Saturday 25 August 2012

अब गुस्सा पैदा क्यों नहीं करते बलात्कार के आंकड़े


भारत में आज एक बड़ी तादाद में स्त्रियां यौन-उत्पीड़न की शिकार हैं।बलात्कार स्त्री जीवन का एक खुला सच है जिसने स्त्री-शरीर और स्त्री-मन के साथ-साथ स्त्री-जीवन को गहरे तक प्रभावित किया है। नेशनल क्राइम ब्यूरो  के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार पूरे देश में प्रति घंटे दो बलात्कार किए जाते हैं।बलात्कार के इस संकटजनक इजाफे को देखते हुए  रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर ने दिल्ली में 2010 के शुरु से जुलाई 2011 में हुए बलात्कारों पर दर्ज एफ.आइ.आर. का गहन अध्ययन किया।इसके दौरान यह पाया गया कि 66%  बलात्कार-पीड़ित लड़कियां बीस साल की उम्र के नीचे की हैं जिनमें 22% की उम्र दस साल के भी नीचे है।दूसरी ओर 67% बलात्कारी की उम्र बीस साल के ऊपर है।यह गौरतलब है कि बलात्कारी मूलतः पीड़ित लड़की के जाने-पहचाने होते हैं जिनमें रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त, शिक्षक और अन्य संबंधी होते हैं।बहुत कम मामलों में अपरिचितों द्वारा बलात्कार हो रहे हैं।मसलन् 58 पीड़ितों में 51 जान-पहचान के बाकी 7 अपरिचित होते हैं। ट्रस्ट लॉ वोमेन द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण के अनुसार भारत स्त्रियों के लिए दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है।
                          चिंता की बात यह है कि अक्सर भारत में बलात्कार-पीड़ितों को बलात्कार के उत्प्रेरक के रुप में देखा जाता है ना कि पीड़िता के रुप में।उस पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह अकेली क्यों थी,रात में असुरक्षित जगह में बाहर क्या कर रही थी, उत्तेजक और पारदर्शी कपड़े क्यों पहनी हुई थी आदि। इसका सीधा अर्थ यह है कि बलात्कार के लिए खुद लड़की, उसके कपड़े, उसका रवैय्या जिम्मेदार है।इस तरह की टिप्पणियां लोगों की पिछड़ी और रुढ़िवादी मानसिकता का बोध कराती है।इस तरह का चिंतन स्त्री अपराध को स्थायी बनाता है और स्त्री की गहरी क्षति करता है।साथ ही देश और समाज में स्त्री के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाने में बाधक है। कायदे से बलात्कार के मामले की विस्तृत खोज होनी चाहिए।सही समय पर घटनास्थल पर पुलिस के न आने का कारण पूछना चाहिए,पीड़ित लड़की के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होना चाहिए किंतु होता इसका उलटा है।
                           यह देखा गया है कि अधिकांश मामलों में लड़कियां निजी शर्म की वजह से बलात्कार की रिर्पोट दर्ज नहीं करातीं।किंतु यदि कोई लड़की साहस करके ऐसा करती है तो उसे बेहद खराब टिप्पणी से दो-चार होना पड़ता है।खुली अदालत में उसे बलात्कार सिद्ध करने के लिए अनेक अपमानजनक और आपत्तिजनक सवालों और कुतर्कों से गुज़रना पड़ता है। बलात्कार सिद्ध होने पर उसे समाज में हिकारत भरी नजर से देखा जाता है।कई मामलों में वह परिवार और समाज द्वारा बहिष्कृत भी होती है।यहां तक कि स्त्रियों का एक तबका है जो पानी में डूब मरोजैसी घटिया टिप्पणी बलात्कार की शिकार लड़की पर उछालता नजर आता है।  यह भारतीय स्त्रियों के जेहन में बसी कुंठित, विकृत और अवैज्ञानिक सोच को सामने लाता है।
                           अनेक समय ऐसा होता है कि बलात्कार-पीड़िता का सामाजिक स्तर निम्न होने की वजह से उसके मामले को हल्के रुप में लिया जाता है और दोषी को अल्पतम सजा सुनाई जाती है। 
                           स्वाभाविक तौर पर समाज ने स्त्रियों में असुरक्षा के भय को स्थायी बनाया है।इसका दूरगामी असर यह हुआ है कि घर में और बाहर स्त्रियों पर अनेक तरह की रोक लगायी जाती है। रात में बाहर मत रहोचुस्त और खुले कपड़े मत पहनोरात में कार मत चलाओपुरुषों से ज्यादा बात मत करो आदि सावधानी-मूलक हिदायतें दी जाती हैं।साथ ही घर से बाहर जाने की आज़ादी में हस्तक्षेप किया जाता  है।मसलन् कहां जा रही होकिससे मिलनेकब तक लौटोगीज्यादा देर मत करना जैसे सवालों के घेरे में स्त्रियां हमेशा कैद रहती हैं।
                           लेकिन सोचने की बात है कि क्या इस तरह स्त्रियों की आज़ादी पर सेंसर करके बलात्कार की घटनाएं कम हो सकती हैं ? हालांकि तथ्य बताते हैं कि बलात्कारी मूलतः जान-पहचान के होते हैं। ज्यादातर मामलों में तो रिश्तेदार ही बलात्कार के दोषी पाए गए हैं। सवाल उठता है कि तो क्या बलात्कार के डर से स्त्रियां घर में ही कैद रहें और अपनी मूलभूत संवैधानिक आज़ादी से वंचित हो उत्पीड़ित होती रहें ? कतई नहीं। यहीं पर हमें अपनी पुंसवादी मानसिकता में फेर-बदल करने की ज़रुरत है। स्त्री-सुरक्षा के लिए हमें नए और वैज्ञानिक उपायों की ओर बढ़ना चाहिए जिससे स्त्रियां निडर होकर सड़कों पर चल सकें ,बे-झिझक सार्वजनिक वाहन की सवारी कर सकें और हर एक सामाजिक सुविधा का उपभोग कर सकें।  
                           आज स्त्री-सशक्तिकरण बेहद ज़रुरी मुद्दा है। इसके लिए ज़रुरी है स्त्री-शिक्षा जिससे स्त्रियों में सचेतनता बढ़े।बलात्कार और छेड़छाड़ के विरुद्ध जो कानूनी अधिकार हैं,उनके प्रति वे सतर्क और जागरुक बनें।साथ ही स्त्रियां सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में शिरकत करें जिससे उनमें आत्मविश्वास का बोध जगे।यह भी बहुत ज़रुरी है कि लड़की के साथ परिवारवालों का मित्रतापूर्ण रवैय्या हो जिससे वे अपनी डर ,शंकाओं और चिंताओं को साझा कर सकें और आने वाले खतरों से मुक्त हो सकें।बलात्कार-पीड़िता के प्रति दुर्व्यवहार न कर उसके असुरक्षा-बोध या भय को दूर करना चाहिए जिससे वह डिप्रेशन आदि की शिकार न हो जाए।आत्महत्या की कोशिश न करे।समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता को तोड़कर एक वैज्ञानिक सोच को विकसित किया जाए जिससे आने वाले समय में स्त्रियां शारीरिक उत्पीड़न से मुक्त होकर एक सुरक्षित माहौल में खुली सांस ले सकें।अपने जीवन को मुक्त रुप से जी सकें।  

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