़तम संपर्क को अनुभव करना ही शांतिनिकेतन को देखना है।

Thursday 6 December 2012

एकल परिवार और स्त्री – सारदा बनर्जी


                                

आज के ज़माने में स्त्रियों के लिए एकल परिवार एक अनिवार्य शर्त बन गया है। स्त्री की आत्मनिर्भरता और सामाजिक गतिशीलता के विकास के लिए एकल परिवार बेहद ज़रुरी है। संयुक्त परिवार में स्त्रियों के पास अपने लिए समय नहीं होता। अपने आप को समझने और अपनी प्रतिभाओं के विकास का उन्हें बिल्कुल ही मौका नहीं मिलता। लेकिन एकल परिवार में स्त्री के पास यह निजी स्पेस होता है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को समय दें, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को डेवलप करें और सामाजिक तौर पर अपनी एक अलग प्रतिष्ठा का निर्माण करें। ये सारी सुविधाएं संयुक्त परिवार में स्त्री के पास नहीं होता चूंकि उसका अधिकांश समय परिवार यानि ससुरालवालों की देख-रेख में खर्च हो जाता है। साथ ही उसकी आज़ादी में हर समय हस्तक्षेप होता रहता है। सास, ननद और दूसरे सदस्यों के द्वारा उसके हर एक काम में हर पल निगरानी रखी जाती है।
देखा जाए तो आज एकल परिवार की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, चाहे दूसरे राज्य में नौकरी मिलने की वजह से हो या पारिवारिक कलह की वजह से दम्पति स्वतंत्र रहने लगे हों। नवीनतम आँकड़ों (कंसेंसस 2011) के अनुसार उत्तर प्रदेश में 27 प्रतिशत, राजस्थान में 25 प्रतिशत, हरियाणा में 24.6 प्रतिशत, पंजाब में 23.9 प्रतिशत, गुजरात में 22.9 प्रतिशत, बिहार और झारखंड में 20.9 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश में 20 प्रतिशत संयुक्त परिवार पाए गए हैं। जबकि दक्षिण भारत के राज्यों में संयुक्त परिवार की संख्या इससे भी कम दिखाई देती है। आंध्र प्रदेश में 10.7 प्रतिशत, तमिलनाडु में 11.2 प्रतिशत, पोंडिचेरी में 11.4 प्रतिशत, कर्णाटक में 16.2 प्रतिशत और केरल में 16.6 प्रतिशत। वहीं पश्चिम बंगाल में 15.5 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 17.6 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 17.7 प्रतिशत, उड़ीसा में 12.32 प्रतिशत और गोआ में 12.6 प्रतिशत संयुक्त परिवार मौजूद हैं। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है और लोग इसे ज़्यादा प्रेफर कर रहे हैं।
आम तौर पर एकल परिवार की महत्ता की बात सभी जगह की जाती है लेकिन एकल परिवार की अनेक दिक्कतें और तकलीफें भी हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता। इन असुविधाओं पर ध्यान देना बहुत ज़रुरी है। मसलन् यदि पति-पत्नी दोंनों जॉबहोल्डर हैं तो बच्चों के देख-रेख में एक स्वाभाविक परेशानी आ जाती है। वे सारा दिन किसके पास रहेंगे या बच्चे स्कूल से कैसे अकेले आएंगे या आ जाते हैं तो आकर अकेले कैसे अपना काम करेंगे आदि। बच्चे भी स्कूल से घर आकर जब मां-पिता को घर नहीं पाते तो वे अकेलापन महसूस करते हैं। दूसरी ओर एकल परिवार की जो स्त्रियां घर में रहती हैं वे अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पातीं। स्वभावत: वे भी मानसिक तौर पर अकेलेपन को झेलती हैं। हर एक छोटे से लेकर बड़े काम इन स्त्रियों को खुद करने पड़ते हैं। जहां संयुक्त परिवार की यह सुविधा रहती है कि आपका कोई छोटा-सा भी काम हो तो परिवार के किसी भी सदस्य को आप बाहर भेज दीजिए। