Thursday 6 December 2012

एकल परिवार और स्त्री – सारदा बनर्जी


                                

आज के ज़माने में स्त्रियों के लिए एकल परिवार एक अनिवार्य शर्त बन गया है। स्त्री की आत्मनिर्भरता और सामाजिक गतिशीलता के विकास के लिए एकल परिवार बेहद ज़रुरी है। संयुक्त परिवार में स्त्रियों के पास अपने लिए समय नहीं होता। अपने आप को समझने और अपनी प्रतिभाओं के विकास का उन्हें बिल्कुल ही मौका नहीं मिलता। लेकिन एकल परिवार में स्त्री के पास यह निजी स्पेस होता है कि वह अपनी प्राथमिकताओं को समय दें, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को डेवलप करें और सामाजिक तौर पर अपनी एक अलग प्रतिष्ठा का निर्माण करें। ये सारी सुविधाएं संयुक्त परिवार में स्त्री के पास नहीं होता चूंकि उसका अधिकांश समय परिवार यानि ससुरालवालों की देख-रेख में खर्च हो जाता है। साथ ही उसकी आज़ादी में हर समय हस्तक्षेप होता रहता है। सास, ननद और दूसरे सदस्यों के द्वारा उसके हर एक काम में हर पल निगरानी रखी जाती है।
देखा जाए तो आज एकल परिवार की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, चाहे दूसरे राज्य में नौकरी मिलने की वजह से हो या पारिवारिक कलह की वजह से दम्पति स्वतंत्र रहने लगे हों। नवीनतम आँकड़ों (कंसेंसस 2011) के अनुसार उत्तर प्रदेश में 27 प्रतिशत, राजस्थान में 25 प्रतिशत, हरियाणा में 24.6 प्रतिशत, पंजाब में 23.9 प्रतिशत, गुजरात में 22.9 प्रतिशत, बिहार और झारखंड में 20.9 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश में 20 प्रतिशत संयुक्त परिवार पाए गए हैं। जबकि दक्षिण भारत के राज्यों में संयुक्त परिवार की संख्या इससे भी कम दिखाई देती है। आंध्र प्रदेश में 10.7 प्रतिशत, तमिलनाडु में 11.2 प्रतिशत, पोंडिचेरी में 11.4 प्रतिशत, कर्णाटक में 16.2 प्रतिशत और केरल में 16.6 प्रतिशत। वहीं पश्चिम बंगाल में 15.5 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 17.6 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 17.7 प्रतिशत, उड़ीसा में 12.32 प्रतिशत और गोआ में 12.6 प्रतिशत संयुक्त परिवार मौजूद हैं। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है और लोग इसे ज़्यादा प्रेफर कर रहे हैं।
आम तौर पर एकल परिवार की महत्ता की बात सभी जगह की जाती है लेकिन एकल परिवार की अनेक दिक्कतें और तकलीफें भी हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता। इन असुविधाओं पर ध्यान देना बहुत ज़रुरी है। मसलन् यदि पति-पत्नी दोंनों जॉबहोल्डर हैं तो बच्चों के देख-रेख में एक स्वाभाविक परेशानी आ जाती है। वे सारा दिन किसके पास रहेंगे या बच्चे स्कूल से कैसे अकेले आएंगे या आ जाते हैं तो आकर अकेले कैसे अपना काम करेंगे आदि। बच्चे भी स्कूल से घर आकर जब मां-पिता को घर नहीं पाते तो वे अकेलापन महसूस करते हैं। दूसरी ओर एकल परिवार की जो स्त्रियां घर में रहती हैं वे अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पातीं। स्वभावत: वे भी मानसिक तौर पर अकेलेपन को झेलती हैं। हर एक छोटे से लेकर बड़े काम इन स्त्रियों को खुद करने पड़ते हैं। जहां संयुक्त परिवार की यह सुविधा रहती है कि आपका कोई छोटा-सा भी काम हो तो परिवार के किसी भी सदस्य को आप बाहर भेज दीजिए। