मैं पश्चिम बंगाल के
दुर्गापुर शहर से प्रेसिडेन्सी कॉलेज में स्नातक की पढ़ाई के लिए आई थी। जब
स्नातकोत्तर के बारे में सोचा तो पहली उलझन यह थी कि प्रेसिडेन्सी से किया जाए(उस
समय विश्वविद्यालय नहीं बना था लेकिन स्नातकोत्तर की पढ़ाई होती थी) या कलकत्ता
विश्वविद्यालय से? मेरे माता-पिता, पिता के परिचित, मेरे कोलकाता में रहने वाले
रिश्तेदारों की राय थी कि प्रेसिडेन्सी एक नामचीन कॉलेज है सो वहीं से करना चाहिए।
मैंने अपने से एक साल वरिष्ठ दीदियों से पूछा कहाँ दाखिला लूँ तो उनका जवाब था,
‘तुम पागल हो यह सवाल पूछ रही हो? वहाँ जे.सी. हैं यार!’ मैंने पूछा ‘यह जे.सी.
कौन हैं?’ यह सवाल पूछते ही सारे वरिष्ठ मुझे ऐसे निहारने लगे जैसे मैं कोई अजूबा
प्राणी हूं जिसने ऐसा पूछा हो और जिसने जे.सी. का नाम न सुनकर बहुत बड़ा अपराध कर
दिया हो। ऐसा था सर का प्रभामंडल जो कलकत्ता विश्वविद्यालय के बाहर तक फैला हुआ
था! अंततः मुझे सर के बारे में जानकारी दी गई कि वे कितने प्रतिभाशाली और ज्ञानी
हैं, जे.एन.यू. से पढ़कर आए हैं, उनके पढ़ाने का तरीका हिन्दी के आम शिक्षकों से
बिल्कुल अलग है, कितने हैंडसम और स्मार्ट भी हैं आदि आदि। उन्होंने बताया कि वे
प्रेसिडेन्सी कॉलेज में तृतीय वर्ष की छात्रा रहते समय ही कलकत्ता विश्वविद्यालय
जाकर जे.सी. सर की कक्षा कर आई थीं। कुछ सर के ज्ञान से परिचित होने तो कुछ सर की
सुंदरता को निहारने। मैं अचम्भित थी! मैंने ठान लिया था कि अब तो सी.यू. में ही दाखिला
लेना है कारण वहां कोई ‘जे.सी.’ हैं। घर और रिश्तेदारों के ज़बरदस्त दबाव का सामना
करके मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँची बस एक ‘जे.सी.’ नाम के भरोसे। यह मानकर कि वे
जो कोई भी हों कोई तो बात होगी उनमें। उन्हें देखना है, जानना है, उनसे पढ़ना है।
जे.सी. सर वे हैं जिनसे
स्नातकोत्तर पढ़ने के लिए विद्यार्थी प्रतिष्ठित कॉलेज और विश्वविद्यालय का मोह भी
छोड़ सकते थे; जिनकी कक्षा छूट जाने पर अपना आना व्यर्थ मान
लेते थे। किसी विद्यार्थी की ओर देखकर हँस देते थे तो वह धन्य धन्य हो उठता था। एम.ए.
के दौरान आँखों देखा एक वाकया कुछ ऐसा हुआ— जे.सी. सर की कक्षा से पहले जिस शिक्षक
की कक्षा होती थी वे नहीं आए। उनकी नामौजूदगी के कारण कुछ विद्यार्थियों ने जे.सी.
सर को उनकी अपनी कक्षा के निर्धारित समय से एक घंटे पहले बुला लिया। उसी कक्षा के कुछ
अन्य विद्यार्थी उस शिक्षक के न आने के कारण बाहर गए हुए थे। उन्हें इस बात की
सूचना नहीं थी कि सर बुला लिए जाएंगे। वे बड़ी आशा लेकर घंटे भर बाद आए तो जानकर बहुत
निराश हुए कि सर ने अपनी कक्षा निर्धारित समय से पहले ही ले ली। वे सीधे सर से ही
लड़ने चले गए कि आप उन विद्यार्थियों के कहने पर कैसे मान गए? हम बाहर गए थे और आपकी
कक्षा के लिए प्रतीक्षारत थे? आज तो हमारा आना ही व्यर्थ हो गया! ऐसी थी सर की
लोकप्रियता! सर की कक्षा के लिए विद्यार्थियों की छटपटाहट!
