Thursday 4 April 2013

मणिपुर की ‘लौह महिला’ इरोम शर्मिला चानू और उसका संघर्ष


         

स्त्रियों को जब किसी महत्वपूर्ण उपाधि से नवाज़ा जाता है तो उसके पीछे एक ज़बरदस्त संघर्ष का किस्सा छुपा रहता है, उसके बलिदान की एक लंबी स्टोरी होती है। पुरुषों की तरह आसानी से कोई भी टैग उसके नाम से नहीं जुड़ जाता। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका इरोम शर्मिला के ज़ज्बे को देखते हुए उन्हें लोगों ने ‘आयरन लेडी’ या ‘लौह-महिला’ के नाम से मशहूर कर दिया। वजह यह है कि इरोम शर्मिला चानू पिछले 12 साल से मणिपुर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर ऐक्ट,1958 (ए.एफ.एस.पी.ए.) यानि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाए जाने की मांग कर रही है। इस एक्ट के तहत मणिपुर में तैनात सैन्य बलों को यह अधिकार प्राप्त है कि उपद्रव के अंदेशे पर वे किसी को भी जान से मार दें और इसके लिए किसी अदालत में उन्हें सफाई भी नहीं देनी पड़ती है। साथ ही सेना को बिना वॉरंट के गिरफ़्तारी और तलाशी की छूट भी है। 
इसी कानून को हटाने की मांग पर इरोम सन् 2000 से लगातार अब तक भूख हड़ताल पर है, उसने पिछले 12 साल से अन्न का एक दाना भी नहीं लिया है। दरअसल 1 नवंबर को इरोम एक शांति रैली के लिए बस स्टैंड पर खड़ी थी कि अचानक दस लोगों को सैन्य बलों ने भूनकर मार डाला। इस घटना का इरोम पर बहुत गहरा असर पड़ा। 29 वर्षीया इरोम चानू ने 2 नवंबर को ही आमरण अनशन शुरु कर दिया हालांकि 6 नवंबर को उन्हें 309 के तहत ‘आत्महत्या करने के प्रयास’ के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया गया। 20 नवंबर से उन्हें जबरन नाक में पाइप डालकर तरल पदार्थ दिया गया था। उसके बाद से इरोम को लगातार पकड़ा और रिहा किया जाता रहा है क्योंकि 309 धारा के तहत यह नियम है कि पुलिस किसी को भी एक साल से ज़्यादा जेल में कैद नहीं रख सकती। इसलिए साल के पूरे होने से पहले ही दो-तीन दिन के लिए उन्हें छोड़ दिया जाता है और फिर पकड़ लिया जाता है। पुलिस हर 14 दिन में हिरासत को बढ़ाने के लिए उन्हें अदालत ले जाती है। तब से अब तक इरोम का यह जीवन इसी तरह संघर्षपूर्ण बना हुआ है।
इस असाधारण मनोबल की वजह से इरोम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए हैं। साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों और नेताओं ने उन्हें समर्थन दिया है। सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार महाश्वेता देवी ने केरल के लेखकों के एक संगठन की ओर से जब शर्मिला की ओर से आए उनके भाई इरोम सिंघजीत को अवॉर्ड दिया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे वापस कर दिया। अवॉर्ड के तहत एक स्मृति चिह्न् और 50,000  रुपए का चेक दिया गया था। सिंघजीत ने कहा कि जब शर्मिला की जीत होगी तो वे खुद ही अवॉर्ड स्वीकार कर लेंगी।
प्रमुख सवाल ये है कि इरोम के पहले और बाद में भी कई बार देश में कई लोगों ने अनशन किए हैं और उनकी मांगे भी सरकार ने मान ली है या तो कोई उपाय ज़रुर हुआ है। तो क्या कारण है कि इरोम की मांगे मानी नहीं जा रही? वह पिछले 12 सालों से अनशन पर है लेकिन मीडिया में उसे लेकर कोई हलचल नहीं है, कोई समाचार नहीं है? उसे क्यों सीरियसली नहीं लिया गया? क्या इसका कारण इरोम का स्त्री होना है ? या यह कि इरोम के पास कोई सशक्त शख्सियतें नहीं है? या कि इरोम जिस मणिपुर राज्य के लिए मांग कर रही है वह मुख्यधारा से एक अलग राज्य माना जाता है। इसलिए मणिपुर राज्य के लिए किया गया मांग सरकार के लिए उतना महत्व नहीं रखता जितना दूसरे मुख्य राज्यों का।
यह सही है कि इस एक्ट के बिना कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की हालत बहुत गंभीर भी हो सकती है। लेकिन इरोम मणिपुर में हो रहे उत्पीड़नों के प्रतिवादस्वरुप जो मांग कर रही हैं वह जायज़ मांग है और वह भी अहिंसक तरीके से किया जा रहा है। यदि सरकार के लिए उसकी मांगों को पूरी तरह से मानना संभव नहीं था तो यह भी ज़रुरी था कि कोई न कोई उपाय किया जाता जिससे वहां बस रहीं जनता सुरक्षित रह सके। उन पर बेवजह ज़ुल्म न हो। ये कैसे संभव है कि बिना गुनाह के सिर्फ़ अनशन करने की वजह से किसी स्त्री को सालों-साल जेल में रहना पड़े? एक नागरिक होने की हैसियत से इरोम को अधिकार है कि वह अपने राज्य की सुरक्षा की गारंटी सरकार से मांगे। इसलिए यह बेहद ज़रुरी है कि इरोम को सम्मान देते हुए, उसके जज़्बे को सलाम करते हुए सरकार द्वारा उसकी मांगों को गंभीरता से लिया जाए। मणिपुर राज्य की असुरक्षा पर विचार किया जाए और वहां आम जनता की सुरक्षा के लिए सरकार ठोस कदम उठाएं।

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