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं। फलत: यह ज़रुरी बन जाता है कि एकल परिवार की सुविधा का उपभोग करने के लिए हम अपने माइंटसेट में परिवर्तन करें। चूंकि एकल परिवार एक आधुनिक संस्था है इसलिए यह आधनिक रवैये की मांग करता है। जब तक हम आधुनिक व्यवहार को डेवलप नहीं करेंगे तब तक एकल परिवार हमारे जीवन में दिक्कतें बढ़ाती जाएंगी। जब हमारे पास असुविधाएं होगीं तो उसे सोल्व करने के लिए हमें आधुनिक संस्थाओं और वैज्ञानिक उपायों और पद्धियों की शरण में जाना होगा। इसलिए एकल परिवार की सुविधाओं को उठाते हुए उसकी दिक्कतों को आधुनिक उपायों द्वारा समाधान करना होगा।
अक्सर देखा जाता है कि मां और पिता के नौकरी करने से बच्चों के घर में रहने की समस्या आती है तो विकल्प के रुप में घर में केयरटेकर रखा जा सकता है जो चौबीसों घंटे बच्चों की देखभाल कर सकते हैं। ऐसी सुविधाएं आज उपलब्ध हैं। ऐसी भी संस्थाएं हैं जहां बच्चे कुछ देर के लिए रखे जा सकते हैं। साथ ही मां-पिता के लिए यह ज़रुरी बन जाता है कि वे जब घर लौटे तो अपना कीमती वक्त़ बच्चों को दें। उन्हें खुश रखने की भरपूर कोशिश करें, उन्हें बाहर घूमाने ले जाएं। जो स्त्रियां घर में रहती हैं उन्हें अपने मन बहलाव के लिए विकल्प को ढूँढ़ना चाहिए। ऐसे विकल्प जिससे वे खुश रहें और अपनी प्रतिभाओं को समृद्ध कर सकें, अपने ज्ञान में इज़ाफा कर सकें, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। यदि बुखार आए तो बगैर किसी की सेवा लिए डॉक्टर से कंसल्ट करें। साधारणत संयुक्त परिवारों में किसी सदस्य को बुखार आने पर परिवार-वाले ही मरीज की देख-रेख और सेवा करते हैं, डॉक्टर घर बुला लाते हैं, खाना पास आ जाता है। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं है। कारण स्त्री यहां अकेली होती है, इसलिए उसे खुद ही अपना ख्याल रखना होता है। एकल परिवार में अनेक छोटे-छोटे कामों को निपटाने के लिए भी विभिन्न व्यक्तियों की मदद ली जा सकती है। मसलन् अगर एकल परिवार में रहने वाली स्त्री को बिजली का बिल जमा करना है तो वह खुद नहीं करके किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है जो यह काम कर दें। हो सकता है उसे कुछ पैसे देने पड़े लेकिन हर महीने के झंझट से उस स्त्री को मुक्ति मिल जाए।
यानि हमारे भीतर जो ट्रैडिशनल तरीके से काम करने का पुराना अभ्यास था उसे चेंज करना होगा। साथ ही नए तरीके का विकास कर उसे दैनंदिन जीवन में लागू करना होगा। तभी एकल परिवार की समस्याओं से हमें निजात मिलेगा। क्योंकि एकल परिवार ही एक ऐसी जगह है जहां स्त्री अपनी अस्मिता को पहचान सकती है, उसका विकास कर सकती है। संयुक्त परिवार स्त्री के दोयम दर्जे की भावना को बनाए रखने में मददगार होता है जबकि एकल परिवार स्त्री को यह स्पेस देता है कि वह अपने अस्तित्व को जानें, पहचानें और अपने आप को मूल्य दें। साथ ही अपने बच्चों को समय दें। संयुक्त परिवार में स्त्री केवल काम करने वाली एक यंत्र होती है जबकि एकल परिवार में वह स्वंय हर काम न कर विभिन्न ऑपशनस् का इस्तेमाल कर सकती है।   

पुस्तक और अवसरवाद

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