वर्तमान दौर में औपनिवेशिक भारत के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं। मसलन् बेकारी,
दरिद्रता, भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानता एवं साम्प्रदायिकता। इनमें साम्प्रदायिकता
राजनीतिक तौर पर एक संवेदनशील मुद्दा है। आज इक्कीसवीं सदी में भी साम्प्रदायिकता
एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में समाज पर हावी है जिसका मूल लक्ष्य सामाजिक विभाजन
एवं घृणा पैदा करना है। इस तरह के सामाजिक अवमूल्यन के दौर में भीष्म साहनी का
नाटक ‘कबीरा खड़ा बजार में’ का पुनर्मूल्यांकन करना प्रासंगिक होगा।
‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी ने शोषण, अछूत
समस्या एवं साम्प्रदायिकता का विरोध किया है। तीन अंकों वाले इस नाटक में
राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक पतन को व्यापक धरातल पर उजागर किया गया है। साथ ही
साम्प्रदायिक सद्भाव के विभिन्न पक्षों को चित्रित किया गया है। अमूमन
साम्प्रदायिकता पर बात करते समय उसके समस्यामूलक पहलु पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता
है लेकिन भीष्म साहनी साम्प्रदायिक सद्भाव के परिप्रेक्ष्य में मानवीय उदात्तता का
चित्रण करते हैं। साथ ही धर्मनिरपेक्षता और मिश्रित संस्कृति पर ज़ोर देते हैं।
वस्तुतः ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी वर्तमान
असहिष्णु माहौल में कबीर की प्रासंगिकता को उद्घाटित करते हैं। इस कृति में कबीर
की युगप्रवर्तक सोच एवं अलमस्त व्यक्तित्व को पूर्ण जीवंतता के साथ उभारा गया है।
कबीर के सत्रह पदों को आधार बनाकर इस नाटक का ताना-बाना बुना गया है। वर्तमान
सामाजिक विकृतियों को तोड़ने में कबीर के पद आज भी सक्षम हैं।
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी के अनुसार, “साम्प्रदायिकता का कोई धर्म
नहीं होता। वह न तो धर्म के तर्क को मानती है, न संविधान के तर्क को मानती है, न
नागरिक समाज के तर्क को मानती है.........साम्प्रदायिकता वस्तुतः आधुनिक वैचारिक
प्रपंच है। किंतु इसके तर्क और लक्ष्यों का निर्माण ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ।”[1]
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने धार्मिक अस्मिता पर ज़ोर दिया। धार्मिक
अस्मिता की इस राजनीति के ताने-बाने को भीष्म साहनी बखूबी पहचानते थे। इसीलिए
उन्होंने ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक में कबीर के ज़रिये मिश्रित धार्मिक परंपराओं
पर ज़ोर दिया।
भीष्म साहनी ने जिस समय यह नाटक लिखा उस समय हमारे देश में राममंदिर
आंदोलन पूरे जोशो-खरोश में था। साम्प्रदायिक घृणा का जन-माध्यमों के ज़रिये प्रचार
हो रहा था। ये लोग बार-बार भारत में ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू संस्कृति’, ‘हिन्दू
परंपरा’ पर ज़ोर दे रहे थे। इसके प्रत्युत्तर में भीष्म साहनी ने भारत की मिश्रित
संस्कृति, सभ्यता एवं आचार-व्यवहार के साथ मिश्रित मूल्य-व्यवस्था को इस नाटक में
कबीर के बहाने चित्रित किया। साम्प्रदायिकता की विषम समस्या को पहचानते हुए कबीर
के द्वारा मानव-मानव के बीच प्रेम का संदेश दिया। इस नाटक में कबीर कहते हैं,
“हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी
क्या।”[2]
ब्रिटिश शासकों ने साम्प्रदायिकता को धार्मिक अस्मिता से जोड़ा। बाद
में साम्प्रदायिक शक्तियों ने सत्ता की लालसा एवं व्यापक जनाधार के निर्माण के
उद्देश्य से प्रेरित होकर हिन्दू एवं मुस्लिम दो सम्प्रदायों के बीच विभाजन तेज़
किया और अस्मिता के ह्रासशील रूपों का इस्तेमाल किया। आज़ादी के आंदोलन के दौरान
सन् 1920 से लेकर 1947 के बीच में यह संवृत्ति व्यापक तौर पर दिखाई देती है। बाद
में सन् 1980 से यह संवृत्ति केन्द्र में आया। इसका अर्थ है कि साम्प्रदायिकता कभी
भी मौका पाते ही केन्द्र में आ सकती है।
सन् 1980 के बाद भारत में उपभोक्तावाद का उभार आया। साम्प्रदायिक
राजनीति के मुद्दे आए, साम्प्रदायिक दंगों की बाढ़ आई। उस समय आर्थिक उदारीकरण के
नाम पर विश्व-बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की नीतियों के अंधानुकरण की ओर
सत्ता मुखातिब हुई। हिन्दू एवं मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अपनी-अपनी माँगों के
आधार पर सत्ता पर दबाव डाले एवं विभिन्न तरह के राजनीतिक लाभ प्राप्त किए। इसी दौर
में धर्म का ह्रास हुआ, धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का आक्रामक चेहरा सामने आया।
इसी समय अप्रैल, सन् 1981 में त्रिवेणी के खुले नाटकगृह में श्री. एम.
