Sunday 23 December 2012

पुसंवाद को कितना डिस्टर्ब करता है स्त्रीवादी सोच - सारदा बनर्जी


                     

क्या वजह है कि कोई स्त्री लेखिका जब पितृसत्ताक समाज के पुंसवादी रवैये की आलोचना करती हैं तो उन्हें पुरुषों की कटुक्ति का सामना करना पड़ता है? हमारा समाज अपने रवैये में बेहद पुंसवादी है और इस पुंसवाद के प्रभाव को स्त्रियां हर पल झेल रहीं हैं। लेकिन जब कोई स्त्री इन विषयों पर रौशनी डालती है या पुंसवाद की आलोचना पर लेख लिखती है तो उस पर इस तरह के कमेंट आते हैं, “लेख आपकी छोटी व कुंठित मानसिकता का परिचय देता है...” या फिर यह कहते हैं, “और एक ऐसी महिला का लेख लग रहा है... जो हर बुरी बात का श्रेय पुरुषों को देना चाहती हैं...।” यहां सवाल यह उठता है कि पुंसवादी समाज के डंक को तो स्त्रियां सदियों से झेल रही हैं और पितृसत्ताक मानसिकता की चक्की में वर्षों से पिस रही है लेकिन पुंसवाद की एक सामान्य सी जायज़ आलोचना पुरुष या कहें पुंसवादी मानसिकता के पुरुष क्यों नहीं ले पाते?
यह भी सर्वज्ञात है कि भले ही भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार की घोषणा करता हो लेकिन स्त्री आज भी पुरुषों के समकक्ष नहीं है। वे सभी अधिकार जो एक पुरुष को जीवन के प्रथम क्षण से मिलता है स्त्रियों को नहीं मिलता। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर उसे यह अहसास करा दिया जाता है कि वह स्त्री है। जैसा कि सीमोन द बोउवार ‘द सेकेंड सेक्स’ में कहती हैं, “One is not born, but rather becomes, a woman.”  आज इक्कीसवी सदी में भी स्त्रियों को स्त्री-पुरुष समानता की बातें हवाई लगती है क्योंकि वे जानती हैं कि हकीकत क्या है। उल्लेखनीय है कि यदि स्त्री-पुरुष समानता की हिमायत में कोई स्त्री लेख लिखती है तो उसे इस तरह के कमेंट्स को फ़ेस करना पड़ता है, “आम और नारंगी दोनों फल है, पर आम=नारंगी नहीं, न हो सकती है। नर=नारी नहीं है।” साथ ही इस तरह के पुंसवादी विचारों से लैस पुरुषों को स्त्री-पुरुष सामनता की बात पश्चिम से उधार ली गई लगती है। लिखते हैं, “ इन्हें समानता के लिए लड़वाने वाला पश्चिम आपस में वैर भाव जागृत कर कर, जन-मानस को ऐसा कलुषित कर चुका है, कि समानता की लड़ाई में परस्पर प्रेम का अंत हो रहा है, और कुटुंब संस्था नष्ट हो रही है।”  ध्यानतलब है कि परस्पर प्रेम के अंत का दोष भी ठीक स्त्रियों के सिर ही मढ़ा जा रहा है हालांकि वे समानता यानि अपने हक के लिए लड़ रही होती हैं। स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी टिप्पणी है, “स्त्री स्वतंत्रता के इन पश्चिम प्रेरित आन्दोलनों के प्रभाव से भारत की स्त्रियों का सम्मान बढना तो क्या था, उसे हर मंच पर निर्वस्त्र करने का काम बोल्डनैसके नाम पर हो रहा है। लीव इन रिलेशनशिप को बढावा देकर उसकी दशा वेश्याओं जैसी बनाने में कोई कसर नहीं रखी जा रही और यह सब हो रहा है, स्त्री की स्वतंत्रता व समानता के नाम पर।”
