जहां पाठ्यक्रम पूरा करने का गुरुभार शिक्षिकाओं पर हावी हो वहां स्वतः यह घटित होता है कि आप किसी भी कविता, उपन्यास, निबंध, नाटक, साहित्येतिहास या विचार-साहित्य में सम्पूर्ण डूबकर पूरी भावप्रवणता और एकाकार चित्त से सराबोर हो नहीं पढ़ा पाती हैं। किसी भी विषय से विद्यार्थियों को संबद्ध करने तथा स्वयं संबद्ध होने के लिए यह ज़रूरी है कि संबंधित विषय पर कई कक्षाओं में सारगर्भित चर्चाएं हो तथा संबधित विषय के साथ आत्मीयता स्थापित हो। यांत्रिक भाव से पढ़ाना या पाठ्यक्रम समाप्त करने के उद्देश्य से अध्यापन में रत होना असल में अध्यापन का अवमूल्यन है। यह अवमूल्यन ही फ़िलवक्त घोर यथार्थ है।
इस अवमूल्यन में
अहम भूमिका निभाती है नोट्स आधारित शिक्षण की पद्धति। अधिकांश शिक्षकों को नये
विचारों से परहेज़ है। वे नये विचारों से किनाराकश़ी करते हैं तो वहीं परिश्रम से
कतराते हैं। वे सालों पुराने लिखे हुए पीले-पीले नोट्स तब तक लिखाते रहते हैं जब
तक कि पाठ्यक्रम न बदले। विद्यार्थी भी इसी प्रथा में प्रशिक्षित हो जाते हैं। वे
शोध करके पढ़ाने वाले या मौलिक व्याख्या करने वाले शिक्षकों को वैमनस्य के भाव से निहारते
हैं। भाव यह होता है कि फिर आ गईं ज्ञान बघारने! वे नोट्स लेना पसंद करते हैं और ऐसा
करते हुए स्वतंत्र चिंतन तथा विचार-मंथन से दूर होते जाते हैं। किसी भी विषय पर नए
सिरे से सोचना उन्हें हास्यास्पद मालूम होता है। एक विचार पर कई कोणों से विश्लेषण
संभव है इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं! उनकी मानसिकता यह है कि जो भी सही है उसे लिखा
दिया जाए कारण फलां-फलां शिक्षक और शिक्षिका लिखाती हैं! अब कौन समझाए कि साहित्य
में सार्विक सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती।
एक बार किसी
एक बैच के विद्यार्थियों ने महादेवी की कविता पढ़ाते समय मुझसे दिलचस्प सवाल पूछा था
कि जिस प्रकार आप समझा रही हैं वह कविता की पंक्तियों के साथ अर्थपूर्ण लग रहा है
लेकिन क्या इसे लिखने पर नंबर मिलेंगे कारण व्याख्या की किताबों में तो ऐसी
व्याख्या कहीं नहीं है। नंबर के लिए चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन गौर करने लायक
बात यह है कि विद्यार्थियों को भी यह पता है कि शिक्षक व्याख्या की किताबों का
अनुसरण करते हैं। यह चिंताजनक परिस्थिति है।
इंसान स्वयं
कर्म करके ही अन्य को उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकता है। कामयाब मनीषियों
की वाणियाँ हम इसलिए पढ़ते-सुनते हैं कि वे तकलीफ़देह परिस्थितियों से गुज़रकर एक
निश्चित ऊँचाई को छू सके हैं। अतः वे हमें प्रेरित करते हैं तथा मार्गदर्शक की भूमिका
में आसीन होते हैं। ध्यान रहे शिक्षिका या शिक्षक भी अपने दैनन्दिन अध्यापन के कर्म
के माध्यम से विद्यार्थियों के मानस-पटल को आन्दोलित करती या करते हैं। उनमें
शिक्षण तथा शिक्षकीय दायित्वबोध का बीजवपन करती हैं। अपने गहन विचारों से अपने
ज्ञान एवं अभिरुचि का परिचय देती हैं तथा इसी क्रम में विद्यार्थियों को पुस्तक
पढ़ने की प्रेरणा भी मिलती हैं। अर्थात् शिक्षिका का कर्मजीवन एवं आचरण ही उनके
ज्ञान का मूलभूत संदेश है। सनद रहे कि विद्यार्थी किन्तु शिक्षकों से ही सीखते हैं।
इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का
प्रिय प्रतीक ‘दीपक’ की जिजीविषा तथा उसके कर्म को देखें। महादेवी ने लिखा हैं,
“सौरभ फैला विपुल
धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल
रे, मृदु तन
दे प्रकाश का
सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु
गल-गल
पुलक-पुलक मेरे
दीपक जल!”
