Monday 10 September 2012

नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क




 नरेन्द्र मोदी के स्त्री- कुपोषण के पुंसवादी तर्क- सारदा बनर्जी



हाल ही में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी दैनिक 'वाल स्ट्रीट जर्नल' को दिए साक्षात्कार में स्त्री-कुपोषण पर बयान दिया कि गुजराती मध्यवर्गीय औरतें स्वास्थ्य की तुलना में सुंदरता के प्रति ज़्यादा जागरुक है। उन्होंने कहा कि यदि मां अपनी बेटी से कहती है कि दूध पीओ तो वह लड़ती है और कहती है कि वह नहीं पीएगी चूंकि इससे वह मोटी हो जाएगी। यहां सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या स्त्री-कुपोषण की समस्या महज सुंदरता की समस्या है? यदि ऐसा है तो बच्चों में कुपोषण क्यों है ? आदिवासी स्त्री मध्यवर्ग में नहीं आती उनमें कुपोषण की मात्रा सबसे अधिक पाई गई है ।  इसलिए सिर्फ मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर कुपोषण को देखना गलत है।
               आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति बदतर है जबकि गुजरात भारत का तेज़ी से विकास करने वाला राज्य है। 2005-2006 के दौरान हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक गुजरात में 5 साल के नीचे 45 प्रतिशत बच्चों का वज़न कम पाया गया ।  पूरे देश के स्तर पर आंकड़े के हिसाब से 52 प्रतिशत कमवज़न वाले बच्चे गुजरात से है बाकि 48 प्रतिशत पूरे देश से। जहां राष्ट्रीय औसत के हिसाब से स्त्रियों में खून की कमी का प्रतिशत 1.8 है ,वहां गुजरात में यह प्रतिशत बढ़कर 2.6 है। भारत की  मानव विकास रिपोर्ट- 2011 ,के मुताबिक गुजरात भुखमरी में 13 वें नंबर पर है यानी उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम से भी नीचे है।
               ध्यान देने की बात है कि भारत में स्त्रियों में व्याप्त कुपोषण एक गंभीर चुनौती है जिस पर चर्चा नहीं होती।इस मसले पर कभी राजनीति में चुनाव नहीं लड़ा जाता।मसलन् यदि गुजरात की समस्या पर बात करनी है तो सांप्रदायिकता की समस्या पर बहस होती है,स्त्री के कुपोषण पर नहीं। हमारे यहां स्त्री के सवाल अभी तक राजनीति के सवाल नहीं बन पाए हैं।इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में राजनीति पुंस अधिकार-क्षेत्र तक ही सीमित है।चूंकि इस बार बयान नरेंद्र मोदी का था और निकट भविष्य में विधानसभा का चुनाव होने जा रहा है, इसलिए लोगों की नज़र स्त्री-कुपोषण के आंकड़ों की ओर गई।
             नरेंद्र मोदी का बयान पुंसवादी विचारधारा को व्यक्त करने वाला बयान है। कुपोषण का यह अजीब तर्क कम से कम एक मुख्यमंत्री का नहीं होना चाहिए।देखा जाए तो कुपोषण के लिए मुख्यमंत्री और प्रशासन की नीतियां ही ज़िम्मेदार हैं।  भारतीय ज़ेहन में बैठी पुंसवादी मानसिकता ज़िम्मेदार है। कायदे से हमें स्त्री-कुपोषण की समस्या को राजनीतिक और पुंसवादी दृष्टिकोण से परे जाकर देखना चाहिए।                    
             भारत में स्त्री कुपोषण का मुख्य कारण है स्त्री का हाशिए पर रहना, पुरुष के अधीन रहना और उसका अधिकारहीन होना। भारतीय परिवार का पूरा ढांचा पुंसवादी है। परिवारवाले जन्म के बाद से ही लड़का और लड़की में अनेक तरह के भेदभाव करने लगते हैं।लड़के को स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है,उसका खास ख्याल रखाजाता है।इसकी तुलना में लड़की पर कम ध्यान दिया जाता है। लड़की को गृहकार्य में निपुण और लड़के को पढ़ाई में तेज़ बनाने की कोशिश रहती है।लड़कियों की पढ़ाई को महत्व नहीं दिया जाता।उन्हें चलताऊ ढंग से पढ़ाया जाता है।इससे अनेक तरह की सुविधाओं से वे वंचित रह जाती हैं।उन्हें केवल अपनी सुंदरता पर ध्यान देने की बात सिखाई जाती है जिससे बड़े होने पर लड़की की विदाई में कोई परेशानी न हो, वह लड़केवालों को तुरंत पसंद आ जाए। स्वाभाविक तौर पर लड़की खाने और पढ़ने को छोड़कर विभिन्न तरह के लेप लगाने में और रुप-निखारने में लगी रहती है। धीरे-धीरे लड़कियों के जीवन में यह भेदभाव एक अंतरंग हिस्सा बन जाता है और वह इसकी अभ्यस्त हो जाती है।