सर की कक्षा सबसे
अंत में होती थी लेकिन सुखद आश्चर्य यह कि सारे विद्यार्थी उनकी कक्षा के लिए अंत
तक बैठे रहते थे। उनकी खासियत यह थी कि वे हर दिन आते थे और समय के बेहद पाबंद। पचास
मिनट की कक्षा एक से लेकर डेढ़ घंटे तक तन सकती है लेकिन बीस मिनट पढ़ाकर अपने शिक्षण-दायित्व
एवं कर्तव्य की इतिश्री समझना उनके स्वभाव का हिस्सा बिल्कुल न था। वे निर्धारित
ढर्रे पर कभी नहीं पढ़ाते थे। उनके शिक्षण का तरीका सबसे जुदा था। पाठ्यक्रम में अंतर्भुक्त
शीर्षकों के अनुसार निर्धारित पद्धति की पढ़ाई को सर ‘उपभोक्तावादी पद्धति की
पढ़ाई’ मानते हैं। इस तरह की पढ़ाई विद्यार्थियों में सामाजिक व राजनीतिक चेतना
नहीं जगाती, सही-गलत का विवेक पैदा नहीं करती। सर के अनुसार पाठ्यक्रम की पढ़ाई
सीमित नज़रिया बनाती है। वह सोच के दायरे को संकीर्ण कर देती है, उसे व्यापक फैलाव
का अवसर नहीं देती।
शिक्षा का मूलभूत
उद्देश्य होता है अधिक से अधिक सचेतनता पैदा करना। शिक्षा नागरिक चेतना पैदा करता
है। लेकिन अभी शिक्षा एक तयशुदा पैटर्न बन गया है। यह पैटर्न जितना अनुत्पादक है,
उतना ही क्षतिकारक। सूत्रबद्ध पढ़ाई जड़ता और बुद्धिहीनता को प्रश्रय देता है तो
वहीं मौलिक सोच व चिंतन में सबसे बड़ी बाधा होती है। कॉलेज से पढ़कर जब विद्यार्थी
कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाखिला लेते थे तो पाठ्यक्रम आधारित पढ़ाई के अभ्यस्त विद्यार्थी
जे.सी. सर की कक्षा में द्वंदग्रस्त रहते थे कि पाठ्यक्रम में लिखित प्रत्येक बिन्दु-दर-बिन्दु
क्यों नहीं पढ़ा रहे! करीब तीन-चार महीने बाद विद्यार्थियों को पता चलता था कि यही
शिक्षण की सटीक प्रणाली है जिसका पता अब तक उन्हें न था। बस क्या था अब तो सर के
ज्ञान, उनकी दृष्टि, उनके विचार को जानने के लिए उनके जोशीले अंदाज़ वाली कक्षा हर
विद्यार्थी के लिए अनिवार्य बन जाता था। वे तूफ़ान की तरह प्रवेश करते थे और पूरी
कक्षा को नये विचारों से लबरेज़ करके जाते थे। पीएच.डी. कोर्स-वर्क के समय भी सर
की कक्षा के वक्त पूरी कक्षा भर जाती थी। अन्य शिक्षकों के पाठ्यक्रम से संबंधित
जिज्ञासाओं का समाधान भी जे.सी. सर की कक्षा में होता था। विद्यार्थी यह मानकर
चलते हैं कि सर के पास हर जिज्ञासा का समाधान है।
दिलचस्प यह कि उनसे
असहमत होने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी कम नहीं। इस असहमति के बावजूद वे उनके
ज़बरदस्त मुरीद और इस बात के प्रति सहमत कि सर असाधारण पढ़ाते हैं। पढ़ाते समय
रपटनदार भाषा का प्रयोग सर कभी नहीं करते थे। उनके पढ़ाने की शैली काफ़ी ‘बोल्ड’
और खुली होती थी। समाज में यह धारणा बनाई गई है कि प्रकांड विद्वान बड़े गंभीर ढंग
से, धीरे-धीरे, रुक-रुककर एक-एक शब्द श्रोताओं के समक्ष रखते हैं। कई प्रोफेसर इस
धारणा का अक्षरशः पालन करते हुए भी पाए जाते हैं। सर ने अपनी अध्यापन-शैली के
द्वारा इस पुराने ‘क्लीशे’ को तोड़ा है और अध्यापन की एक नई शैली स्थापित की है।
जे.सी. सर का पढ़ाना ऐसा था जैसे वे हँस-हँसकर विद्यार्थियों से वार्तालाप कर रहे
हों। वे विद्वता-प्रदर्शन का भाव बिल्कुल नहीं रखते थे अपितु विद्यार्थियों से सहज
एवं मित्रसुलभ ढंग से पेश आते थे। दूसरी ओर बिना विराम के धाराप्रवाह बोलने के लिए
सर मशहूर हैं। सर ने इसे प्रमाणित किया कि ज्ञान किसी तयशुदा नियम में बंधा नहीं
होता और प्रकृत ज्ञानी नकली व्यक्तित्व ओढ़कर नहीं चलते। पढ़ाते समय किसी संजीदे
विषय को नीरस ढंग से न पढ़ाकर उसकी उपादेयता को समझाने के लिए यथार्थ से, जन-जीवन
से तथ्य और उदाहरण देते रहते थे। कभी खूब हँसना और हँसाना तो कभी खूब गंभीर रवैया,
हर बेंच की ओर घूमकर पढ़ाना उनके अध्यापन की विशेषता थी। जे.एन.यू के अपने
छात्र-जीवन के संघर्षों तथा अनुभवों को बीच-बीच में सुनाकर विद्यार्थियों का
हौसला-अफ़ज़ाई करते रहते थे। कई विद्यार्थियों की ज़िंदगी बदलने में भी उनकी अहम
भूमिका रही है।
जे.सी. सर के व्यक्तित्व
के प्रभाव को समझने के लिए स्नातकोत्तर के दौरान का एक अनुभव बताना ज़रूरी है।
मेरी एक बंगाली दोस्त है जो बिल्कुल मेरे बगल में बैठती थी। उसने एक दिन अपने
ममेरे भाई को अपनी कुछ किताबें देने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय बुला लिया। कहा
ठीक ढाई बजे ही आना; दस मिनट पहले आना लेकिन बाद में मत आना। उस दिन ठीक
ढाई बजे जे.सी. सर की कक्षा होती थी। मुझसे कहा कि आज एक चीज़ होगी जो तुम्हें बाद
में बताऊंगी। ढाई बजे तक जिस शिक्षक की कक्षा थी वे पढ़ाकर निकले तो उसका भाई बाहर
खड़ा था। मेरी दोस्त किताबें लेकर गई और तीन-चार मिनट बात करती रही जब तक जे.सी.
