Sunday 30 October 2022

आलोचक की सामाजिक भूमिका

 



कई सुधी जनमानस की राय है कि समाज की समस्याओं या बुराइयों को दृष्टिगत करके भी पूरी शिद्दत से उन्हें नज़रअंदाज़ करना चाहिए। अच्छी, मधुर और सुंदर-सुंदर चीज़ों को सहेजकर उन पर बातें की जानी चाहिए। रचनात्मक कार्यों में अपनी दक्षता को प्रमाणित करना चाहिए। बुरी बातों की आलोचना असल में समय का अपव्यय है। एक वाक्य में कहें तो समस्याओं से अवगत होकर भी आँख मूँदकर रहें, समाज की चिंता त्याग दें और अपना सृजनशील पेशेवर कर्म करें। सवाल यह है कि क्या इंसान सामाजिक प्राणी नहीं है? क्या समाज की समस्याओं का प्रभाव व्यक्ति की सृजनशीलता पर नहीं पड़ता? क्या व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता? क्या समाज की समस्याओं पर विचारशील लेखिकाओं का चुप रहना माकूल है?

इसे समझने की आवश्यकता है कि आलोचना अगर बुराई को लक्ष्य कर लिखा गया हो तथा उस बुरे के सुधार की गुंजाइश में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा हो, तब वह जनकल्याणमूलक होता है। हालांकि यह भी सत्य है कि गलत की आलोचना को समाज नज़रअंदाज़ कर दे और इसकी शत-प्रतिशत संभावना है! तब भी आलोचना का काम विवेकशील एवं जागरुक लेखिकाओं को मुसलसल करते रहना चाहिए। कारण यह वक़्त की माँग है और एक दायित्वशील नागरिक का कर्तव्यबोध भी।

इस संदर्भ में मुक्तिबोध याद आते हैं जिन्होंने अपने समय की तमाम समस्याओं पर कई निबंधों एवं कविताओं के माध्यम से बेबाक व्यंग्यात्मक चोट किया है। चाहे वह प्रोफेसर वर्ग पर हो, चाहे अवसरवादियों पर हो, चाहे मध्यवर्ग की कमज़ोरियों पर हो या फिर हिन्दी के विद्वानों या साहित्यिकों पर। मुक्तिबोध के इस चोट का लक्ष्य जाहिरा तौर पर किसी समुदाय, वर्गविशेष या व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्रोश प्रदर्शित करना नहीं था। इस संदर्भ में ‘आपने समाज को सुधारने का ठेका लिया है क्या?’, ‘क्या आपके लेखन से समाज सुधर जाएगा?’, ‘आपको कैसे पता क्या सही है और क्या गलत!’ इत्यादि वाक्य भी अर्थहीन है। प्रतिवाद एवं उसके फलस्वरूप बदलाव की उम्मीद ही है जो विवेकशील लेखिकाओं एवं लेखकों को प्रेरित करती हैं कि वे जनविरोधी, अन्याय, गलत और अर्थहीन विषयों या करतूतों के खिलाफ़ प्रतिवाद की आवाज़ उठाएं। यह आख्यान(fiction) के ज़रिये भी संभव है तथा आलोचना(non-fiction) के ज़रिये भी। मुक्तिबोध के हवाले से कहें तो इसे ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’ कहते हैं।

मुक्तिबोध ने लिखा है, “व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ यह है कि लेखक अभिनय न करे, आडम्बर से बाज़ आये, अतिशयोक्ति न करे, वरन् जिस अनुपात में, जितनी तीव्रता के साथ, जो भाव जिस ढंग से, उदित हुआ है, उस अनुपात में, उतनी तीव्रता के साथ, उस भाव को उसी ढंग से प्रकट करे।”