के. रैना के कुशल निर्देशन में ‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक का मंचन हुआ। उस समय
देश में भयानक अपसंस्कृति का माहौल था। साम्प्रदायिकता का मूल लक्ष्य ‘संस्कृति’
को ध्वस्त करना है और इसी के ज़रिये वह अपना प्रसार करता है। भीष्म साहनी ने बड़े
कौशल से इस नाटक के लिए कबीर जैसे व्यक्तित्व को चुना एवं उनके पदों के द्वारा
‘संस्कृति’ पर बल दिया। साथ ही साम्प्रदायिक सद्भाव जैसे विषय को रंगमंच से जोड़ा।
इसका नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिकता जैसे गंभीर विषय को लेकर लोग सचेत हुए। नाटक
की भूमिका में भीष्म साहनी ने लिखा है, “नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार,
तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके निर्भीक, सत्यान्वेषी, प्रखर
व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है।”[3]
इस नाटक को आधार बनाकर भीष्म साहनी कबीरकालीन सामाजिक परिस्थिति का
दृश्य उपस्थित करते हैं और उसके बहाने वर्तमान सामाजिक अस्थिरता और अवमूल्यन से
जुड़ी समस्याओं के हल तलाशते हैं। आज से करीब छह सौ वर्ष पूर्व कबीर ने अपने समाज
में व्याप्त जाति-भेद, वर्ग-भेद, सम्प्रदाय-भेद का विरोध किया था, वे सभी तत्व आज
भी भारतीय समाज पर हावी है।
साम्प्रदायिकता से बहस के दौरान धर्म और धार्मिकता के भेद को जानना
बेहद ज़रूरी है। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इन दोनों के अंतर का खुलासा किया है,
“धर्म ने सहिष्णु बनाया, मानवीय बनाया, सामंजस्यवाद और सम्मिश्रण पर ज़ोर दिया।
इसके विपरीत धार्मिकता ने असहिष्णु, अमानवीय, दौलत का दास और उपभोक्ता बनाया।”[4]
धर्म उपासना का विषय है किंतु जब यही धर्म प्रदर्शन की चीज़ में
तब्दील हो जाता है तो वह उपभोग की वस्तु बन जाता है। सामाजिक तौर पर इस तरह का
विनिमय धर्म को धार्मिकता या साम्प्रदायिकता में बदल देता है। धर्म के इस प्रदर्शन
के खिलाफ़ कबीर अपने युग में सक्रिय बने रहे तथा धार्मिक प्रदर्शन से धर्म को पृथक
किया।
नाटक में सिकंदर लोदी जब कबीर से यह पूछता है, “तेरा मज़हब क्या है?”