जिस प्रकार ‘दीपक’
अपने कोमल तन को गलाकर तमिस्र परिवेश को प्रदीप्त करती है उसी प्रकार एक परिवार
में स्त्री की भूमिका होती है। एक गृहिणी भी अव्यवस्थित को सँवारकर घर को स्वच्छ
एवं द्युतिमान बनाती है। शिक्षिका की भी यही चित्तवृत्ति होनी चाहिए यानि अध्ययन
की प्रक्रिया से गुज़रकर जो ज्ञान अर्जित होता है उसका सारतत्व विद्यार्थियों को सौंपना
तथा उनका जीवनमार्ग प्रशस्त करना। स्वयं ज्ञान की अग्नि में तपकर दुर्बोध्य विषयों
को तरल जल सदृश सहजता से उद्घाटित करना।
गुरु के
संदर्भ में सहजोबाई की निम्न पंक्तियाँ बहुत मायने रखती हैं जिनमें वे मानती हैं
कि गुरु चार प्रकार के होते हैं जो अपनी-अपनी विशिष्टता के अनुसार शिष्य का
पथ-प्रशस्त करते हैं। एक गुरु पारस पत्थर की तरह होता है जो लोहे को भी परिशुद्ध सोने
में बदलने की क्षमता रखते हैं अर्थात् शिष्य को सोने की तरह उज्जवल एवं दिव्य कांति
से संपन्न बनाता है। दूसरा गुरु दीपक की तरह शिष्य के ज्ञान एवं बोध के मार्ग को
प्रज्वलित करता है। तीसरा गुरु मलयाचल यानि मलय पर्वत की ओर से आने वाली सुंगधित
पवन की भांति शिष्य को सुंगधित करता है अर्थात् गुण एवं ज्ञान से दीप्त करता है।
चौथा गुरु भँवरे की तरह होता है। जिस प्रकार भँवरे केवल फूलों का ही रसपान करते
हैं उसी प्रकार गुरु ईश्वर के अनुराग को ही सही गंतव्य बताकर शिष्य को अमोघ ज्ञान
प्रदान करते हैं।
“गुरुहैं चारि प्रकार के, अपने अपने अंग।
गुरुपारस दीपक गुरु, मलयगिरिगुरुभृंग।।”
किसी
साहित्यकार के विषय में एक मूर्त धारणा तभी बन पाती है जब आप उन्हें वक्त देते
हैं। उनमें सम्मोहन पैदा करने के लिए उन पर गहन शोधपरक पठन की ज़रूरत होती है तब
उस सारतत्व को विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। स्वयं प्रबुद्ध
होना पड़ता है तभी शिक्षक विद्यार्थियों को प्रबुद्ध कर पाएंगे। चलताऊ ढंग से पढ़ाना, कक्षाएं
लेनी है तो कुछ भी इधर-उधर का कहकर आ जाना है, गप्प सुनाकर आ जाना है, एक घंटे की
कक्षा को पंद्रह मिनट में समेटकर आ जाना है वाला भाव, शिक्षकीय दायित्व से पलायन
का भाव है।
कायदे से
शिक्षक को हर दिन की कक्षा के लिए तैयारी करके जाना चाहिए। कक्षा के प्रति हल्केपन
का भाव न होकर संजीदगी का भाव हो। संजीदगी का अर्थ गंभीर मुखड़े के साथ कक्षा में
प्रवेश करना या मुसलसल गंभीर बने रहना या हर समय विद्यार्थियों को डाँट बताना नहीं
होता बल्कि निर्दिष्ट विषय को विचारशीलता एवं रोचक भाव से पढ़ाना होता है कि
संबंधित विषय में आकर्षण एवं रुचि जागृत हो। विद्यार्थियों को सवाल पूछने के लिए
प्रेरित करना, दोस्ती का व्यवहार रखना लेकिन ज़रूरत पड़ने पर सख़्ती से पेश आना