अभिव्यक्ति की यह प्रकिया ही लेखकीय ईमानदारी है। अनुभूतिप्रवण एवं चेतन लेखिकाओं की दृष्टि किसी वायवीय घटना पर नहीं जाती अपितु अपने आसपास के परिवेश यथा अपने कर्मस्थल, अपने परिचितों से जुड़ी समस्याओं तथा उलझनों की ओर ही जाती है। जिस परिवेश में लेखिका रह रही होती हैं, जहाँ की समस्याओं से वह दो-चार हो रही होती हैं, उन समस्याओं को वह बेहतर जानती हैं। फलतः यह उसका दायित्व है कि उसे सही ढंग से पहचानें, पाठकों के समक्ष निरावृत करें तथा उससे निकलने का पथ भी सुझाए।

इस प्रसंग में मुक्तिबोध की चंद पंक्तियों का उल्लेख मौजूँ होगा—

                       “भावना के कर्तव्य...त्याग दिये,

                        हृदय के मन्तव्य...मार डाले!

                        बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,

                        तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

                        जम गये, जाम हुए, फँस गये,

                        अपने ही कीचड़ में धँस गये!!

                        विवेक बघाड़ डाला स्वार्थों के तेल में

                        आदर्श खा गये।”

 

 इंसान जीवित तो रहेगा लेकिन किस तरह? एक विचारशील एवं बुद्धियुक्त नागरिक और लेखिका का फ़र्ज़ है कि वह अपने विवेक को मरने न दे। अंतरात्मा की पुकार पर मनन करें तथा उसे उसकी गत्यात्मकता में सम्प्रेषित करे। इसे सीधे तौर पर करें या प्रतीकों के रूप में यह लेखिका के व्यक्तिगत चयन पर निर्धारित होगा।

प्रसंगतः लू शुन की बेहद जनप्रिय कहानी ‘डायरी ऑफ़ ए मैडमैन’(Diary of a Madman) की चर्चा की जा सकती है। यह कहानी राजनीतिक रूपक-कथा के ज़रिये चीन की तद्युगीन सामंती संस्कृति तथा समाज पर प्रहार करती है। ‘Cannibalism या मानवमांस-भक्षण की कथा के ज़रिये इस बात की आलोचना हुई है कि उस दौर में चीन के लोग एक-दूसरे के प्रति किस तरह का मनोभाव रखते थे। मानवमांस-भक्षण असल में प्रतीकात्मक है। यह समाज द्वारा व्यक्तित्व के क्षरण को प्रतीकात्मक तौर पर पेश करता है। सरकार की अनैतिकता, भ्रष्टवृत्ति, अधिकार पाने के लिए जबरन नागरिकों पर सख़्त कानून लागू करना इत्यादि घटनाओं को प्रतीक के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। वहीं स्वतंत्र विवेकशील लोग पागल करार दिए जाते हैं और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए योजनाएं बनाई जाती है। यह कहानी दरअसल सरकार तथा उसकी गुलाम प्रतिनिधियों की तीखी आलोचना में लिखी गई है।

प्रतिवाद का यह एक विशिष्ट तरीका है जिसमें दिग्भ्रष्ट समाज को चेतनावस्था में लाने के लिए प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है। एक नागरिक का समाज के प्रति प्रतिबद्धता का भाव ही अन्याय या शोषण के खिलाफ़ सवाल खड़े करने के लिए उसे मजबूर करता है। यह सकारात्मक पहल है। नकारात्मक है उत्पीड़न को देखते हुए भी उसे अनदेखा करना। अपने सुरक्षित वलय में रहकर रचनात्मक कर्म करना, गंभीर विषयों को दरकिनार कर हल्के विषयों को बड़ा विषय बनाकर उस पर चर्चा-परिचर्चा का माहौल गर्म बनाना दरअसल ज़िम्मेदारी से भागना कहलाता है।

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जब ‘देवदारु’ निबंध लिखते हैं तब देवदारु की प्रवृत्तियों के साथ महादेव की प्रवृत्तियों को जोड़ने के अतिरिक्त देश की वर्तमान सामाजिक एवं नैतिक समस्याओं की ओर भी पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हैं। बानगी देखें, “इस देश के लोग पीढ़ियों से सिर्फ जाति देखते आ रहे हैं, व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है न परवाह है....अर्थमात्र जाति है, छंदमात्र व्यक्ति है। अर्थ आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि वह धरती पर चलता है, छंद आसानी से पकड़ में नहीं आता, वह आसमान में उड़ा करता है।”