तो कबीर इसका जवाब यह कहकर देते हैं,
“एक निरंजन अल्लाह मेरा, हिन्दू-तुर्क दुहीं नहीं मेरा
पूजा करूँ, न नमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमस्कारूँ
न हज जाऊँ, न तीरथ-पूजा, एक
पिछाण्या तो क्या दूजा
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरन्तर
सूँ मन लागा।”[5]
ऐसे जवाबों के फलस्वरूप कबीर पर जुल्म भी हुए जिसका पूरा विवरण नाटक
में मौजूद है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों के आडम्बरमय जीवन का भंडाफोड़ कर उन पर
कुठाराघात करने वाले कबीर को नगरू-कोतवाल की ओर से यातनाएँ दी गईं।
जाति-भेद, वर्ग-भेद के उन्मूलनार्थ जब कबीर अपने मित्र रैदास के साथ
सत्संग करते हैं तो उधर उसकी झोपड़ी में आग लगा दी जाती है। इसके बावजूद धर्म और
धार्मिकता के भेद को लक्ष्य कर कबीर कहते हैं,
“मोको कहाँ ढूँढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलास में।”[6]
लोदी राज्यकाल में कुटीर उद्योगों की दुर्दशा को बड़ी कुशलता से इस
नाटक में दर्शाया गया है। महन्तों, मौलवियों एवं साधुओं के आधिपत्य तले दबे अछूतों
की जिन्दगी कितनी बदतर हो सकती है, इसका दृष्टांत इस नाटक में है। कबीर के पदों को
जब एक दीन-हीन भिखारी अपनी आजीविका प्राप्त करने हेतु गाता है तो उसे दण्ड स्वरूप
अपनी जात गँवानी पड़ती है। इस घटना के माध्यम से भीष्म साहनी साम्प्रदायिकता के
असहिष्णु एवं बर्बर रूप की ओर ध्यान खींचते हैं।
मनुष्य मात्र के प्रति समदृष्टि ही कबीर का मूल मंत्र था। नाटक में इस
समदृष्टि की भावना का सुन्दर खुलासा हुआ है। हिन्दू-मुस्लिम में भेदभावपूर्ण
दृष्टि रखने वाले सुल्तान सिकंदर लोदी को कबीर तर्क देते हैं, “मैं इंसान को
हिन्दू और तुर्क की नज़र से नहीं देखता, मैं उसे केवल इन्सान की नज़र से, खुदा के
बन्दे की नज़र से देखता हूँ।”[7]
धर्म के नाम पर चल रहे उत्पीड़न का समूल नाश करने के लिए कबीर अपने
युग में तत्पर हुए थे। यही कारण है कि भीष्म साहनी ने कबीर जैसे दृढ़ व्यक्तित्व को
चुना एवं उनके पदों के द्वारा समाज में व्याप्त तानाशाही, धर्मान्धता एवं
बाह्याचार को दूर करने का प्रयत्न किया। मध्यकालीन माहौल में संघर्ष करने वाले
कबीर को उनके सामाजिक एवं पारिवारिक संदर्भ सहित इस नाटक में चित्रित किया गया है
जो नाटक के मंचन के समय से लेकर आज इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक है। भीष्म
साहनी ने इस नाटक के जरिये मिश्रित सभ्यता, मिश्रित संस्कृति, मिश्रित धर्म और
बहुलतावाद को प्रतिष्ठित किया है।
आज साम्प्रदायिकता का दायरा व्यक्तिगत संबंधों से लेकर स्थानीय,
संस्थागत और राष्ट्रीय राजनीति तक फैला हुआ है जिसका विस्फोट साम्प्रदायिक दंगों
के रूप में दिखाई देता है। साम्प्रदायिकता के लिए आज सामाजिक और राजनीतिक संबंधों
का पूरा ताना-बाना मौजूद है जिनके ऊपर साम्प्रदायिक और फासीवादी शक्तियों की
राजनीति चल रही है। अभी धर्म को बाज़ार के अनुरूप ढालने की कोशिश जारी है।
धार्मिकता का प्रत्यक्ष संबंध बहुराष्ट्रीय पूँजी के हितों से जुड़ गया है।
उपभोक्तावाद के बढ़ते वर्चस्व के कारण धार्मिक कट्टरता भी बढ़ी है। बड़ी-बड़ी
कंपनियाँ पुराने मूल्यों, संस्कारों एवं मान्यताओं को नए आवरण में प्रस्तुत कर
लोगों को आकर्षित कर रही हैं। साथ ही धर्म भावना को धार्मिक कट्टरता में बदल रही
है। देश की राजनीतिक सत्ता भी अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु सामप्रदायिकता के दबदबे
को कायम रखना चाहती है।
इस संकटकालीन परिस्थिति में साम्प्रदायिकता की संकीर्ण मनोवृत्ति एवं
राजनीति को ध्वस्त करने के लिए ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता है जिनकी वाणी का मूल
धर्मनिरपेक्षता की भावना से प्रेरित हो। यही कारण है कि भीष्म साहनी ने कबीर को
युग-प्रवर्तक के रूप में खड़ा किया है। जिस प्रकार मध्यकालीन समाज में कबीर बजार
में खड़े होकर अपने पदों के द्वारा युग का मार्गदर्शन कर रहे थे, उसी तरह आज के
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भी साम्प्रदायिकता एवं सामाजिक अवमूल्यन के विरोध में
कबीर की वाणी ही आम जनता का मार्ग-दर्शन कर सकती है।
[1]
. चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडिया समग्र-5,
स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ.- 81
[2]
. साहनी, भीष्म, कबीरा खड़ा बजार में,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.- 108
[3]
. साहनी, भीष्म, कबीरा खड़ा बजार में,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981, पृ.- 9
[4] . चतुर्वेदी, जगदीश्वर, मीडिया समग्र-5, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृ.- 84
[5]
. वही, पृ.- 127
[6]
. वही, पृ.- 72
[7]
. वही, पृ.- 126
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