सर स्टाफ़रूम से न निकले और हमारी कक्षा में न प्रवेश करें। ज्योंही सर निकले वह
तुरंत बोली ‘सर आश्छेन...’। उसके भाई ने सर को मुड़कर देखा और पूछा, ‘इनी सर?’ सर
दोनों के सामने से आकर कक्षा में प्रवेश किए। मेरी दोस्त भी कक्षा में घुस गई।
मेरे पास बैठकर बोली कि उसने सर को देख लिया; मैं
यही चाहती थी। मैंने पूछा कि इससे क्या होगा? उसने कहा, ‘पॉरे बोलबो तोके’(बाद में
बताऊँगी)। अगले दिन आकर बोली कि उसके भाई ने फ़ोन पर पूछा, ‘तोमादेर सर तो भीषोन शुंदोर
आर स्मार्ट! कि बेक्तित्तो! उनी हिन्दी पॉरान? ओनार नाम की?’ (तुम लोगों के सर तो
बहुत सुंदर और स्मार्ट हैं! क्या व्यक्तित्व है! उनका नाम क्या है?)
बस क्या था! उस
लड़की ने तुरंत जे.सी. सर की लंबी फ़ेहरिस्त दे डाली, “वे जे.एन.यू. से पढ़कर आए
हैं, सिर्फ़ सुंदर ही नहीं हैं असामान्य मेधावी भी हैं...मीडिया पढ़ाते हैं....बहुत
पढ़ते हैं और खूब सारी किताबें लिख चुके हैं....पढ़ाते समय अंग्रेज़ी शब्दों का बीच-बीच
में प्रयोग करते हैं। वैसे ये तो कुछ भी नहीं हैं और भी हैंडसम और स्मार्ट शिक्षक
हैं हिन्दी विभाग में...” हालांकि वह खुद भी जानती थी कि जे.सी. जैसे कोई नहीं तभी
सर की कक्षा के पहले भाई को हिन्दी विभाग का दृष्टांत पेश करने के लिए बुलाई थी। दरअसल
मेरी दोस्त इस बात को लेकर परेशान थी कि बंगालियों में हिन्दी विभाग के शिक्षकों
के बारे में एक किस्म की धारणा प्रचलित है जिसे वह बदलना चाहती थी। इसीलिए उसने यह
सारा प्रपंच रचा और पुरानी धारणा को तोड़ने के लिए एकमात्र मुकम्मल इंसान हैं
जे.सी. सर और उनका सम्मोहक व्यक्तित्व।
आदर्श शिक्षक का कोई
पैमाना नहीं होता लेकिन बेहतरीन शिक्षक वह होता है जो विद्यार्थियों में देश की समसामयिक
समस्याओं के प्रति बोध निर्मित करता है। वर्तमान राजनीतिक, समाजार्थिक व
सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति जागरुकता पैदा करता है, लोकतांत्रिक चेतना पैदा
करता है। जे.सी. सर नोट्स आधारित पढ़ाई और नौकरी केन्द्रित पढाई के घोर विरोधी हैं
तो दूसरी ओर प्रयोजन-मुक्त पढ़ाई या ज्ञानार्जित पढ़ाई के प्रबल समर्थक। स्नातकोत्तर
में मीडिया पढ़ाते समय सर साम्प्रदायिकता जैसी समस्या की गंभीरता पर खूब बात करते रहे
हैं। उसके असली कारण और कट्टरपंथी ताकतों के मंसूबों, उपभोक्तावाद, पितृसत्ता की
आंतरिक रणनीति एवं उसके अंतर्विरोध उनकी चिंता के केन्द्र में होते थे। स्त्रीवाद
पढ़ाते समय छात्राओं के अंदर लगातार संवैधानिक अधिकारों को लेकर सचेतनता निर्मित किया
करते थे।
पीएच. डी. के दौरान
शोध-निर्देशक खोजते समय मुझे खासा दिक्कत का सामना करना पड़ा। उसी साल यू.जी.सी.
