कई समय देखा गया है कि किसी लेखक ने पांच साल पुरानी अपनी किताब की
जानकारी देते हुए फेसबुक में अपने पुस्तक की छवि डाली। बधाईवादियों ने त्वरित गति
से आकर बिना कुछ पढ़े केवल चित्र के आधार पर उसे नई किताब मानकर बधाइयों का तांता लगा
दिया। एक मिनट में पच्चीस बधाइयाँ। इस प्रकार बधाईवाद में अपार शक्ति है कि वह
क्रमशः पुरानी किताब को ताज़ी किताब में रूपान्तरित कर दे और आपको बधाई-सागर में
डुबकी लगाने पर मजबूर कर दें। आप लाख समझाएं बधाईवादी न माने कि पुस्तक पहले
प्रकाशित हुई है। मान लेने पर वे बधाई कैसे दें? सनद रहे बधाईवादी केवल बधाई के
शेर हैं।
आभासी माध्यम में मिठाई देखकर उसका आभासी स्वाद लेने का जो सुख है वही
खोखला सुख लेखक को ‘बधाई’ नामक शब्द से मिलता है! आभासी में ‘बधाई’ प्राप्ति की कुल
संख्या से भी लेखक की लोकप्रियता व प्रतिष्ठा का संबंध जुड़ गया है। यह बधाईवाद की
परंपरा सोश्यल मीडिया यानि आभासी समाज से शुरु होते हुए दफ्तर और असली समाज तक
व्याप्त हो गया है। लगातार बधाई पाते-पाते आप लोगों की नज़रों में अलग विशेषता
रखते जाते हैं। सामान्य इंसान से महान लेखक की यात्रा तय करने लगते हैं। लेकिन यह बधाई
देने वाले पढ़ते नहीं है, न किताब, न आलेख, वे केवल बधाई देते हैं। स्पष्ट है
ज्ञानहीन बधाईवादियों के बीच में आप ज्ञान का परचम लहराते हैं और बधाईप्राप्ति से गदगद
हो उठते हैं। जब ‘लेखन’ मूल्यहीन हो जाए और ‘बधाई’ मूल्यवान तो उस युग को हम ‘बधाईवाद’
का युग कहते हैं।