तथा नयी दृष्टि से किसी विषय पर मनन करने को प्रोत्साहित करना भी शिक्षकीय कर्तव्य
में शामिल है।
किसी भी विषय
के मंथन से ही उसका सारतत्व निकलता है। यह मंथन तभी संभवपर है जब अनुकूल कक्षा व
विद्यार्थी मिले। जिस कक्षा में आप पढ़ा रही हैं वहां के विद्यार्थी अगर मानसिक
तौर पर अपरिपक्व, अपढ़ और अशांत हों तब भी शिक्षिकाओं का ध्यान भटकता है। आप कक्षा
में बैठे चंद दुष्ट विद्यार्थियों को शांत करें, कविता में आए तत्सम शब्दों के
अर्थ बताएं या अपने हृदय में उमड़-घुमड़ रहे मौलिक एवं गूढ़ विचारों को रूपायित
करने की ओर बढ़ें।
कई बार
विद्यार्थी ‘मोरल ऑफ़ द पोएम’ ही जानना चाहते हैं यानि कविता का मूल भाव बता दें।
पूरी कविता के शब्दशः अर्थ से हमें संबंध नहीं; बस कविता किस भाव पर लिखी गई है बता दें। फिर
वही यांत्रिक भाव! जैसे कविता न हो बच्चों की कहानियाँ हो! हक़ीक़त यह है कि कविता
का एक ही भाव या अर्थ नहीं होता। साहित्य कोई गणित नहीं है जो तयशुदा मानदंडों पर
फलित होगा। साहित्य में अनेक भावों और विचारों के लिए संभावनाएं एवं जगह होती है।
व्याख्या पर लिखित संदर्शिका पुस्तकें चूंकि एक ही भाव के ईर्द-गिर्द घूर्णन करती
हैं सो वे मानकर चलते हैं कि कविता का एक ही भावार्थ होता है। इस तरह के अनचाहे
सवालों एवं प्रतिक्रियाओं के कारण जिस आंतरिक और निविड़ भाव के साथ एक शिक्षिका
पढ़ाने जाती हैं वह मझधार में ही काल-कवलित हो जाती है।
गौरतलब है कि
विचार एकाएक नहीं पैदा होते, वह बोलने के क्रम में ही रूप, रंग
और आकृति लेते हैं। बोलना या समझाना कोई मशीनकृत तकनीक नहीं, एक सहजात प्रक्रिया
है। शिक्षण विचारशीलता, चिंतन एवं मनन की प्रक्रिया है। इसमें
बाधा पड़ने पर अध्यापन का स्वतःस्फूर्त प्रवाह क्षतिग्रस्त होता है।
वर्तमान
पीढ़ी को सामाजिक व्यवस्था ने इस रूप में प्रशिक्षित किया है कि यंत्रचालित ढंग से
विद्यार्थी कक्षा में बैठते हैं, सुनते हैं और चले जाते हैं। सवाल करना, तर्क करना
या संबंधित विषयों की आलोचना को पढ़कर कक्षा में आना आदि बातें अमूमन कपोलकल्पना
है। अधिकांश विद्यार्थी बिना कहानी या कविता पढ़े कक्षा में दाखिल होते हैं। भाव
यह कि मैम तो पढ़ाएंगी, बाकि ट्यूशन या संदर्शिका(गाइड) पुस्तकों के सहारे परीक्षा
उत्तीर्ण कर लेंगे। स्पष्ट है कि बिना पढ़ाई के केवल डिग्रीधारी होने का गौरव भी
समाज में कम मायने नहीं रखता है। वहीं डिग्री से नौकरी का भी गहरा सम्पर्क है।
विद्यार्थी
का संधिविच्छेद होता है-- विद्या + अर्थी अर्थात् विद्या को अर्जित करने का
आकांक्षी या विद्या को ग्रहण करने की स्पृहा से संबद्ध। विद्या के प्रति चाह ही एक