            लड़कों की तुलना में लड़कियों का खाना मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होता है।प्रायः समस्त भारतीय परिवारों में यह नियम है कि स्त्री पुरुष के बाद भोजन करती है, इसका असर यह होता है कि स्त्री अंत में बचा-खुचा खाना खाती है । अपने पति, बेटे ,बुज़ुर्ग और परिवारवालों को खिलाने के बाद उसके पास खाने को सारवान खाना कम बचता है।इसका दूरगामी असर यह होता है कि घर में परिश्रम करने वाली औरतें आगे चलकर बेहद कमज़ोर हो जाती है। आगे चलकर उनमें आयरन और कैलशियम की कमी दिखाई देती है। फलतः खून और कैलशियम की कमी के कारण हड्डियां कमज़ोर हो जाती हैं और वे अनेक किस्म की तकलीफों को भोगती हैं। यहां तक कि गर्भवती औरतें और दूध पिलाने वाली माताएं भी लापरवाही की ही शिकार बनी रहती हैं।न पति देखभाल करता है न ससुराल वाले।उन्हें न हीं फल खिलाया जाता है न हीं पौष्टिक खाना जिसका असर आने वाले बच्चे पर पड़ता है। यही कारण है कि भारत में कुपोषण की मात्रा बच्चों और औरतों में सबसे अधिक है।यही हाल आदिवासियों का है।                                                
         यह सही है कि मध्यवर्गीय लड़कियों का एक छोटा सा भाग है जो सुंदरता और शरीर के रख-रखाव को लेकर बेहद सचेतन है।लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात है कि सुंदरता का जो मायाजाल मोदी ने गुजराता माता के बहाने बुना है वह पुंसवादी विचारधारा ने बनाया है।पुंसवाद से जितने प्रभावित पुरुष हैं उतनी ही स्त्रियां भी। असल में स्त्री की सुंदरता का तर्क पुरुष का तर्क है, ना कि स्त्री का। स्त्री स्वभावतः सुंदर होती है। स्त्रियों के दिलो-दिमाग में यह शुरु से बिठाया जाता है कि उसे कोमलांगी, लावण्यमयी, रुपवती, तन्वी होना है ,उसके ज़ेहन में बिठाया गया है कि यही स्त्री-जनित गुण है और पुरुष इसी से आकर्षित होंगे। इस बात को और पुष्ट करने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका है।स्त्रियों का एक छोटा भाग इसे मान लेता है और इससे आकर्षित भी होता है और कोमलांगी और सुंदर दिखने के चक्कर में वह अपने सेहत और स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देतीं।इसके दो तरह के असर हुए हैं, एक तो कम खाने की वजह से लड़कियां दुर्बल हो रही हैं। शारीरिक तौर पर दुर्बल होने के कारण वह बौद्धिक रुप से भी कमज़ोर हो जाती हैं।आए दिन उन पर हमले होते रहते हैं। दूसरी ओर उनका सामाजिक अस्तित्व भी खतरे में है।                                                
    स्त्री के कुपोषण की समस्या केवल सुंदरता की समस्या नहीं है।यह किसी एक मुख्यमंत्री की भी समस्या नहीं है क्योंकि पूरा देश कुपोषण से ग्रस्त है।प्रत्येक राज्य कुपोषण का शिकार है।यह समस्या पूरे देश में व्याप्त पुंसवादी दृष्टिकोण की देन है। इसलिए स्त्री कुपोषण की समस्या को हल करने के लिए पुंसवादी पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को बदलना पड़ेगा।पुंसवादी मानसिकता को त्यागना होगा।



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