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं। फलत: यह ज़रुरी बन जाता है कि एकल परिवार की सुविधा का उपभोग करने के लिए हम अपने माइंटसेट में परिवर्तन करें। चूंकि एकल परिवार एक आधुनिक संस्था है इसलिए यह आधनिक रवैये की मांग करता है। जब तक हम आधुनिक व्यवहार को डेवलप नहीं करेंगे तब तक एकल परिवार हमारे जीवन में दिक्कतें बढ़ाती जाएंगी। जब हमारे पास असुविधाएं होगीं तो उसे सोल्व करने के लिए हमें आधुनिक संस्थाओं और वैज्ञानिक उपायों और पद्धियों की शरण में जाना होगा। इसलिए एकल परिवार की सुविधाओं को उठाते हुए उसकी दिक्कतों को आधुनिक उपायों द्वारा समाधान करना होगा।
अक्सर देखा जाता है कि मां और पिता के नौकरी करने से बच्चों के घर में रहने की समस्या आती है तो विकल्प के रुप में घर में केयरटेकर रखा जा सकता है जो चौबीसों घंटे बच्चों की देखभाल कर सकते हैं। ऐसी सुविधाएं आज उपलब्ध हैं। ऐसी भी संस्थाएं हैं जहां बच्चे कुछ देर के लिए रखे जा सकते हैं। साथ ही मां-पिता के लिए यह ज़रुरी बन जाता है कि वे जब घर लौटे तो अपना कीमती वक्त़ बच्चों को दें। उन्हें खुश रखने की भरपूर कोशिश करें, उन्हें बाहर घूमाने ले जाएं। जो स्त्रियां घर में रहती हैं उन्हें अपने मन बहलाव के लिए विकल्प को ढूँढ़ना चाहिए। ऐसे विकल्प जिससे वे खुश रहें और अपनी प्रतिभाओं को समृद्ध कर सकें, अपने ज्ञान में इज़ाफा कर सकें, अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। यदि बुखार आए तो बगैर किसी की सेवा लिए डॉक्टर से कंसल्ट करें। साधारणत संयुक्त परिवारों में किसी सदस्य को बुखार आने पर परिवार-वाले ही मरीज की देख-रेख और सेवा करते हैं, डॉक्टर घर बुला लाते हैं, खाना पास आ जाता है। लेकिन एकल परिवार में यह संभव नहीं है। कारण स्त्री यहां अकेली होती है, इसलिए उसे खुद ही अपना ख्याल रखना होता है। एकल परिवार में अनेक छोटे-छोटे कामों को निपटाने के लिए भी विभिन्न व्यक्तियों की मदद ली जा सकती है। मसलन् अगर एकल परिवार में रहने वाली स्त्री को बिजली का बिल जमा करना है तो वह खुद नहीं करके किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है जो यह काम कर दें। हो सकता है उसे कुछ पैसे देने पड़े लेकिन हर महीने के झंझट से उस स्त्री को मुक्ति मिल जाए।
यानि हमारे भीतर जो ट्रैडिशनल तरीके से काम करने का पुराना अभ्यास था उसे चेंज करना होगा। साथ ही नए तरीके का विकास कर उसे दैनंदिन जीवन में लागू करना होगा। तभी एकल परिवार की समस्याओं से हमें निजात मिलेगा। क्योंकि एकल परिवार ही एक ऐसी जगह है जहां स्त्री अपनी अस्मिता को पहचान सकती है, उसका विकास कर सकती है। संयुक्त परिवार स्त्री के दोयम दर्जे की भावना को बनाए रखने में मददगार होता है जबकि एकल परिवार स्त्री को यह स्पेस देता है कि वह अपने अस्तित्व को जानें, पहचानें और अपने आप को मूल्य दें। साथ ही अपने बच्चों को समय दें। संयुक्त परिवार में स्त्री केवल काम करने वाली एक यंत्र होती है जबकि एकल परिवार में वह स्वंय हर काम न कर विभिन्न ऑपशनस् का इस्तेमाल कर सकती है।   

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