ने यह नियम तय कर दिया कि किसी भी निर्देशक के अंतर्गत अधिकतम स्कॉलरों की संख्या
आठ होगी। एक तो मेरा कलकत्ता विश्वविद्यालय के किसी भी प्रोफेसर से कोई व्यक्तिगत
जान-पहचान न था, दूसरा, किसी भी निर्देशक के पास जगह खाली न थी। मैंने दो-तीन
कॉलेज के प्रोफेसरों से बात की लेकिन बाद में पता चला कि चूँकि मैं जे.आर.एफ़ थी
सो यह नियम था कि मुझे कलकत्ता विश्वविद्यालय में ही पढ़ाने वाले किसी शिक्षक के
साथ अपना पंजीकरण करना होगा।
मैं ऐसी दशा में
पहुंच चुकी थी कि कोई न ले पाए और मैं अपने जे.आर.एफ. से हाथ धो बैठूं। पंजीकरण
करने के बाद उसका प्रमाण दिल्ली भेजने की अंतिम तारीख में बस एक सप्ताह बाकी था। विश्वविद्यालय
के जे.आर.एफ. विभाग से लगातार तगादा दिया जा रहा था। मेरी आर्थिक परिस्थिति भी ऐसी
न थी कि बिना आर्थिक सहयोग के थीसिस लिख लूँ और वह भी अपने घर से दूर पेयिंग-गेस्ट
में रहकर। एम.ए. प्रथम श्रेणी और जे.आर.एफ. हाथ में लेकर मैं एक प्रोफेसर से दूसरे
प्रोफेसर के पास जाती रही लेकिन नकारात्मकता ही हाथ लगी। किसी प्रोफेसर ने
उत्तरबंग विश्वविद्यालय में आवेदन करने का परामर्श भी दे डाला। ऐसी हताश अवस्था
में एकमात्र सकारात्मक व्यवहार जे.सी. सर से मिला।
हालांकि सर से
जुड़ने के लिए विद्यार्थी दो-ढाई साल तक प्रतीक्षा करते थे लेकिन इस विकट समस्या
और मेरी पीएच.डी. के प्रति प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए अततः जे.सी. सर मेरे
शोध-निर्देशक बनने के लिए राज़ी हो गए। मुझे लेने का एक और कारण मेरा गैर-तिकड़मी
होना भी रहा है, सर तिकड़मी विद्यार्थियों को सख्त नापसंद करते थे। निर्धारित
अंतिम दिन के दो दिन पहले मेरा पीएच.डी. में पंजीकरण हुआ। सर उस दिन साथ न होते तो
न मुझे जे.आर.एफ. की सुविधा मिल पाती न मेरी थीसिस ही लिखी जाती। उनका मानना है कि
लड़कियाँ अनेक बाधाएँ तोड़कर आगे आती हैं, उनकी हर तरह से सहायता की जानी चाहिए। इत्तेफ़ाक
से उनके साथ जुड़े विद्यार्थियों में लड़कियों की संख्या अधिकतम रही है। सर तहेदिल
से चाहते थे कि लड़कियाँ बढ़िया से शोध-प्रबंध लिख ले, इसके लिए सर भरपूर विचारात्मक,
ज्ञानात्मक और किताबों से सहयोग देते रहे। यह भी सत्य है कि पढ़ने, मेहनत करने एवं
किताबें खरीदकर खूब पढ़ने वाले विद्यार्थी उनके प्रिय रहे हैं। शोधार्थियों से घर
का काम करवाना, रसोईघर में सब्ज़ी-पराठे बनवाना उनकी आदत में शुमार नहीं था अपितु
इस तरह की मानसिकता से सर घृणा करते हैं। वहीं अपने घर आए विद्यार्थियों को स्वयं
अपने हाथों से पकाकर खिलाते रहे हैं।
अन्य शोध-निर्देशकों
के अंतर्गत काम करने वाले शोध-छात्राओं की जे.सी. सर को लेकर जो उत्सुकता थी वह काबिल-ए-गौर
और दिलचस्प थी। मेरे शोध-निर्देशक का नाम पता चलते ही किस्म-किस्म के अजीबोगरीब
सवाल विभिन्न विद्यार्थियों के मन के अंधेरे तहों से झांकते हुए मुझ तक पहुँचते थे।
सवालों के साथ-साथ उनके गंभीर सुझाव भी आते थे। कुछ नमूने पढ़िए— “सर से घर में
मिलती हो? अगर घर नहीं जाती हो तो जाना चाहिए। कहाँ बैठती हो? सोफ़े हैं घर में?
कितने रूम हैं? क्या! नहीं पता! तुम्हें घूमकर देखना चाहिए पूरा घर। घर में
डाइनिंग टेबिल है? कहाँ खाते होंगे? घर का राशन सर खुद खरीदते हैं? नौकरानी है घर
पर या सारा काम खुद करते हैं? घर में क्या पहनते हैं?” ऐसे ही कितने गैर-अकादमिक सवाल
थे जो कायदे से शिक्षक को लेकर नहीं पूछे जाने चाहिए। ऐसे ही किसी उत्सुक शोधार्थी(मेरी
हमउम्र) ने शोध-निर्देशक का नाम पूछा तो मैंने बहुत धीरे से कह दिया ‘जे.सी. सर’।
उसे सुनाई न दिया तो ज़रा ज़ोर से कहा। वह सुनते ही चहक उठी, बोली, “सर का नाम
इतने धीरे ले रही हो। तुम भाग्यशाली हो सर मिले हैं बतौर गाइड। तुम्हें सर का नाम
ज़ोर से उच्चारण करना चाहिए।” फिर उच्चारण करके समझाने लगी कि ऐसे कहो। जैसे सर न
हुए इलेक्ट्रिक शॉक हुए! ऐसा था ‘जे.सी.’ नाम का आकर्षण!