विद्यार्थी को निर्मित करता है। विद्या से सान्द्रता आती है तो विनयशीलता का भी
व्यक्तित्व में संचार होता है। संस्कृत सुभाषितों में विद्यार्थियों के पाँच लक्षण
बताए गए हैं--
“काकचेष्टा बकोध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।”
कौए की तरह सदैव
जानने की व्याकुलता यानि विद्या का लगातार अभ्यास करते रहना, बगुले की तरह एकाग्रता
यानि विषय एवं लक्ष्य के प्रति सान्द्रता, स्वान की तरह अल्पनिद्रा यानि सदैव चौकन्ना
रवैया, आवश्यकतानुसार आहार करने वाला(न कम न ज़्यादा) अर्थात् लालच का संवरण तथा
गृहत्यागी अर्थात् घर के भौतिक आकर्षणों से मोहमुक्त होना। इसी प्रकार वे विद्यार्थी
जो केवल अन्य के लिखे पुराने नोट्स पढ़कर परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते हैं, जो
पुस्तकालयों से संबंध नहीं जोड़ते, जो स्वयं पुस्तकीय यात्रा से गुज़रकर अपना नोट्स
नहीं बनाते वे परीक्षा में नंबर भले ही पा ले या नौकरी की प्रतियोगिता में भले उत्तीर्ण
हो ले किन्तु ज्ञान एवं विद्या के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। विषय की गहराई में प्रवेश
करने की चेष्टा न होने के कारण, विद्यार्जन की एकाग्रता न होने के कारण वे केवल
नोटार्थी बनकर रह जाते हैं, विद्यार्थी नहीं।
संस्कृत में
एक अन्य सुभाषित की मानें तो सुख की चाह रखने वाले या सुख को ही परम अर्थ मानने
वाले विद्या त्याग दें और विद्या की याचना करने वाले सुखों को त्याग दें। जो सुख की
कामना करते हैं उनके लिए विद्या कहाँ है और जो विद्या का अभिलाषी हो उसके लिए सुख
कहाँ?
“सुखार्थी त्यजते
विद्यां
विद्यार्थी त्यजते
सुखम्।
सुखार्थिनः कुतो
विद्या
कुतो विद्यार्थिनः
सुखम्।।”
अर्थात सुख
और विद्या परस्पर साथ नहीं रह सकते। विद्या एक साधना है, ज्ञानार्जन एक तप है जिसे
प्राप्त करने के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। कक्षा में बैठकर मानसिक तौर पर कक्षा
में न होना, तदर्थ भाव से शिक्षिका को सुनना, अटेंडेंस के लिए कक्षा में आना, बिना
पढ़े कक्षा में आना, कक्षा में कोई सवाल न करना आदि बताते हैं कि शिक्षा के प्रति निष्क्रिय
भाव ने बसेरा किया है। इस प्रक्रिया से गुज़रकर नौकरी मिलती है तभी पढ़ना है
अन्यथा इससे कोई लगाव नहीं वाला भाव पढ़ाई एवं जीवन के प्रति निश्चेष्ट भाव है। कुछ
भी नया जानने-सुनने की इच्छा नहीं वाला भाव अज्ञान-प्रेम को दर्शाता है। जबकि
विद्यार्थियों के जीवन का उद्देश्य अज्ञान से ज्ञान की ओर परिवर्धन है। इसके लिए सुख
और मोह का विसर्जन ज़रूरी है। जीवन का नवनिर्माण हमारा उद्देश्य है जो परिश्रम के
द्वारा ही संभव है।
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