Wednesday 22 May 2019

सोश्यल मीडिया और बधाईवादी


यह बधाईवाद का युग है। आभासी माध्यम में किसी की सद्य प्रकाशित पुस्तक, प्रकाशित आलेख पर आप बधाई और शुभकामनाएँ न दें तो आप असामाजिक और अन्य की उपलब्धि और खुशियों पर ईर्ष्या करने वाले व्यक्तित्व माने जा सकते हैं। एक समय था जब किताब आने पर लोगों में उसके पठन की आदत थी। अब किताब के प्रकाशक की जानकारी लेना, अनुक्रम देखना, किताब मंगवाना, उसे खरीदकर पढ़ना, पढ़कर आलोचना करना मूल्यहीन हो गया है। प्रकाशित आलेख को पढ़ना महत्व नहीं रखता; आलेख का छपना महत्वपूर्ण है। आलेख में परिश्रम दिखाई दे रहा है या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है; महत्व रखता है छपना। ध्यान रहे प्रकाशित आलेख पर ही आभासी बधाईयाँ मिलती हैं। इसी तरह किताब छपना ज़रूरी है। कई समय किताब छपने के नाम पर ही आप बुद्धिजीवी की श्रेणी में आ जाते हैं। तो महत्व की बात है कि बधाई ही परम सत्य है!

कई समय देखा गया है कि किसी लेखक ने पांच साल पुरानी अपनी किताब की जानकारी देते हुए फेसबुक में अपने पुस्तक की छवि डाली। बधाईवादियों ने त्वरित गति से आकर बिना कुछ पढ़े केवल चित्र के आधार पर उसे नई किताब मानकर बधाइयों का तांता लगा दिया। एक मिनट में पच्चीस बधाइयाँ। इस प्रकार बधाईवाद में अपार शक्ति है कि वह क्रमशः पुरानी किताब को ताज़ी किताब में रूपान्तरित कर दे और आपको बधाई-सागर में डुबकी लगाने पर मजबूर कर दें। आप लाख समझाएं बधाईवादी न माने कि पुस्तक पहले प्रकाशित हुई है। मान लेने पर वे बधाई कैसे दें? सनद रहे बधाईवादी केवल बधाई के शेर हैं।


आभासी माध्यम में मिठाई देखकर उसका आभासी स्वाद लेने का जो सुख है वही खोखला सुख लेखक को ‘बधाई’ नामक शब्द से मिलता है! आभासी में ‘बधाई’ प्राप्ति की कुल संख्या से भी लेखक की लोकप्रियता व प्रतिष्ठा का संबंध जुड़ गया है। यह बधाईवाद की परंपरा सोश्यल मीडिया यानि आभासी समाज से शुरु होते हुए दफ्तर और असली समाज तक व्याप्त हो गया है। लगातार बधाई पाते-पाते आप लोगों की नज़रों में अलग विशेषता रखते जाते हैं। सामान्य इंसान से महान लेखक की यात्रा तय करने लगते हैं। लेकिन यह बधाई देने वाले पढ़ते नहीं है, न किताब, न आलेख, वे केवल बधाई देते हैं। स्पष्ट है ज्ञानहीन बधाईवादियों के बीच में आप ज्ञान का परचम लहराते हैं और बधाईप्राप्ति से गदगद हो उठते हैं। जब ‘लेखन’ मूल्यहीन हो जाए और ‘बधाई’ मूल्यवान तो उस युग को हम ‘बधाईवाद’ का युग कहते हैं।

पुस्तक और अवसरवाद

  मध्यवर्ग में एक अच्छा खासा वर्ग है जो पुस्तकों को 'शो-केस' में सजाकर अन्य को प्रदर्शित करना पसंद करते हैं। लेकिन अपने ही शो-केस से...