बतौर निर्देशक सर ने
सबसे पहली बात जो कही वह थी, प्रथम श्रेणी की किताबें पढ़ोगी; द्वितीय या तृतीय श्रेणी की नहीं। शुरु में मेरे लिए पुस्तकों में प्रथम
और द्वितीय का भेद करना ज़रा मुश्किल था लेकिन काम करते हुए मैं स्वयं इससे वाकिफ़
होने लगी। यह ज्ञान जीवनभर के लिए मेरी पूँजी बनी हुई है। अपने साथ काम करने वाले
विद्यार्थियों को तराश कर निखारने में सर की विशिष्ट भूमिका रही है। मुझे प्रथम
अध्याय ‘जनतंत्र’ पर लिखना था जिसके लिए राजनीति-विज्ञान की किताबों को पढ़ना
ज़रूरी था। मैंने सर से कुछ महत्वपूर्ण किताबों का नाम पूछा तो उन्होंने शुरु में
ही ‘कन्स्टिट्यूशन असेम्ब्ली डिबेट्स’ (Constitution Assembly Debates) पढ़ने के लिए कहा। यह बारह खंडों में विशालकाय किताबों का संकलन है। मैंने
कलकत्ता विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का भरपूर प्रयोग करते हुए सारे खंड पढ़ लिए और
इसने मेरे दृष्टिकोण और लेखन की दिशा को बदलने में अहम भूमिका अदा की।
मैंने पी.एच.डी. के पाँच
साल के अपने कार्यकाल के तहत दो पुस्तकें लिखने का काम किया। पहली, मेरी थीसिस तथा
दूसरी ‘बलात्कार, संस्कृति और स्त्रीवाद’ शीर्षक पुस्तक। यह दुनिया में पहली और
आखिरी घटना होगी कि किसी गाइड ने अपनी शोध-छात्रा को बिना परेशान किए शोध लिख लेने
के बाद बचे हुए कार्यकाल में दूसरी किताब लिखने की अनुमति दे दी। मैंने समय का
सदुपयोग किया और दो किताबों को अंजाम दे दिया। बलात्कार वाली किताब लिखते समय किसी
भी शंका व दुविधा के दौरान लगातार सर से बहुमूल्य सहयोग मिलता रहा।
हालांकि सर ने बतौर शोध-निर्देशक
हर तरह सहयोग किया। लेकिन उनका मानना है कि नौकरी खोजने का कर्म स्वयं का है।
विद्यार्थियों को पीएच.डी. में लेते समय पहले ही कह देते थे कि वे नौकरी लगाने में
मदद नहीं करेंगे। यह जानते हुए भी जो विद्यार्थी उनसे जुड़े हैं उनमें लड़कियों की
संख्या अधिक है। यही वजह है कि जे.सी. सर लड़कियों को साहसी मानते आए हैं। वे
मानकर चलते हैं कि विद्यार्थी अपनी लड़ाई स्वयं लड़ना सीखें। इस तरह वे परनिर्भरता
के बजाय आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देते रहे हैं।
हालांकि सर की विशेषज्ञता का क्षेत्र मीडिया है लेकिन उन्हें राजनीतिक विषय विशेष पसंद है। वे हिन्दी साहित्य तथा साहित्य के अतिरिक्त किसी भी विषय पर चाहे पर्यावरण हो, आदिवासी हो, फ़िल्मी नायक-नायिका हो, पक्षी हो पर ज्ञानवर्धक और सरस ढंग से घंटों बोल सकते हैं। संगोष्ठी में बुलाने वाले उन्हें आम तौर पर स्त्री-विमर्श या मीडिया पर ही बोलने के लिए बुलाते हैं जबकि वे अन्य विषयों पर इतनी गहन जानकारी रखते हैं कि जब तक आप न सुनें आप समझ न पाएं। संगोष्ठियों में अन्य वक्ताओं के बाद जब जे.सी. सर बोलने आते थे तो बोरियत की पराकाष्ठा तक पहुँच चुके सुप्तप्राय श्रोताओं को झकझोर देते थे। सिर्फ़ अपनी तेज़ आवाज़ और दमदार भाषण-शैली से ही नहीं अपने मौलिक दृष्टिकोण से भी वे श्रोताओं में हलचल, जिज्ञासा और कौतूहल पैदा कर देते हैं। यह संभव ही नहीं कि आपने उनका भाषण सुना और उन्हें भूल गए। वे बोलते नहीं हैं सिहरन पैदा करते हैं। उनकी बातें चेतना की गहराई में धँस जाती है, नयी दृष्टि देती है, पढ़ने का नया उत्साह जगाती है। संगोष्ठियों में भाषण के ज़रिये जिनकी धारणाओं का खंडन करते थे, वे उनके तीखे शब्दबाणों से काफ़ी दिन तक घायल पड़े रहते थे।
स्त्री-साहित्य या
स्त्रीवाद पर जितना शानदार भाषण सर देते हैं वैसा ऊर्जस्वित करने वाला भाषण शायद
ही कोई दे पाए। लक्ष्य करने वाली बात यह है कि पितृसत्ता के प्रति उनकी घृणा केवल
लेखन का विषय मात्र नहीं है; उनके
ज़ेहन व उनकी चेतना का अंग है। इसके लिए वे रामचंद्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा
और नामवर सिंह तक को भी नहीं बख्शते। यही वजह है कि स्त्री पर बात करते समय वे