स्पष्ट होता है कि ‘स्त्री’ आज भी पुरुषों के लिए मूल्यहीन और चलताऊ है। स्त्रियों की समानता की बात पुरुषों को कितना परेशान करता है। यदि कोई प्रगतिशील या स्त्री-मुक्ति के विचार जनसमक्ष रखे जाते हैं तो उसमें ये पुंसवादी मानसिकता के पुरुष पश्चिम का प्रभाव ढूँढ़ने लगते हैं। उससे भी बड़ी बात यह कि किसी स्त्री द्वारा लिखे गए सच को स्वीकार करना पुरुषों के लिए कितना कठिन है। यही कायदे से यह प्रमाणित कर देता है कि भारतीय समाज मानसिकता और व्यवहार में घोर पुंसवादी है।
स्त्री अस्मिता की बात करते ही इन्हें पश्चिम दिखाई देता है। वकतव्य पढ़ें, “लेखिका में लेखन की प्रतिभा तो है पर वे मैकालियन शिक्षा के प्रभाव में आकर भारतीय समाज की अच्छाईयों, स्त्रियों के गुणों में भी दोष ही दोष देखने की नकारात्मक मानसिकता की शिकार हो गयी हैं।”  
अब इन जनाबों को कोई समझाए कि स्त्री मुक्ति की बात भारत में स्त्री मुक्ति के पक्षधर वर्षों से करते आएं हैं लेकिन इन पक्षधरों की बात पुंसवादी कानों तक कभी नहीं पहुंची। इसलिए इन्हें स्त्री-मुक्ति की बातों में मैकालियन शिक्षा का प्रभाव दिख रहा है। साथ ही जिन क्षेत्रों में व्रतों के नाम पर स्त्रियों का शोषण होता आया है उस पर लिखना भी इनके हिसाब से स्त्रियों को दोष देना है। यानि इनके अनुसार चुपचाप पुरुषों की मंगलकामना के लिए व्रत करना स्त्रियोचित गुण है। इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लिखते हैं, “आपको किसने कहा की स्त्रियों को व्रत आदि रखने की लिए विवश किया या उकसाया जाता है…?… यह सब वे अपने मर्ज़ी और ख़ुशी से करती हैं।”
अगर आप स्त्रियों के आधुनिक आचरण और आधुनिक व्यवहार की बात करें तो उनका सवाल होता है, “आधुनिक व्यवहार और आधुनिक आचरण से आप क्या अर्थ करती है? उदाहरण दे, तो सही समझ पाए| इसके लिए, कोई पुस्तक पढ़नी होगी क्या?” या फिर “स्वच्छंदता और मुक्तता का अर्थ आप क्या करती है? इन दोनों में कोई अंतर है क्या ? हो, तो, उस अंतर को स्पष्ट करें|तो महाशय इसका उत्तर पाना हो तो भारतीय संविधान को गौर से पढ़िए जहां इसकी बातें कही गई हैं। जायज़ है यह स्त्री-विरोधी मनोदशा है जो किसी तरह से स्त्री-मुक्ति का पक्षधर नहीं है। और सवाल करना भी बाकायदा पुंसवादी मनोदशा को दर्शाता है। आपको पुरुषों की स्वच्छंदता और मुक्तता अच्छी लगती है लेकिन जब स्त्रियों की बात की जाती है तो ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं। स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष समानता की बात इनकी समझ से परे है क्योंकि ये आदतन मजबूर हैं स्त्रियों को पिछड़ा हुआ देखने और बनाए रखने में। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, “स्त्री और पुरुष में समानता हासिल करना तब तक संभव नहीं है जब तक गैर-लिंगीय रुप में सोचते रहेंगे। दायित्वों एवं अधिकारों का प्रत्येक लिंग के लिए अलग-अलग विभाजन जब तक बना रहेगा वे भिन्न बने रहेंगे।” मूल बात हमारे दृष्टिकोण की है। इसलिए बदलाव हमारे सोच में लाना होगा। स्त्री के प्रति आधुनिक नज़रिया विकसित नहीं करेंगे तो रुढिवादी बातें ही करते जाएंगे। समानता के सिद्धांत को समझने के लिए लिंगीय रुप में सोचना होगा तभी स्त्री अस्मिता, स्त्री-स्वच्छंदता, स्त्री-मुक्तता, स्त्री-अस्तित्व की बात पुंसवादी समझ पाएंगे।

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