यह पंक्तियाँ वर्तमान दौर में भी प्रासंगिक है कारण भारतीयों की चेतना में अब भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। आज भी किसी अन्य देश में किसी भारतीय के प्रधानमंत्री बनने पर हमारे देश में उसकी जाति का चीर फाड़कर विश्लेषण होता है। किसी सफल शख़्सियत को उसके कर्मों के कारण नहीं उसकी जाति के आधार पर परखा जाता है। किसी इंसान को उसके मेधा के आधार पर नहीं जाति के आधार पर विवेचित किया जाता है। शायद यही वजह रही होगी कि वादियों में बसे देवदारु का वर्णन करते हुए भी युगीन समस्याओं को द्विवेदी जी दरकिनार नहीं कर पाते।

तथाकथित सभ्य समाज की समकालीन उलझनों की तस्वीर द्विवेदीजी के लेखन में बार-बार आ ही जाती है। ‘कुटज’ निबंध में भी इसका स्पर्श मिल जाता है, “कुटज क्या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्मोन्नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है—काहे वास्ते, किस उद्देश्य से? कोई नहीं जानता।”

‘कुटज’ के स्वभावगत वैचित्र्य से पाठकों को अवगत कराने की प्रक्रिया में द्ववेदीजी ने चाटुकारों, तैलमर्दकों एवं सिफ़ारिशीलालों की अच्छी खबर ली है। अपने कर्मों पर अविश्वास कर ज्योतिष के भरोसे जीवन काटने वालों पर भी तंज कसा गया है। वहीं कुटज में इन अवगुणों का अभाव है। वह आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्रचेता है। लेखक के लिए ये दोनों गुण बेइंतहा ज़रूरी है। अन्य के कंधे पर लता की तरह पनपने से अच्छा है अपनी कद भर ऊँचाई।

अब इस बात पर गौर करें कि भक्तिकाल की कवयित्री मीराबाई ने यदि आलोचनात्मक ढंग से अपने तत्कालीन परिवेश, परिवार, वंश तथा समाज द्वारा दी गई ज़्यादतियों, अपमान-लांछन, पैरों में घुँघरू बाँधकर नाचने, इकतारा बजाकर गाने, साधु-संगति करने के कारण राणा द्वारा हत्या के कुचक्र, कक्ष में कैद करना आदि पर न लिखा होता तब आज के पाठकों को कैसे पता चलता कि मीरा की चुनौती कितनी दुर्बोध थी? वे केवल भक्तिभाव में डूबकर कृष्णप्रेम से सराबोर कविताएं लिखी होतीं तो हम उन्हें भक्तिन कवयित्री तो मान सकते थे लेकिन उनकी समस्याओं की दुरूहता की अनुभूति हमें न मिल पाती! जब मीरा ‘छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई’ कहती है तब पति एवं परिवार सत्ता से मुठभेड़ करती है। समाज की रीतियों को धता बताते हुए समाजनिर्मित संस्कारों एवं नियमों के विपरीत जाकर अकेले समाज से लोहा लेने वाली स्त्री की अस्मिता को साकार करती है।

जब मीरा लिखती हैं, ‘भजन करस्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो घण नामी’ तब अपनी विधवा सत्ता को अस्वीकार करती है। सती होने से मना करना सिसोदिया वंश की सत्ता तथा सत्ता के अहंकार का अस्वीकार है। अपनी मर्ज़ी से गिरधर से प्रेम की घोषणा करके मीरा कुलद्रोही व समाजद्रोही तो बनती है लेकिन समाज के सामने एक ख़ुदमुख़्तार स्त्री की छवि को भी दर्ज करती है।