पुंसवाद की परतें खोलकर पुंसवाद की बेहद तीक्ष्ण आलोचना करते हैं। पढ़ाते समय विद्यार्थियों
को दहेज-प्रथा, बुर्क़ा जैसे सामंती आचारों से मुक्त करने का सचेत प्रयत्न भी करते
रहे हैं। इसमें सफल भी हुए हैं। उनके मानवीय आचरण के कुछ नमूने हमारे बैच में ही
घटित हुए। जिस समय मैं एम.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा थी उसी बैच में दो लड़कियाँ
गर्भवती थीं। जुलाई में जिस समय परीक्षा होनी थी उसी समय उनका प्रसव होना था। सो उन्होंने
सर से अनुरोध किया(उस समय जे.सी.सर विभागाध्यक्ष थे) कि परीक्षा कुछ दिन पीछे कर
दी जाए। सर ने परीक्षा सितंबर में तय करके पूरी कक्षा में यह बात कही और उन तीनों
की समस्या के प्रति उदार और संवेदनशील होने के लिए कहा। स्त्रीवादी होना सिर्फ़
लेखन का विषय नहीं है उसे व्यवहार में भी चरितार्थ करना होता है। सर ने हर संभव
तरीके से इसे कर दिखाया।
शिक्षक केवल उन्हीं
विद्यार्थियों के नहीं होते जिन्हें उन्होंने पढ़ाया है। वे हर एक जिज्ञासु के
होते हैं। सर सिर्फ़ विचार और लेखन में ही जनपक्षधर नहीं हैं इसे उन्होंने अपने
कर्म में भी उतारा है। किसी भी निर्देशक के अंतर्गत काम करने वाले विद्यार्थियों
को अगर काम के सिलसिले में कोई सवाल पूछने हों, चाहे वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के
हों या बंगाल के बाहर के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय के हों, सर तुरंत अपने
मौलिक विचारों का सम्भार खोलकर उनके हितयशी बन जाते हैं। कल या परसों फ़ोन कीजिए
या अलां-फलां दिन मिलिए तब हम अपने ज्ञान का पिटारा खोलेंगे या सोचकर बतायेंगे वाली
मनोदशा व व्यक्तित्व सर की कभी नहीं रही। वे तत्क्षण किसी भी विषय पर बिना पूर्व तैयारी
के बोल सकते हैं। किसी भी परिचित या अपरिचित विद्यार्थी की कभी भी मदद कर देते
हैं।
सर को सबसे ज़्यादा
पसंद है अपने साथ जुड़े शोधार्थियों के साथ खुलकर हर विषय पर बात करना और उनकी
बातें सुनना। अधिकांश शिक्षक शोधार्थियों को स्पेस नहीं देते, वे स्वयं बोलते हैं
लेकिन अपने विद्यार्थियों की नहीं सुनते। परंतु जे.सी. सर विद्यार्थियों को एक
स्वतंत्र स्पेस देते रहे हैं। यही वजह है कि उनसे जुड़े सारे शोधार्थी खुलकर अपने
मन के विचार, अपनी दुविधा, व्यक्तिगत दुख-सुख आदि साझा करते रहे हैं और सर से उचित
परामर्श लेते रहे हैं। शोध-विषय से संबंधित बात करने के लिए सर को कभी भी मुकरते
या व्यस्तता का अभिनय करते नहीं देखा। वे तुरंत बुलाते थे और शंकाओं का समाधान कर
कुछ अच्छी पुस्तकों का नाम बताते या कभी-कभी पुस्तक पढ़ने के लिए देते थे। वास्तव
में एक शोध-निर्देशक की भूमिका प्रेरक की होती है। शोधार्थियों को परेशान करना,
उनसे कहना कि एक अध्याय लिखकर लाइए तब फ़ेलोशिप के फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर करेंगे,
उन्हें किसी जगह बुलाकर उनसे न मिलना आदि खराब आदतें उन्हें कतई पसंद नहीं। सर ने
ऐसा कभी किया भी नहीं। वे शोधार्थियों के लिए प्रेरणाश्रोत का काम करते रहे हैं।
सर मेरे लिए हमेशा प्रेरक रहे हैं और सदा रहेंगे।
सर के शख़्सियत की
खासियत है कि वे मार्क्सवादी और उदारचेता दोनों हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के
प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी वे विरोधी विचारधारा के लोगों के साथ सहृदयतापूर्वक
वार्तालाप करते हैं। ज्ञान की अपनी गरिमा होती है। यह गरिमा सर में समाहित है। उनकी
किताब से उनका ज़िक्र न करते हुए हूबहू उतारने वालों के बारे में उनकी राय है कि
करने दो, ज्ञान का विस्तार हो रहा है....यही तो हमारा उद्देश्य है कि जनमानस में नये
और अच्छे विचार फैले।
अब तक सर की लगभग पैंसठ
किताबें प्रकाशित हो चुकी है। वैसे तो उनकी हर किताब महत्वपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक है
लेकिन कुछ खास किताबों का ज़िक्र करना चाहूँगी जिसे हिन्दी साहित्य के हर
विद्यार्थी को पढ़ना चाहिए। मसलन् ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’, ‘मीडिया समग्र’, ‘साहित्य
का इतिहास दर्शन’, ‘उत्तर-आधुनिकतावाद’, ‘कामुकता, पॉर्नोग्राफी और स्त्रीवाद’, ‘उंबर्तो
इको, चिह्नशास्त्र, साहित्य और मीडिया’(मीडिया सिद्धांतकार-4) आदि।
‘स्त्रीवादी साहित्य
विमर्श’ हिन्दी साहित्य में स्त्रीवादी दृष्टिकोण से लिखी गई आलोचना की पहली
पुस्तक है। हिन्दी साहित्य में स्त्री रचनाकारों की पहचान भक्तिकाल में मीरा और
आधुनिक काल में महादेवी तक सिमटकर रह गई थी। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस सीमित
पहचान को विस्तार दिया और पुरुष-आलोचकों की कलम-शिलाओं तले दबी पड़ी उपेक्षिता
कवयित्रियों एवं निबंध लेखिकाओं को उनकी रचनाओं सहित पुनर्जीवित किया।
इतिहास ग्रंथों की
मानें तो निर्गुण काव्यधारा की शुरुआत कबीर एवं अन्य संत पुरुष कवियों से होती है।
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने सावित्री सिन्हा की शोध-पुस्तक ‘मध्यकालीन हिंदी
कवयित्रियाँ’ के हवाले से उमा और पार्वती से भक्तिकाल का एवं निर्गुण काव्यधारा का
आरंभ माना है। उन्होंने मध्यकाल के स्त्री रचित काव्य को दो वर्गों में विभक्त
किया—पहला लोकप्रिय स्त्रीवादी काव्यधारा तथा दूसरा अभिजनवादी स्त्री काव्यधारा।
लोकप्रिय स्त्रीवादी काव्यधारा में उमा, पार्वती, मुक्ताबाई, झीमा चारिणी,
मीराबाई, गंगाबाई, रत्नावली, शेख रंगरेजन, ताज, सुंदर कली, इंद्रामती, दयाबाई,
सहजोबाई आदि कई कवयित्रियाँ आती हैं। अभिजनवादी स्त्री काव्यधारा में महारानी सोन
कुंवरि, वृषभानु कुंवरि, चंपा दे, ठकुरानी काकरेची, मधुर अली, पद्माचारणी, प्रवीण
पातुर राय, रूपवती बेगम, जुगल प्रिया आदि आती हैं।
यह दुखद है कि किसी
भी विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में भक्तिकाल की पहली कवयित्री
के तौर पर उमा और पार्वती की कविताएं अब तक शामिल नहीं हो पाई, अन्य कवयित्रियों
एवं लेखिकाओं की तो बात ही क्या! प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं सुधा सिंह की ‘स्त्री-काव्यधारा’
शीर्षक पुस्तक में इन्हीं मध्यकालीन एवं आधुनिककालीन (सन् 1388-1950 तक) कवयित्रियों
की चुनिंदा कविताएं संकलित है तथा ‘स्वाधीनता-संग्राम, हिन्दी प्रेस और स्त्री का
वैकल्पिक क्षेत्र’ शीर्षक पुस्तक में विभिन्न आधुनिक लेखिकाओं द्वारा देश की
सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों एवं समस्याओं पर लिखा गया विचारशील निबंध संकलित
है।
‘स्त्रीवादी
साहित्य विमर्श’ पुस्तक
पितृसत्तात्मक साहित्य की गंभीर आलोचना तथा स्त्रीवादी साहित्यालोचना की दृष्टि से
स्त्री-साहित्य के इतिहास-लेखन एवं मूल्यांकन पर केन्द्रित है। इस पुस्तक में
संस्कृत स्त्री लेखिकाओं एवं पुरुष लेखकों के काव्यों का विस्तार से विवेचन हुआ
है। स्वतंत्रता-पूर्व एवं स्वातंत्र्योत्तर स्त्री साहित्य, लेस्बियन
स्त्री-साहित्य सैद्धांतिकी पर भी गंभीरता से विवेचन हुआ है। एलेन शोवाल्टर, मिशेल
बरेट, ज्यांक लाकां, लूस इरीगरी, हेलिनी सिक्साउस, एद्रीनी रीच आदि विभिन्न
स्त्रीवादी सिद्धांतकारों के सिद्धांतों एवं स्त्री भाषा संबंधी चिंतन का विश्लेषण
किया गया है। राजेंद्रबाला घोष, उषा देवी मित्रा, कमला चौधरी, होमवती देवी, सत्यवती
मल्लिक, शिवरानी देवी, महादेवी वर्मा से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान तक के
कथा-साहित्य का भी मूल्यांकन हुआ है।
कुल मिलाकर स्त्री
साहित्य एवं विचारधारा की विस्तृत जानकारी हेतु यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के
अध्येताओं के लिए एक बहुमूल्य धरोहर से कम नहीं। इस पुस्तक के प्रकाशित होने का
सकारात्मक परिणाम यह निकला कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में
‘स्त्री-साहित्य’ का समावेश हुआ एवं अनेक अनुसंधानात्मक कार्य भी हुए और लगातार हो
रहे हैं।