इस प्रकार अपनी इच्छा को प्राथमिकता देने वाली एक स्वायत्तचेता, रूढ़िमुक्त व आज़ादख्याल स्त्री के रूप में हम मीरा की मनोदशा को पढ़ पाते हैं। संभवतः मीरा भक्तिकाल की एकमात्र कवयित्री हैं जिन्होंने अपने निजी को सार्वजनिक किया। आत्मकथा को जनसमक्ष प्रस्तुत करके व्यक्तिगत को ‘पाठ’ का हिस्सा बनाया। हम मीरा से यह सीखते हैं कि तमाम विपरीत परस्थितियों में भी लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए। प्रतिवाद की आवाज़ कर्म और लेखन दोनों में परिलक्षित हो।

रवीन्द्रनाथ ने भी ‘मृणालेर पॉत्रो’ कहानी के माध्यम से तत्कालीन बंग-समाज की पितृसत्ताक मनोदशा तथा मानसिक दरिद्रता को चिह्नित किया है। बिन्दु की मृत्यु की घटना के उपरांत इस वारदात पर बात करते हुए बंग-समाज के पुरुषों ने कहा, ‘लड़कियों का कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब एक फैशन हो गया है।’

स्त्रियों के संदर्भ में यह व्यंग्योक्ति भी है और हल्की उक्ति भी। आत्महत्या का फैसला एक लड़की तब लेती है जब जीवन जीने की अंतिम अभिलाषा भी लुप्तप्राय हो। अनेक तकलीफ़ें संचित करके ही कोई स्त्री आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाती है। इसी तथ्य के आलोक में रवीन्द्रनाथ पुरुष समाज की निर्ममता को परिलक्षित करते हुए व्यंग्यात्मक प्रत्युत्तर देते हैं। वे मृणाल से लिखवाते हैं, ‘....लेकिन नाटक का तमाशा सिर्फ बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों होता है, बंगाली वीर पुरुषों की धोती की चुन्नटों पर क्यों नहीं होता, यह भी तो सोचकर देखना चाहिए।’

आत्महत्या की धाराप्रवाहता को ‘फ़ैशन’ आदि कहकर उसके कारणों की खोज न करना, उसके निराकरण की चिंता न कर उसे लड़कियों की गलती बताना तथा हँसी-मज़ाक में टाल देना समस्या के प्रति अगंभीर रवैया था। यह रुख सामाजिक नागरिक का सामाजिक दायित्व से पलायन भी था। यह पलायन का भाव तत्कालीन बंग-समाज का अंग बन गया था जिसकी आलोचना वक्त की माँग थी। इसी समस्या को संबोधित करते हुए रवीन्द्रनाथ ने लिखा, “ऐसा ही था बिंदु का दुर्भाग्य। जितने दिन जीवित रही, तनिक भी यश नहीं मिल सका। न रूप का, न गुण का – मरते वक्त भी यह नहीं हुआ कि सोच-समझकर कुछ ऐसे नए ढंग से मरती कि दुनिया-भर के लोग खुशी से ताली बजा उठते। मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया।”

आलोचनात्मक दृष्टि ही है जो ‘जो होना चाहिए’ और ‘जो नहीं है’ के बीच की खाई को पाटने का काम करती है। आलोचनात्मक विवेक ‘जो हो रहा है वह गलत हो रहा है’ के विवेचन की क्षमता प्रदान करता है। यह वास्तविकता है कि दुनिया में सुंदर चीज़ें हैं लेकिन सवाल यह भी है कि इस दुनिया को और सुंदर क्यों न बनाया जाए। और यह तब संभव है जब असुंदर पर भी नज़र दौड़ाई जाए! उसे आलोचना के दायरे में लाकर उसमें परिवर्तन की गुंजाइश बनाई जाए। अन्याय से पलायन करके हम समाज को बेहतर नहीं बना सकते, अन्याय का प्रतिवाद करके समाज में अत्यल्प सुधार लाने की कोशिश ज़रूर कर सकते हैं।


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