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
की दूसरी महत्वपूर्ण कृति ‘मीडिया समग्र’ है। यह कुल ग्यारह खंडों में है। मीडिया
समग्र समय-समय पर प्रकाशित मीडिया संबंधित पुस्तकों में से चुनिन्दा पुस्तकों का
संग्रह है। इसमें हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास का मास-मीडिया के परिप्रेक्ष्य में
विश्लेषण हुआ है। इस पुस्तक में माध्यम, जनमाध्यम से लेकर जनसंचार माध्यम की संचार
क्रांति के इतिहास, उसकी विचारधारा, संस्कृति और समाज के अंतस्संबंधों का विस्तृत
विवेचन हुआ है। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिकता, युद्ध और आतंकवाद, माध्यम
साम्राज्यवाद, ब्लॉगिंग तथा साइबर संस्कृति पर भी पूरी संजीदगी से विचार-विमर्श
हुआ है। कहा जा सकता है कि मीडिया की अंतर्वस्तु, उसकी आंतरिक रणनीति, समाज एवं
संस्कृति पर उसके प्रभाव को समझने के लिहाज से मीडिया समग्र का कोई विकल्प नहीं।
‘साहित्य
का इतिहास दर्शन’ पुस्तक
इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें अस्मिता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य
के इतिहास का पुनरावलोकन हुआ है। हिन्दी साहित्य के जितने भी इतिहास अब तक लिखे गए
हैं वे सब पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लिखे गए हैं। यही वजह है कि उसमें स्त्री और
दलित साहित्येतिहास सिरे से गायब है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने विधेयवादी इतिहास-दृष्टि के अंतर्गत जो नायककेंद्रित मॉडल चुना
है, उससे साम्प्रदायिक नज़रिये का विस्तार होता है। उनका मानना है कि दलित तथा
स्त्री साहित्येतिहास को हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल किया जाए। साथ ही
इतिहास के नए परिप्रेक्ष्य में नई विधाओं जैसे फिल्मी पटकथा, सीरियल पटकथा आदि को
भी हिन्दी साहित्य का हिस्सा माना जाए।
जे.सी. सर के लेखन
की धुरी है अंतर्विषयवर्ती दृष्टिकोण। उनके लेखन का फ़लक काफ़ी बड़ा है। जहाँ
मार्क्सवादी विचारधारा मदद नहीं करती वहां उन्होंने अन्य विचारधारा को अपने मूल्यांकन
का आधार बनाया है। मसलन् स्त्रीवाद, विखंडनवाद, मनोविज्ञान, मानवाधिकार का
दृष्टिकोण आदि। अंतर्विषयवर्ती दृष्टि आधुनिक मार्क्सवादी दृष्टि है जिसका
उन्होंने विभिन्न दायरे के लेखन के क्षेत्र में प्रयोग किया है। उनके लेखों में
मानवाधिकार का दृष्टिकोण भी प्रबल है। भारत जैसे बहुलतावादी सांस्कृतिक देश में
मानवाधिकार के धरातल पर ही समन्वयवादी समाज की स्थापना संभव है।
वर्तमान युग में
किसी भी इंसान के लिए जनतांत्रिक चेतना एवं नज़रिए का विकास बेहद ज़रूरी शर्त है। लोकतंत्र
का अर्थ केवल मतदान नहीं होता;
लोकतंत्र का अर्थ आचरण भी होता है। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक नियम के साथ-साथ
लोकतांत्रिक मनुष्य का अस्तित्व भी ज़रूरी होता है। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना
लोकतंत्र अधूरा है। जे.सी. सर ने लोकतांत्रिक चेतना, लोकतांत्रिक मूल्य तथा
लोकतांत्रिक आचरण को अपने सम्पूर्ण चरित्र में विकसित किया। एक लेखक एवं चिंतक के
तौर पर किसी विचार पर लिखना और बतौर शिक्षक एवं इंसान उस विचार को आचरण में उतारना
मुश्किलदेह हुआ करता है। किसी भी पद-प्रतिष्ठा से मोहमुक्त रहते हुए, एक सामान्य
जीवन जीते हुए सर ने अपने शिक्षण-दायित्व का पूरी ईमानदारी के साथ निर्वाह किया। अपनी
विचारधारा के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध रहते हुए देश की समसामयिक महत्वपूर्ण
समस्याओं पर बिना विचलन के उन्होंने लगातार लिखा और अभी भी लिख रहे हैं। किसी भी
राजनीतिक दल का जनविरोधी पक्ष चाहे वह साम्प्रदायिकता का सवाल हो या जन-उत्पीड़न
का, जे.सी. सर ने उसके खिलाफ़ लगातार अपनी जनपक्षधर आवाज़ उठाई। यही बात एक
लोकतांत्रिक मनुष्य होने का प्रमाण है।
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